दीपा कर्माकर का सराहनीय फैसला

रियो ओलम्पिक में जिम्नास्टिक में शानदार प्रदर्शन करने के लिए दीपा कर्माकर को भी पी.वी. सिन्धू व साक्षी मलिक, जिन दोनों ने पदक जीते थे, के साथ हैदराबाद बैडमिंटन एसोशिएसन ने सचिन तेन्दुलकर के हाथों दुनिया की मंहगीं कारों में से एक बी.एम.डब्लू. का उपहार देने के लिए चुना। बी.एम.डब्लू. गाड़ी की कीमत पचास लाख से लेकर एक करोड़ तक हो सकती है। दीपा ने खुद कहा है कि बी.एम.डब्लू. जैसी गाड़ियों के लिए त्रिपुरा, जहां वह रहती हैं, की सड़कें उपयुक्त नहीं हैं और न ही वहां इस गाड़ी की मरम्मत करने वाला कोई मिस्त्री। इसलिए उसने कम कीमत की एक गाड़ी खरीदने का फैसला लिया है। बी.एम.डब्लू. लौटाने का फैसला लेते हुए दीपा ने हैदराबाद बैडमिंटन एसोशिएसन के अध्यक्ष वी. चामुण्डेश्वरनाथ, जिन्होंने असल में गाड़ी दी थी, से कहा कि यदि वे बी.एम.डब्लू. के बदले उसकी कीमत दे सकें तो दे दें अथवा जो भी वह देना चाहें दे दें।

दीपा की ईमानदारी वाकई सराहनीय है क्योंकि इतनी महंगी गाड़ी, जो उसके लिए सफेद हाथी की तरह थी, को वापस करने का निर्णय लेना और बदले में यह अपेक्षा न रखना कि उसकी पूरी कीमत उसे वापस मिल जाए बड़ी बात है। वहीं सचिन तेन्दुलकर को डॉन बै्रडमैन के 29 शतकों के रिकार्ड की बराबरी करने के लिए जब विदेश से फेरारी नामक और भी महंगी गाड़ी फिएट कम्पनी द्वारा उपहार में मिली थी तो पहले तो उन्होंने सरकार से उसपर लगने वाला रु. 1.13 करोड़ कर माफ करने का आग्रह किया जो बाद में कम्पनी ने दिया और फिर उस गाड़ी को सूरत के एक व्यापारी को बेच दिया। दीपा कर्माकर भी अपनी गाड़ी बेच सकती थीं लेकिन शायद उनकी अंतर्रात्मा ने उन्हें इस बात की इजाजत नहीं दी होगी। उन्होंने सारी बात दान देने वाले वी. चामुण्डेश्वरनाथ से इस तरह से कही कि उन्हें भी बुरा न लगे। दीपा कर्माकर ने ईमानदारी की एक नई मिसाल पेश की है और पेशेवर लोगों के लिए सार्वजनिक जीवन में नया मानक भी स्थापित किया है। उनका यह कदम उनके ओलम्पिक के प्रदर्शन से कई गुना श्रेष्ठ है।

लेकिन दीपा कर्माकर के इस फैसले में देश के लिए भी एक संदेश है। हमारा विकास का तरीका जिसमें हम पश्चिम की नकल करते जा रहे हैं शायद अपने देश के लिए पूरी तरह से उपयुक्त नहीं है। पश्चिम में किसी को बी.एम.डब्लू. वापस नहीं करनी पड़ती। हमें अपनी परिस्थिति के अनुसार ही विकास करना चाहिए। जो प्रौद्योगिकी हमारे देश की परिस्थितियों में इस्तेमाल नहीं की जा सकती उसे हम क्यों इस देश में लोगों पर थोप रहे हैं? इसमें पैसे की भी बरबादी होती है। उदाहरण के लिए यदि दीपा कर्माकर बी.एम.डब्लू. गाड़ी रख लेतीं तो उसकी देख-रेख में ज्यादा पैसा खर्च होता।

देश में आजकल नोटबंदी के नाम पर काले धन को समाप्त करने के लिए जो नोटबदली थोपी गई है उससे नरेन्द्र मोदी सरकार संतुष्ट नहीं थी। बीच में उन्होंने जनता के सामने नया उद्देश्य रख दिया। सरकार कह रही है कि वह नकदविहीन व्यवस्था चाहती है जिसमें सारे भुगतान लोग अपने मोबाइल फोन, पे टी.एम. जैसे एप, कम्प्यूटर या क्रेडिट कार्ड से करें। नरेन्द्र मोदी ने पढ़े-लिखे लोगों से अपील की है कि वे अनपढ़ लोगों को मोबाइल फोन चलाना सिखा दें। शायद नरेन्द्र मोदी को पढ़े-लिखे लोगों से कहना यह चाहिए था कि पहले वे अनपढ़ लोगों को पढ़ना लिखना सिखाएं।

