अण्णा हजारे के नेतृत्व में चलने वाले आंदोलन से लोगों की उम्मीदें बहुत बढ़ गईं हैं। इस आंदोलन को व्यापक जन समर्थन मिलने के पीछे एक बड़ा कारण रहा लोगों का भ्रष्टाचार के खिलाफ आक्रोश। सामान्य लोग भ्रष्टाचार से इतने पीड़ित हैं कि जैसे ही उन्हें अण्णा के आंदोलन में इसका समाधान दिखाई पड़ा उन्होंने इस आंदोलन को हाथों हाथ ले लिया।
किन्तु क्या वाकई एक लोकपाल कानून बन जाने भर से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा? इस देश में किस कानून का कड़ाई से पालन हो पाता है? क्या कानून से बचने का कोई न कोई रास्ता निहित स्वार्थ वाले खोज नहीं लेते? क्या इसकी सम्भावना नहीं है कि न्यायपालिका की तरह लोकपाल भी भ्रष्ट हो जाए?
फिलहाल तो एक मजबूत लोकपाल कानून बन जाएगा इसकी सम्भावना भी नहीं दिखाई पड़ती क्योंकि वामपंथी दलों को छोड़ शायद कोई दल यह नहीं चाहता कि भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई कड़ा कानून बने। उनके संसद में लोकपाल विधेयक पर रुख से यह बात साफ है। आखिर जो लोग भ्रष्टाचार के पैसे से चुनाव जीत कर आए हैं वे कैसे अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार लेंगे? वर्तमान राजनीतिक तंत्र का वित्तीय पोषण भ्रष्टाचार के पैसे से होता है यह अब कोई छिपी बात नहीं है। यदि भ्रष्टाचार समाप्त हो गया तो आज की तारीख में जो सांसद चुने गए हैं उनके अस्तित्व का संकट खड़ा हो जाएगा। उनमें से ज्यादातर लोग चुनाव नहीं जीत पाएंगे। आखिर तीन सौ से ऊपर करोड़पति और डेढ़ सौ से ऊपर आपराधिक पृष्ठभूमि के सांसद इस देश के सामान्य लोगों का प्रतिनिधित्व तो करते नहीं? ये सामान्य तरीके से या सहज रूप से चुनाव जीत कर आए हुए लोग नहीं हैं। इन्होंने पैसे के बल पर या कोई न कोई गैर कानूनी तरीकों का इस्तेमाल कर अपने मत प्राप्त किए हैं। यही राजनीतिक भ्रष्टाचार का मूल कारण है।
इस भ्रष्ट राजनीति जिसपर अब आपराधिक किस्म के लोगों का कब्जा है के विकल्प को खड़ा किए बगैर भ्रस्टाचार खत्म कर पाना असम्भव है। वैकल्पिक राजनीति का स्वरूप क्या होगा?
