पंचायतो की लूट छिपाती सरकार

उ.प्र. राज्य के बहुप्रतीक्षित बहु प्रचारित 2010 के पंचायत चुनाव अब तक हुए चुनावो के सबसे भव्यतम स्तर के साथ सम्पन्न हो गये। जिसने विधान सभा व लोकसभा के चुनावों को हर आयाम में पीछे छोड़ दिया है। इस चुनाव में लगभग दस करोड़ मतदाताओं ने अपने मताधिकार प्रयोग किया। पंचायत चुनाव में पैसे और शराब की दख़ल को देख कर भ्रष्ट्राचार मुक्त पारदर्शी पंचायतों के संचालन की कल्पना करने वालो की रूह काँप गई है।

इस पूरी भव्यता के पीछे सिर्फ एक कारक है। पंचायतों में विकास के नाम पर आने वाली अथाह धनराशि यू तो यह पैसा लगभग बीस वर्षों पूर्व से ही आना शुरू हो गया भूतपूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी के समय से और सीधे भ्रष्ट्राचार की भेंट भी चढना शुरू हो गया था इसकी भनक भी राजीव गाँधी को लग गई थी और उनकी बहुत ही प्रसिद्ध टिप्पणी की "दिल्ली से भेजे गये एक रूपये का सिर्फ पन्द्रह पैसा ही गांवों को पहुंचता है" इस लुट की पुष्टि के लिए काफी हैं। फिर भी यह बात समझ से परे है कि उनकी पत्नी के नेतृत्व में चलने वाली केन्द्रीय सरकार ने इस लूट की बिना रोकथाम और कारगर निगरानी तंत्र के बनाये बिना (सूचना अधिकार अधिनियम २००५ के झुनझुना के सिवाय) नरेगा/मनरेगा जैसी महत्वाकांक्षी योजना और इसके क्रियान्यवन के लिये पुन: अथाह धनराशि देना उनकी सरकार की नीति नियत में गहरी साजिश का हिस्सा जान पड़ता है।

अरविन्द मूर्ति

आंबेडकर जी की याद

भारत के महान अर्थशास्त्री, विधिशास्त्री, उत्पीड़ितों, वंचितो के मसीहा भारत रत्न बाबा साहब डॉ. भीमराव आंबेडकर के द्वारा दे के नव निर्माण में उनकी सर्वमुखी प्रतिमा के योगदान की याद आते ही उनके परिनिर्वाण दिवस 6 दिसम्बर की याद आती है। इस तारीख को आम्बेडकर के विचार, सिद्धांतों को मानने वाले उनके अनुयायी बड़े धूम-धाम से मनाते हैं। और उनके जीवन संघर्षों, सिद्धान्तों और भारतीय संविधान निर्माण के कार्यों की चर्चा करते हुए अगली पीढ़ी को भी अवगत कराने का प्रयास करते है। 6 दिसम्बर 1992 की याद आते ही मन विक्षोभ से भर जाता है। जब इस तारीख को सोची समझी और पूर्व निर्धारित तिथि के मुताबिक अयोध्या में स्थिति बाबरी मस्जिद को कानून, संविधान को अंगूठा दिखाते हुए ध्वस्त कर दिया गया। यह हिन्दूवादी लोगों द्वारा बाबा साहब के हिन्दू धर्म छोड़ने के अपमान के बदले उनका अपमान करने की और उनके द्वारा बनाये गये संविधान को न मानने की खुली घोषणा का प्रतीक है। दूसरे चरण में बाबरी मस्जिद की जमीन के मालिकाने हक के चल रहे मुकदमे में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खण्ड पीठ के फैसले ने एक बार फिर संकेत दिया कि इस संविधान की क्या बिसात ? दुनिया की नंगी, खुली आँखों के सामने जबरन रखी गई मूर्तियाँ मस्जिद में हिस्सेदार हो गई न्यायिक प्रक्रिया द्वारा और मूर्ति रखने व मस्जिद ध्वस्त करने वाले अपराधियों को इस न्यायिक व्यवस्था में कोई सजा नहीं यह बात किस बात का प्रतीक...है।

डॉ बिनायक सेन की उम्र कैद के कोर्ट के निर्णय के विरोध में धरना

स्थान: शहीद स्मारक, रेसीडेंसी के सामने, लखनऊ
समय: ११-१ बजे
तिथि: ३१ दिसम्बर २०१०

रायपुर के जिला एवं 'सेशन' कोर्ट के निर्णय पर हम सब अत्यंत चिंता व्यक्त करते हैं जिसमें डॉ बिनायक सेन पर राजद्रोह, छल एवं षड़यंत्र रचने जैसे आरोप लगे हैं, और उनको उम्र कैद की सजा सुने गयी है। ये एक और उदहारण है जहां सरकार को झूठे सबूतों के आधार पर एक बेक़सूर व्यक्ति को सजा देने में सफलता मिली है। हम सब, व्यक्तिगत रूप से और विभिन्न सामाजिक संगठनों के सदस्य के रूप में इस निर्णय को अस्वीकार करते हैं।

हम सब, डॉ बिनायक सेन के ऊपर लगाये गए आरोपों का, और उनके लिये कोर्ट द्वारा घोषित सजा का खंडन करते हैं क्योंकि हमारा मानना है कि यह लोकतंत्र पर एक भीषण प्रहार है। हम उम्मीद करते हैं कि उच्च-स्तरीय न्यायालय उनको बिना-विलम्ब रिहा करेगा और यह सुनिश्चित करेगा कि न डॉ बिनायक सेन पर और न ही मानवाधिकार आन्दोलन पर कोई और प्रहार हो।

हम सब हर उस प्रयास का समर्थन करेंगे जो डॉ बिनायक सेन को न्याय दिलाने के लिये होगा।

डॉ रमेश दीक्षित - लखनऊ विश्वविद्यालय
डॉ वंदना मिश्रा (पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिब्रटीस)
अरुंधती धुरु (जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय - एन--पी-एम)

अधिक जानकारी के लिये संपर्क करें: अरुंधती धुरु, ९४१५० २२७७२

पूना पैक्ट का दलितों पर प्रभाव

-माता प्रसाद, पूर्व राज्यपाल

(भारत रत्न बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर के 54 निवार्ण दिवस पर हम इस बार दो लेख पूना पैक्ट पर छाप रहे चूंकि दोनों लेख पैक्ट के समर्थन में ही है, हम एक स्वस्थ बहस इस पर आमंत्रित कर रहे, जिसका उद्देश्य आज की मौजूदा दलित राजनीति और पूना पैक्ट का दीर्घकालिक प्रभाव का विवके संगत वि’लेषण हो यह लेख भारतीय दलित साहित्यकार सम्मेलन की पत्रिका प्रज्ञा मंथन से साभार-सम्पादक)

स्वतंत्र भारत के पूर्व, स्वतंत्र भारत का संविधान बनाने के लिए ब्रिटेन की सरकार ने, भारत के सभी राजनैतिक दलों, नवाबों के प्रतिनिधियों और कुछ निर्दलीय बुद्धिजीवियों की एक गोल मेज कोंफ्रेंस लंदन में बुलाई जिसमें दलित प्रतिनिधि के रूप में डॉ.बी.आर. आंबेडकर और राय साहब श्री निवासन भी आमंत्रित थे। निर्दलियों से सर, तेज बहादुर सप्रु० और सी० वाई चिन्तामणि भी उसमें सम्मिलित थे। इसकी पहली बैठक १२ नवम्बर १९३० ई० से १८ जनवरी १९३१ ई० तक तथा दूसरी बैठक ०७ सितम्बर १९३१ से ०९ दिसम्बर १९३१ ई० तक लंदन में चली। जिसकी अध्यक्षता ब्रिटिश प्रधानमंत्री सर रैमजे मैकानाल्ड ने की थी। इन बैठकों में डॉ. अम्बेडकर ने भारत में दलितों की दुर्दशा बताते हुए उनकी सामाजिक, राजनीतिक स्थिति में सुधार के लिए दलितों के लिए "पृथक निर्वाचन" की मांग रखी। पृथक निर्वाचन में दलितों को दो मत देना होता जिसमें एक मत दलित मतदाता, केवल दलित उम्मीदवार को देते और दूसरा मत वे जनरल कास्ट के उम्मीदवार को। महात्मा गाँधी ने डॉ. अम्बेडकर के पृथक निर्वाचन की इस मांग का विरोध किया । दोनों कांफ्रेंसों में सर्वसम्मति से निर्णय न होने पर सभी ने ब्रिटिश प्रधानमन्त्री पर इसका निर्णय लेने की जिम्मेदारी छोड़ दिया और कांफ्रेंस ख़त्म हो गयी।

ब्रिटिश प्रधानमंत्री सर रैमजे मैकानाल्ड ने १७ अगस्त १९३२ ई० को कम्युनल एवार्ड की घोषणा की उसमें दलितों के पृथक निर्वाचन की मांग को स्वीकार कर लिया था। जब गांधी जी को इसकी सूचना मिली, तो उन्होंने इसका विरोध किया और २० सितम्बर १९३२ ई ० को इसके विरोध में यरवदा जेल में आमरण अनशन करने की घोषणा कर दी। महात्मा गाँधी जहां पृथक निर्वाचन के विरोध में अनशन कर रहे थे वही पर डॉ० अम्बेडकर के समर्थक पृथक निर्वाचान के पक्ष में खुशियाँ मना रहे थे इसलिए दोनों समर्थकों में झड़पें होने लगी। तीसरे दिन गाँधी जी की दशा बिगड़ने लगी तब डॉ.अम्बेडकर पर दबाव बढ़ा कि वह अपनी पृथक निर्वाचन की मांग को वापस ले लें किन्तु उन्होंने अपनी मांग वापस न लेने को कहा। उधर गाँधी जी भी अपने अनशन पर अड़े रहे। इन दोनों के बीच सर तेज बहादुर सप्रू बात करके कोई बीच का रास्ता निकालने का प्रयास कर रहे थे। २४ सितम्बर १९३२ ई० को सर तेज बहादुर सप्रू ने दोनों से मिलकर एक समझौता तैयार किया जिसमें डॉ.आंबेडकर को पृथक निर्वाचन की मांग को वापस लेना था और गाँधी जी के दलितों को केन्द्रीय और राज्यों की विधान सभाओं एवं स्थानीय संस्थाओं में दलितों की जनसंख्या के अनुसार प्रतिनिधित्व देना एवं सरकारी नौकरियों में भी प्रतिनिधित्व देना था। इसके अलावा शैक्षिक संस्थाओं में दलितों को विशेष सुविधाएं देना भी था। दोनों नेता इस समझौते पर सहमत हो गये। २४ सितम्बर १९३२ को इस समझौते पर सहमत हो गये। २४ सितम्बर १९३२ ई० को इस समझौते पर गाँधी जी और डॉ. अम्बेडकर ने तथा इनके सभी समर्थकों ने अपने हस्ताक्षर कर दिए। इस समझौते को "पूना पैक्ट" कहा गया। पूना पैक्ट में ही दलितों के लिए आरक्षण की व्यवस्था उनके उन्नति की आधारशिला बनी।

पूना पैक्ट में दलितों के आरक्षण के कारण उनकी आर्थिक, शैक्षिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक स्थिति में सुधार आया है। किन्तु कुछ लोग पूना पैक्ट को दलितों के लिए हानिकारक बताकर उसका विरोध कर रहे हैं। विशेषकर बसपा समर्थकों का विरोध एक फैशन बन गया है। जबकि आरक्षण के कारण ही दलितों में सशक्तिकरण की प्रक्रिया शुरू हुई है।

