क्या है जन लोकपाल बिल

कुछ जागरूक  नागरिकों द्वारा शुरू की गई एक पहल का नाम है 'जन लोकपाल बिल'. इस कानून के अंतर्गत, केंद्र में लोकपाल और राज्यों में लोकायुक्त का गठन होगा. जस्टिस संतोष हेगड़े, प्रशांत भूषण और अरविन्द केजरीवाल द्वारा बनाया गया यह विधेयक लोगो के द्वारा वेबसाइट पर दी गयी प्रतिक्रिया और जनता के साथ विचार विमर्श के बाद तैयार किया गया है. यह संस्था निर्वाचन आयोग और सुप्रीम कोर्ट की तरह सरकार से स्वतंत्र होगी. कोई भी नेता या सरकारी अधिकारी जांच की प्रक्रिया को प्रभावित नहीं कर पायेगा. इस बिल को शांति भूषण, जे. एम. लिंगदोह, किरण बेदी, अन्ना हजारे आदि का भारी समर्थन प्राप्त हुआ है.

इस बिल की मांग है कि भ्रष्टाचारियो  के खिलाफ किसी भी मामले की जांच एक साल के भीतर पूरी की जाये. परिक्षण एक साल के अन्दर पूरा होगा और दो साल के अन्दर ही भ्रष्ट नेता व आधिकारियो को सजा सुनाई जायेगी . इसी के साथ ही भ्रष्टाचारियो का अपराध सिद्ध होते ही उनसे सरकर को हुए घाटे की वसूली भी  की जाये. यह बिल एक आम नागरिक के लिए मददगार जरूर साबित होगा, क्यूंकि यदि किसी नागरिक का काम तय समय में नहीं होता तो लोकपाल बिल दोषी अफसर पर जुरमाना लगाएगा और वह जुरमाना शिकायत कर्ता को मुआवजे के रूप में मिलेगा. इसी के साथ अगर आपका राशन कार्ड, मतदाता पहचान पत्र, पासपोर्ट आदि तय समय के भीतर नहीं बनता है या पुलिस आपकी शिकायत दर्ज नहीं करती है तो आप इसकी शिकायत लोकपाल से कर सकते है.  आप किसी भी तरह के भ्रष्टाचार की शिकायत लोकपाल से कर सकते है जैसे कि सरकारी राशन में काला बाजारी, सड़क बनाने में गुणवत्ता की अनदेखी,  या फिर पंचायत निधि का  दुरूपयोग.

लोकपाल के सदस्यों  का चयन जजों, नागरिको और संवैधानिक संस्थायो द्वारा किया जायेगा. इसमें कोई भी नेता की कोई भागीदारी नहीं होगी.  इनकी नियुक्ति पारदर्शी तरीके से, जनता की भागीदारी से होगी.
सीवीसी, विजिलेंस विभाग, सी बी आई  की भ्रष्टाचार निरोधक विभाग (ऐन्टी करप्शन डिपार्ट्मन्ट) का लोकपाल में विलय कर दिया जायेगा. लोकपाल को किसी जज, नेता या अफसर के खिलाफ जांच करने व मुकदमा चलाने के लिए पूर्ण अधिकार प्राप्त होंगें.

इस बिल की प्रति प्रधानमंत्री एवं सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को १ दिसम्बर २०१० को भेजी गयी थी, जिसका अभी तक कोई जवाब नहीं मिला है. इस मुहीम के बारे  में आप ज्यादा जानकारी  के लिए www.indiaagainstcorruption.org पर जा सकते हैं. इस तरह की पहल से समाज में ना सिर्फ एक उम्दा सन्देश जाएगा बल्कि, एक आम नागरिक का समाज के नियमों पर विश्वास भी बढेगा. हर सरकार जनता के प्रति  जवाबदेह है, और भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाना हर नागरिक का हक है.

निधि शाह
(लेखिका सिम्बोयोसिस इंस्टिट्यूट ऑफ़ मीडिया एंड  कम्युनिकेशन की छात्रा  हैं )

क्या भ्रष्टाचारी राजद्रोही नहीं हैं ?

२४ दिसम्बर २०१० को बिनायक सेन को छत्तीसगढ़ कोर्ट ने उम्रकैद की सजा सुनाई. बिनायक सेन ने काले कानूनों  के खिलाफ न्याय मांगने  की हिम्मत जताई थी.  हमारे कानून के मुताबिक राजद्रोह का मतलब है  देश व सरकार के खिलाफ लोगों को भड़काना एवं अनचाही हिंसा जागरूक करना. तो अगर सेन राजद्रोही हुए तो उन  विरोधी पार्टियों को हम क्या कहेंगे जो हमेशा सरकार की खिल्ली उड़ाती रहती हैं?  वहीं  दूसरी ओर उन भ्रष्टाचारियों को भी राजद्रोही करार देना चाहिए जिन्होनें  सरकार का इतना नुक्सान कराया है. बिनायक सेन जैसे कार्यकर्ता तो समाज के उस वर्ग की आवाज़ बनना चाहते थे, जो वर्ग हमारे समाज में अल्पसंख्य है. सेन ने छत्तीसगढ़ के उन आदिवासियों  के विकास में मदद की जिनकी कोई पहचान भी नही थी. पर ऐसी जगहों पर संघर्ष करने वाले लोगों को माओवादी करार कर दिया जाता है.
     
बिनायक सेन के साथ भी यही हुआ. उन्हें माओवादी, आतंकवादी व  राजद्रोही जैसे अपमानजनक संबोधन  सहने पड़े. उनकी कोशिश बस इतनी थी कि सरकार द्वारा शुरू किये गए बाज़ार वार में वे इन छोटी जातियों को जिंदा रखना चाहते थे. सरकार और मल्टीनेशनल कम्पनियों की साझेदारी ने आदिवासियों से उनकी ज़मीन व उनके हक तक छीन लिए थे. जब बिनायक ने इसके खिलाफ आवाज़ ऊँची करी तो उन्हें राज्यद्रोह के मामले में उम्रकैद की सजा सुना दी गई.

उन पर यह भारी इलज़ाम लगाते समय उनके द्वारा किये गए अनेकों सामाजिक कार्य भुला दिए गए. बिनायक सेन ने १९८१ में छत्तीसगढ़ में शहीद अस्पताल बनवाया था. यह इस राज्य का पहला ऐसा अस्पताल है जहाँ सही इलाज़ के साथ साथ स्वास्थ्य सम्बंधित शिक्षा भी दी जाती है. इसकी एक और खासियत यह है कि यहाँ काम करने वाले सभी कर्मचारियों को कम्युनिटी ट्रेनिंग द्वारा तैयार किया गया है. यानी स्वास्थ्य  के साथ साथ रोजगार का जरिया भी बनाया गया. बिनायक ने मलेरिया और टी. बी. के क्षेत्र में भी कई योगदान दिए है. पर सरकार को यह मंजूर नहीं हुआ कि कोई उसकी गलत कार्यप्रणाली के खिलाफ आवाज़ उठा कर  जवाब मांगे.