वैसे तो भारत की साक्षरता दर 74 प्रतिशत बताई जाती है किंतु सरकारी विद्यालयों की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। हम ऐसा मान कर चल सकते हैं कि अनपढ़ लोगों की संख्या के लगभग ही लोगों के पास बैंक खाते व मोबाइल फोन नहीं होंगे। यानी करीब एक चौथाई से एक तिहाई लोग शायद ऐसे हैं जो या तो पढ़े-लिखे नहीं हैं, या उनके पास बैंक खाते नहीं हैं अथवा वे मोबाइल फोन का इस्तेमाल नहीं करते हैं। इनमें से कुछ लोगों पर उपर्युक्त तीन में से कोई दो कथन लागू होते होंगे और कुछ पर तीन में से एक ही लागू होगा, लेकिन इनमें से ज्यादातर ऐसे होंगे जिन पर ये तीनों कथनं एक साथ लागू होते होंगे। अब जिस अनपढ़ व्यक्ति के पास न तो बैंक खाता है और न ही मोबाइल फोन उसे नकद विहीन व्यवस्था से कैसे जोड़ा जा सकता है? जो 22 करोड़ के करीब जन धन खाते खोले गए हैं उसमें से करीब 33 प्रतिशत ऐसे हैं जिन लोगों के दूसरे खाते पहले से खुले हुए थे और 28 प्रतिशत लोग अपने खातों का इस्तेमाल नहीं कर रहे। एक अनपढ़ गरीब व्यक्ति के लिए एक बैंक खाता वैसा ही है जैसे दीपा कर्माकर के लिए बी.एम.डब्लू.। वह शायद जो कमाता है रोज खर्च कर देता है या उसके लिए बैंक से लेन-देन करना सहज नहीं मालूम पड़ता। उसके अगले दिन के रोजगार के लिए नकद बचा कर रखना पड़ता होगा। उसका जो काम का समय है बैंक भी सिर्फ उसी समय खुलता है। वह शायद अपनी आजीविका का नुकसान कर बैंक की कतारों में नहीं खड़ा हो सकता। वैसे भी 8 नवम्बर, 2016 से लोगों का बैंकों में अनावश्यक बहुत समय बरबाद होने लगा है।

हमारे शासकों को समझना चाहिए कि देश में वही व्यवस्था लागू होनी चाहिए जो आम गरीब इंसान के भी अनुकूल हो। यह देश सिर्फ कुछ मुट्ठी भी अमीरों का नहीं है। अमीरों के लिए जो व्यवस्थाएं लागू हो रही हैं उनमें से कई सारी आम गरीब लोगों को बहुत असहज लगेंगी। इनमें क्रेडिट कार्ड, मोबाइल फोन व तरह-तरह के एप, पे-टी.एम., आदि तो हैं ही एक और उदाहरण है आधुनिक हवाई अड्डों पर पानी पीने की जैसी मशीनें अमरीका में होती हैं वैसी लगाई जा रही हैं यानी पानी की धार ऊपर निकलती है। नल में ऊपर से नीचे गिरते पानी पीने के आदी लोगों को नीचे से ऊपर धार निकलने वाला पानी पीना कितना असहज होता होगा। आज से मशीनें हवाई अड्डों पर लग रही हैं कल जगह-जगह लगने लगेंगी। नीचे बैठ कर शौच करने वालें के लिए बड़ी दिक्कत हो जाती है जब कुर्सी जैसा शौचालय मिलता है। रेलगाड़ी के स्लीपर श्रेणी के डिब्बों में चार में से सिर्फ एक शौचालय कुर्सी जैसा होता है, बाकी तीन नीचे बैठने वाले ही होते हैं। जमीन या कम से कम कहीं रख कर खाना खाने वालों को खड़े-खड़े हाथ में थाली लेकर खाने को कहा जाए तो उन्हें कितना अजीब लगता होगा। शहरों को जोड़ने वाली सड़कें ऐसी बन गई हैं जिनपर सिर्फ चार पहिया मोटर गाड़ियां ही चल सकती हैं जबकि इस देश के ज्यादातर लोग तरह-तरह के अन्य वाहनों से ज्यादा चलते हैं। कई जगह सार्वजनिक घोषणाएं अथवा संदेश अंग्रेजी में ही होते हैं जबकि जिनके लिए हैं वे अंग्रेजी जानते ही नहीं।

दीपा कर्माकर के कदम से हमें यह सबक लेना चाहिए कि इस देश का विकास यहां की परिस्थितियों को ध्यान में रख कर होना चाहिए।

डॉ संदीप पाण्डेय, सीएनएस वरिष्ठ स्तंभकार
7 जनवरी 2017
(डॉ संदीप पाण्डेय, मग्सेसे पुरुस्कार से सम्मानित वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता हैं. वर्त्तमान में वे आईआईटी गांधीनगर में इंजीनियरिंग पढ़ा रहे हैं और सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया) के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी हैं. वे आईआईटी-कानपुर और आईआईटी-बीएचयू समेत अनेक प्रतिष्ठित संस्थानों में आचार्य रहे हैं. डॉ पाण्डेय जन आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय और आशा परिवार के भी नेत्रित्व कर रहे हैं. ईमेल | ट्विटर )