‘जय भीम कॉमरेड’ वृत्तचित्र फिल्म (200 मिनट) अनेक पुरूस्कारों से अलंकृत सुप्रसिद्ध फिल्म-निर्देशक आनंद पटवर्धन द्वारा बनायी गयी है। इस फिल्म की चलचित्रकार या ‘सिनेमॉटोग्राफ़र’ सिमंतनी धुरू हैं। इनको 1996 की सर्वोत्तम वृत्तचित्र फिल्म के लिए फिल्मफेअर पुरूस्कार भी प्राप्त हुया था।
‘जय भीम कॉमरेड’ वृत्तचित्र फिल्म दलित मुद्दों और समाज में व्याप्त जाति के आधार पर हो रहे शोषण पर केन्द्रित है और बड़ी मानवीय संवेदना के साथ इस मुद्दे के विभिन्न पहलुओं को उठाती है।
इस ‘जय भीम कॉमरेड’ वृत्तचित्र को ‘फिल्म साउथ एशिया’ काठमांडू 2011 में सर्वश्रेष्ठ फिल्म के पुरूस्कार से नवाजा गया।
जनवरी-फरवरी 2012 में, ‘जय भीम कॉमरेड’ वृत्तचित्र को कर्नाटका एवं तामिल नाडू के अनेक शहरों में प्रदशित किया गया। चिन्नई में इस फिल्म को ‘जरमन हॉल’ एवं कलाक्षेत्र के प्रांगण में 20-21 जनवरी को प्रदर्शित किया गया जिसमें दक्षिण भारत के सैकड़ों लागों के साथ लखनऊ से कुछ साथियों ने भी भाग लिया।
2000 सालों से अधिक समय से दलित समुदाय ने समाज में व्याप्त जाति के आधार पर शोषण झेला है। ‘जय भीम कॉमरेड’ वृत्तचित्र जुलाई 1997 में मुम्बई के रमाबाई कालोनी की झोपड़-झुग्गियों में हुयी दुर्भाग्यपूर्ण घटना पर आधारित है जब 11 जुलाई 1997 की सुबह बस्ती के लोगों ने देखा कि बाबा भीम राव अम्बेडकर की पुरानी मुर्ति का अपवित्रीकरण हो गया है। पुलिस ने स्थानीय लोगों को बेरहमी से मारा पीटा और उनपर गोलियॉं चलायीं। इस गोलीबारी में 10 निहत्थे दलित लोग पुलिस के हाथों मारे गये।
विलास घोघरे, जो इस ‘जय भीम कॉमरेड’ वृत्तचित्र फिल्म के संगीतकार भी हैं, और वामपंथी विचारधारा से जुड़े कवि और गायक रहे हैं, उन्होंने पुलिस द्वारा दलितों को बेरहमी से मारे जाने के विरोध में 15 जुलाई 1997 को आत्महत्या कर ली।
इस ‘जय भीम कॉमरेड’ वृत्तचित्र फिल्म को 1997-2010 के दौरान बनाया गया है जो विलास घोघरे के सार-गर्भित संगीत के साथ-साथ समाज में गहरी व्याप्त असामनताओं से जुड़े अनेक संगीन मुद्दे उठाता है। इस फिल्म में एक साक्षात्कार के दौरान कहा गया है कि दलितों के घरघर में संगीत बसता है। अफ्रीका या अमरीका में भी मानवाधिकार से जुड़े जन-आंदोलनों में संगीत और कविताओं का बड़ा महत्व रहा है। सम्भवतः काव्य और गायन के जरिए शोषित वर्गों को संगठित हो कर अपना दुःख-दर्द बॉंटने का अवसर और संघर्ष के लिए अधिक शक्ति और मनोबल मिलता होगा।
आनंद पटवर्धन की फ़िल्म ‘जय भीम कॉमरेड’ लोकतंत्र का असली चेहरा इमानदारी से सामने लाती है जहॉं हकीकत में हर नागरिक बराबर नहीं है और एक बड़ा वर्ग आज भी शोषण और असमानता से जूझ रहा है। क्या लोकतंत्र में यह सम्भव है कि राजनीतिज्ञ किसी समुदाय को समाप्त करने की बात करें? यदि सही मायने में लोकतंत्र कायम होता तो ऐसी साम्प्रदायिक बात करने वाले लोगों पर कानूनन अंकुश लगता। मुम्बई जैसे बड़े महानगर के कुछ संभ्रांत लोगों के कथन जो इस फिल्म में हैं उससे साफ़ जाहिर है कि अभी भी हमारे देश में दलित वर्ग कितना शोषण और असमानता झेल रहा है।
बाबी रमाकांत - सी.एन.एस.