प्रो० (डॉ) रमा कान्त को झारखण्ड अध्यक्षीय ओरेशन अवार्ड २०१०

हजारीबाग, झारखण्ड में प्रोफेसर (डॉ) रमा कान्त को २४ अक्टूबर को झारखण्ड ओरेशन अवार्ड २०१० से नवाज़ा गया. प्रो०(डॉ) रमा कान्त ने 'पैरों के मधुमेह/ डाईबीटीस' पर अपना अध्यक्षीय व्याख्यान दिया. प्रो०(डॉ) रमा कान्त, वर्तमान में इंदिरा नगर सी-ब्लाक चौराहे स्थित 'पाइल्स टू स्माइल्स' क्लिनिक के महानिदेशक एवं शाहमीना रोड स्थित 'सिप्स' अस्पताल के प्रोफेसर-निदेशक हैं, और छत्रपति शाहूजी महाराज चिकित्सा विश्वविद्यालय के सर्जरी विभाग के से०नि० अध्यक्ष हैं.

प्रोफेसर (डॉ) रमा कान्त के अनुसार “मधुमेह के रोगी के शरीर के स्नायुओं के क्षतिग्रस्त होने की भी सम्भावना होती है। कुछ रोगियों मे इस क्षति के कोई बाह्य लक्षण नहीं दिखाई देते, परन्तु कुछ रोगियों को हाथ-पैरों में दर्द, झंझनाहट या संज्ञा शून्यता महसूस होती है। मधुमेही के गुर्दों पर भी इस रोग का बुरा प्रभाव पड़ सकता है। गुर्दे शरीर को साफ़ रखने मे असमर्थ होते जाते हैं और अंतत: कार्य करना बंद कर देते हैं। इस स्थिति को ‘क्रोनिक किडनी फेलियर' कहते हैं।”

प्रोफेसर (डॉ) रमा कान्त का कहना है कि मधुमेह का एक सबसे भयानक प्रभाव है ‘डायबेटिक फुट’ अथवा ‘मधुमेही पाँव'। अधिक समय तक मधुमेह रोग होने से पांवों की धमनियों और स्नायुओं मे विकार हो जाता है, जिसके चलते न केवल रोगी के पैर को, वरन उसके जीवन को भी खतरा हो सकता है। ‘ मधुमेही पाँव’ से पीड़ित होने पर रोगी को लंबे समय तक अस्पताल मे रहना पड़ सकता है तथा उसके परिचार मे भी बहुत सजगता बरतनी पड़ती है।

मधुमेही के पाँव काटने की स्थिति आने के दो मुख्य कारण हैं---लंबे समय तक चलने वाले अनियंत्रित मधुमेह की वजह से पैर के स्नायुओं का संज्ञाशून्य हो जाना अथवा पाँव के तलवों मे ‘हाई प्रेशर पॉइंट' बन जाने से वहां घाव हो जाना। और यदि रोगी धूम्रपान भी करता हो तो स्नायु क्षतिग्रस्त होने से पैरों मे रक्त संचार कम हो जाता है। बढ़ती उम्र के साथ साथ रोगी के पैरों मे रक्तसंचार बाधित होने से और संज्ञाहीनता बढ़ने से पाँव मे संक्रमण की सम्भावना बढ़ जाती है।