 बिनायक सेन की पत्नी इलिना सेन,बताती हैं कि  "कोर्ट कहता है कि  बिनायक बहुत असहज प्रश्न उठाते हैं  इसलिए उन्हें रोकना चाहिए." कोर्ट की माने तो बिनायक के खिलाफ कई सबूत हासिल हुए है जिससे वो दोषी पाए गए हैं , पर बिनायक के सहयोगी इन सभी सबूतों को फर्जी बताते  है. इलिना सेन ने बताया कि पुलिस उनके घर छानबीन करने पहुँची और बहुत सा सामान जब्त कर लिया. बिनायक के कंप्यूटर में मिले हर एक मुस्लिम के नाम को आतंकवाद के साथ जोड़ा गया और बिनायक को अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादी करार ठहराया गया. बिनायक की कोर्ट में पेशी के दौरान दो विधवा महिलायें बिनायक को फाँसी देने की मांग करने लगीं. बाद में यह पता चला क़ि  उनके पति माओवादी हमले में मारे गए थे और पुलिस ने उन ममहिलाओं को सेन के खिलाफ भड़काया था . सवाल ये है क़ि राज्य का इस तरह से लोगो की भावनाओं का इस्तेमाल करना कितना उचित है? यह तो हमारे जीवन एवं स्वतंत्रता पर राज्य का हमला हुआ. ऐसे कई और उदाहरण है जिसमें  अपने अधिकार  के लिए उठाई गयी आवाज़े दबा दी गयी हैं .

२६  जनवरी २०१०  को , सामाजिक  कार्यकर्ता  पियूष  को इसलिए  गिरफ्तार  कर  लिया  गया था  क्यूंकि  उन्होंने  दंतेवाडा  में हुए  बलात्कार  के  आरोपियों  को  गिरफ्तार  करने की मांग की  थी. वहीं कर्नाटक की  पी . यु. सी.एल. की  अध्यक्ष  रति  राव को  भी  गिरफ्तारी  दी  गयी  जब  उन्होंने  सरकार  द्वारा की गए फर्जी मुठभेड़ों   का  खुलासा  किया . डाक्टर   रूपरेखा  वर्मा  कहती  है  "अगर  सरकार  एक  बिनायक  सेन  को  मारेगी  तो  १०००  और  पैदा  होंगे."  डाक्टर  कविता  श्रीवास्तव  का कहना है :  'नरेगा , आर.टी.आई., महिला उत्पीड़न, आदि क्षेत्रों में यदि आप काम  करेंगे  तो  जवाबदेही  तो  मांगेगे ही; आप आन्दोलन  करेंगे  और  सरकार  बोलेगी क़ि आप  आतंकवादी  है ”

पर  इन  सब  के  बावजूद  सरकार  की  जवाबदेही  कम  नहीं  हुई  है . ऐसे  बहुत सारे मुद्दे  हैं  जिन  पर  जवाब  मिलना  बाकी  है  और  सामूहिक मांग से हम जवाब पा कर रहेंगे . 

निधि शाह
(लेखिका सिम्बोयोसिस इंस्टिट्यूट ऑफ़ मीडिया एंड  कम्युनिकेशन की छात्रा है ) 

देश व विदेश की महिला शक्ति

20वीं सदी यानी करीब सौ साल पहले, प्रथम विष्व युद्ध के दौरान ब्रिटेन में महिलाओं को वोटिंग का हक नहीं था। पर जब सभी पुरूष युद्ध लड़ने के लिए सीमा पर चले गये तो समाज के बाकी व्यवसाय जैसे डॉक्टरी, दुकानदारी, प्रशासनिक कार्य महिलाओं ने संभाले। यह देखते हुए समाज को यह विश्वास  हुआ कि एक नारी भी सशक्त है और समय आने पर लगभग हर वह काम संभाल सकती है जो पुरूष करते हैं। इसके बाद ब्रिटेन में महिलाओं को अपना मत डालने का हक मिल गया।

महिलाओं को हमेशा से समाज का कमजोर वर्ग मानकर दबाया गया है। घर में बेटी पैदा होना तो अभिशाप के बराबर है। समाज के ऐसे दायरे बना दिये गये हैं कि लड़की को बोझ समझा जाता है। 1901 में जब भारत में जनगणना की शुरूआत हुई थी तो लिंग अनुपात  ९७०:१००० था, और आज का लिंग अनुपात ९३२:१००० है। यानी हर हजार लड़कों के मुकाबले 932 लड़कियां। जबकि महिलाओं का पैदा होने का स्तर तो पुरूषों के बराबर है, तो यह असमान्यता क्यों? यह इस लिए क्योंकि महिलाओं की  मृत्यु दर बहुत ज्यादा हो गयी है। भ्रूण हत्या, दहेज प्रथा, स्वास्थ्य एवं अन्य हिंसा महिलाओं के मौत का कारण है। भ्रूण हत्या जैसा घिनौना पाप न केवल समाज के निचले वर्ग में सक्रिय है, बल्कि पढ़े लिखे लोगों में भी यह चलन तेजी पकड़ रहा है।

चीन में जब मार्क्सवादी शासन था तब कहा गया था कि हमारी जनसंख्या हमारी ताकत है। पर समय के साथ उस देश को भी यह समझ आ गया कि बढ़ती जनसंख्या देश के विकास में रोड़ा बन सकती है। तब से वहां परिवार नियोजन को बढ़ावा दिया जाने लगा और ‘‘हम दो हमारा एक’’ के नारे का सख्ती से पालन होने लगा। परन्तु इसका परिणाम यह हुआ कि चीन में लड़कियों का पैदा होना तेजी से कम हो गया। अन्तर्राष्ट्रीय युनिवर्सिटी, वर्धा में कार्यरत, इलिना सेन कहती हैं कि ‘‘समाज अगर औरतों को उनका हक नहीं देगा तो औरतों को उसके लिए संघर्ष करना होगा, जैसे यूरोप और अमेरिका में औरतों ने किया। वे आगे आयीं और तब तक लड़ी जब तक उन्हें उनके अधिकार नहीं मिल गये।’’

हम तो यह उम्मीद करते हैं कि कानून के माध्यम से हमें न्याय मिले।

निधी शाह
(लेखिका सिम्बोयोसिस इंस्टिट्यूट ऑफ़ मीडिया एंड कम्युनिकेशन की छात्रा है ) 

क्यों पढ़ें वूमेन्स स्टडीज़ ?

