ब्रह्म देव शर्मा, पूर्व कलेक्टर, बस्तर, और पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष, अनुसूचित जनजाति एवं अनुसूचित जाति आयोग, ने 7 जनवरी को लखनऊ में हुयी लोक राजनीति मंच की बैठक में सक्रिय भाग लिया।
ब्रह्म देव जी ने कहा कि ‘जोते बोये काटे धान, खेत का मालिक वही किसान’ जैसी बात अब खत्म हो गयी है. सन २००० की कृषि नीति में यह लिखा हुआ है कि जमीन खाद आदि के लिये पैसा चाहिए, पैसा किसान के पास है नहीं, पैसा सरकार के पास है नहीं, इसीलिए जब पैसे वाला खेती करेगा तो किसान खेत पर काम करेगा.
ब्रह्म देव जी ने कहा कि हमारे बुजुर्ग कहा करते थे कि किसी से हाथ मिलाओ और यदि हाथ सख्त है तो किसान का है, परन्तु अब यह हालत है कि पुलपुले हाथ वाले किसानी जमीन खरीद रहे हैं, जमीने दे रहे हैं, और जितना जमीन का मूल्य नहीं हैं उतनी कीमत दे कर कृषि भूमि खरीदी जा रही हैं. अभी आंध्र प्रदेश में कुछ ऐसे ही किसानों का कहना है कि खेती में लागत अधिक है और आमदनी कम. ऐसा पहली बार हो रहा है कि खेती नहीं करो तो फायदा है. ब्रह्म देव जी जब वहां गये तो उन्होंने देखा कि वहाँ पर बड़े जमीनदारों का वर्चस्व है. इन जमीनदारों ने यह भी कहा कि महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के कारण हमें मजदूर नहीं मिल रहा है और इसीलिए हमें कृषि में मशीनों का इस्तेमाल करना चाहिए. इन मशीनों पर ९० प्रतिशत तक की छूट (‘सब्सिडी’ या अनुदान) मिल रही है. कुल मिला कर प्रश्न यह है कि किसान खत्म हो रहा है या खत्म किया जा रहा है?
ब्रह्म देव जी ने यह सवाल सभी राजनीतिक दलों को लिखे पर किसी ने भी इस पर कोई करवाई नहीं की. यह तो कोई कही नहीं रहा है कि किसान खत्म किया जा रहा है, हर ओर सिर्फ यही सुनने में आता है कि किसान खत्म हो रहा है.
क्या खेती अकुशल काम है?
ब्रह्म देव जी ने पूछा कि अब आप ही यह बताइए कि कृषि कुशल काम है कि अकुशल? जब कृषि कुशल काम है और बुनियादी जरूरतें पूरी करता है, तब यह सरकार द्वारा अकुशल क्यों माना जाता है? खेती-किसानी को सरकार ने अकुशल काम का दर्जा दिया. महात्मा गाँधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना में यह साफ कहा गया है कि खेती अकुशल काम है.
ब्रह्म देव जी ने कहा कि किसानी को अकुशल काम का दर्जा दे कर किसानी के मूल्य को आधा कर दिया गया क्योंकि सरकारी दरों के अनुसार कुशल और अकुशल काम में आधे का अंतर है.
आजादी के बाद जब न्यूनतम मजदूरी अधिनियम बना तो उसमे यह स्पष्ट कहा गया है कि किसान को उतनी मजदूरी मिलनी चाहिए जिसमें उसका और उसके परिवार का भरण-पोषण हो सके. अब परिवार की परिभाषा क्या है? परिवार में, छठें वेतन आयोग के अनुसार औसतन पांच लोग हैंः महिला, पुरुष, २ बच्चे और एक बुजुर्ग. बच्चों को दैनिक जरूरतों के मापदंड से आधा सदस्य माना गया है जबकि व्यवहारिकता यह है कि बच्चों पर निवेश संभवतः अधिकतम होता हो. कुल मिला कर सरकार ने (और लोगों ने भी) यह मान लिया कि परिवार में ३ सदस्यों के बराबर भरणपोषण की आवश्यकता होती है और इतनी मजदूरी किसान को मिलनी चाहिए. असलियत भले ही यह हो कि परिवार में ५ लोग हों. सीधा तात्पर्य है कि ५ लोगों के परिवार को ३ लोगों के भरणपोषण का इंतजाम होगा तो प्रश्न उठेगा कि किसान खत्म हो रहा है या कि खत्म किया जा रहा है?