सबसे पहले तो राजनीति में ऐसे लोगों को आना होगा जिनकी जीवन शैली दिखावे से दूर हो। जो कम पैसे में चुनाव लड़ सकें। चुनाव आयोग द्वारा तय की गई खर्च की सीमा भी काफी अधिक है। उदाहरण के लिए विधान सभा चुनाव में खर्च की सीमा रु. 16 लाख है। कौन सामान्य व्यक्ति इतना पैसा खर्च कर सकता है? चुनाव जीतने के बाद उम्मीदवार की जीवन शैली में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं आना चाहिए। यदि उसका जीवन खर्चीला हो जाता है तो यह तय है कि वह जन प्रतिनिधि भ्रष्टाचार से ही अपनी जरूरत पूरी करेगा। सुरक्षा के लिए उसे हथियार रखने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। असली जन प्रतिनिधि तो वह है जिसे उस जनता के बीच जाकर तो और सुरक्षित महसूस करना चाहिए जिसने उसे चुना है। वैसे भी कई बड़े राजनेताओं की हत्या ने यह दिखा दिया है कि हथियारों से मनुष्य की सुरक्षा नहीं होती।
राजनीति करने वाला व्यक्ति जमीनी कार्यकर्ता भी होना चाहिए, तभी वह जनता का दुख-दर्द भली भांति समझ पाएगा। जनता की उस तक सीधी पहुंच होनी चाहिए। जनता को ऐसा लगना चाहिए कि उसका जन प्रतिनिधि उसी के बीच का व्यक्ति है। कोई भी निर्णय लेने से पहले, खासकर देश के लिए नीतियां बनाने वक्त उसे जनता से सलाह मशविरा करना चाहिए। अपने दल या दल के नेता की बात मानने की मजबूरी नहीं होनी चाहिए। यह लोकतांत्रिक भावना के अनुरूप नहीं है। उसके जीवन में पूर्ण पारदर्शिता होनी चाहिए।
अण्णा हजारे का आंदोलन यह तो कह रहा है कि कांग्रेस को मत न दो किन्तु यह नहीं बता रहा कि किसे मत दो। फिर कांग्रेस के विकल्प में जो जीत कर आएगा, वह तो अन्य किसी मुख्य धारा के दल का ही सदस्य होगा। जब सारे दल भ्रष्टाचार के पैसों पर राजनीति करते हैं तो कोई और भ्रष्ट कांग्रेस से बेेहतर कैसे हो सकता है? असल में हमें कांग्रेस का विकल्प नहीं बल्कि भ्रष्टाचार का विकल्प चाहिए।
यहीं अण्णा हजारे का आंदोलन गल्ती कर रहा है। जब आप भ्रष्टाचार का विकल्प खड़ा करने की कोशिश करेंगे तो किरण बेदी उसका हिस्सा नहीं हो सकतीं। किरण बेदी के जो कारनामे सामने आए हैं उन्हें कैसे जायज ठहराया जा सकता है? करना कुछ अलग और कागज पर कुछ और दिखना, इसे ही तो भ्रष्टाचार कहते हैं। यदि स्वामी अग्निवेश की एक गल्ती पर उन्हें आंदोलन से अलग किया जा सकता था तो किरण बेदी को क्यों नहीं किया गया? क्या यह माना जाए कि अण्णा हजारे का आंदोलन भी कुछ हद तक भ्रष्टाचार बरदास्त कर सकता है? क्योंकि लोग कहते हैं कि अब यह हमारे खून में बस गया है। यानी आप कुछ भी कर लें यह खत्म नहीं हो सकता।
लेकिन फिर सवाल यह उठता है कि यह आंदोलन ही क्यों चलाया जा रहा है? यदि भ्रष्टाचार को खत्म करना है तो फिर उसमें कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी जा सकती। भ्रष्टाचार छोटा हो या बड़ा उसे किसी भी तरीके से जायज नहीं ठहराया जा सकता है। यह कहना कि किरण बेदी ने प्राप्त अतिरिक्त धन सामाजिक कामों में लगाया भी कोई मजबूत दलील नहीं है। हरेक भ्रष्टाचार करने वाला व्यक्ति कुछ कम कुछ ज्यादा हद तक उसे जायज ठहराने वाला तर्क ढूंढ ही लेगा।
पूरी संस्कृति ही बदलनी पड़ेगी। यदि खून में भ्रष्टाचार समा गया है तो उसे कैंसर मान कर पूरा खून ही बदलना पड़ेगा। यह परिवर्तन राजनीतिक ही होना पड़ेगा क्योंकि वहीं इसकी जड़ है। यदि राजनेता चाह लेंगे तो नौकरशाही का भ्रष्टाचार भी रोका जा सकता है हलांकि कुछ लोगों का मानना है कि नौकरशाही ज्यादा भ्रष्ट है क्योंही उसे ही भ्रष्टाचार के तरीके मालूम है। खैर माहौल बदलेगा तो लोग भी बदलेंगे ऐसी हम उम्मीद कर सकते हैं।
- डॉ. संदीप पाण्डेय