आधुनिकता ने हमारे समाज को अच्छी तरह जकड़ लिया है। जैसे-जैसे क्षेत्रीय विकास बढ़ा है वैसे-वैसे लोगों की हर क्षेत्र में दिलचस्पी भी जागी है। पहले के मुकाबले कई नये क्षेत्र, पाठ्यक्रम व विषय आ गये हैं। लोगों में नयी चीजों को जानने की जिज्ञासा बढ़ी तो साथ में जानकारी पाने के नये यन्त्र भी उजागर हो गये हैं। विभिन्न तरह की रिसर्च, संवाद, वाद विवाद, फोरम्स, आर0टी0आई0 से लोग नये मुद्दों के साथ जुड़ने लगे तथा समाज के प्रति और जिम्मेदार हुए।

पढ़ाई के क्षेत्र में भी इन मुद्दों को विषय के रूप में लाया गया ताकि लोग जागरूक हों। ऐसा ही एक मुद्दा महिला शोषण का है जिसे वूमेन्स स्टडीज़ के रूप में पाठ्यक्रम में सामिल किया गया है. वूमेन्स स्टडीज़ नाम के कोर्स में महिलाओं से जुड़ी हर तरह की परेशानियों व उनके समाधान के बारे में जानकारी दी जाती है। साथ ही छात्र इतने जागरूक होते हैं कि संगठनों के साथ जुड़कर या स्वंय सेवक बनकर महिलाओं के शोषण के खिलाफ आवाज़  उठाते हैं। इस तरह का कोर्स देश भर की कई युनिवर्सिटियों में पढ़ाया जाता है। पर सवाल यह आता है कि वूमेन्स स्टडीज़ पढ़े क्यों? यह जानकर भी दुख लगता है कि इस पढ़ाई को करने वाले छात्रों में कई छात्र ऐसे हैं जो इसे सिर्फ एक डिग्री मानते हैं और इसलिए पढ़ रहें हैं क्योंकि किसी और कोर्स में दाखिला नहीं मिला। परन्तु इस तरह की पढ़ाई हमारे समाज की अहम जरूरत है। अगर युवा वर्ग जागरूक  होगा तो कार्य प्रणाली में तेजी आयेगी क्योंकि जोशीली आवाजें ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंच सकती है।

समाज में कई ऐसे मिथ्य हैं जो महिला हिंसा को बढ़ावा देते हैं। मीडिया भी इसमें अहम भूमिका निभाता है। टी0वी0 पर दिखाये जाने वाले सीरियल्स में अक्सर यह दिखाया जाता है कि किस तरह से एक महिला दूसरी महिला के खिलाफ साजिश करती है। इससे समाज में बहुत ही गलत सन्देश जाता है कि महिलाएं खुद अपनी दुश्मन होती हैं। हमसफर संस्था की अध्यक्ष प्रो0 इलिना सेन का कहना है कि ‘‘बाजारवार लगा हुआ है, लगन का मौसम आते ही आप ढेरों ऐसे  विज्ञापन देखेगें जिनसे दहेज प्रथा को बढ़ावा मिल रहा है जैसे कि 'अपनी बेटी को दें उसके सुखद संसार के लिए यही कार'। समाज में इससे यही सन्देश जायेगा कि अपनी बेटी को खुश देखना है तो उसे दहेज में कार दें।

मीडिया भी समाज का हिस्सा है और हर तरह से हमें प्रभावित करता है। समाज में अगर सही सन्देश जायेगा तभी बदलाव आयेगा।                                                                                              

निधी शाह
(लेखिका सिम्बोयोसिस इंस्टिट्यूट ऑफ़ मीडिया एंड कम्युनिकेशन की छात्रा है ) 

कार्यस्थल पर महिलाओं की सुरक्षा

इक्कसवीं सदी में औरत आदमी से कन्धे से कन्धा मिलाकर तो जरूर चल रही है पर इस सफर में उसके सामने कई चुनौतियां आती हैं। ये हमारे समाज का एक पहलू ही है जो औरत का घर से बाहर निकलकर काम करना स्वीकार नहीं करता। औरत को कई तरह के शोषण का सामना करना पड़ता है जैसे कि बलात्कार, दहेज प्रथा, बाल विवाह, द्वि विवाह, घरेलू हिंसा, मांसिक शोषण एवं कार्य स्थल पर यौन हिंसा।

काम काजी महिलाओं का कार्य स्थल पर की जाने वाली छेड़-छाड़ काफी सक्रिय है। महिलाओं को आज भी समाज का एक कमजोर तबका मानते हुए उनके साथ असमान्य व्यवहार किया जाता है। पर कई महिलाओं और संगठनों के आवाज उठाने पर कार्य स्थल पर यौन हिंसा को लेकर एक कानून बनाया जा रहा है।

1997 में कार्य स्थल पर होने वाली हिंसा के लिए दिशा निर्देष ‘विषाखा’ के नाम से जारी किए गये। इन्हीं निर्देषों को एक सख्त रूप  देते हुए इसे कानून बनाने की कोषिष चल रही है। इसके अन्तर्गत कार्य स्थल पर किसी भी तरह की मौखिक हिंसा, अष्लील संकेत या छेड़छाड़ दण्डनीय होगी। कार्य स्थल पर हिंसामुक्त माहौल रखने की पूरी जिम्मेदारी कार्यस्थल के मालिक की होगी। इस कानून के अन्तर्गत यह मान के चलना होगा कि महिला पक्ष निर्दोष है। उच्चतम न्यायालय ने इस पर कई निर्देष जारी किए हैं और कई संगठन इस कानून के लिए काम कर रहें हैं।

इस कानून की एक धारा के मुताबिक घरेलू महिलाएं इसके दायरे में नहीं आयेंगी। उच्च न्यायालय का मानना है कि घर एक निजी क्षेत्र है और निजी मामले कार्य स्थल की श्रेणी में नहीं आते। इसके अलावा अगर कोई भी महिला की याचिका गलत साबित होती है तो उसे दो साल तक की सजा हो सकती है। इन धाराओं से महिला संगठनों में काफी हलचल है। संगठनों की मांग है कि इन धाराओं को कानून से निकाला जाये। राजस्थान की मानवाधिकार एक्जीक्यूटेट व जनरल सेक्रेटरी पी0यू0सी0एल0 सुश्री कविता श्रीवास्तव का कहना है कि ‘‘जितने ज्यादा कानून महिलाओं के लिए बन रहें हैं महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा भी उतनी ही तेजी से बढ़ रही है क्योंकि कोई भी विभाग अपने कर्तव्य का पालन नहीं कर रहा है बल्कि महिलाओं के चरित्र पर ही तरह-तरह के सवाल किए जाते हैं।’’

निधी शाह
(लेखिका सिम्बोयोसिस इंस्टिट्यूट ऑफ़ मीडिया एंड काम्मुनिकेशन की छात्रा है )

अब नहीं है मुझे डर

महिलाओं के साथ आये दिन होने वाली हिंसा के खिलाफ आवाज उठाते हुए लखनऊ के ‘हमसफर’ समूह ने  "अब नहीं है है मुझे डर" नामक पुस्तक का विमोचन किया। हमसफर एक महिला सहायता केन्द्र है जो कि महिला हिंसा व उत्पीड़न के खिलाफ महिलाओं के संघर्ष में उन्हें समर्थन व सहायता प्रदान करता है।
  