पूना पैक्ट विरोधियों के अनुसार यदि पृथक निर्वाचन को मान लिया जाता तो क्या स्थिति होती ? देश के लोग दो भागों में बँट जाते, एक पृथक निर्वाचन के समर्थक, दूसरी ओर सारे गौर दलित जिनमे पिछड़ी जातियां और अल्पसंख्यक भी सम्मिलित होते, क्योंकि पृथक निर्वाचन में पिछड़ी जातियों का आरक्षण सम्मिलित नहीं था। पृथक निर्वाचन में दलित दो वोट देता एक जनरल कास्ट के उम्मीदवार को ओर दूसरा दलित उम्मीदवार को। ऐसी स्थिति में दलितों द्वारा चुना गया दलित उम्मीदवार दलितों की समस्या को अच्छी तरह से तो रख सकता था किन्तु गैर उम्मीदवार के लिए यह जरूरी नहीं था कि उनकी समस्याओं के समाधान का प्रयास करता। आज भी देखने में आ रहा है कि गैर दलित उम्मीदवार को दलित अपना मत देता है किन्तु गैर दलित उम्मीदवार उनकी कितनी सहायता करते है यह बताने कि आवश्यकता नहीं है। ऐसी दशा में विरुद्ध बहुमत हो जाता ओर दलितों को अधिक कठिनाईयां उठानी पडती। दो समुदायों में बँट जाने पर इनमें कटुता पैदा होती, मजदूर ओर गरीब दलित को गांवों में इसका खामियाजा भुगतना पड़ता। डॉ.अम्बेडकर ने इसी स्थिति को समझ कर ही उस समय की परिस्थिति में पूना पैक्ट करना आवश्यक समझा। यदि पृथक निर्वाचन की स्थिति मान ली जाती तो उस स्थिति में क्या कोई दलित भारत का राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, अध्यक्ष लोकसभा, मुख्य मंत्री, सुप्रीम कोर्ट का प्रधान न्यायाधीश अथवा अन्य संवैधानिक पदों पर जा पाता ? आज बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर के बनाए हुए संविधान की प्रशंसा करते हुए सभी दलित नहीं अघाते। यदि पृथक निर्वाचन की स्थिति होती तो क्या डॉ.आंबेडकर को भारत का संविधान बनाने का अवसर मिलता ?

डॉ.अम्बेडकर की पृथक निर्वाचन की मांग छोड़ देने एवं दलितों के लिए वर्तमान आरक्षण व्यवस्था को मान लेने की स्थिति के संबंध में प्रसिद्ध बौद्ध विचारक, जे.एन.यू. नई दिल्ली के प्रोफ़ेसर डॉ. तुलसी राम कहते हैं 'पूना पैक्ट के ही चलते स्वंतत्र भारत में आरक्षण की नीति लागू हुई जिससे लाखों लाख दलितों का शैक्षिक, आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक सबलीकरण हुआ। मगर बसपा समर्थक दलित पूना पैक्ट को सिरे से खारिज करके उसे दलितों के साथ गाँधी जी की दगाबाजी बताते हैं। स्वयं कांशीराम ने पूना पैक्ट का विश्लेषण करते हुए चमचायुग नाम की एक पुस्तक लिखी जिसका मूल मन्त्र यह है कि पूना पैक्ट के तहत लाभान्वित लाखों दलित कांग्रेस या शासक दल के चमचे हैं। इसलिए उन्होंने खांटी दलित सत्ता का नारा दिया है, यही से शुरू होती है दलितों की आत्मघाती राजनीति। काशीराम का यह मत था कि अगर पूना पैक्ट नहीं होता तो दलित जितना ज्यादा अत्याचार झेलते उतना ही ज्यादा बसपा का साथ देते। बसपा वालों की यह समझ माओवादियों की तरह है जो कहते हैं कि जनता जितना ज्यादा गरीबी, भुखमरी में रहेगी उतना ही ज्यादा क्रान्ति को सफल बनाएगी।

इस प्रकार कुछ लोग राजनीतिक कारणों से पृथक निर्वाचन को वर्तमान आरक्षण व्यवस्था से अच्छा बताकर दलितों को झूठे स्वर्ग का स्वप्न दिखाकर उन्हें भरमा रहे है। डॉ.आंबेडकर ने उस समय की परिस्थितियों को देखते हुए जो पैक्ट किया वह सामयिक, उचित और दलितों के हित में सिद्ध हुआ। उक्त समझौते में दलितों का आरक्षण ही दलितों की शक्ति का इस समय स्त्रोत है।

डॉ.अंगनेलाल पूर्व कुलपति अवध विश्वविद्यालय अपनी पुस्तक "बाबा साहब डॉ.अम्बेडकर" में पूना पैक्ट की अन्य उपलब्धियों का इस प्रकार बताते हैं-

१- जहां कम्युनल एवार्ड में दलितों को केवल ७१ सीटें प्राप्त हुई थी वहीं पूना पैक्ट में उन्हें १४८ सीटें प्राप्त हुई।
२- महात्मा गाँधी के प्राणों की रक्षा का श्रेय दलितों को मिला।
३- छुआछूत मिटाने तथा अछूतों की शैक्षिक, सामाजिक, आर्थिक उन्नति की जिम्मेदारी हिन्दुओं ने अपने ऊपर ली।
४- भारत के इतिहास में यह पहली घटना थी जब अछूतों ने हिन्दुओं से अलग स्वतंत्र समुदाय के रूप में समतल धरातल पर खड़े होकर कोई राजनैतिक अधिकार संधि की हो। इस प्रकार पूना पैक्ट का लाभ दलितों को पृथक निर्वाचन की अपेक्षा अधिक मिला है।

इरोम शर्मिला : हमारी लियू जियाओबो

चीनी मानवाधिकार कार्यकर्ता लियू जियाओबो को 2010 का नोबेल शांति पुरस्कार मिला हैं। लियू 1989 के थ्यांनमेन प्रतिरोध के दौरान उसमें हिस्सा लेने के उद्देश्य से जब वे अमरीका से स्वदेश लौटे तो पहली बार उनकी गिरफ्तारी हुई। उन्होंने चीन में लोकतांत्रिक चुनाव, नागरिकों की स्वतंत्रता व सरकार की अपनी गलतियों के लिये लोगों के प्रति जवाबदेही की वकालत की। अब तक के चार बार जेल जा चुके हैं। जब वे जेल के बाहर भी रहे तो सरकार की कड़ी निगाहों के सामने ही।

1989 में थ्यांनमेन प्रतिरोध के बाद उनको प्रति-क्रांति प्रचार व उकसाने के जुर्म में कड़ी सुरक्षा वाले क्विंचेंग कारागार में रखा गया। 1995 में लोकतंत्र व मानवाधिकार के पक्ष में आंदोलन में शामिल होने तथा सार्वजनिक रूप से सरकार से 1989 कांड में हुई गलती को ठीक करने की मांग की वजह से छह माह की सजा हुई। 1996 में सार्वजनिक व्यवस्था में विध्न डालने व चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की आलोचना के जुर्म में उन्हें तीन वर्ष की श्रम के माध्यम से पुनशिक्षा की सजा हुई। 2004 में जब वे चीन में मानवाधिकार पर रपट तैयार कर रहे थे तो उनका कम्प्यूटर, दस्तावेज, इत्यादि सरकार द्वारा जब्त कर लिए गए।

2008 में लियू जियाओबो ने घोषणा पत्र 08 को लिखने में सक्रिय भूमिका निभाई। इस घोषणा पत्र में चीन में मानवाधिकार की स्थिति को सुधारने हेतु निम्नलिखित 19 बदलावों की मांग की गई है :

1 संविधान में संशोधन,
२. शक्तियों को अलग-अलग करना,
३. विधायिका आधारित लोकतंत्र,
४. स्वतंत्र न्यायपालिका,
५. जन सेवकों पर लोक नियंत्रण,
६. मानवाधिकार की गारण्टी,
७. लोक अधिकारियों का चुनाव,
८. ग्रामीण-शहरी बराबरी,
९-संगठन की स्वतंत्रता,
१०-एकत्रित होने की स्वतंत्रता,
११-अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता,
१२-धर्म की स्वतंत्रता,
१३-नागरिक शिक्षा,
१४- निजी सम्पत्ति की सुरक्षा,
१५- वित्तीय एवं कर सुधार
16. सामाजिक सुरक्षा,
१७-पर्यावरण की सुरक्षा,
१८-संघीय लोकतंत्र,
१९-सत्य के आधार पर सुलह।

इस घोषणा पत्र ने एक-दलीय शासन व्यवस्था को समाप्त कर चीन में राजनीतिक लोकतांत्रिक सुधारों की मांग की।

इसमें कोई दो राय नहीं कि चीन में हेतु आवाज बुलंद करना कोई आसान काम नहीं हैं। थ्यानमेन का दमन सबने देखा है। इसी तरह तिब्बत के लोगों के साथ अमानवीय व्यवहार भी चीन की सरकार का अपने खिलाफ कोई भी प्रतिरोध न बर्दास्त करने का अच्छा नमूना है।

८ अक्तूबर, २०१० को जब नोबेल समिति ने लियू जियाओबो को चीन में मौलिक मानवाधिकार के लिए लंबे व अहिंसक संघर्ष के लिए पुरस्कृत किया तो चीनी सरकार ने कड़ी प्रतिक्रिया जाहिर की। चीनी सरकार ने लियू जियाओबो को एक अपराधी बताया है जिसने चीन के कानून को तोड़ा है। दुनिया भर से लियू जियाओबो के समर्थन में आए संदेशों के बावजूद चीनी सरकार ने लियू या उनके किसी भी रिश्तेदार को नार्वे जाकर पुरस्कार प्राप्त करने पर पाबंदी लगा दी है।

अपने देश में मणिपुर के जवाहरलाल नेहरू अस्पताल में इरोम शर्मीला को कैद में अनशन करते हुए अब दस वर्ष पूरे हो गए है। वे सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम को खारिज करने की मांग को लेकर संघषरत हैं। यह अधिनियम एक काला कानून है जिसकी वजह से पूर्वोत्तर भारत व कश्मीर में सुरक्षा बलों द्वारा आम नागरिकों का काफी मानवाधिकार हनन हुआ है।

इरोम शर्मिला भी लियू जियाओबो की तरह लोकतंत्र व मानवाधिकार के पक्ष में अपनी आवाज बुलंद कर रही हैं। लेकिन चीन की ही तरह हमारी सरकार ने भी उसको अनसुना कर कैद में रखा हुआ है। इरोम शर्मिला से किसी को मुलाकात करनी हो तो पांच स्तरों से, जिसमें अंतिम स्तर मुख्य मंत्री का है, की अनुमति लेनी होती है। 2 से 6, नवम्बर, 2010, के दौरान जब देश भर से सामाजिक कार्यकर्ता इरोम के उपवास के दस वर्ष पूरे होने के मौके पर इम्फाल आए हुए थे तो उनको इरोम से नहीं मिलने दिया गया। इसी तरह लगभग एक वर्ष पूर्व जब महाश्वेता देवी इरोम से मिलने इम्फाल पहुंची तो उन्हें भी उससे नहीं मिलने दिया गया।

अपनी बात को रखने का जो तरीका इरोम शर्मिला ने चुना है उससे शांतिपूर्ण शायद ही कोई और तरीका हो। उसने गांधी जी का रास्ता चुना है-अपने को कष्ट देकर अपनी बात कहने का। लेकिन फिर भी सरकार इतनी संवेदनहीन है। जिससे किसी को कोई खतरा हो नहीं सकता उसको इतनी भारी सुरक्षा में रखा है। इसके अपने परिवार वालों के लिए भी उससे मिलना मुश्किल है। जवाहर लाल नेहरू अस्पताल के बाहर मणिपुर की महिलाओं के पारम्परिक संगठन माइरा पाईबी का भी 10 दिसम्बर, 2008, क्रमिक अनशन चल रहा है। मणिपुर व पूरे पूर्वोत्तर में शर्मिला को व्यापक जन समर्थन प्राप्त है किन्तु फिर भी सरकार इस ऐतिहासिक प्रतिरोध को नजरअंदाज कर रही है। इरोम शर्मिला हमारी लियू जियाओबो है।