प्रोफेसर (डॉ) रमा कान्त जिनको विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक ने २००५ के अंतर्राष्ट्रीय पुरुस्कार से नवाजा, उनके अनुसार मधुमेह के रोगियों को अपने पाँव की रक्षा हेतु निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिये —
(१) पैरों को नियमित रूप से धो कर साफ़ रखें।
(२) केवल गुनगुने पानी का प्रयोग करें---गर्म पानी,आयोडीन, अल्कहौल या गर्म पानी की बोतल का प्रयोग न करें।
(३) पैरों को सूखा रखें---विशेषकर उँगलियों के बीच के स्थान को. सुगंधहीन क्रीम /लोशन के प्रयोग से त्वचा को मुलायम रखें।
(4) पैरों के नाखून उचित प्रकार से काटें---किनारों पर गहरा न काटें।
(५) गुख्रू को हटाने के लिए ब्लेड, चाकू , ‘कॉर्न कैप' का प्रयोग न करें।
(६) नंगे पाँव कभी न चलें, घर के अन्दर भी नहीं. हमेशा जूता/चप्पल पहन कर ही चलें।
(७) कसे हुए या फटे पुराने जूते/चप्पल न पहनें. आरामदेह जूते/चप्पल ही पहनें।
(८) स्वयं ही अपने पाँव की जांच नियमित रूप से करें और कोई भी परेशानी होने पर तुंरत अपने चिकित्सक से संपर्क करें।
(९) केवल चिकित्सक द्वारा बताई गयी औषधि का ही प्रयोग करें —घरेलू इलाज न करें।
‘मधुमेह का रोग केवल धन ही नहीं, और भी बहुत कुछ गंवाता है।’ 

अयोध्या में राम मंदिर निर्माण सम्भव

17 सितम्बर को अयोध्या विवाद पर सम्भावित फैसले के मद्देनजर हिन्दुत्व साम्प्रदायिक ताकतों ने पुन: अयोध्या में राम मन्दिर का राग अलापना शुरू कर दिया है। 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस व राम मंदिर निर्माण के मुद्दे ने देश की राजनीति को बहुत नुकसान पहुंचाया है। आम जनता के मुद्दों, जैसे गरीबी, बेरोजगारी, किसानों की समस्या, संसाधनों की कमी, भ्रष्टाचार आदि को काफी पीछे ढकेल दिया। इस भावनात्मक मुद्दे में लोगों को उलझा कर जन विरोधी आर्थिक नीतियां लागू कीं गईं जिसका फायदा पूंजीपति वर्ग व देशी-विदेशी कम्पनियों को हो रहा है किन्तु आम जनता परेशान है। यह तो गनीमत है कि 2004 में राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन चुनाव हार गया व संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार बनी, नहीं तो हालत और भी खस्ता होती। कम से कम सूचना के अधिकार, राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी, वन अधिकार व आने वाले खाद्य सुरक्षा अधिनियमों से ऐसा प्रतीत तो होता है कि सरकार आम जनता के मुद्दों के प्रति भी थोड़ा-बहुत सोचती है। वर्ना राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन की सरकार तो शायद हमें राम मंदिर व राम सेतु के अलावा कुछ सोचने ही नहीं देती।

दूसरी तरफ बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद ही इस देश में श्रृंखलाबद्ध बम धमाके व आतंकवादी कार्यवाईयों को अंजाम दिया जाने लगा। इस लिहाज से बाबरी मस्जिद ध्वंस भारत में आतंकवादी घटनाओं की जननी है। वैसे भी संविधान की रक्षा की शपथ खा कर तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने लोकतंत्र की खुले आम धज्जियां उड़ाईं। हालाँकि बीच में ऐसा भ्रम फैलाया गया था कि इस्लामिक संगठन भारत में आतंकवादी कार्यवाइयों को अंजाम दे रहे थे किन्तु अब जब कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से सम्बन्धित अभिनव भारत का नाम मालेगांव, हैदराबाद की मक्का मस्जिद, अजमेर व समझौता एक्सप्रेस जैसे बम कांडों में आ रहा है तो ऐसा प्रतीत होता है कि भारत को इस्लामिक से ज्यादा हिन्दुत्व आतंकवाद ने क्षति पहुंचाई है। शक की बुनियाद पर तमाम मुस्लिम नवजवान जेलों में कैद हैं किन्तु दिन दहाड़े बाबरी मस्जिद गिराने वाला एक भी व्यक्ति जेल में नहीं है। यह विभिन्न सरकारों व शासन-प्रशासन के साम्प्रदायिक चरित्र का भी द्योतक है।