ब्रह्म देव जी ने कहा कि हम सब को यह सोचना चाहिए कि किसान को कहाँ से घाटा हो रहा है. जो किसान की कड़ी मेहनत का न्यूनतम वाजिब मूल्य है उसका आधा ही तो हम उसको दे रहे हैं. फिर हम कहते हैं कि किसान खत्म हो रहे हैं, जब कि असलियत यह है कि किसान खत्म किये जा रहे हैं.
दस्तावेज कहते हैं कि परिवार में दो लोग कमा रहे हैं. इसका मतलब क्या है? पुरुष के अलावा या तो महिला को मजबूरन काम करना पड़ रहा है, या फिर बच्चे को शिक्षा छोड़ काम करना पड़ रहा है, या फिर परिवार में बुजुर्ग को भी मजबूरीवश काम करना पड़ रहा है.
सरकार के छठें वेतन आयोग के अनुसार परिवार को पांच लोगों की यूनिट माना जाता है. परन्तु किसान या असंगठित मजदूर वर्ग, जो भारत की जनता का ९० प्रतिशत भाग है, उसके परिवार में सिर्फ २ लोगों को रोजगार देने की बात होती है.
स्वभाविक है कि यदि किसान को इतनी मजदूरी मिल जाए जो उसके पूरे परिवार के लिये सही मायने में पर्याप्त है, तो फिर महिला क्यों मजदूरी करेगी, बच्चे शिक्षा त्याग कर क्यों मजदूरी करने पर विवश होंगे? शहरों में तो कुछ लोगों को एक-एक लाख रुपया वेतन मिल रहा है परन्तु ग्रामीण क्षेत्रों का वैद्यानिक तरीके से शोषण हो रहा है! अनुमान लगाया गया है कि एक करोड़ रुपया प्रतिवर्ष प्रति-गाँव शोषण हो रहा है.
किसान और बैंक का कर्जा/ ब्याज
ब्रह्म देव जी ने कहा कि हमारे कानून में शुरू से ही यह साफ लिखा हुआ है कि खेती-किसानी में बैंक से कर्जा लेने पर ४ प्रतिशत से ज्यादा सामान्य ब्याज नहीं होगा. लेकिन जब बैंकों का राष्ट्रीयकरण हुआ और सरकार ने हाथ खींच लिये तो स्थिति बदल गयी. यह हाल जब बैंकों का है तो साहूकार की मनमानी का तो कहना ही नहीं है!
आज हालत यह है कि कृषि-सम्बंधित कर्जे पर काफी अधिक चक्रवर्ती ब्याज धड़ल्ले से लग रहा है जो कि कानूनन माना है. जिन शर्तों पर ब्याज दिया जा रहा है उन शर्तों पर हस्ताक्षर करते वक्त अगर आप पढ़ें तो पायेंगे कि उनमें साफ लिखा हुआ है कि आप अदालत नहीं जा सकते. ब्रह्म देव जी ने रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया तक में इस बात की रपट की परन्तु कोई करवाई नहीं हुई.
शुरुआत में जब बैंक सम्बंधित कानून बना तो उसमें यह साफ कहा गया था कि अदाएगी ३५ साल से अधिक में नहीं होनी चाहिए. आज हालत यह है कि अदाएगी १-५ साल में ही सीमित हो गयी है जिसके कारण मासिक किश्त काफी अधिक हो गयी है. पहले जब अदाएगी ३५ साल में होती थी तब रुपया १ लाख के कर्ज में मात्र रुपया ५ हजार वार्षिक किश्त बनती - परन्तु आज कल जब अदाएगी १-५ साल में होनी है तो निःसंदेह किश्त कई गुणा अधिक है.
ब्रह्म देव जी ने कहा कि यदि अदाएगी नहीं हो पाती है तो यह केस कोर्ट में जाएगा और ‘सिविल’ जेल तक हो सकती है. ‘सिविल’ जेल का मतलब यह है कि जेल में रहने का खर्चा आदि सब देना पड़ता है.
ब्रह्म देव जी ने कहा कि साफ जाहिर है कि किसान खत्म नहीं हो रहा है बल्कि खत्म किया जा रहा है और इस पर अंकुश लगाने की और मानवीय व्यवस्था स्थापित करने की आवश्यकता है.
बाबी रमाकांत - सी.एन.एस.