इस पुस्तक का यह पहला संस्करण है और इसमें हिंसा का विरोध करती महिलाओं की कहानियां प्रकाशित हुई हैं। अन्याय के खिलाफ, न्याय के लिए उठायी गई सह अवाजें हमारे समाज का ही हिंस्सा हैं। इसमें प्रकाशित उन तमाम महिलाओं की गाथा और उनके साथ हुई हिंसा वाकई दुर्भाग्यपूर्ण है। करीब 12 महिलाओं की कहानियों के अलावा इस प्रकाषन में न्याय तक पहुंचने का रास्ता भी बताया गया है। इसमें संघर्षशील महिलाओं की जरूरतें जैसे स्वास्थ्य, विधिक सलाह और सहयोग को सम्बोधित करने के साथ-साथ राज्य की प्रतिक्रियाएं भी समझायी गई हैं। साथ ही इस प्रकाशन में भारतवर्ष में हो रही हिंसा से सम्बन्धित आंकड़े विस्तृत रूप में दिये गये हैं।

उत्तर प्रदेष की सच्चाई यह है कि महिलाओं के साथ अन्याय व उत्पीड़न की घटनाएं आम बात हो चुकी है। इन प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद कुछ हिम्मती महिलाएं आगे आकर हिंसा मुक्त जीवन के अधिकार को पाने के लिए संघर्ष कर रहीं हैं। ऐसी ही एक कहानी है 38 वर्षीय दलित महिला संगीता की। संगीता का पति होमगार्ड कॉन्स्टेबल के पद पर लखनऊ में नियुक्त है। संगीता को उनका पति बहुत मारता-पीटता है। और कई बार घर से निकाल चुका है। ऐसे में वह कई बार सड़कों पर रहीं हैं क्योंकि उनके पास खाने व रहने का खर्चा भी नहीं होता। उनके पति की होमगार्ड कार्यालय में नौकरी होने के कारण कोई भी पुलिस थाना उनकी शिकायत दर्ज करने को नहीं माना। ऐसे में हम सफर संस्था ने संगीता का साथ दिया।
   
राष्ट्रीय क्राईम व्यूरो के अनुसार उत्तर प्रदेश में महिलाओं के खिलाफ हिंसा के सर्वाधिक मामले हैं, जिनमें बलत्कार, अपहरण, दहेज हत्या, शारीरिक व मांसिक हिंसा व यौनिक छेड़-छाड़ जैसी घृणित घटनाएं शामिल हैं। इस अवसर पर हमसफर समूह ने इन सभी बहादुर महिलाओं का आभार प्रकट किया और साथ ही प्रकाशन  में वित्तीय सहयोग देने के लिए ‘ओक्सफेम' का भी ध्न्यवाद दिया।

निधी शाह
(लेखिका सिम्बोयोसिस इंस्टिट्यूट ऑफ़ मीडिया एंड काम्मुनिकेशन की छात्रा है )

महिलाओं का घरेलू हिंसा से बचाव कानून क्या हैं?

महिलाओं का घरेलू हिंसा से बचाव कानून 2005 एक दिवानी कानून है जिसका मकसद घरेलू रिश्तों में हिंसा झेल रहीं महिलाओं को तत्काल व आपातकालीन राहत पहुंचाना है। इस कानून का मुख्य उद्देष्य किसी भी महिला को हिंसा मुक्त घर में रहने का अधिकार दिलाना है।

हमारे इस समाज में महिलाओं के लिए न मायके में कोई जगह है और नही ससुराल में। यही कारण है कि महिलाएं सर छुपाने के लिए छत और पैर टिकाने के लिए जमीन के एवज में बहुत से अनचाहे समझौते करती रहती हैं। यह भारत में पहला ऐसा कानून है जो महिलाओं को अपने घर में रहने का अधिकार देता है। यह कानून घरेलू हिंसा को रोकने के लिए केन्द्र व राज्य सरकार को जबाबदेह व जिम्मेदार ठहराता है। इस कानून के अनुसार महिला के साथ हुई घरेलू हिंसा के साक्ष्य प्रमाणित किया जाना जरूरी नहीं हैं। महिला के द्वारा प्रस्तुत साक्ष्यों को ही आधार सुनिष्चित माना जायेगा क्योंकि अदालत का मानना है कि घर के अन्दर हिंसा के साक्ष्य मिलना मुश्किल है।

इस कानून के मुताबिक घरेलू हिंसा यानी ऐसी कोई भी हरकत या व्यवहार जो कि महिला के शरीर या स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होकर दर्द या चोट पहुंचाये। ऐसा कोई भी आपत्तिजनक व अनचाहा यौनिक व्यवहार व हरकत जो महिला को शारीरिक कष्ट दे या अपमानित करें या उनके मान-सम्मान पर चोट पहुंचाये। ऐसी समस्त घरेलू संसाधन व सुविधाएं जिसकी महिला व उसके बच्चे को जरूरत हो एवं जिस पर उनका अधिकार बनता हो, पर नियन्त्रण एवं उससे वन्चित रखना।

 इस कानून के तहत घरेलू हिंसा की रोक थाम के लिए जज या अदालत तीन दिन के अन्दर-अन्दर बचावकारी आदेश एवं गिरफ्तारी के वारन्ट जारी करेंगे। घरेलू हिंसा से पीडि़त कोई भी महिला अदालत में जज के समक्ष स्वयं अथवा वकील, सेवा प्रदान करने वाली संस्था या संरक्षण अधिकारी की मदद से अपनी सुरक्षा के लिए बचावकारी आदेष ले सकती है। पीड़ित महिला के अलावा कोई भी पड़ोसी, परिवार का सदस्य, संस्थाएं या फिर खुद भी महिला की सहमति से अपने क्षेत्र के न्यायिक मजिस्ट्रेट के कोर्ट में शिकायत दर्ज कराकर बचावकारी आदेष हासिल किया जा सकता है। घरेलू घटना रपट (डोमेस्ट्रिक इंसिडेंट रिपोर्ट) एक दफ्तरी प्रारूप है जिसमें घरेलू हिंसा की रिपोर्ट दर्ज करायी जाती है। इस कानून के तहत मिलने वाली राहत में बचावकारी आदेष, काउन्सिलिंग, क्षतिपूर्ति, भरण पोषण, बच्चों का संरक्षण और जरूरत पड़े तो रहने की जगह भी दी जाती है। अगर पीडि़त की रिपोर्ट से जज को ऐसा लगे कि पीडि़त को हिंसा कर्ता से आगे भी खतरा हो सकता है तो जज हिंसा कर्ता (पुरूष) को घर से बाहर रहने के आदेष दे सकते हैं। इस कानून के अन्तर्गत नियुक्त प्रोटेक्शन ऑफिसर (संरक्षण अधिकारी) की जिम्मेदारी यह है कि पीडि़त महिला को आवेदन लिखने में मदद करना, आवेदन जज तक पहुंचाना एवं कोर्ट से राहत दिलाना।