असल में साम्प्रदायिक विचारधारा का लोकतंत्र से कोई तालमेल हो ही नहीं सकता चूंकि यह विचारधारा संकीर्णता की परिचायक है। बल्कि साम्प्रदायिकता की परिणति सिर्फ फासीवादी सोच में ही हो सकती है। यह खुशी की बात है कि जनता ने साम्प्रदायिक विचारधारा को उ.प्र. में नहीं बल्कि पूरे देश में नकारा है। हम उम्मीद करते हैं कि जनता दोबारा साम्प्रदायिक शक्तियों के झांसे में नहीं आएगी। राजनीतिक उद्देश की पूर्ति के लिए धार्मिक भावनाओं का दोहन पूर्णतया अनैतिक है।

देश के नागरिकों को अयोध्या विवाद पर न्यायालय का जो भी फसला आए उसका सम्मान करना चाहिए। जो पक्ष फैसले से संतुष्ट नहीं है वह सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकता है। किन्तु सड़क पर उतर कर किसी भी किस्म का शक्ति प्रदर्शन या लोगों की धार्मिक भावनाओं को भड़काने की कोशिश असंवैधानिक कार्यवाही होगी। मंदिर निर्माण को लेकर संघ परिवार से जुड़े संगठनों ने तमाम किस्म की कवायदें शुरु कर दी हैं। अयोध्या के मंदिरों में हनुमान चालीसा के पाठ हो रहे हैं। मोबाइल फोन पर एस. एम. एस. भेजे जा रहे हैं। हिन्दुत्ववादी संगठनों के नेताओं के बयान आ रहे हैं। विश्व हिन्दू परिषद के अध्यक्ष अशोंक सिंघल का कहना है कि अयोध्या स्थित कारसेवकपुरम में मंदिर निर्माण हेतु पत्थर तराशे जा रहे हैं। कायदे से अभी जबकि न्यायालय का फैसला भी नहीं आया है और यह तय नहीं है कि मंदिर बनेगा भी अथवा नहीं इस किस्म की कार्यवाईयां व बयान तो न्यायालय की अवमानना माने जाने चाहिए व न्यायालय को इनका संज्ञान लेना चाहिए।

देश व अयोध्या की आम जनता के लिए बाबरी मस्जिद-राम जन्म भूमि कोई मुद्दा ही नहीं है। यह संघ परिवार ने जबरदस्ती देश के ऊपर थोपा है। अयोध्या के आम लोगों से बातचीत कर पता चलता है कि यहां लोग इस मुद्दे से कितने परेशान हैं। अयोध्या का आम जन-जीवन प्रभावित हुआ है। लगातार सुरक्षा बलों की उपस्थिति से यहां तनाव बना रहता है। जब-तब कर्फयू लगने की आशंका अलग रहती है। विवादित स्थल के राम लला को छोड़ अन्य मंदिरों में दर्शन हेतु आने वाले श्रद्धालुओं की संख्या में गिरावट आई है जिससे अयोध्या की अर्थव्यवस्था प्रभावित हुई है। अयोध्या में बड़ी संख्या में लोगों की आजीविका मंदिरों पर निर्भर है। इनमें चढ़ने वाले फूलों की खेती से लेकर पूजा-पाठ की सामग्री के निमार्ण के काम में लगे तमाम लोग शामिल हैं जिनमें कुछ मुसलमान परिवार भी हैं।

हम उ.प्र. सरकार से उम्मीद करते हैं कि जो भी इस मुद्दे का राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश करे उसके साथ सख्ती से पे आएगी। हम यह खतरा नहीं मोल उठा सकते कि संघ परिवार के लोगों को देश में दंगे भड़काने की छूट दी जाए। देश में धर्मनिर्पेक्ष लोग व मुसलमान, जो भी फैसला आएगा उसे मानने को तैयार बैठे हैं। किन्तु संघ परिवार के अचानक सक्रिय होने से ऐसा मालूम पड़ता है कि यदि फैसला इनके अनुकूल न गया तो वे उसे नहीं मानेंगे। यदि केंद्र व राज्य सरकार इनके साथ सख्ती से निपटती है और आम हिन्दू इन्हें अपनी धार्मिक भावनाओं के साथ खिलवाड़ नहीं करने देता है तो देश का महौल शांत बना रहेगा व साम्प्रदायिक सदभावना सुरक्षित रहेगी।