संदीप पाण्डेय

मुआवजा की नीति बदलो-जमीन के बदले जमीन दो

विन्ध की पर्वत श्रृंखलों के बीच कैमूर घाटी में औपनिवेशिक काल से ही शासकों ने जंगलों को और उनके बीच बसने वाले लोगों को लूटनें का सिलसिला शुरू किया जो तथाकथित आजादी के बाद भी निर्बाध रूप से जारी है। और देश के करोड़ों व्यक्तियों की आजीविका, घर एवं जिन्दगी खतरे में है, को संवैधानिक और प्रजातांत्रिक अधिकारों के तहत कैसे सुरक्षित किया जाए इस हेतु आये वनाधिकार कानून-2006 के क्रियान्नवयन पर जन आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय उ.प्र. के अक्टूबर 2010 को राबर्टसगंज आयोजित एक दिवसीय सम्मेलन के पहले सत्र में गंभीर एवं खुली चर्चा हुई। जिसमें मुख्य तथ्य उभर कर आये कि इस कानून में वनों में निवास करने वाले लोगों के व्यक्तिगत और सामुदायिक अधिकार समाहित है। और इन पर ही वन संसाधनों और जैव विविधता को सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी सौपी गई है। इसलिये वन समुदायों और इसे लागू करने की जिम्मेदार अधिकारियों को इसके हर पहलू को ऐतिहासिक संदर्भों और विशेषताओं को समझते हुए उनके साथ पारस्परिक संवाद जिसमें जन संगठनों की प्रभावी भूमिका हो इस कानून के क्रियान्वयन की बुनियादी शर्त है।

पश्चिम उत्तर प्रदेश में भड़के किसानों के आंदोलन पर चर्चा शुरू हुई जिसका मुख्य बिन्दू उ.प्र. व देश में अन्धा-धुन्ध गैर कृषि कार्यों हेतु अधिग्रहित की जा रही कृषि भूमि रहा, देश में सदियों से जिनके पास जमीन है लोग खेती करते आ रहे हैं। लेकिन पिछले बीस वर्षों से देश/प्रदेश में खेती घाटे का सौदा हो गई और जमीने बेचने के बाद भी किसानों की आत्महत्याओं का सिल-सिला जारी है। जिसे सम्मेलन ने एक नीतिगत हत्या करा दिया और इसके लिये सरकारों की नीतियों को जिम्मेदार माना गया और तय हुआ कि जिस तरीके से सरकार ने अलीगढ़, मथुरा के किसानों को मुआवजे की रकम बढ़ा कर प्रलोभन देकर जमीन हथियाने का हथकड़ा अपनाया है। इस पर समन्वय की नीतिगत मांग मुआवजे के रूप में जमीन के बदले जमीन की बात को इन क्षेत्रों मेधा जी का कार्यक्रम लेकर किसानों का सम्मेलन जल्द ही कराया जायेगा।

सम्मेलन के आखिरी सत्र में बावरी मस्जिद विवाद पर आये हाईकोर्ट के फैसले पर चर्चा हुई और यह बात रेखांकित की गई कि यह फैसला संविधान के बुनियादी मूल्यों को दर किनार करते हुए आस्थाओं, विश्वासों को तरजीह देते हुए आया है। जो भारत जैसे बहुधर्मी विविधता वाले देश मे नये विवादों को जन्म देगा और देश के लिये संवैधानिक संकट खड़ा करेगा। जिससे एक तर्कशील न्यायप्रिय समाज बनाने में बाधा पहुँचेगी इस फैसले पर राष्ट्रीय बहस नागरिक समाज में खड़ी करने की रणनीति पर भी विचार हुआ।

सम्मेलन का आयोजन कैमूर क्षेत्र महिला मजदूर किसान संघर्ष समिति ने राबर्टसगंज के कलेक्ट्रट बार एसोसिएशन सभागार में किया सम्मेलन में आशा परिवार, समाजवादी जन परिषद, गंगा कृषि भूमि बचाओं संघर्ष समिति ने हिस्सा लिया भाग लेने वाले प्रमुख साथियों में केशव चन्द्र, संदीप, अजय पटेल, शंकर सिंह, महेश, हौसला यादव, जे.पी. सिंह, विक्रमामौर्य, वलंवत यादव, रोमा बहन, शांता, भट्टाचार्या आदि रहे। समन्वय के नये समन्वयक के रूप में जय शंकर व शांता, भट्टाचार्या को चुना गया तथा नई समन्वय समिति का भी चयन किया गया।

अरविन्द मूर्ति

स्वतंत्र चुनाव क्षेत्र नकारना दलितों पर अन्याय है क्या ?

परिवर्तनकारी कार्यकताओं को दिमागी खुराक नियमित रूप से देने वाली सच्ची-मुच्ची पत्रिका का अप्रैल २०१० का अंक डॉ.बाबा साहब आम्बेडकर विशेषांक प्रकाशित कर बड़ा अच्छा काम किया हैं। ख़ास कर बाबा साहब केवल दलितों के दाता एवं उद्धारकर्ता नहीं थे इस सम्बन्ध में अच्छी जानकारी इस अंक में दी हैं। भारत के प्रजातंत्र को मजबूत राजनीतिक एवं कानूनी नींव पर खड़ा करने का काम बाबा साहेब ने किया यहाँ के किसानों को कपास के व्यापार में अंग्रेज सत्ताधीश किस तरह ठग रहें थे। इसका पर्दाफाश करने वाली "प्रोब्लम ऑफ़ रुपीज" यह महत्वपूर्ण किताब उन्होंने १९२३ में लिखी थी। प्रांतीय सरकारों को वित्तीय साधन एवं अधिकार बहुत कम दिए जा रहे है यह बात भी अन्य एक किताब द्वारा उन्होंने समाज तथा शासनकर्ता के सामने पेश की थी। स्त्री को सामान्य मानवी अधिकारों से वंचित रखने वाले हिन्दू पर्सनल लौ में क्रांतिकारी सुधार करने के लिए उन्होंने जो अथक प्रयास किये उसे भी अच्छी तरह नवाजा गया हैं। ऐसा एक अच्छा विशेषांक संपादित करने के लियें मैं श्री एस.आर. दारापुरी जी को तहेदिल बधाई देता हूँ।

उनकी सम्पादकीय में पूना पैक्ट का जिक्र हैं। यह बड़ा संवेदनशील मुद्दा हैं। गांधी जी ने दलितों पर बड़ा अन्याय किया ऐसी धारणा कई लोगों की बनी रही हैं उससे गांधी जी के व्यक्तित्व पर धब्बा लगाया जाता है या नही यह मुद्दा मेरी नजर में महत्वपूर्ण नही है। दलित समाज के लिये स्वतंत्र चुनाव क्षेत्र होना फायदेमंद है या नही यह मुद्दा गंभीर रूप से समझ लेना चाहिये। अंग्रेज साम्राज्य ने उन्नीसवीं सदी में राज चलाने के पूरे अधिकार उनके आला अफसरों को दे रखे थे। इग्लैंड में साधारण जनता को राज कारोबार में शिरकत करने के लिये जैसे अधिकार है वैसे भारतीय नागरिकों को यहां के लिये मिलने चाहिये यह मांग कई नेता तथा संगठनों के द्वारा उठायी गयी थी। दादा भाई नौरोजी तथा लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक आदि ने अंग्रेज सरकार किसानों पर जो जुल्म थोप रही है उन्हें खोल कर जनता के सामने रखने का काम बड़े प्रभावशाली ढंग से चलाया था। १८८५ में बनी कांगेस संगठन की तरफ से अंगेजी सल्तनत के खिलाफ भारतीय जनता में असंतोष फैलाने का काम हो रहा था। हिंदु, मुसलमान आदि धार्मिक समूहों के नहीं बल्कि किसान, मजदूर, कारीगर आदि श्रमिक वर्गों के सवाल उठाये जा रहे थे। धार्मिक भेदभाव को राजनीतिक से अलग रखा जा रहा था भारतीय जनता की व्यापक एकता मजबूत बनेगी तो अपनी हुकूमत नही चल पायेगी यह बात अंग्रेज शासकों को सताने लगी थी। भारतीय जनता में दरार डाले बिना अपनी सत्ता टिक नही पायेगी यह उन्होंने जान लिया।

भारत में तीन चार हजार वर्षों में कई छोटे-बड़े राज रियासतें चलती रही। राजा या सरदार अपना अधिकार क्षेत्र बढानें के लिये आपस में लड़ते रहे। पश्चिम उत्तर दिशा में कई आक्रमणकारी आये। इसाई धर्म स्थापना होने के पहले ग्रीस का सिकन्दर आया। इस्लाम की स्थापना होने के पहले मंगोलिया, ईरान आदि प्रदेशों से भी आक्रमणकारी आये। उनके इलाके में भूमि तथा आबुहवा खेती के अनुकूल न होने के कारण वहां अनाज पर्याप्त मात्रा में नहीं पकता था। सिन्धु नदी के पूरब में अनाज की फसल अच्छी होती है, तथा दुधहारु जानवर भी अच्छे पलते है। वहाँ तो दूध-घी की नदिया बहती है, ऐसा कहा जाता था। इसलिए पश्चिम-उत्तर की ओर से आक्रमणकारी आते रहे वे किसी धर्मविशेष के प्रसार या फैलाव हेतु नहीं आये थे। लेकिन अंग्रेजों ने ऐसा इतिहास लिखा कि भारत में प्राचीन काल था। बाद में मुस्लिम राज चला तथा उन्नीसवी सदी में अंग्रेज शासन कायम हुआ।

जिस कालावधि को उन्होंने मुस्लिम राज का नाम दिया उन पांच- छ: शासकों में यहाँ कई राज-रियासतें हिन्दू, सिख आदि की भी चलती थी। हिन्दू तथा मुस्लिम राजाओं में कभी एक दूसरे से लड़ाई, तो कभी तीसरे राजा के खिलाफ हिन्दू, एवं मुस्लिम राजा की साझेदारी ऐसा भी होता रहा। उसे मुस्लिम
पीरिअड (अवधि) कहना बिल्कुल अवैज्ञानिक है। वह तो छोटे-बड़े लड़ाकुओं की सामंतशाही थी। लेकिन उसे मुस्लिम पीरिअड कहा गया तो उन्नीसवी सदी के मुस्लिम जमींदार तथा शहरों में बसे व्यापारी वकील आदि को भी लगने लगा कि वे यहाँ के एक समय के राज्यकर्ता थे। इसलिए कांग्रेस के सर्व समावेशक भारतीय जनता की एकता में शामिल होना नहीं चाहते थे। सन १९०६ में प्रिंस आगा खाना की अध्यक्षता में मुस्लिम लीग की स्थापना हुई। व्हाइसरॉय से उनका प्रतिनिधि मंडल मिला। अब भारत में कोलेस्लेटिव कौंसिल बनाने की तथा उसमें अपने प्रतिनिधि चुनकर भेजने का अधिकार भारतीय नागरिकों को देने की बात चली है। तो हम कहना चाहते है कि साधारण चुनाव प्रक्रिया से यहाँ हिन्दुओं का ही बहुमत विधि सभा में होगा। मुस्लिम जनता पर नाइंसाफी होगा। अत: चुनाव क्षेत्र ही अलग हो- सेपरेट इलेक्तोरेट फॉर दि मुस्लिम-यह हमारी मांग हैं। दूसरी यह भी है कि चूंकि हम यहां के एक समय के शासक थे इसलिये हमे ज्यादा प्रतिनिधित्व दिया जाना चाहिये। यानिकी उस समय भारत में मुस्लिमों का संख्या २५ प्रतिशत थी तो लेजिस्लेरिटव कौसिल में 30 प्रतिशत सीटें दी जाय।