परन्तु ये सब जानकारी पीडि़तों तक पहुंचाना एक बहुत बड़ा काम है। महिलाओं के मुद्दों पर काम कर रहे संगठन कई परेशानियों और चुनौतियों का सामना करते हैं। जैसे कि आश्रित गृह की व्यवस्था न होना, संरक्षण अधिकारियों का न मिलना, वकील न मिलना, समय पर जुर्माना न मिलना और केस को गम्भीरता से न लिया जाना। यह भी एक गम्भीर स्थिति है कि पिछले चार सालों में उत्तर प्रदेश को इस काम के लिए केवल साढ़े चार लाख रूपयों का बजट मिला है। कानून के मुताबिक एक केस तीन महीने की भीतर खत्म हो जाना चाहिए, पर 2005 से लेकर आज तक हजारों में से केवल 11 केस ऐसे रहें हैं जो तीन महीने के अन्दर सुलझाये गये हैं। घरेलू हिंसा का शिकार हुई सभी महिलाओं में से केवल एक चैथाई ही रिपोर्ट दर्ज कराती हैं।

इस पर सेवा निवृत्त डी0जी0 श्री ईष्वर चन्द्र द्विवेदी का कहना है कि ‘‘जानकारी की शुरूआत कानून के रखवालों से करनी होगी। पुलिस वालों को ही इस तरह के कानून के बारें में पता नहीं है, तो वह इसे लागू कैसे करेगें?’’

निधी शाह 
(लेखिका सिम्बोयोसिस इंस्टिट्यूट ऑफ़ मीडिया एंड काम्मुनिकेशन की छात्रा है )

पूर्वी उत्तर प्रदेश की महिलाओं की आवाज़ : हम करते हैं अपने अधिकारों की मांग

 पूर्वी उत्तर प्रदेश  की महिलाओं की आवाज़ : हम करते हैं अपने अधिकारों की मांग
                                                     
 मऊ स्थित नगरपालिका सामुदायिक हाल में पूर्वी उत्तर प्रदेश के 10 जिलों की करीब 400 महिला नेताओं का दो दिवसीय सम्मलेन २४ मार्च को आरम्भ हुआ. दलित एवम् पिछड़े वर्ग की ये महिलायें अपनी निडरता और साहसिकता के बल पर समाज में एक नयी क्रान्ति ला रही हैं. 
‘‘ग्रामीण महिला सशस्तिकरण ’’ नामक कार्यक्रम के अंतर्गत, पूर्वी उत्तर प्रदेश के पिछड़े समुदायों की महिलाओं को एकजुट करने का सराहनीय प्रयास किया जा रहा है. अभी तक 40,000 से भी अधिक महिलाओं ने 253 ग्राम पंचायतों में नारी संघ के नाम से समूह गठित किए हैं। ये महिलाएं अपने अधिकारों, विशेषकर भोजन और रोज़गार के अधिकारों को पाने के लिए सामूहिक रूप से संघर्ष कर रहीं हैं। वे अपने राजनीतिक और सामाजिक अधिकारों  को पाने के लिए भी प्रयत्नशील हैं.
सम्मलेन में भाग लेने आयी महिलाओं ने अपने साहसिक और चुनौतीपूर्ण अनुभवों की जानकारी देते हुए बताया कि किस तरह वे विपरीत परिस्थियों में रहते हुए भी अपने अधिकारों के लिए आगे बढ़कर संघर्ष में जुटी हुई हैं। संघर्ष और सफलता की अनेक मिसालें सुनने को मिलीं.
प्रतापगढ़ जिले में मंगरोरा ब्लाक के सलाहीपुर गांव के नारी संघ की अध्यक्षा बड़का देवी ने बताया कि उनके गांव का प्रधान महिलाओं को न तो जॉब कार्ड दे रहा था और न ही काम। तब उन्होंने ने गांव की 200 महिलाओं का संगठन बनाकर जाब कार्ड और काम दिए जाने की मांगों  को  लेकर विरोध -प्रदर्शन किया। महिला समूह ने प्रधान को चेतावनी दी कि अगर वह अपना कार्य सुचारू रूप से नहीं कर सकता तो अपना पद छोड़ दे।बड़का देवी को खुशी है कि 'अब पुरुषों को हम महिलाओं की बातें सुननी पड़ती है।'
बहराइच जिले में मिहिनपुर्बा ब्लाक के छलुहा नारी संघ की भानुमति ने बताया, ‘‘सार्वजनिक वितरण प्रणाली का दुकानदार ‘‘कोटेदार’’ दुर्व्यवहार कर रहा था, लेकिन नारी संघ उसे लाइन पर ले आया। पहले जंगलों  में रहने वाले गांववालों  की कोई  नहीं सुनता था क्योंकि उनके पास कोई अधिकार नहीं थे। हमने जय आजादी आंदोलन शुरु किया और कोटेदार को निलंबित करवा दिया। फिर एक खुली बैठक में ग्राम  सभा की सहमति से एक नए कोटेदार का चयन किया गया।’’

गाजीपुर जिले में सदर ब्लाक के बाबेदी गांव के अम्बेडकर नारी संघ की पुष्पा देवी ने अपने समूह की उपलब्धियों  के बारे में चर्चा करते हुए कहा, ‘‘हमें मनरेगा (महात्मा गाँधी ग्रामीण रोज़गार योजना) के तहत समय पर भुगतान नहीं मिलता था। इसको  लेकर नारी संघ की महिलाओं  ने विकास खण्ड अधिकारी का घेराव किया। उसके बाद एडीओ  ने पंचायत को  समय से भुगतान का निर्देश दिया। अब हमें डरने की जरूरत नहीं है, हमें दूसरों को डराना है। हम नारी संघ के परचम के तले लड़ेंगे।’’
गाजीपुर जिले में सदर ब्लाक के अग्नि नारी महासंघ की नन्हीं देवी ने मांग की, ‘‘विकास खण्ड अधिकारी को या तो हमें मनरेगा के तहत काम देना होगा या फिर बेरोजगारी भत्ता देना होगा।’’