असल में राम मंदिर निर्माण का मुद्दा संघ परिवार के गले की हड्डी बन गया है। इस मद्दे का इस्तेमाल भारतीय जनता पार्टी की राजनीति को बढ़ाने के लिए ही किया गया। यदि संघ परिवार का उद्देश्य वाकई में मंदिर निर्माण होता तो वह उस किस्म की राजनीतिक दृढ़ता दिखा सकता था जैसी मायावती ने दिखाई है, जिन्होंने राज्य की राजधानी में सरकारी जमीन पर, पेड़ काटकर, जनता के धन से, कानून बन कर दलित स्मारकों का निर्माण करा दिया है। परंतु संघ परिवार का उद्देश्य कभी मंदिर निर्माण रहा ही नहीं है। उन्हें तो सिर्फ इस मुद्दे का राजनीतिक दोहन करना है, जो मंदिर बन जाने पर संभव न होगा। यदि संघ परिवार वाकई में अयोध्या में भव्य राम मंदिर का निर्माण चाहता है तो वह इसे कारसेवकपुरम की भूमि पर क्यों नहीं बना लेता ? क्या जरुरी है कि मंदिर विवादित स्थल पर ही बने ? विश्व हिन्दू परिषद के स्वामित्व वाली जमीन पर राम मंदिर बना कर इस विवाद को भी हमेशा -हमेशा के लिए विराम दिया जा समता है।

लेखक : संदीप, पता: ए-893, इन्दिरा नगर, लखनऊ -226016, उ.प्र., फोन: 0522 2347365, मोबाइल: 9415022772, ई-मेल: ashaashram@yahoo.com

सामाजिक संगठनों ने हिंदुस्तान टाईम्स पर पुलिस के हमले की निंदा की: बच्ची के लिये न्याय की मांग

जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय, आशा परिवार और लोक राजनीति मंच के कार्यकर्ताओं ने कानपुर के हिंदुस्तान टाईम्स कार्यालय पर पुलिस के हमले की निंदा की, और कानपुर में दस-वर्षीया बच्ची के साथ हुए यौनिक शोषण और अंतत: मृत्यु के लिये जिम्मेदार दोषियों के खिलाफ करवाई करने में ढिलाई की भी आलोचना की. दोषियों के खिलाफ सख्त कारवाई करने के बजाय पुलिस हिंदुस्तान टाईम्स जैसे अख़बारों पर हमला बोल रही है जिन्होंने निडर हो कर जिम्मेदारी से पत्रकारिता के जरिये बच्ची के लिये न्याय की मांग की.

अख़बारों और कानपुर के निवासियों से जो पता चला है, उससे ये साफ़ ज़ाहिर है कि बच्ची के साथ यौनिक हिंसा और उसकी हत्या के मामले में पुलिस इमानदारी से जांच नहीं कर रही है. रपट है कि बच्ची के परिवारजनों तक को परेशान कर रही है और पुलिस का कथन बच्ची के हुए चिकत्सकीय परीक्षण की रपट से बिलकुल भिन्न है. जब अख़बारों जैसे कि हिंदुस्तान टाईम्स और दैनिक हिंदुस्तान ने इन तथ्यों को जागरूक किया और बच्ची के लिये न्याय की मांग की, तब पुलिस ने उनके कार्यालय पर धावा बोल दिया.