और बड़े आश्चर्य की बात है कि पहली ही मुलाकात में व्हाइसरॉय ने वे दोनों मांग कबूल कर दी। साफ है कि वह पहले बनी बनायी साजिश थी। अलग चुनाव क्षेत्र याने सेपरेट इलेक्टोरेट का माने क्या ? तो समझो मुरादाबाद जिले से सटे हुये तीन चार जिलों को मिलाकर दो सीटें दी जानी है। तो उसमें से एक होगी मुसलमानों के लिये तथा दूसरी होगी। आम-याने जनरल मुस्लिम छोड़कर अन्य सभी के लिये मुस्लिम सीट के लिये जो चुनाव होगा उसमें मत देने का अधिकार उस पूरे क्षेत्र के केवल मुसलमानों को होगा। हालांकि मताधिकार बड़े जमीनदार स्नातक, आयकर देने वाले आदि को ही दिया गया था। उनमें भी मुस्लिम मतदाता केवल मुस्लिम सीट के लिये मतदाता जनरल सीट के लिये यानी चुनाव क्षेत्र के स्तर पर मुस्लिम तथा गैर मुस्लिम फाके बनाई गयी। एक क्षेत्र में रहने वाले व्यापार तथा दैनिक जीवन के सभी कामों में एक दूसरे से व्यवहार करने वाले लोगों को चुनाव के लिये मुस्लिम तथा गैर मुस्लिम दो धर्मों में बाटा गया।

मुस्लिम उम्मीदवार केवल मुस्लिम मतदाता को मिलेंगे। जनरल सीट के उम्मीदवार मुस्लिम मतदाता के साथ नहीं मिलेगे। यह बहुत बड़ी दरार डाली गयी। जो आगे चलकर देश के १९४७ में हुये बंटवारे का एक कारण रहा होगा ऐसा राजनीति शास्त्री मानते हैं।

सन 1909 में बने इंडियन कौसिंल एक्ट में सेपरेट इलेक्टोरेट का प्रावाधान किया गया। कांग्रेस के नेताओं ने उसकी मुखालिफत की थी। उस समय में जिन्ना कांग्रेस संगठन में थे। उन्हें भी सेपरेट इलेक्टोरेट पसंद नही था। उसके बावजूद कांग्रेस के नेतृत्व में आजादी का आंदोलन बलशाली बनता गया तो सन 1919 में बने भारत सरकार कानून मुस्लिमों के साथ-साथ सिख युरोपीयनस तथा इंडियन खिश्चचन्स को भी सेपरेट इलेक्टोरेट दिया गया। यानि सभी भारतीय जनता की इकठ्ठा राजनीति न चले इस तरह की व्यवस्था अंग्रेजों ने की। राजनीति सभी जनता को एक मानकर चलानी चाहिये। मतभेद हो तो वे नीतियां तथा कार्यक्रमों को लेकर हो, अलग-अलग पार्टियां बने तो वे जातियां या धर्म के आधार पर नहीं नीतियों के आधार पर बने जिनमें हर किसी में हिंदु, मुस्लिम आदि कोई भी शामिल हो सके यह सभी भी शामिल हो सके यह सभी का जनतांत्रिक राजनीतिक नक्शा होना चाहिए। अंग्रेजों ने मुस्लिमों की अलग पार्टी, सिखों की अलग पार्टी ऐसा नक्शा बनाने की कोशिश की हालांकि आजादी की प्रेरणा सर्व संग्राहक रही। आजादी के आंदोलन में तिरंगा झंडा फहराने तथा वंदे, मातरम कहते-कहते फांसी के फंदे, पर चढ़ने के लिये सोलापुर के मलपा धनसेठी जगन्नाथ शिंदे, श्री किशन सारदा तथा कुर्बान हुसैन भी थे।

१९२० तथा १९३०-३९ में आजादी के दो बड़े जंग हुये। भारतीय जनता की व्यापक एक जुटता रही थी। नये हथकंडे चलाने के लिये अंग्रेजों ने सन १९२६ में सायमन कमिश्नर नियुक्त किया। जिस में एक भी भारतीय सदस्य नहीं था। उनके सामने बयान देते हुये डॉ. बाबा साहब आम्बेडकर ने कहा था कि मतदान का अधिकार सभी बालिग स्त्री-पुरूष को दिया जाय। कश्मीर के एक सदस्य ने पूछा- ‘‘क्या आप डिस्प्रेस्ड क्लासेज के लिये सेपरेट इलेक्तोरेट नही मांगेगे।’’ उस पर बाबा साहब ने जवाब दिया-‘‘अगर बालिग मताधिकार दिया जाता है तो उसकी जरूरत नही अगर बालिग मताधिकार नहीं दिया गया तो फिर सेपरेट इलेक्टोरेट की मांग करनी पड़ेगी’’ उसके पीछे की भूमिका समझ में आने वाली हैं अगर स्नातक, आयकर देने वाले तथा बड़ी मात्रा में लगान देने वाले को ही मताधिकार रहेगा तो दलितों में बहुत थोड़े मतदाता बनेंगे। तो साधारण सीट पर दलित उम्मीदवार वार चुने जाने की संभावना बहुत कम होगी। अगर दलितों को सेपरेट इलेक्टोरेट दिया गया जो कोई इने गिने दलित स्नातक होगे, या आयकर देने वाले ठेकेदार होंगे उनके बलबूते पर दलित उम्मीदवार को जीतना आसान होगा।

सायमन कमिश्नर कोई अच्छी रिपोर्ट नहीं दे पाया तब अंगेजों ने लंदन में दूसरी राउंड टेबल कांफ्रेंस में कांग्रेस उम्मीदवार को भी बुलाया। उस सम्मेलन मे भारत के रियासतों के नुमाइदें भी बुलाये गये थे। उस पर गांधी जी ने आपत्ति उठायी। फिर अल्पसंख्यको का मामला आया। मुस्लिम, सिख, युरोपियन, इंडियन क्रिश्चन तथा एग्लो इंडियन इनके साथ दलितों के नुमाइंदे इनकी मिलकर अलग बैठक बुलाई गयी है। जिसमें उस हर समूह के लियें सेपरेट इलेक्टोरेट मांगा गया। सम्मेलन की आम सभा मे गांधी जी ने उसका विरोध करते हुये यह तर्क कि मुस्लिम, सिख ये मजहब मिटाये जाये ऐसा तो हम नहीं कह सकते।
लेकिन दलितो का दलितपन मिटाया जाये, उन्हें समानता का अधिकार मिले ऐसी हमारी भूमिका है तथा कोशिश भी चल रही है। कांग्रेस के 1917 के सम्मेलन में अछूत प्रथा मिटा देने का प्रस्ताव बिठ्ठल रामजी शिंदे ने रखा था जो सर्वसम्मती से पारित हुआ था। पारंपारिक मानसवाले कट्टरपंथी लोगों का विरोध हो रहा था, लेकिन ज्यादा से ज्यादा लोग अछूत प्रथा मिटाने को समर्थन देने लगे थे। और वही सही दिशा है। अछूतों को हमेशा के लिये अछूत नहीं रखना है। तो फिर उनके लिये सेपरेट इलेक्टोरेट क्यों दिया जाए ? गाँधी जी ने दूसरी बात उठायी दलित लोग देहातों में ज्यादा बसते हैं। रोजगार आदि मामलें में सवर्णों से उनका व्यवहार चलता हैं। अगर उन्हें सेपरेट इलेक्टोरेट दिया जायेगा तो ग्रामीण इलाके उन पर अत्याचार बढ़ेगें, यह अच्छा नहीं होगा।

खैर गाँधी जी का बात नही मानी गयी। अगस्त १९३२ में ब्रिटिश प्रधानमंत्री का कम्युनल अवार्ड घोषित हुआ। दलितों के लिये केन्द्रीय कौंसिल में ७३ सीटें सेपरेट इलेक्टोरेट के रूप में रखी गयी। प्रांतीय कौंसिलों में एक भी सीट नही दिखाई गयी थी। तब गांधी ने आमरण अनशन शुरू कर दिया। सितम्बर में जो पूना पैक्ट हुआ उसके दलितों के लिये १९२ आरक्षित सीटें दी गयी। प्रांतीय कौंसिल में भी जनसंख्या अनुपात पर आरक्षित सीटें देने का प्राविधान किया गया। सरकारी नौकरियों में आरक्षण का समर्थन किया गया। तथा पंडित मदनमोहन मालवीय जो अभा. सनातन हिन्दू, सभा के अध्यक्ष थे, ने आहवान किया कि गाँव-गाँव के मंदिर तथा पनघट दलितों के लिये खुले किये जाय।

गांधी जी ने सेपरेट इलेक्टोरेट का विरोध किया लेकिन आरक्षित सीटों को समर्थन दिया। आगे चलकर भारत का संविधान बनाते समय स्वयं बाबा साहब ने भी सेपरेट इलेक्टोरेट का आग्रह नहीं रखा। विधि सभा में फैसले होते है बहुमत से अगर अल्पसंख्यक अपने प्रतिनिधियों के आधार पर ही अपने हक में फैसला करवाना चाहेंगे तो वह कभी नही संभव होगा। अन्य लोगों में से ज्यादा से ज्यादा प्रतिनिधियों का समर्थन जुटना ही पड़ेगा। समाज की एकता अक्षुण्ण रखते हुयें सामाजिक न्याय की स्थापना की दिशा में भी कदम उठाने है तो आरक्षण से ही काम चलाना होगा। दलितों पर गांधी जी ने अन्याय किया ऐसा बार-बार कहने से अपनी बुद्धि को ही गुमराह करना होगा।

पन्नालाल सुराणा

हम हैं हिन्दुस्तानी

अजमेर के ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर २००७ में हुए विस्फोट में संघ के सह प्रचारक इन्द्रेश कुमार, अभिनव भारत संगठन के मुखिया स्वामी असीमानंद, जय वन्देमातरम की मुखिया साध्वी प्रज्ञा सिंह, सुनील जोशी, संदीप डांगे, राम चन्द्र कलसंगारा उर्फ राम जी, शिवम धाकड़, लोकेश शर्मा, समंदर और देवेन्द्र गुप्ता सहित कई हिन्दुवत्व वादी संगठनो के नेताओं के नाम आये हैं।

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ जो देश में अपने को बहुसंख्यक हिन्दुओं का संगठन मानता है, उसकी स्थापना १९२५ में हुई थी। लेकिन आज तक यह संगठन इस देश की बहुसंख्यक हिन्दू आबादी का प्रतिनिधित्व नहीं कर पाया है इसलिए इसने अपने प्रचार तंत्र के माध्यम से दूसरे धर्मों के अनुयायियों के प्रति घृणा का उग्र प्रचार किया है और इससे अपने अनुवांशिक संगठनो के माध्यम से दंगे-फसाद करने का कार्य पूरे देश में नियोजित तरीके से किया है।

अपने स्थापना काल से ही १९४७ तक ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ चले आन्दोलन में संघ परिवार का कोई भी व्यक्ति जेल नहीं गया था और ब्रिटिश साम्राज्यवाद की समय-समय संघ परिवार मदद करता रहा है। संघ ने राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की हत्या से लेकर उड़ीसा, गुजरात, दिल्ली, यू-पी, मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान, आन्ध्र प्रदेश में नरमेध कार्यक्रम जारी रखा है। जब इतने प्रयासों के बाद भी इस संगठन को बहुसंख्यक हिन्दू जनता का प्रतिनिधित्व नहीं मिला तो इसने आतंकवाद का ही सहारा लिया, महाराष्ट्र के नांदेड कस्बे में इसके कार्यकर्ता खतरनाक आयुध बनाते समय विस्फोट हो जाने से मारे गए। दूसरी तरफ यू-पी के कानपुर में भी बजरंग दल के कार्यकर्ता बम बनाते समय मारे गए।