उत्तर प्रदेश में प्रतापगढ़ जिले के लालगंज ब्लाक में अझारा गांव से एक दलित महिला सीमा सरोज पति द्वारा प्रताड़ित थी। अमानुषिक पारिवारिक प्रतिबंधों ने उसका घर से निकलना दूभर कर दिया था.  परंतु नारी संघ से जुड़कर उन्होंने  नरेगा से संबंधित कठिनाइयों को दूर करने के लिए संघर्ष शुरु कर दिया है.
5,000 महिला सदस्यों वाले ब्लाक स्तरीय नारी मंच की अध्यक्षा पूजा, महिला अधिकारों की पैरवी करने में कामयाब रही हैं। उन्होंने  सूचना के अधिकार द्वारा भ्रष्टाचार के  खिलाफ आवाज उठाई, और महिलाओं को मनरेगा के तहत 100 दिनों का  रोजगार दिलवाया। उन्होंने  जन-दबाव के विरुद्ध जागरुकता फैलाते हुए सार्वजनिक वितरण प्रणाली को चुस्त-दुरस्त किया और मध्यान्ह भोजन की गुणवत्ता की जांच की।
 अम्बेडकर नगर जिले के जलालपुर ब्लाक में सल्लाहपुर गांव की एक दलित महिला किस्मती देवी के कुशल नेतृत्व में 153-सदस्यीय नारी संघ महिलाओं  के अधिकारों और हकों के लिए काम कर रहा है।

 पूर्वी उत्तर प्रदेश के विभिन्न गाँवों की बहुत सी कामयाब कहानियां हैं। इन गांवों  की महिलाएं विभिन्न प्रकार की हिंसा का  शिकार होने के बावजूद अपने अडिग और कर्मठ निर्णयों के द्वारा नारी समाज में एक नयी चेतना का उदय कर रही हैं। हम सभी को इनके साहस से प्रेरणा लेनी चाहिए. तथा प्रदेश एवम् देश के अन्य भागों में भी नारी चेतना के इस सामाजिक कार्य में सहयोग देना चाहिए. तभी एक स्वस्थ एवम् भ्रष्टाचार रहित समाज कि कल्पना साकार हो पायेगी.
शोभा शुक्ला
सिटिज़न न्यूज़ सर्विस

विश्व तपेदिक दिवस: २४ मार्च २०११


प्रोजेक्ट अक्षय: ७४४ मिलियन लोगों तक तपेदिक नियंत्रण सेवाएँ विभिन्न कार्यछेत्रों एवं कड़ियों में मिलजुल कर कार्य करने से पहुंचेंगी


नयी दिल्ली: २२ मार्च २०११:  भारत की १.२ अरब जनसंख्या की सेवा करने हेतु जन स्वास्थ्य विशेषज्ञ बड़ी संख्या के बारे में ही सोचने के आदि है. बड़े स्तर पर लागू हो रहे 'अक्षय प्रोजेक्ट' (अक्षय के मायने हैं तपेदिक या टी.बी. रहित) की योजना रचने वाले भी इससे भिन्न नहीं हैं. अक्षय प्रोजेक्ट की योजना रचनाकर्ताओं के पास कोई विकल्प भी नहीं है क्योंकि विश्व-स्तर पर भारत में सबसे अधिक तपेदिक या टी.बी से ग्रसित लोग हैं. प्रोजेक्ट अक्षय को एड्स, टी.बी (तपेदिक) और मलेरिया से लड़ने के लिये समर्पित ग्लोबल फंड ने काफी भारी मात्रा में आर्थिक अनुदान दिया है. अक्षय प्रोजेक्ट पिछले वर्ष २३ भारतीय प्रदेशों के ३७४ जिलों में लागू हुआ जिससे कि संशोधित राष्ट्रीय तपेदिक नियंत्रण कार्यक्रम में जन-भागीदारी एवं प्रभावित लोगों की प्रतिभागिता बढ़े और तपेदिक सम्बंधित कार्यक्रम एवं सेवाओं की पहुँच और प्रभाव बढ़े, जिससे कि २०१५ तक ७४४ मिलियन लोगों को तक यह सेवाएँ पहुँच पायें.

'इंटरनैशनल यूनियन अगेंस्ट टूबरकुलोसिस एंड लंग डिसीस' (द यूनियन), और 'वर्ल्ड विज़न' इंडिया दोनों भारत सरकार के साथ इस जन-पहल अक्षय प्रोजेक्ट के समन्वयन को नेत्रित्व प्रदान कर रहे हैं. द यूनियन, इस अक्षय प्रोजेक्ट को २१ प्रदेशों के ३०० जिलों में लागू कर रहा है और ५७७ मिलियन जनसंख्या तक प्रोजेक्ट सम्बंधित सेवाओं को पहुंचाएगा, और वर्ल्ड विज़न इंडिया ७ प्रदेशों के ७४ जिलों में इस प्रोजेक्ट को लागू करेगा. पांच प्रदेश ऐसे हैं जिनमें दोनों संस्थाओं के संयुक्त समन्वय से यह प्रोजेक्ट लागू होगा.

'द यूनियन' के दक्षिण-पूर्वी एशिया के छेत्रिय निदेशक डॉ नेविन विल्सन ने कहा कि "प्रोजेक्ट अक्षय का प्रचालन तंत्र अवश्य बड़ा लगता है परन्तु तपेदिक/टी.बी. कार्यक्रमों का प्रभाव बढ़ाने के लिये नए सशक्त समूहों का गठन करना भी आवश्यक है. इस प्रोजेक्ट के प्रबंधन के लिये 'द यूनियन' ने कार्यकुशल लोगों की टीम जुटाई है और विभिन्न छेत्रों में अपनी निपुणता स्थापित करने वाली नौ संस्थाओं के साथ साझेदारी में इस प्रोजेक्ट को लागू किया जा रहा है. इसके अलावा भी अनेक लोगों के साथ कार्य किया जा रहा है."

विभिन्न कार्यछेत्रों से सरकारी, गैर-सरकारी, निजी, तकनीकि संस्थाओं, प्रभावित समुदाओं और मीडिया के प्रतिनिधियों के साथ साझेदारी में कार्य करना ही प्रोजेक्ट अक्षय की मूल कार्यनीति है. तपेदिक (टी.बी.) नियंत्रण के लिये सिर्फ चिकित्सकीय कार्यक्रम पर्याप्त नहीं हैं क्योंकि अनेक अन्य विकास-सम्बंधित छेत्रों और अन्य रोगों या जीवनशैलियों से तपेदिक (टी.बी.) होने का खतरा बढ़ता है, जैसे कि तपेदिक (टी.बी.) और गरीबी, कुपोषण, मधुमेह, तम्बाकू सेवन, एच.आई.वी. आदि से सम्बन्ध, जिनके कारणवश तपेदिक (टी.बी.) नियंत्रण एक पर्वतीय चुनौती बना हुआ है. इन कड़ियों को चिन्हित करना और उनपर तपेदिक (टी.बी.) नियंत्रण कार्यक्रमों के जरिए सक्रीय रूप से कार्य करना ही जन स्वास्थ्य के लिये श्रेयस्कर है.

