डॉ. अजीत झा, प्रोफेसर, इतिहास, दिल्ली विश्वविद्यालय एवं सदस्य, लोक राजनीति मंच अध्यक्षीय मंडल, लखनऊ में 7 जनवरी को हुयी लोक राजनीति मंच की बैठक में भाग ले रहे थे।
अजीत जी ने कहा कि राजनीति में लोक का महत्व हमेशा से नहीं रहा है। राजनीति हथियार से रही है, जो हथियार पर कब्जा कर सकते थे, वो राजनीति पर कब्जा करते रहे। राष्ट्रीय आजादी की लड़ाई और देश में लोकतंत्र स्थापित करने की लड़ाई दोनों भारत में आजादी से पूर्व एक साथ हुईं। डॉ झा ने कहा कि सारे दुनिया में ये नहीं हुआ, भारत में जनता की आजादी और लोकतंत्र दोनों साथ आये हैं।
अजीत जी ने कहा कि आजादी के पश्चात् कांग्रेस का सत्ता का पक्ष हावी होने लगा और जन आन्दोलन का पक्ष कमजोर होता चला गया। सन १९८० के बाद यदि देखा जाए, तो सभी मुख्य धरा की राजनीति पार्टियाँ या तो प्रदेश में या फिर राष्ट्रीय-स्तर पर सत्ता में रही हैं। इसका अनुभव अच्छा नहीं रहा है, और वो जमात जिनके बल पर वो सत्ता में आई थीं, उनके लिये भी निराशाजनक ही रहा है।
अजीत जी ने कहा कि जो आज राजनीति कर रहे हैं, वो सिर्फ सत्ता पर काबिज हो कर अपने फायदे के लिये जो कर सकते हैं, वो कर रहे हैं। आजादी से पहले महात्मा गाँधी एवं डॉ० बी०आर० आंबेडकर के नेतृत्व में जन-आन्दोलन एवं राजनीति एक हो गयी थी। आजादी के पश्चात् राजनीति की असफलता की वजह से ही जन-आन्दोलन बढ़ने लगे हैं। राजनीति और जन-आन्दोलन का भेद अच्छा नहीं है। जन-आन्दोलन की राजनीति करने के बिना ये अपेक्षित बदलाव संभव नहीं है।
अक्सर लोग प्रश्न करते हैं कि हमारे पास इतनी शक्ति नहीं है कि हम राजनीतिक मैदान में कूदे। अजीत जी का कहना है कि यह प्रश्न नकली है। संघर्ष बनाम राजनीति का मसला नहीं है हमारे सामने, कहना है डॉ झा का। आजादी के पहले भी जब महात्मा गाँधी एवं डॉ० बी०आर० आंबेडकर का नेतृत्व आया था तब सामाजिक कार्य एवं राजनीतिक कार्य में फर्क नहीं रहा था, और लोगों को एहसास हो गया था कि ऐसा सवाल कि ‘राजनीति बनाम संघर्ष’ नकली हैं।
अजीत जी का कहना है कि जनता खुद को संगठित कर रही है, जनता की ही राजनीति है, और जनता ही संघर्षरत है। लोकतंत्र का मतलब होता है लोगों का राजनीति पर नियंत्रण।
संसद और विधान सभाएं जो हैं वो लोकतान्त्रिक तरीके से चुनी तो गयी हैं पर जनता की भावनाओं और जरूरतों का, प्रतिबिम्ब नहीं करती. तो कई बार बहुत बड़ी ताकतों को भी हताशा होती है. अजीत जी ने कहा कि दूसरी तरफ, समाज में और राजनीति में, संसद और विधान सभाओं के बाहर, कभी भी ऐसी हताशा की स्थिति नहीं रही है, हमेशा लगातार संघर्ष और आन्दोलन चलते रहते हैं. एक और पहलु है कि संघर्ष और आन्दोलन का एक बहुत बड़ा हिस्सा चुनाव से दूर भागता रहा है. चुनाव में भागीदारी नहीं करना चाहता रहा है, और वो इसको प्रभावहीन समझता रहा है.
अजीत जी ने कहा कि अब यह बदलाव आया है कि संघर्षों और आंदोलनों का एक बहुत हिस्सा यह मानने लगा है कि चुनावी हस्तक्षेप भी जरूरी है चाहे इसमें जितना भी समय लगे और इसमें हमारी हिस्सेदारी जरूर होनी चाहिए.
हमें अनेक मोर्चा, दल, मंच अदि देखने को मिलते हैं जो वैकल्पिक राजनीति की बात रखते हैं. जन-पक्षीय राजनीतिक समूहों में तालमेल और एकता ज्यादा हो और चुनाव में हस्तक्षेप तालमेल के साथ ज्यादा से ज्यादा हो, ऐसा अजीत जी का मानना है.
लखनऊ की ७ जनवरी बैठक का यह मकसद नहीं था कि उत्तर प्रदेश में जो भी जन-पक्षीय राजनीति करे वो लोक राजनीति मंच का हिस्सा हो, बल्कि यह अधिक जरूरी है कि अधिक से अधिक लोग राजनीति जन-पक्ष में करें. उसका आधार क्या होगा, न्यूनतम शर्ते क्या होंगी, और किन लोगों के साथ लोक राजनीति मंच का तालमेल हो सकता है इस बात पर भी चर्चा हुयी।
बाबी रमाकांत - सी.एन.एस.