६ अप्रैल २००६ में नांदेड में हुए बम विस्फोट में ५ लोग पकडे भी गए जब पुलिस ने आर.एस.एस. के लोगों के घरों पर छपे डाले तो छपे में मुसलमानों जैसी ड्रेस, नकली दाढ़ी, बरामद हुई जिसका उपयोग वे मस्जिद पर हमले करने की योजना बनाते समय करते थे। जिससे साम्प्रदायिक दंगे भड़के। नांदेड बम कांड के आरोपियों ने यह भी खुलासा किया था कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल, दक्षिण भारत में आतंकी नेटवर्क बनाकर आतंकवाद का सहारा ले रहा है।

हिन्दुत्ववादी आतंकवाद ने देश को गृह युद्ध में झोकने के लिए आर.एस.एस. के इन्द्रेश ने मोहन राव भागवत की हत्या का षडयंत्र रचकर पूरे देश में अल्पसंख्यकों के खिलाफ जारी दुष्प्रचार के तहत (यदि षडयंत्र कामयाब हो जाता) पूरे देश में अल्पसंख्यकों के विनाश की तैयारी कर ली गयी थी। मालेगांव बम विस्फोट के आरोपितों के बयानों में यह भी आया है कि आर.एस.एस. के उच्च पदस्थ अधिकारी इन्द्रेश ने पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आई.एस.आई. से तीन करोड़ रुपये लिए थे। पाकिस्तान की कुख्यात खुफिया एजेसी आई.एस.आई. को एक समय में भारत विरोधी कार्यों के लिए सी.आई.ए. ने उन्हें बाकायदा प्रशिक्षण देने के साथ आर्थिक मदद की थी। सन १९४७ में भारत ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्त हुआ था और दुनिया में ब्रिटिश साम्राज्यवाद कमजोर होने की वजह से अमेरिकन साम्राज्यवाद का उदय हुआ था।

सुमन

केवल हास्यास्पद नही है अरूंधती पर मुकदमें की मांग

भाजपा और अन्य संकीर्ण मनस्क हिन्दुत्ववादी संगठनों की, संस्कृति कर्मी और प्रतिष्ठित लेखिका अरूंधती राय पर कश्मीर समस्या के बारे में अपने विचार व्यक्त करने के लिये देशद्रोह का मुकदमा दायर करने की मांग को केवल हास्यास्पद कर टाला नहीं जा सकता, जैसा कि राष्ट्रीय जनता दल के प्रवक्ता की शिवानंद तिवारी ने कहा हैं। किसी सचमुच के जनतांत्रिक देश में जहाँ विचार-भिन्नता को वास्तव में सम्मान दिया जाता हो, अपने विचारों की अभिव्यक्ति के लिये किसी को सलाह देने की मांग हस्यास्पद ही हो सकती है, लेकिन भारत जैसे में जहां, वैचारिक असहिष्णुता इतनी उत्कृष्ट है कि स्वयं वाल्मीकि रामायण के साक्ष्य पर पिछले दिनों तमिलनाडु के मुख्यमंत्री करूणानिधि के राम को मद्यपायी कहने पर इतना बावेला मचा कि एक तथाकथित संतमठाधीश वेदान्ती ने मुख्यमंत्री का सिर काट कर लाने वाले को एक करोड़ का ईनाम देने की घोषणा कर दी। जिस देश में एक मुख्यमंत्री का सिर काटने की प्रेरणा देने वाले पर मुकदमा नहीं चलाया जाता, उस की उसी सरकार से कश्मीर की आजादी की हिमायत करने वाली अरूंधती पर मुकदमा चलाने की मांग खैर हास्यास्पद तो है ही पर चिन्ताजनक भी कम नहीं है। क्योंकि इस देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की जो मरियल सी स्थिति इन दिनों है, यह मांग उसकी हालत और भी खराब करने वाली हैं मेरी समझ में नहीं आता कि भारत का कोई नागरिक क्यों इसके किसी क्षम या प्रदेश की जनता के इससे अलग और स्वतंत्रत होने की मांग का समर्थन नहीं कर सकता ? क्योंकि किसी समस्या पर अपने विचार शालीनता से व्यक्त करना भी अपराध है ? हाँ, अगर अरूंधती कश्मीर की आजादी के नाम पर चलती हुई किसी गैरकानूनी या आतंकवादी कारवाई में शामिल हो जाती तो निश्चित ही कानून की दृष्टि से यह उनका अपराध होता और उसकी सजा उन्हें मिलनी चाहिये थी। पर मेरा यह कहना कि कश्मीर कभी भारत का अभिन्न अंग नहीं रहा है यह एक ऐतिहासिक तथ्य है, किसी की नजर में एक गलत विचार हो सकता है, पर यह देशद्रोह कैसे हो गया ? वैसे भी भारत की अभिन्न अंग एक सामाजिक स्थिति ही तो है। ब्रिटिश राज्य में और १९४७ के तुरन्त बाद सभी रजवाड़े भारत का अभिन्न अंग नहीं थे, उनमें कुछ को सरदार पटेल ने और सिक्किम को तो बहुत बाद में इन्दिरा गांधी ने भारतीय संघ में मिलाया।

संकीर्ण और दकियानूसी दलीय दृष्टियां ऐसे ही सीधी-सादी बात का बतंगड़ बना देती है। पिछलें दिनों अपनी धर्मनिरपेक्ष मानववादी, स्त्री-स्वातंत्रय-समर्थक दृष्टि के कारण बांग्लादेश से निर्वासित प्रतिष्ठित लेखिका तस्लीमा नसरीन का लेख छापने पर कर्नाटक के शिमोगा और हासन में कुछ कट्टपंथी मुस्लिम गुंडों द्वारा जो तोड़-फोड़ की गयी वह तो शिव सेना की तर्ज पर समझ में आ सकती है, पर उस लेख के लिये जिसमें केवल यह कहा गया था कि पैगंबर हजरत मोहम्मद पर्दें या बुरके के पक्ष में नहीं थे, मुस्लिम कर मुल्लों को संतुष्ट रखनें के लिये कर्नाटक की भाजपा सरकार ने ‘कन्नड़ प्रभा’ के संपादन कर्मियों की जो गिरफ्तारी की और उन पर जो ‘ईश निन्दा’ के बाबा आदम के जमाने के कानून के अन्तर्गत मुकदमें चलाए, उनको कैसा समझा जाए ?

अगर
इस तरह के विचारों की अभिक्ति भी ईश निन्दा है, तो सनातन हिन्दू धर्म समर्थित सती प्रथा का विरोध तो ईश-द्रोह ही हो जाएगा और उसकी सजा देने के लिए कोई सरकार कटिबद्ध हो जाय तो उसे कम से कम आधे भारत वासियों की जेल भेजना पड़ेगा। क्या यह गजब की दिलचस्प बिडंबना नहीं है कि ईश के नाम पर सम्पादकों को जेल भेजने वाली भाजपा ही देशद्रोह के नाम पर अरूंधती को जेल भेजने की मांग कर रही है।

डॉ. रणजीत

चुनाव के बाद पंचायत

उत्तरप्रदेश में पंचायती राज का निर्वाचन चार चरणों में संपन्न हो गया, लेकिन रक्त रंजित पंचायत चुनाव अपनेपीछे लोकतंत्र के उस कुहासे को छोड़ गया है, जिसके छंटने या गहरा होने के तमाम आकलन पंचायती राजव्यवस्था के औचित्य पर भारी पड़ रहे हैं। चुनाव में इस्तेमाल हुए धनबल और बाहुबल ने स्थानीय स्तर परप्रत्यक्ष लोकतंत्र की दिक्कतों को उजागर कर दिया है।

पंचायतों चुनाव को लेकर पूरे प्रदेश में एक सा हाल दिखा। चुनाव जीतने के तरीके और भविष्य का संकट एकजैसा ही दिखाई दिया। मतदाताओं को अपने वादों और सक्रियता से पक्ष में करने के उदाहरण सीमित दिखाईदिये,जबकि साम-दाम-भेद-दंड की कूटनीति अपनाने वाले उम्मीदवारों ने विजय हासिल की। ऐसे में वे लोगहारते दिखाई दिये, जो धनबल से वोट नहीं खरीद सकते थे। पूर्व प्रधान हरीराम कहते हैं कि प्रधान बनने केलिए इतनी भीड़ जुटी है,लेकिन अगर किसी से पूछ लिया जाये कि प्रधान क्यों बनना चाहते हो तो शायद हीकोई जवाब हो। जबकि एक और पूर्व प्रधान बाबूराम तिवारी का कहना है कि क्या करें,शराब गोश्त का प्रचलनइतना ज्यादा बढ़ गया है कि अगर जीतना है तो लोगों को खिलाना पिलाना पड़ेगा। कहने का मतलब है कि इसबार पंचायत चुनाव में वह सब कुछ हुआ जो कहीं से इस प्रत्यक्ष लोकतंत्र के लिए जायज नहीं था।

हालांकि पूरी चुनावी प्रक्रिया में धनबल और बाहुबल के इस्तेमाल के पीछे कई कारण बहुत ही स्पष्ट हैं। पिछली पंचायतों के कामकाज में उत्तर प्रदेश में जबरदस्त भ्रष्टाचार देखा गया। लाखों और करोड़ों में घोटाले उजागर हुए। पदाधिकारियों ने नरेगा(मनरेगा) से लेकर कल्याणकारी योजनाओं के लिए लाभार्थी चुनने तक में पैसा बनाया। उत्तरप्रदेश के बहराइच जिले में करोड़ों का पेंशन घोटाला इसका सबूत है। जहां निर्वाचित प्रतिनिधियों और नौकरशाही के बीच तालमेल करके एक कल्याणकारी योजना का बंटाधार कर दिया। ध्यान रहे कि आर्थिक कदाचार की बनती जगह ने स्थानीय शासनतंत्र को धन निवेश करने और भ्रष्टाचार के जरिए पैसा उगाहने का उपक्रम बना दिया है। यही वजह है कि चुनाव पूर्व और चुनाव के दौरान खिलाने-पिलाने का एक लंबा दौर देखा गया। आलम यह रहा कि उत्तर प्रदेश में दूसरे राज्यों से भारी मात्रा में अवैध शराब की तस्करी भी की गई। हालांकि प्रशासन ने अपनी खाल बचाने के लिए सक्रियता दिखाते हुए लाखों रुपये की अवैध शराब जब्त की। पंचायत चुनावों में हुए खर्च का सटीक आकलन मुश्किल है,लेकिन लाखों रूपये खर्च करने वाले प्रत्याशी चर्चा में रहे हैं। चर्चा ऐसे प्रत्याशियों की भी रही,जो अपनी जमीनें बेंचकर मतदाताओं को लुभाने में खर्च कर रहे थे। जनता की राजनीतिक चेतना भी नकारात्मक रूप से प्रभावित हुई है। क्योंकि मतदाताओं के बीच से उम्मीदवारों के गुणों-अवगुणों और चरित्र को केंद्र में रखकर बात करने क्षमता में कमी देखी गई है। यही वजह है कि ज्यादा खिलाने पिलाने वाले उम्मीदवारों ने ही बाजी मारी है। जबकि विकसित राजनीतिक चेतना पर ऐसे उम्मीदवारों का खुला बहिष्कार होना चाहिए था,जो पूरे प्रदेश में देखने को नहीं मिला। पंचायत चुनावों को लंबे समय से देखने वाले पत्रकार संजीव श्रीवास्तव बताते हैं कि लोगों ने गन्नों के खेतों छिपा-छिपाकर शराब बांटी गई है। वे ताज्जुब करते हैं कि अचानक इतने पीने वाले लोग कहां से आ गये हैं ? गांव के स्तर पर चुनाव बाद यह चर्चा आम है कि जीतने वाले उम्मीदवार ने कितने लाख रुपये खर्च किये हैं। ऐसे हालात में इस नवनिर्वाचित त्रिस्तरीय पंचायतीराज व्यवस्था में होने वाले आर्थिक कदाचार का महज अंदाजा लगाया जा सकता है। क्योंकि ये जनप्रतिनिधियों ने लाखों का निवेश कर ब्याज सहित उगाही की मंशा से ही इस लोकतंत्र का हाथ थामा है।