डॉ विल्सन ने कहा कि "हमारे देश के सरकारी तपेदिक (टी.बी.) नियंत्रण कार्यक्रम ने उल्लेखनीय कार्य किया है परन्तु अब यह सर्वविदित है कि सफलतापूर्वक तपेदिक (टी.बी.) नियंत्रण सिर्फ सरकार द्वारा नहीं किया जा सकता है. विभिन्न कार्यछेत्रों के अनेक साझेदारों को मिलजुल कर तपेदिक (टी.बी.) नियंत्रण में योगदान देना चाहिए जिससे कि सूचना और सेवाएँ दोनों लोगों तक पहुंचे, जवाबदेही बढ़े और प्रभावित समुदाय सशक्त हो कर भागीदार बने. यही प्रोजेक्ट अक्षय करने की कामना करता है."

जिन लोगों तक तपेदिक (टी.बी.) सम्बंधित सूचनाएँ और सेवाएँ वर्तमान में नहीं पहुँच रही हैं, वें प्रोजेक्ट अक्षय के विशेष केंद्रबिंदु हैं, जिनमें जन-जातियां, बच्चे, महिलाएं, जटिल भौगोलिक छेत्रों में जहां आवागमन मुश्किल है वहाँ रहने वाले लोग, और अन्य लोग जैसे कि एच.आई.वी. और तपेदिक (टी.बी.) दोनों से संक्रमित लोग आदि शामिल हैं.

तपेदिक (टी.बी.) और अन्य विकास सम्बंधित या रोगों से जिससे तपेदिक (टी.बी.) का सम्बन्ध है, उन कड़ियों पर प्रभावकारी कार्य हेतु 'द यूनियन' प्रयासरत है.

डॉ विल्सन ने कहा कि "तपेदिक (टी.बी.) एवं गरीबी और गैर-संक्रामक रोगों की कड़ियों पर सफलतापूर्वक कार्य करना और अनेक कार्यछेत्रों के साथ प्रभावकारी तपेदिक (टी.बी.) नियंत्रण के लिये साझेदारी में कार्य करना जिससे कि जन स्वास्थ्य की दृष्टि से लाभ हो, 'द यूनियन' के लिये सिर्फ अभिलाषा ही नहीं है - बल्कि हमने ठोस व्यवस्था बनायीं है जिससे कि प्रोजेक्ट अक्षय के माध्यम से इन कार्यक्रमों को निपुणता से क्रियान्वित किया जा सके." 'द यूनियन' के दक्षिण-पूर्वी एशिया के कार्यालय से ही विश्व स्वास्थ्य संगठन का तपेदिक (टी.बी.) और गरीबी सह-समूह का सचिवालय, और तपेदिक (टी.बी.) सेवा एवं नियंत्रण के लिये राष्ट्रीय साझेदारी का सचिवालय भी क्रियान्वित है. 'द यूनियन' के लिये गैर-संक्रामक रोग विशेष केंद्रबिंदु रहे हैं जैसे कि तम्बाकू नियंत्रण.

प्रोजेक्ट अक्षय को विभिन्न प्रदेशों में लागू करने के लिये 'द यूनियन' के मुख्य साझेदार, जो ग्लोबल फंड अनुदान के सह-प्राप्तकर्ता है, निम्नलिखित हैं:
 - कैथोलिक बिशप्स कांफेरेंस ऑफ़ इंडिया - कोयालिशन फॉर एड्स एंड रिलेटेड डिसीजेस
- कैथोलिक हेल्थ असोसियेशन ऑफ़ इंडिया
- क्रिश्चियन मेडिकल असोसियेशन ऑफ़ इंडिया
- इमानुएल हॉस्पिटल असोसियेशन
- ममता हेल्थ इंस्टीटयूट फॉर मदर एंड चाइल्ड (ममता)
- ममता सामाजिक संस्था
- पोपुलेशन सर्विसेस इंटरनैशनल
- रिसोर्स ग्रुप फॉर एजूकेशन एंड अड्वोकेसी फॉर कम्युनिटी हेल्थ (रीच)
- वोलंटरी हेल्थ असोसियेशन ऑफ़ इंडिया

डॉ सरबजीत चढ्ढा, जो इस प्रोजेक्ट अक्षय के निदेशक हैं, ने कहा कि "तपेदिक (टी.बी.) सम्बंधित सेवाएँ सर्वव्यापी हों और सबकी पहुँच में हों, इसी उद्देश्य से प्रोजेक्ट अक्षय व्यापक तपेदिक (टी.बी.) नियंत्रण के लिये समर्थन जुटाने, संचार माध्यमों का पर्याप्त और समोचित उपयोग करने, और जनमत जुटाने के लिये प्रयासरत है. साझेदारों के सक्रिय योगदान से प्रोजेक्ट अक्षय, अनेक गतिविधियों के जरिए समुदाय को तपेदिक (टी.बी.) नियंत्रण में समर्थ और सशक्त करेगा, राजनीतिक और प्रशासनिक समर्थन के लिये आवाज़ उठाएगा, समस्त स्वास्थ्यकर्मियों की भागीदारी से तपेदिक (टी.बी.) कार्यक्रमों की समुदाय में पहुँच बढ़ाएगा, दवाओं और जांच के सही और विवेकपूर्ण इस्तेमाल का समर्थन करेगा, और तपेदिक (टी.बी.) से सम्बंधित राष्ट्रीय प्राथमिकता के छेत्रों में प्रशिक्षण आयोजित करेगा."

अपने नौ साझेदारों के साथ 'द यूनियन' सुचारू और पूर्वनियोजित ढंग से प्रोजेक्ट अक्षय को लागू कर सके इसीलिए 'द यूनियन' ने ७३ कार्यक्रम प्रबंधकों, सहायक कार्यक्रम प्रबंधकों, जिला समन्वयकों और वित्तीय प्रबंधकों के लिये ५ दिवसीय प्रशिक्षण आयोजित किया. इस प्रशिक्षण में, तपेदिक (टी.बी.) एवं तपेदिक (टी.बी.) नियंत्रण प्रणाली से सम्बंधित मूल जानकारी, प्रोजेक्ट गतिविधियाँ, रेकॉर्डिंग और रपट आदि विषय शामिल थे. इस प्रशिक्षण में जिन जिलों में प्रोजेक्ट अक्षय लागू होना है, उन जिलों के जिला तपेदिक (टी.बी.) अधिकारी भी सक्रीय रूप से शामिल हुए, और प्रशिक्षण के अंत में हर जिले ने अपनी गतिविधि योजना भी बनायीं.

  डॉ नेविन विल्सन ने कहा कि "तपेदिक (टी.बी.) जैसे संक्रामक रोग एक व्यक्ति से दुसरे को फैलते हैं और धीरे धीरे अनेक लोगों को संक्रमण हो जाता है. प्रोजेक्ट अक्षय के जरिए हम इस प्रक्रिया को उलटने की कोशिश कर रहे हैं - तपेदिक (टी.बी.) सम्बंधित जानकारी फ़ैलाने का प्रयास कर रहे हैं, लोगों को यह बता रहे हैं कि तपेदिक (टी.बी.) का पक्का इलाज उपलब्ध है, और लोगों को सशक्त होकर इन सेवाओं से लाभान्वित होना चाहिए. हमारी आशा है कि इस प्रोजेक्ट के जरिए हम करोड़ों लोगों तक पहुँच पायेंगे और तपेदिक (टी.बी.) से अनेक जीवन बचा पाएंगे."

