संविधान की मौलिक भावना व उसके मूल्यों को खतरा

डॉ संदीप पाण्डेय, सीएनएस स्तंभकार और मग्सेसे पुरुस्कार से सम्मानित कार्यकर्ता
वैसे तो हमारा लोकतंत्र धीरे-धीरे संविधान की भावना और उसमें निहित मूल्यों से दूर जा ही रहा था, नरेन्द्र मोदी की सरकार ने उस गति को और तेज कर दिया है। संविधान के पहले वाक्य में ही भारतीय गणराज्य के जो चार आधार स्तंम्भ बताए गए हैं - सम्प्रभुता, समाजवाद, धर्मनिर्पेक्षता व लोकतंत्र - वे ही डगमगाने लगे हैं। सम्प्रभुता का अर्थ है हम अपने निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र हैं या हम स्वायत्त हैं। लेकिन कितने ऐसे आर्थिक नीतियों से सम्बंधित निर्णय हैं जो हम अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों अथवा अमीर देशों जैसे अमरीका के दबाव में लेते हैं। इतना ही नहीं कई बार तो देशी-विदेशी बड़ी कम्पनियां ही निर्णयों को प्रभावित करती हैं।

नरेन्द्र मोदी ने भी नरसिम्हा राव के बाद हरेक प्रधान मंत्री की तरह विदेशी पूंजी निवेश आकर्षिक करने के लिए पूरा जोर लगा दिया और रक्षा और बीमा जैसे संवेदनशील क्षेत्र भी विदेशी पूंजी निवेश के लिए खोल दिए। किसानों के पक्ष में जो थोड़े-बहुत संशोधन भूमि अधिग्रहण कानून में मनमोहन सिंह ने किए उसे भी पलटने की मोदी सरकार की तैयारी थी। नवउदारवादी नीतियों की वजह से अमीर व गरीब का अंतर बढ़ा है। जब से यह नीतियां लागू हुई हैं आर्थिक निर्णय अब किसान, मजदूर या गरीब वर्ग को ध्यान में रख कर नहीं बल्कि पूंजी और बाजार को ध्यान में रख कर लिए जा रहे हैं। रही सही कमी इस देश की भ्रष्ट राजनीति और नौकरशाही पूरी कर देती है जिसका जनता पर भरोसा ही नहीं।
समाजवाद का मतलब होता है बराबरी वाला समाज स्थापित करना। डाॅ राम मनोहर लोहिया ने तो यहां तक छूट दे दी थी कि यदि एकदम बराबरी नहीं हो सकती तो कम से कम अमीर व गरीब की आय का अंतर दस गुना से ज्यादा न हो। किंतु आज ये अंतर सौ गुना से भी ज्यादा हो गए हैं। अमीरों के लिए पूरी अलग व्यवस्था है - अलग विद्यालय, अलग अस्पताल, अलग आवास, अलग यातायात के साधन आदि और गरीब के लिए सभी चीजें, यदि उसके भाग्य में हंै तो, घटिया गुणवत्ता वाली। जो समान व्यवस्थाएं थीं - जैसे शिक्षा व चिकित्सा के क्षेत्र में - उसका भी निजीकरण कर हमने दो किस्म की व्यवस्थाओं में गहरी खाई पैदा कर दी है।

धर्मनिर्पेक्षता का मूल्य हमारे संविधान में ही नहीं बल्कि हमारी बहुलतावादी संस्कृति का हिस्सा रहा है। अंग्रेजों ने पहली बार हिन्दू मुसलमानों के बीच फूट डालो और राज करो की नीति अपनाई। दुर्भाग्य से अंगे्रजों के जाने के बाद भी हमारे शासक हिन्दू मुसलमानों को वोट बैंक के रूप में देखकर ध्रुवीकरण की राजनीति कर रहे हैं। कोई अल्पसंख्यकवाद की तो कोई बहुसंख्यकवाद की। किंतु नरेन्द्र मोदी के शासन में सिर्फ वोट ही नहीं लोग दिल और दिमाग से भी बंट गए हैं। साम्प्रदायिक राजनीति ने न सिर्फ देश को बांटा है बल्कि धर्मनिर्पेक्षता के मूल्य को तार-तार कर दिया है।