खर्चें के बलपर जन समर्थन हासिल करने की मंशा दरअसल अवसरवादी राजनीति की परवरिश का असर है। पंचायतों को रातों रात जिस मात्रा में धनापूर्ति की गई है,वह भी अवसरवादी राजनीति के जरिए लाभ लेने की कोशिश भर है। चुनावी लाभ लेने के लिए रातोंरात नरेगा जैसी योजनाओं का विस्तार कर दिया जाता है,जबकि काम को करने वाली मशीनरी न केवल प्रशिक्षण की कमी से जूझ रही है,बल्कि स्थानीयता की समस्याओं का शिकार है। ग्राम स्तर पर धनप्रबंधन की कमजोर प्रणाली ने पूरे मामले को भ्रष्टाचार में तब्दील कर दिया है। आज परिणाम सबके सामने हैं,नरेगा का बड़ा हिस्सा भ्रष्टाचारियों खाते में गया है। पैसे को तमाम गैर जरूरी मदों में खर्च करते हुए भ्रष्टाचार को अंजाम दिया गया है।उदाहरण के लिए ग्राम सभा के स्तर पर वानिकीकरण का काम या फिर मिट्टी पटाई जैसे कामों तरजीह दी गई है। क्योंकि पेड़ों की खरीद से लेकर उसकी बाड़ बनाने तक में पैसा चुराने के काफी विकल्प मौजूद है,तो मिट्टी पटाई के काम में मानकों की अनदेखी और एक बरसात के बाद दोबार उसी काम को कराने का अवसर भी बना रहता है। कुल मिलाकर पंचायतों ने अपने कामकाज से स्थानीय अपढ़ जनता को भी भ्रष्टाचार के जरिए पैसा कमाने की परवरिश दे डाली है। जिसका इस बार के पंचायत चुनाव में साफ रहा है। लोगों ने अपनी सारी पूंजी लगाकर चुनावों में शिरकत की है।

धन बल और बाहुबल के बोलबाले के बीच चुनावों सामंती मानसिकता भी पूरी तरह से हावी रही। चुनाव प्रचार के पोस्टर इस बात का सबूत हैं,कि महिला प्रत्याशियों का सहारा लेकर पति या पुरूष संबंधियों ने ही चुनाव लड़ा है। पोस्टर में पति या पुरूष सगे-संबंधी हाथ जोड़कर समर्थन और वोट मांग रहे थे। जबकि कई पोस्टर तो ऐसे जिसमें महिला प्रत्याशी की फोटो या तो छोटी रखी गई थी या फिर रखी ही नहीं गई थी। यही वजह है कि महिला आरक्षित सीटों पर चुनाव जीतने वाली महिलाएं घरों चूल्हा फूंक रही हैं,जबकि पति या पुरूष सदस्य आम सभा की बैठक में हिस्सा लड़ रहे हैं। चुनाव जीतने के बाद पति ही प्रधान के संबोधन से नवाजे जा रहे हैं। गांवों के हालात देखकर कह सकते हैं कि महिला सशक्तिकरण दूसरे दावों की तरह कागजी ही साबित हुआ है। लगभग यही हाल जातीय आरक्षण का हुआ है। थोड़े बहुत फेरबदल के साथ आरक्षण के सहारे सामाजिक परिवर्तन की पूरी योजना वर्गीय चेतना के अभाव में बेसहारा साबित हुई है। स्थानीय स्तर पर अस्मिता की लड़ाई को अवसरवादी और सामंती असर के लोगों ने अपहृत कर लिया है। चुनाव प्रचार को देखने के दौरान गुजरा एक वाकया हैरतंगेज था। बहराइच जिले में वार्ड नंबर 24 से जिला पंचायत सदस्य की उम्मीदवार का पति चुनाव प्रचार करते हुए दावा कर रहा था कि कि आप हमें वोट दीजिए,हम आपकी एक आवाज पर एक हाथ में माल और दूसरे हाथ में तलवार लेकर हाजिर रहेंगे। जबकि प्रचार करने वाला व्यक्ति कई संज्ञेय मामलों में न्यायिक प्रक्रिया से गुजर रहा है। माल और तलवार का दावा व्यक्तिवादी राजनीति की तरफ इशारा करती है, जो सीधे-सीधे राजनीति की सामूहिक भावना से कोसों दूर है।

स्थानीय स्तर पर पैदा हुए इस माहौल के लिए राजनीति की अनिवार्य शर्त का उल्लंघन जिम्मेदार है। पंचायत चुनावों में राजनीति दलों को सीधी भागीदारी नहीं दी गई है। जिसकी वजह से न केवल राजनीतिक माहौल से व्यक्तिवादी असर कम हो पाता है और न ही राजनीतिक विपक्ष ही खड़ा हो पाता है। जिसकी वजह से पूरा चुनाव व्यक्तिगत क्षमताओं और प्रतिबद्धताओं के बल पर लड़ा जाता है और विपक्षी स्वर को व्यक्तिगत विरोध मानते हुए उससे निपटा जाता है। पंचायत चुनावों में हिंसा और मार-काट के पीछे वर्तमान में यही सबसे बड़ा कारण बनकर उभरा है। दलीय भागीदारी न होने की वजह से आज स्थानीय निकाय अपनी सफलता को लेकर चौतरफा दबाव में हैं। सवाल है कि जब तमाम चीजों को अनिवार्य बनाया गया तो राजनीतिक दलों की भागीदारी को क्यों वैकल्पिक बना दिया गया ? इसकी वजह से स्थानीय निकाय गैर-राजनीतिक निर्वाचन क्षेत्र के रूप में बदल जाता है,जहां त्वरित व सीमित लाभ के लिए तर्क बनाये और बिगाड़े जाते हैं। जिसके चलते वे बातें सहज स्वीकार्य हो जाती हैं,जिन्हें बड़े स्तर पर राजनीतिक गलत माना जाता है। हालांकि इसे स्थानीय शासन व्यवस्था की रूपरेखा तय करने में चूक और मंशा दोनों कह सकते हैं। क्योंकि भारतीय संविधान में 73वें व 74वें संविधान संशोधन के समय राजनीतिक दलों की भागीदारी का निर्णय राज्य सरकारों को दे दिया गया। जिसे परिस्थितियों का आकलन करने में चूक भी कह सकते हैं और राज्य सरकारों को कटघरे में खड़ा करने की मंशा भी,क्योंकि इसी विकल्प के सहारे राज्य सरकारें राजनीतिक दलों की भागीदारी को खारिज कर रही हैं। जिसका सीधा मकसद जनता से उचित और कम से कम दूरी बनाये रखने की मंशा है। राज्य सरकारें जानती हैं कि अगर राजनीति दलों की भागीदारी आयी,तो उन्हें अपनी नीतियों को लेकर राजनीतिक दल के रूप में जनता के बीच जाना पड़ेगा। जहां उसकी नीतियों को मिलने वाला जनादेश ही अगले राजनीति कार्यकाल का फैसला करेगा, यानी जनादेश की कसौटी पर किसी भी रूप में जाने से बचने की कोशिश में राज्य सरकारें राजनीतिक दलों की भागीदारी को तवज्जो नहीं दे रही हैं।

उत्तर प्रदेश के स्थानीय निकाय चुनावों को देखते हुए कह सकते हैं कि माहौल ईमानदार और ईमानदारी दोनों के खिलाफ बन चुका है। क्योंकि अब लाखों के निवेश का उपक्रम साबित हुए चुनाव और उसकी उगाही के बीच में आने वाले सीधे तौर पर निशान बनाये जायेंगे। इसके लिए राजनीतिक अवसरवाद सीधे तौर पर जिम्मेदार है। जिसने प्रतिबद्धताओं की राजनीति को पटरी से उतारकर सत्ता की राजनीति बना दिया है। जहां राजनीति का उद्देश्य जनकल्याण की जगह उगाही का औजार बना दिया गया है। केंद्र और राज्य स्तर पर भ्रष्टाचार के मामले उदाहरण हैं,तो स्थानीय निकाय इस असर से अपने को कब तक बचाये रख पाते,यह सिर्फ एक सवाल है ?

-ऋषि कुमार सिंह

लोकतंत्र ओर सपनों का झारखंड ...कैसे ?

प्रिय नागरिकों, जिंदाबाद लोकतंत्र और आज की परिस्थिति में शान्ति और विकास का निरंतरता कैसे कायम रहे !!!

शिक्षा
विद्यालय, राशन-दुकान, वन, रोजगार, भूमि, राजनीति गाँव का दीवाल, एक हजार से पांच सौ के बीच आबादी वाले गांवों में एक व्यक्ति एक पद, आधा महिला के सिंद्धांत पर समिति का चुनाव कराने सरकारी, पुलिस, राजनीतिक दल, कोई वर्ग ऐसा करा कर उनका नाम दीवाल पर लिखवा दे। आज एक छोड़कर मतलब कोई राजनीतिक दल कहे हम झारखंड में सरकार बना के : महीना में पंचायत चुनाव करा देंगे और : महीना में चुनाव करा सके जनता को यह कानूनी अधिकार रहना चाहिए उसे हटा दे ओर यही कहने वाले राजनीतिक को बैठा दे, और अगर झारखंड के ३२ हजार गांवों में १०-१० व्यक्ति का नाम राजनीतिक समिति में गाँव के दीवाल पर लिखा दो, अगर कोई राजनीतिक दल ऐसा कहे तब भी झारखंड के लाख २० हजार जनता ३०० किलोमीटर लाइन में खड़ा होकर यह कानूनी अधिकार जनता को संसद दे इस प्रकार आवाज उठा सकते हैं। बाकी सूचना कानून जवाबदेही और पारदर्शिता के लिये और मनरेगा सार्वजनिक प्रवृत्ति का योजना, जिसका जनता जाँच कार्यवाई जनता करेगा, जनता को कानूनी हथियार मिल गया है। घनी-धरती, गरीब-लोग, यही आजादी-गुलामी को जानना, समझना, ''सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मरजाना'' हमारा किसी से कबीर खड़ा बाजार में मांगें सबकी खैर, ना काहु से दोस्ती ना काहु से बैर" प्रिय नागरिकों का आत्मा उद्वेलित हो सोंचे।

राशन :- अगर १५ सदस्यीय राशन निगरानी समिति का नाम राशन दुकान पर लिखा है तब अभी मनातू - प्रखंड के ८८ डीलर कुछ का लाइसेंस रद्द है एक डीलर जिनके १५० राशनकार्ड है, मई, जून २०१० का राशन दे दिए कार्ड पर चढ़ा दिए और पीला कार्ड वाले का ६९.९८० किलोग्राम और लाल कार्ड वाले का ६५.९६० किलोग्राम में से ३० किलोग्राम दे दिए बाकी अनाज अगर १८ रूपये प्रति किलोग्राम मूल्य है ३० किलोग्राम का दाम ५४० रूपये हुआ, ३० की जगह 60 रू. डीलर के लेने के बाद भी एक कार्ड पर ४८० की लुट हुआ तब ७२ हजार रू. अनाज से भूख का लुट लिया जाता है और एक लाख आबादी से ६८ लाख २६ हजार रू. भोजन का अनाज लुटा जा रहा हो इंसान अपराधी, उग्रवादी बनेगा ही। लेकिन नाम लिखा है। तब जिस तरह एक सांसद 10 लाख एक विधायक 2 लाख औसत जनता का मालिक होते है उसी तरह १५०-३०० का ये मालिक होंगे, जनता जानेगा, तब वह आंवटित सूचि दुकान पर आवंटन के बाद तुरंत सटवाएगा, रसीद पर भुगतान देकर, सही तौल, उचितदाम में, कार्ड किसी के पास है या नही, अगर सारे लोगों का अनाज यहीं पैदा होने लगेगा, अनाज का मांग नही करेगा सारे बातों का जिम्मेदार होगें अगर महाराष्ट्र के वर्धा के बारबड़ी गांव में गांधी के छाती पर प्लांट लग गया तब अहमद नगर का हिबरे बाजार पंचायत जहां ५० ग्राम भोजन का छूट नही है सब उदाहरण है, प्रखंड में आपूर्ति पदाधिकारी जन सूचना अधिकारी है जिन्हें मार्च २००६ में ही कार्यालय के दीवाल पर यह लिख देना था, लेकिन आज तक जो नहीं लिखे अब लिखवा दे सूचना कानून द्वारा जब हमारा राशन लुटा जा रहा है जानेगें आजादी के ६२ वें साल में हमारा प्रशासन समाज भोजन के लुट को रोक नहीं पा रहे हैं रोक सकते हैं सोंचे ??? !!!