कानपुर पुलिस के इस रवैये से हम सब बेहद चिंतित हैं - और प्रदेश सरकार से मांग करते हैं कि जो लोग बच्ची के साथ इस जघन्य कृत्य के लिये जिम्मेदार हैं, उनको पुलिस के कार्य में दखलंदाज़ी नहीं करने दी जाए, और उनके खिलाफ सख्त कारवाई हो.
डॉ संदीप पाण्डेय, अरुंधती धुरु, एस.आर.दारापुरी, किरण जैसवार, देवेश, आशीष श्रीवास्तव, अरविन्द मूर्ति, राजीव यादव, शाहनवाज़ आलम, केशव चाँद, महेश कुमार पाण्डेय, नन्दलाल, बाबी रमाकांत, एवं अन्य लोग जो आशा परिवार, जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय एवं लोक राजनीति मंच से जुड़े हैं.
फ़ोन: २३४७३६५, ९४१५०२२७७२ (अरुंधती धुरु/ डॉ संदीप पाण्डेय), ९८३९० ७३३५५ (बाबी)
ईमेल: ashaashram@yahoo.com

सूचना या समय बद्ध सही सूचना का अधिकार

सूचना के अधिकार को लागू हुये लगभग 5 वर्ष हो गए, किन्तु विदित है कि अभी तक उच्च पदों पर आसीन जिम्मेदार लोग यहाँ तक की कुछ अधिवक्ता यह समझते है, कि यह अधिकार केवल सरकारी विभागों में उपलब्ध दस्तावेजों की प्रतियां प्राप्त करने या उनका मुआइना करने या किसी वस्तु का नमूना प्राप्त करने तक ही सीमित है। यदि सूचना अधिनियम 8, 9 और 10 (१), २४ बाधित न हो।

इस अधिनियम की धारा 4 (१) घ के अनुसार प्रत्येक लोक प्राधिकारी को अपने हर निर्णय का कारण चाहे वो प्रशासनिक हो अथवा अर्द्ध न्यायिक, प्रभावित व्यक्तियों को बताना होगा। यह सबसे महत्वपूर्ण और क्रांतिकारी धारा हैं इस धारा तथा 8 (१) घ ने प्रशासन को आम आदमी के प्रति उतना ही जवाब देह बना दिया है जितना वह सांसद, विधायक के प्रति है। इसने तो मालिक और नौकर का समीकरण ही बदल दिया है। इसने सही माने में सत्ता जनता के हाथ में दे दी है अब कोई भी जागरूक नागरिक नियम या कानून तोड़ने वाली किसी भी प्रशासनिक या अर्द्ध न्यायिक संस्था के मनमाने कामों पर अंकुश लगाकर, सही तरह से काम करने को बाध्य कर सकता है । गलत निर्णयों को बदलवा सकता है, उसके अपने हित में हो या जनहित में हो।

चूँकि एस अधिनियम के अनुसार केवल सूचना मांगी जा सकती हैं, प्रार्थी को सम्पूर्ण विवेक का प्रयोग करना होगा ताकि प्रशासन को उसका काम करने के अलावा कोई विकल्प न बचे । और उसे न्यायालय की शरण न लेनी पड़े । यदि जरूरी है । तो किसी विषय के विभिन्न पहलुओं पर स्पष्टीकरण हेतु अनेक प्रार्थना पत्र देते रहना चाहिए । यह कानून सिर्फ सरकारी विभागों पर ही लागू नहीं होता बल्कि धारा २ ज की उपधारा (ब) के अंतर्गत किसी प्राइवेट संस्था से सम्बन्धित ऐसी सूचना, जिस तक किसी अन्य कानून के जरिये किसी लोक प्राधिकारी की पंहुच हो, पर भी लागू होता है ।
धारा २ झ के अंतर्गत अभिलेख, कोई दस्तावेज पाडुलिपि और फाइल माइक्रोफिल्म, माइक्रोफिशे या प्रतिकृत, कम्प्यूटर द्वारा या किसी अन्य युक्ति द्वारा उत्पादित कोई अन्य सामग्री इस प्रकार वीडियों कैमरा और माइक्रोफोने द्वारा प्राप्त की जा सकने वाली सूचना भी इस कानून के दायरे में आती है । धारा ४ (१) क में लोक प्राधिकारियों कों निर्देश दिया गया है कि वे शीघ्र अपने सभी अभिलेख कों सूचीबद्ध इस प्रकार करे कि वे आसानी से अपने संसाधनों के अनुसार कंप्यूटर नेटवर्क पर देश भर में उपलब्ध हो सकें । तथा यह अपेक्षा की गयी है कि सभी जनसूचना अधिकारी अधिनियम के लागू होने के १२० दिनों के भीतर धारा ४ (१) ख के तहत वर्णित सोलह बिन्दुओं पर स्वत :
सूचना प्रकाशित करेगा व प्रत्येक वर्ष अघतन करेगा ।