बाबी रमाकांत - सी.एन.एस.

नागरिकों की मांग: भारत परमाणु कार्यक्रम बंद हो

लोगों में जापान में हुई परमाणु त्रासदी पर संवेदना जगाने, जापान के लोगों के साथ सहानुभूति व्यक्त करने, और भारत के परमाणु कार्यक्रम को बंद करने के लिये लखनऊ में आज पी.एम.टी कॉलेज, हजरतगंज में परिचर्चा और परिवर्तन चौक पर मोमबत्ती प्रदर्शन आयोजित किया गया.

जापान में हुई परमाणु आपात स्थिति के बाद तो इस बात पर किसी संदेह का प्रश्न ही नहीं उठता है कि दुनिया में सभी परमाणु कार्यक्रमों को, चाहे वो सैन्य या उर्जा के लिये हों, उनको जितनी जल्दी संभव हो उतनी जल्दी बंद करना होगा. इन परमाणु ऊर्जा-घरों में दुर्घटनाओं और सैन्य हमले (हिरोशिमा-नागासाकी पर अटम बम) की वजह से मानवजाति ने सिर्फ अपूर्व, भयानक और अदम्य त्रासदी ही देखी है, जिसको असंख्य प्रभावित लोगों ने सदियों तक झेला है. यह तो स्पष्ट है कि परमाणु शक्ति चाहे वो ऊर्जा बनाने में लगे अथवा बम, यह सबसे खतरनाक विकल्प है. इसमें कोई शक नहीं कि समय रहते बिना विलम्ब दुनिया में परमाणु निशस्त्रीकरण हो जाना चाहिए जिससे कि 'सुरक्षा', 'ऊर्जा पूर्ति' या 'तकनीकि विकास' के नाम पर भयावही परमाणु हादसे मानवजाति को अब और न झेलने पड़ें.

हमारी मांग है कि भारत-अमरीका परमाणु समझौता और अन्य परमाणु कार्यक्रमों को भी मानवता और विश्व शान्ति के लिये तुरंत बंद किया जाए.

हिरोशिमा और नागासाकी पर हुए अटम बम हमले, जो इतिहास के सबसे वीभत्स त्रासदी रहे हैं, के ६५ साल के बाद भी जिस देश ने इन हमलों को अंजाम दिया था, आज तक उस देश अमरीका ने माफ़ी नहीं मांगी है. जिस उत्साह के साथ भारत, भारत-अमरीका परमाणु समझौते को लागू कर रहा है, यह अत्यंत चिंता का विषय है.

पर्यावरण के लिए लाभकारी तरीकों से उर्जा बनाने के बजाय भारत परमाणु जैसे अत्यंत खतरनाक और नुकसानदायक ऊर्जा उत्पन्न करने के तरीकों को अपना रहा है. विकसित देशों में परमाणु ऊर्जा एक असफल प्रयास रहा है. विश्व में अभी तक परमाणु कचरे को नष्ट करने का सुरक्षित विकल्प नही मिल पाया है, और यह एक बड़ा कारण है कि विकसित देशों में परमाणु ऊर्जा के प्रोजेक्ट ठंडे पड़े हुए हैं. भारत सरकार क्यों भारत-अमरीका परमाणु समझौते को इतनी अति-विशिष्ठ प्राथमिकता दे रही है और इरान-पाकिस्तान-भारत तक की गैस पाइपलाइन को नकार रही है, यह समझ के बाहर है.

किसी भी देश क लिए ऊर्जा सुरक्षा के मायने यह हैं कि वर्तमान और भविष्य की ऊर्जा आवश्यकता की पूर्ति इस तरीके से हो कि सभी लोग ऊर्जा से लाभान्वित हो सकें, पर्यावरण पर कोई कु-प्रभाव न पड़े, और यह तरीका स्थायी हो, न कि लघुकालीन. इस तरह की ऊर्जा नीति अनेकों वैकल्पिक ऊर्जा का मिश्रण हो सकती है जैसे कि, सूर्य ऊर्जा, पवन ऊर्जा, छोटे पानी के बाँध आदि, गोबर गैस इत्यादि.

जापान ने कभी भी परमाणु बम नहीं बनाया पर परमाणु शक्ति का ऊर्जा के लिये इस्तेमाल किया था. परमाणु ऊर्जा भी कितनी खतरनाक हो सकती है यह जापान में हुए परमाणु आपात स्थिति से आँका जा सकता है. भारत में न केवल अनेकों परमाणु ऊर्जा-घर हैं बल्कि परमाणु बम भी है - और दुनिया में सबसे अधिक संख्या में गरीब लोग हैं. न केवल परमाणु शक्ति अत्यंत खतरनाक विकल्प है, भारत जैसे देशों के लिये परमाणु शक्ति में निवेश करना, लोगों की मूल-भूत आवश्यकताओं को नज़रंदाज़ करके 'सुरक्षा', 'ऊर्जा' के नाम पर ऐसा समझौता करने जैसा है जिसके कारणवश लोग कई गुना अधिक मार झेल रहे हैं.

भारत में शायद ही कोई ऐसा परमाणु ऊर्जा घर हो जहां कोई न कोई दुर्घटना न हुई हो. जिन स्थानों पर भारत में परमाणु कचरे को डाला जाता है, जहां परमाणु ऊर्जा घर लगे हुए हैं, जहां परमाणु खान हैं, आदि, वहाँ पर रहने वाली आबादी रेडियोधर्मिता का भीषण कुप्रभाव झेल रही है. उदाहरण के तौर पर कुछ महीने पहले ही कईगा परमाणु केंद्र में ५० से अधिक लोग रेडियोधर्मी त्रिशियम का प्रकोप झेले थे.

परमाणु दुर्घटनाओं की त्रासदी संभवत: कई पीढ़ियों को झेलनी पड़ती है जैसे कि भोपाल गैस काण्ड और हिरोशिमा नागासाकी त्रसिदियों को लोगों ने इतने बरस तक झेला. हमारी मांग है कि भारत बिना-देरी शांति के प्रति सच्ची आस्था का परिचय दे और सभी परमाणु कार्यक्रमों को बंद करे.

 [एस.आर.दारापुरी, अरुंधती धुरु, रंजित भार्गव, प्रो० रंजित भार्गव, प्रो० एम.सी.पन्त, प्रो० रमा कान्त, डॉ० संदीप पाण्डेय, आनंद त्रिपाठी, एवं अन्य नागरिक]

 परमाणु निशस्त्रीकरण और शांति के लिये गठबंधन, शांति एवं लोकतंत्र के लिये लखनऊ चिकित्सकों का समूह, जन-आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय, आशा परिवार एवं लोक राजनीति मंच के संयुक्त तत्वावधान मे आयोजित