मनरेगा-सूचना:- मनरेगा ०२-०२-०६ से देश के २०० जिलों में लागू होकर आज पूरे देश में जनता को
कानूनी अधिकार के रूप में मिला है। सूचना कानून १३-१०-०५ से पूरे देश जम्मू-कश्मीर को छोड़कर में लागू है। इन दोनों कानूनों के बाद मार्च २००६ में पंचायत कार्यलय में जन सूचना अधिकारी कौन हैं किस दिन कब से कब तक बैठते हैं। पंचायत की दीवाल में लिखना था इससे पंचायत कार्यालय नियमित खुला रहता, पलामू जिला में प्रखंड सप्ताह में एक दिन चलता है वहाँ जनसूचना अधिकारी कौन है, प्रखंड के अन्य विभागों में जनसूचना अधिकारी कौन हैं प्रखंड के कार्यलयों में सूचना कानून द्वारा अध्ययन की व्यवस्था बनाना है सब अब भी दीवाल पर लिख दें आज दो लाख आबादी के दो प्रखंड में ११ से १५ क्लास तक पढ़ने वाले १० हजार छात्र प्रखंड के कॉलेज में पढ़ते हैं४० पंचायत में १००-१०० छात्र नियमित रूप से साल भर रान कार्ड मनरेगा का जॉबकार्ड जाँचना नियमित कर दें। आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक, नैतिक सातों आयामों को छुकर सम्पूर्ण क्रांति ला सकते हैं किसी गांव में अगर १५० परिवार रोजगार कार्डधारी, जॉबकार्ड धारी हैं, ३० जॉबकार्ड पर एक-एक हाजिरी, पानी स्वास्थ्य कर्ता जो १५ सदस्यीय रोजगार समिति होगा चुनाव कर इनका नाम गांव के दीवा पर लिख दिया जायें आज २००५-०६ से २००९-१० तक का जॉबकार्ड का समय खत्म हो चुका है किस कार्डधारी को सालों में किस साल कितना मजदूरी मिला रिकार्ड गांव की दीवाल पर लिख दिया जाय। ३० वर्ग फिट दिवाल पर १५० का ५ साल का रिकार्ड लिख और १०१०-११ से २०१४-१५ तक का नया फोटो युक्त नवीनीहत जॉब कार्ड दे दिया जाय। पंचायत कार्यालय मनरेगा के ५ साल का आमद-खर्च सार्वजनिक कर दे, सार्वजनिक प्रवृत्ति का कानूनी योजना है, ५ साल छोड़ नया सोचे गुनाह माफ़ के आज एक पंचायत में ५ हजार आबादी है, मनरेगा में पंचायत के खाता में एक करोड़ एक साल में फंड है। पंचायत सेवक, रोजगार सेवक, बी.पी.ओ., बी.डी.ओ., डी.सी., सांसद, विधायक, जिला परिषद, मुखिया, वार्ड इनके उम्मीदवार पुलिस उग्रवादी, मीडिया है, सार्वजनिक प्रवृति के कानूनी योजना में एक पंचायत में २७ बिचौलिया है अभी जनता जाँच प्रक्रिया पलामू में चल रहा है जनता के लुटेरे जांचकर्ता चुना गए यही सरकारी सेवक समाज का चालान बिना कार्य स्थल पर बोर्ड लगाए काम करा रहे हैं खुद मजदूरों का हाजिरी पर ठेपा हस्ताक्षर कर हाजिरी बना रहे है और एक पंचायत में एक डाक घर है मजदूरों का फर्जी ठेपा हस्ताक्षर कर भुगतान ले रहे हैं २७ बिचौलिया १००० जॉब कार्ड रखे हैं समाज का कोई भी पुलिस उग्रवादी, नेता बिचौलिया से कार्ड दूसरे का रखने के जुर्म में कार्ड धारी को एक हजार दंड दिला सकते है, वित्तीय संस्थान फर्जी भुगतान आज तक सिर्फ मनरेगा में कर रहा है । प्रशासन रुकावाएं, कहा हैं समाज अगर कार्यस्थल पर बोर्ड हो, मास्टर रोल, पानी, छाँव, दवा का व्यवस्था हो पंचायत में जन सूचना अधिकारी का नाम लिखा हो गाँव का ही कोई मास्टर रोल स्थल पर देखता तब गाँव का आदमी, अन्याय नहीं करता ७ दिन में सूचना देना है ७ दिन में पूरी योजना का कागजात निकलवाकर मौलिक सत्यापन करा सकता है। आज १७६ जिलों में माओवादी हैं ६ अप्रैल २०१० को ७६ सुरक्षाबलों को मार दिए लेकिन एक पंचायत में २७ बिचौलिया पालकर सार्वजनिक प्रवृति के कानूनी मामूली सुधार नहीं कर रहे हैं। इंसानों १७६६ में स्वीडन में सबसे पहले सूचना कानून लागू हुआ वहां हर सरकारी कार्यालय के बारे में ७५ प्रतिशत जनता हर वक्त हर स्थिति से
वाकिफ हैं इसी लिये आजादी का आलम यह है कि वहां के केन्द्रीय मंत्री पत्नी के साथ बिना सुरक्षा के फ़िल्म देखकर आवास पर आते हैं। और यहाँ विधायक २२ फ़ौज लेकर चलते हैं हमारे अधिकारी ५ साल में १ प्रतिशत जनता को सूचना नही दिया लेकिन भविष्य के लिये आजादी के लिये सूचना दें ४५६२ पंचायत कार्यालय में जन सूचना अधिकारी का नाम दीवाल में लिखवा दें।

अत: मनरेगा में ०५-०६ से ०९-१० तक में किस कार्डधारी को कितना मजदूरी मिला रिकार्ड लिखवा दें, गाँव में जिस दिन जन सुनवाई है उस दिन सार्वजनिक कर दें १०-११ से १४-१५ का नया फोटो युक्त जॉब कार्ड दे दें या नए जॉब कार्ड के लिए पंचायत में मजदूर आवेदन करें, पंचायत में जन सूचना अधिकारी कौन हैं पंचायत सप्ताह में कितने दिन कब से कब तक और कौन रहेगें जानकारी में दीवाल में लिख दें, अब ३० मजदूर एक साथ काम मांग सकते है
कम्पयुटराइज फार्म है उस पर हाजिरी, पानी, स्वास्थ्य का चुनाव कर १५० जॉब कार्ड धारियों के गांव में १५ सदस्यीय रोजगार समिति का चुनाव कर नाम दीवाल में लिखवा दें अब फार्म पर १४ दिन लगातार काम का आवेदन दें, ४.४.४ का स्वीकृत रसीद लें कार्य का आदेश लें, कार्यस्थल पर बोर्ड हो, कार्य का आदेश लें, कार्यस्थल पर बोर्ड हो, मास्टर रोल, पानी, दवा, छांव हो काम करें। १४ दिन लगातार काम कर हाजिरी बनाएँ, १५ वाँ दिन मास्टर रोल जमा कर दें इसके बाद १५ वें दिन खुद डाकघर में जाकर भुगतान लें, कार्ड, पासबुक कानूनी दस्तावेज है किसी को न दें काम वही मांगे जो काम कर सकते हैं वरना कार्य आदेश मिला हो काम नहीं किए बेरोजगारी भत्ता नहीं मिलेगा अगर मास्टर रोल जमा स्वीकृत करा कर रहे है १५ दिन तक मजदूरी नहीं मिला, सरकारी सेवक के वेतन से दो हजार दंड के साथ मजदूरी मिलेगा तब आज कोई राजनीतिक दल पहल नहीं कर रहे है अफसोस !!! अगर भारत सरकार १०० की जगह २०० दिन मजदूरी कर दे, शिक्षा, उद्योग या दूसरी जगह भी मजदूरी बढ़ाकर काम लिया जा सकता है जहां हमारा लोकतंत्र जो सरकारी सेवकों या आज ३० छात्र पर एक शिक्षक की आवश्कयता है इस योजना से पूरा हो सकता है अगर पंचायत में एक करोड़ फंड है, तब अभियंता या समाज से आग्रह है कि साल में ८० लाख मजदूरी का क्या योजना हैं समझ के भाषा के अगर हजार जॉब कार्ड धारी या ३५ हाजिरी बनाने वाले समझ रहे है मनरेगा सफल हो सकता है।

ज्ञान, शक्ति, इंसान के अन्दर प्राकृतिक है झारखण्ड में अगर ४५६२ मुखिया ४५० जिला परिषद, ८२ विधायक, २०४ शहरी निकाय इन्हें अगर एक बैनर, झंडा, सिद्धान्त के नीचे राजनीतिक शिक्षा दिया जाय, सूचना, मनरेगा, स्वायतता, संधि को पढ़ाकर चुनाव लड़ाया जाय, झारखण्ड में 1 कडढा जमीन की कीमत १० हजार से एक लाख समझ रहे है भूल है आपके भूमि की कीमत अगर नीचे खनिज है। 1 करोड़ कडढा हो सकता है आप नहीं जान रहे है कोई जान रहा हैं इस प्रकार एक अलग सपनों का झारखण्ड बन सकता है !!! मन का मरहम अगर दोस्ती है तब लोकतंत्र का मरहम जनता को शब्दों द्वारा राजनीतिक बनाने है। लहरें क्या गिनते हो चलो उठो प्रवाह बदलने हैं। पतवार बदलकर देख चुके अब मल्लाह बदलने है !!