धारा ४ (२) में सभी सूचना स्व प्रेरणा से सभी संचार माध्यमों समेत पर उपलब्ध कराई जाय ताकि जनता कों इस कानून का कम से कम इस्तेमाल करना पड़े। धारा ४ (४) के तहत इस अधिनियम में किसी भी घटना का वीडियों ऑडियों मीडिया ब्राडकास्ट्स इन्टरनेट आदि का उल्लेख है । ब्राडकास्ट्स टी.वी. /इन्टरनेट पर पाना भी अधिकार है । यदि धारा ८ का उल्लंघन न होता हो, अत : जिस प्रकार देश की संसद की कार्यवाही की सूचना टेलीविजन पर प्रसारित की जाती है । उसी प्रकार राज्यों की विधान सभाओं न्यायालयों, उच्च कार्यालयों व अन्य सरकारी अर्द्धसरकारी या निजी संस्थानों जहाँ नियम कानून के उल्लंघन की सम्भावना है और जहाँ महत्वपूर्ण काम होतें है कि कार्यवाही की सूचना टी.वी./इन्टरनेट पर उपलब्ध कराई जाय । इससे उनकी जवाब देही स्वत: सुनिश्चित हो जाएगी । यदि सरकार के पास इस काम के लिए संसाधनों का अभाव है तो निजी क्षेत्र का स्वेच्छा से इस क्षेत्र में आवाहन किया जाय और उन्हीं टैक्स में छुट दी जाय ताकि अपराधों और कुशासन से देश कों राहत मिल सके ।

यह खेद की बात है कि एक न्यायालय ने इस अधिनियम की अनदेखी कर एक अधिवक्ता कों इसलिए सजा दी क्योंकि उसके पास कैमरा मोबाइल था । जबकि न्यायालय में जन सुनवाई होती है और उसकी कार्यवाही धारा ८ में नही आती इससे स्पष्ट होता है कि न्यायाधीश सूचना के अधिकार की समुचित जानकारी नही रखते । मेरे एक मित्र जो हाई कोर्ट जज ने स्वीकारा की कई जजों ने तो आर.टी.आई. कों पढ़ा ही नहीं है यदि सभी न्यायालयों, अर्द्धन्यायिक संस्थाओं में हो रही कार्यवाही इंटरनेट पर उपलब्ध करा दी जाय तो आम आदमी सही अधिवक्ता का चुनाव कर सकेगा, सभी मौखिक तर्क और बयान सही रिकार्ड हो सकेगे और सही न्याय सुनिश्चित हो सकेगा । इससे विधि के विधार्थियों और नए अधिवक्ताओं कों भी लाभ होगा ।