लोकतंत्र तो अब हम कहने के लिए रह गए हैं। इस देश की बहुसंख्यक गरीब जनता की कोई आवाज नीति निर्माण में नहीं है। सकल घरेलू विकास दर के हिसाब से हम बहुत प्रगति कर रहे होंगे लेकिन हमारे सामाजिक मानक दुनिया के उन देशों से भी खराब हो गए हैं जो हमारी तरह लम्बे समय तक लोकतंत्र नहीं रहे हैं। शासक वर्ग का चरित्र अभी भी अभिजात्य ही है और उसका व्यवहार सामंती। सम्पन्न वर्ग शासन से मिलने वाली सुविधाएं अपने कब्जे में कर लेता है और गरीब वर्ग तक उनको पहुंचने ही नहीं देता। लोकतंत्र में विशिष्ट और अति विशिष्ट व्यक्तियों की श्रेणियां कैसे हो सकती हैं यह सवाल कोई नहीं पूछता? शासक वर्ग जनता के पैसे पर सुविधाओं का भोग करता है और गरीब वर्ग के लिए न्यूनतम मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी साधन नहीं होते। बल्कि यह व्यवस्था गरीब की दुश्मन बन जाती है। उदाहरण के लिए गरीब कहीं झुग्गी-झोपड़ी डाल कर रह रहा हो तो उसे बुलडोजर चला कर हटाया जा सकता है। उसके लिए न्यूनतम मजदूरी की कोई गारण्टी नहीं बल्कि उसकी गाढ़ी कमाई पर भी पुलिस व अन्य सरकारी कर्मचारी और ठेकेदार व बिचैलिए किस्म के लोगों की गिद्ध दृष्टि लगी रहती है।

समाजिक, आर्थिक व राजनीतिक न्याय सुलभ नहीं है। जाति, वर्ग, लिंग, सत्ता के नाम पर गैर बराबरी वाली व्यवस्थाएं कायम हैं। सवर्ण, सम्पन्न और बड़े दलों के बड़े नेताओं या उनके परिवारों को विशेष दर्जा प्राप्त है। वे अपराध भी करते हैं तो पूरी व्यवस्था उन्हें बचाने की कोशिश करती है। दूसरी तरफ दलित, अल्पसंख्यक, आदिवासी, महिला, गरीब और सामान्य नागरिक जिसका किसी दल या संगठन से कोई संबंध नहीं है दोयम दर्जे का नागरिक है। उनके साथ समाज का ताकतवर तबका अत्याचार करता है और फिर उन्हीं में से कई निर्दोष लोग अपराधी, आतंकवादी या नक्सलवादी होने के आरोप में जेल पहुंच जाते हैं। पुलिस पहले उन्हें अपराधी घोषित कर देती है और फिर अपराधी साबित करने के सबूत जुटाती है।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं या बहुत कम लोगों को है। शेष यदि बोलेंगे तो उनके साथ सरकारी या गैर-सरकारी हिंसा होने का खतरा बना रहता है। नरेन्द्र मोदी की सरकार आने के बाद यह खतरा बढ़ गया है। नरेन्द्र दाभोलकर, एम.एम. कलबुर्गी, गोविंद पंसारे, कन्हैया कुमार व साथी, रोहित वेमुला व साथी, इस किस्म के हमले के शिकार हुए और इनमें से कई की जानें भी चली गईं।

बराबरी का दर्जा व अवसर हमारे नागरिकों को समान रूप से सुलभ नहीं है। ये दोनों चीजें समाज के सशक्त वर्ग को ज्यादा सहज रूप से उपलब्ध हैं और वंचित को नहीं।

जाति, धर्म और क्षेत्रीयता जैसे आधार पर होने वाली राजनीति ने भाईचारे की धज्जियां उड़ा दी हैं।

कानून के सामने सभी समान नहीं हैं। पैसे वाले बड़े वकीलों को रख कर और न्यायाधीशों को भी प्रभावित कर न्याय खरीद सकते हैं और गरीब न्यायालय जाने की हिम्मत ही नहीं कर पाता या न्याय व्यवस्था उसे परास्त कर देती है।

गणतंत्र दिवस के अवसर पर हम कितना अपने संविधान की भावना को साकार कर पा रहे हैं यह सोचनीय विषय है।

डॉ संदीप पाण्डेय, सीएनएस वरिष्ठ स्तंभकार और मग्सेसे पुरुस्कार से सम्मानित सामाजिक कार्यकर्ता
26 जनवरी 2017
(डॉ संदीप पाण्डेय, मग्सेसे पुरुस्कार से सम्मानित वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता हैं. वर्त्तमान में वे आईआईटी गांधीनगर में इंजीनियरिंग पढ़ा रहे हैं और सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया) के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी हैं. वे आईआईटी-कानपुर और आईआईटी-बीएचयू समेत अनेक प्रतिष्ठित संस्थानों में आचार्य रहे हैं. डॉ पाण्डेय जन आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय और आशा परिवार के भी नेत्रित्व कर रहे हैं. ईमेल: ashaashram@yahoo.com | ट्विटर )