इन्द्रनाथ सिंह

देश की शान शर्मिला

दुनिया के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश के करीब छठे भाग पर गैर लोकतांत्रिक सैन्य शासन लगभग पिछले ५० सालों से लागू है ओर इस तथाकथित लोकतंत्र में जो भी संवैधानिक अधिकार एक नागरिक को है वह सब छीन लिए गए हैं। यूँ तो ये सारे अधिकार रोजमर्रा की जिन्दगी का हर क्षण नौकर शाही - शासन सत्ता द्वारा रौंदे जाते हैं पर इसका अहसास सबको गहरे तक नहीं होता और जिसे इसका अहसास गहरे तक हो जाता है । वह इसके प्रतिरोध में उठ खड़ा होता है। ऐसा ही एक नाम है - इरोम चानू शर्मिला का जो देश के उत्तर-पूर्वी हिस्से से जिससे शेष भारत अनजान सा रहता है। वैसे तो यह विस्मयकारी विशिष्टताओं वाला इलाका माना जाता रहा है । उत्तर-पूर्व क्षेत्र में इस समय आठ राज्य है-असम, मेघालय, नागालैंड, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम, त्रिपुरा और मणिपुर। वह मणिपुर की रहने वाली एक साधारण लड़की आज दुनिया में अहिंसात्मक प्रतिरोध की प्रतीक बन चुकी है। सन १९५८ से मणिपुर में लागू आमर्ड फोर्सेज स्पेशल पावर एक्ट का विरोध तो इसके लागू होने के साथ ही शुरू हुआ क्योंकि एक पन्ने का यह कानून इतना खतरनाक है कि अपने पूरे संविधान की धज्जियां उड़ा देता है

भारत में ऊर्जा परिदृश्य एवं बिजली परियोजनाएं अवधारणा एवं रणनीति

आज भारत को भावी सुपर पॉवर कहकर प्रचारित किया जा रहा है और इसके साथ ही ऊर्जा की आवश्यकता भी अभूतपूर्व स्तर पर बढ़ रही है। भारत विश्व का ६ वां सबसे बड़ा ऊर्जा का उपभोक्ता है, जो कि विश्व की कुल ऊर्जा उपभोग का ३.४ फीसदी खर्च करता है। भारत के आर्थिक विकास के कारण, ऊर्जा की मांग पिछले ३० सालों में ३.६ फीसदी सालाना दर से बढ़ी है। मार्च २००९ में, भारत की स्थापित क्षमता १,४७,००० मेगावाट थी, जबकि प्रति व्यक्ति बिजली का उपभोग ६१२ किलोवाट था। भारत का सालाना बिजली उत्पादन सन १९९१ में १९० अरब किलोवाट था, जो कि सन २००६ मे बढ़कर ६८० अरब किलोवाट हो गया। भारत सरकार ने अपनी क्षमता में सन २०१२ तक करीब ७८,००० मेगावाट अतिरिक्त बिजली जोड़ने की महत्वाकांक्षी योजना बनायी है। जबकि योजना आयोग का कहना है कि सन २०३२ तक यह मांग बढ़कर ३,००,००० मेगावाट हो जाएगी (यदि ९ फीसदी के दर से वृद्धि होती है तो, जबकि ८ फीसदी के दर से वृद्धि होती है तो २,००,००० मेगावाट होगी)।

भारत में स्थापित ऊर्जा के अंतर्गत ६४ फीसदी ताप बिजली संयंत्रों से, २३ फीसदी पनबिजली संयंत्रों से, ३ फीसदी परमाणु बिजली संयंत्रो से एवं १० फीसदी नवीनेय ऊर्जा स्त्रोतों से उत्पादित होता है। भारत के ५० फीसदी से ज्यादा व्यावसायिक ऊर्जा की मांग की पूर्ति देश के विशाल कोयला भंडार से होती है। भविष्य की आवश्यकताओं के संदर्भ में तो बहुत सारे अनुमान मौजूद है जबकि वही ऐसी बिजली आधारित अर्थव्यवस्था एवं विकास तय करने की जरूरत पर कोई सवाल नहीं उठाता है। नियोजक एवं नीति निर्धारक यह बेहतर जानते हैं कि ऐसे मॉडल को कायम रखना कठिन है लेकिन बड़े लीग में शामिल होने के अपने पागलपन में भारत ऐसी चेतावनी को नजरअंदाज कर रहा है। कागजों में भारत की ऊर्जा नीति चार प्रमुख निर्धारकों के बीच तालमेल से निर्धारित होती है :

. बिजली, गैस एवं पेट्रोलियम उत्पादों की विश्वसनीय एवं भरोसेमंद आपूर्ति की जरूरत सहित, तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था से,
. बिजली स्वच्छ खाना पकाने के ईंधन की सस्ती एवं पर्याप्त आपूर्ति की जरूरत सहित, घरेलू आमदनियों को बढ़ाने से,
. जीवाश्म ईंधनों की सीमित घरेलू भंडारण, एवं गैस, कच्चे तेल एवं पेट्रोलियम उत्पादों की जरूरतों के विशाल हिस्से के आयात एवं हाल ही में कोयला आयात की जरूरत से,
. स्वच्छ ईंधन एवं स्वच्छ तकनीकों को अपनाने की जरूरत को लागू करतें हुए आंतरिक, शहरी एवं क्षेत्रीय पर्यावरणीय असरों से।

इन तालमेंलों को हासिल करना अक्सर मुश्किल होता है। उदाहरणतया, पर्याप्त एवं सस्ती बिजली का उत्पादन एवं उपयोग लगातार एक चुनौती है क्योंकि आपूर्ति का प्रसार, एवं स्वच्छ तकनीकों को अपनाना, खासकर नवीनेय ऊर्जा के मामलों में, यह अक्सर समझा जाता है कि ये बिजली खासकर ग्रामीण इलाकों सहित बहुत सारे भारतीयों के लिए काफी महंगी होती है। हाल के सालों में, इन चुनौतियों के फलस्वरूप लगातार तमाम सुधार एवं पुनर्गठन हुए है।

हालांकि, इन चुनौतियों को पूरा करने के लिये, भारत सरकार ने पूरे देश भर में काफी संख्या में ताप बिजली एवं पनबिजली संयन्त्र एवं कुछ परमाणु बिजली संयंत्र स्थापित करने की योजना बनाई है। हमने बड़े बांधों, ताप एवं परमाणु ऊर्जा संयंत्रो के लगातार विरोध एवं पिछले अनुभवों से जाना है कि यदि ये योजना पूरी होती हैं तो इसकी व्यापक सामाजिक एवं पर्यावरणीय लागत आएगी। जिन बांधों को वास्तव में पहले सिंचाई के उद्देश्य पूरा करने के लिए बनाया गया है, उनके पानी को अब नदी के किनारों पर प्रस्तावित ताप बिजली एवं परमाणु बिजली संयंत्रों के लिए मोड़ा जा रहा है।

हम महसूस करते हैं कि अपने पूर्व प्रयासों को जारी रखते हुए बढ़ा चढ़ाकर पेश की गई ऊर्जा की मांग, ऊर्जा खपत वाले औद्योगिकीकरण, शहरीकरण व समाज के निर्माण एवं नवीनेय ऊर्जा स्त्रोतों पर जोर न दिये जाने को चुनौती देना व उन पर सवाल उठाना जरूरी है। इसी उद्देश्य के लिये हम आज देश भर में जारी विभिन्न संघर्षें के समर्थन में, भारत में ऊर्जा परिदृश्य एवं बिजली परियोजनाएं : अवधारणा एवं रणनीति विषय पर एक निरंतर अभियान छेड़ने का प्रस्ताव कर रहे हैं इस सन्दर्भ में पहली गोष्ठी १ -२ अगस्त २०१० को भोपाल में आयोजित की जा रही है। हमने निम्न पांच मुद्दों पर चर्चा की योजना बनायी हैं :
1. आज की ऊर्जा परिस्थिति (ताप एवं पनबिजली) को समझना एवं समीक्षा करना।
2. असर एवं चुनौतियां
3. नवीनेय ऊर्जा स्त्रोतों की समझ
4. ऊर्जा का अर्थ शास्त्र
5. भावी रणनीति एवं संघर्ष।

इस गोष्ठी में हमारा मुख्य फोकस ताप एवं पनबिजली संयंत्रों पर रहेगा जबकि परमाणु ऊर्जा संयंत्रों पर थोड़ा कम होगा। इस गोष्ठी में आंदोलन समूह, सहयोगी शोधार्थी, और विभिन्न कार्यरत एवं प्रस्तावित बिजली संयंत्रों के खिलाफ संघर्ष में लगे लोग शामिल होंगे। कुल मिलाकर उद्देश्य यह है कि ऊर्जा की जरूरतों, उत्पादन एवं वितरण के बहस के संदर्भ को एक योजना इकाई के तौर पर ग्राम/ग्राम सभा सहित जन संदर्भ की ओर ले जाया जाए। जबकि आज पूरा बहस शहरीकरण एवं औद्यागिकीकरण के संदर्भ पर फोकस किया जाता है।

मधुरेश

जिला जज मेरठ के ज0सू0अ0 पर जुर्माना लगा, हटा और अब पत्रावली गायब

लखन, मेरठ के 85 वर्षीय लोकतान्त्रिक सेनानी कृष्ण कुमार खन्ना नें ‘सर्वोदय मण्डल’ के माध्यम से मेरठ के जिला जज के अधीन अदालतों में पेशकारों व अहलकारों द्वारा प्रतिदिन ली जा रही रिश्वत की रोकथाम करने हेतु 66 पत्र लिखे, जब कुछ नहीं हुआ तो उन्होंने आर.टी.आई. के तहत दि. 14.05.07 को इसी आशय की चार-सूचनाएं माँगी, पंजीकृत डाक से भेजे गये निवेदन को जिला जज के जनसूचना-अधिकारी बच्चू लाल ने लेने से ही मना कर दिया।

कृष्ण कुमार ने सूचना आयोग में शिकायत दाखिल करके जुर्माना लगाने व सूचनाएं दिलाने की प्रार्थना की, सुनवाई की आधा दर्जन तिथियाँ लगी, जिसमें जिला-जज के जन सूचना अधिकारी या उनके प्रतिनिधि एक बार भी आयोग में उपस्थित नहीं हुये तो दि0 11.01.08 को सूचना आयुक्त डॉ. अशोक कुमार गुप्ता ने रू0 २५०००/- का जुर्माना लगाया, सुनवाई जारी रही। आयोग की अनुमति दि0 16.04.08 को परिवादी कृष्ण कुमार आयोग में नहीं आये तो उसी दिन एक पक्षीय फैसला देकर लगाये गये जुर्माने को हटा दिया। इस पर परिवादी कृष्ण कुमार ने सूचना-आयुक्त डॉ. अशोक कुमार गुप्ता को पुनर्विचार का प्रार्थना-पत्र दिया जिसे दि0 03.११.09 को स्वीकार कर लिया गया किन्तु लगाये जुर्माने के बारे में कुछ नहीं कहा तथा सुनवाई की अगली तिथि दि0 30.12.09 लगा दी।

अब सुनवाई, सूचना आयुक्त ज्ञानेद्र शर्मा के समक्ष हुई जिसमें परिवादी कृष्ण कुमार के साथ नामचीन आर0टी0आई0 एक्टिविस्ट प्रोफेसर देवदत्त शर्मा व अखिलेश सक्सेना उपस्थित हुवे तथा विपक्षी ज0सू0अ0 या उनकी ओर से कोई उपस्थित नहीं हुआ। सुनवाई के बाद सूचना आयुक्त ज्ञानेद्रशर्मा ने अन्तिम आदेश को सुरक्षित कर लिया और शीघ्र ही घोषित करने को कहा।

खास बात यह है कि लगभग एक वर्ष छ: महीने गुजरने के बाद भी अन्तिम आदे अभी सुरक्षित ही है तथा अब फाईल ही नहीं मिल रही है। परिवादी के प्राधिकृत प्रतिनिधि प्रो0 देवदत्त र्मा का कहना है कि लगभग एक वर्ष तक अन्तिम आदेश को सुरक्षित रखना और अब पत्रावली का न मिलना, विधि से खुला खिलवाड़ है। प्रो. शर्मा ने माँग की है कि राज्यपाल महोदय को दोषी आयुक्तों व सचिव के विरूद्ध कड़ी कार्यवाही करनी चाहिये।

देव दत्त शर्मा