कई सरकारी कार्यालयों भ्रष्टाचार और अनियमितताओं के गढ़ हैं के बाहर नोटिस देखा जा सकता है कि वहाँ कैमरा मोबाइल ले जाना वर्जित है । वे भी धारा 8 में नहीं आते और इस प्रकार के नोटिस गैर कानूनी है। यदि सभी जेलों और पुलिस स्टेशनों में हो रहे कृत्य इन्टरनेंट पर देखे, सुने जा सके तो सर्वाधिक मानव अधिकारों का हनन एवं नियम, कानूनों का उल्लंघन रोका जा सकता है। यदि सभी पुलिस कर्मियों को कैमरा मोबाइल उपलब्ध हो तो बहुत कम खर्च पर सही विवेचना होगी और उनकी गैरकानूनी गतिविधियों पर अंकुश लग सकेगा।

दुनिया के सबसे धनी और क्ति शाली दे अमेरिका के राष्ट्रपति निक्सन को वाटर गेट घोटाले के उजागर होने पर अपना पद छोड़ना पड़ा था क्योंकि उनके सरकारी आवास व्हाइट हाउस में जगह-जगह माक्रोंफोने लगे हुए थे ताकि सभी वार्तालाप रिकार्ड किया जा सके और उसके ऊपर उनका कोई नियंत्रण नहीं था। वही के राष्ट्रपति बिल किंलटन भी अपना जुर्म कबूल नहीं किया जब तक मोनिका लेविस्की की पैन्टी के डी.एन.ए. टेस्ट से सब कुछ साबित नहीं हो गया। यदि व्हाइट हाउस में वेब कैमरा माइक के साथ इन्टरनेट से जुड़े होते तो न्यायिक प्रक्रिया में इतना विलम्ब न होता और उनका निष्कासन तुरन्त हो गया होता जैसा विकसित देशों में दुकानों में चोरी आदि को सी। सी. टी. वी. कैमरा द्वारा उजागर हुए मामलों में हुआ है।


धारा ८(३) में २० वर्ष तक पहिले की सूचना प्राप्त की जा सकती है । अत: किसी हो रही घटना का सजीव इलेक्टिकल मीडिम द्वारा पा सकना भी इसके अन्तर्गत आता है । यदि धारा ८ (१), ९ और १० (१) व २४ में न पड़ता हो सुप्रीम कोर्ट के अनुसार सूचना का अधिकार मौलिक अधिकार है अत: इसे सीधे हाई कोर्ट या सुप्रीम भी ले जाया जा सकता है । धारा २२ के अनुसार यह कानून सभी कानूनों के ऊपर प्रभावी है धारा ६ (२) के अनुसार सूचना पाने के लिए कारण नहीं देना होगा । धारा ७ (९) के अनुसार साधारणतया सूचना उसी प्रारूप में दी जाएगी जिसमें मांगी गई है । धारा ७ (१) के अनुसार जन सूचना अधिकारी को निर्धारित फीस जो अधिकतर संस्थानों में १० रुपया है और दस्तावेजों की प्रतियों पर २ रुपया प्रति पेज प्रति कापी है फलापी आदि पर ५० रूपये की दर से और सी.डी. २० रुपया प्रति की दर से मिलेगी मुआइना करने पर समयावधि के अनुसार प्रथम एक घंटे का दस रुपया व अगले एक घंटे का बीस रूपये देना होगा ।

मांगी गई सूचना ३० में देनी होगी या न देने का कारण बताना होगा। यदि मांगी गई सूचना किसी व्यक्ति की जिन्दगी या स्वतंत्रता से सम्बन्धित है तो ४८ घंटों में देनी होगी । यदि इस अवधि में सूचना नही दी गई तो वो मुफ्त में देनी होगी धारा ७ (६) के अनुसार वैसे भी धारा ७ (५) के अनुसार गरीबी रेखा से नीचे व्यक्तियों कों मुफ्त सूचना का प्रावधान है । धारा १८ (१) में दी हुई किसी भी परिस्थिति के लागू होने पर कोई व्यक्ति सीधे सूचना आयोग में शिकायत कर सकता है । यदि आयोग संतुष्ट होगा कि समुचित कारण विद्यमान है तो धारा १८ (२) में वह उस सम्बन्ध में युक्ति-युक्ति आधार पाता है तो जाँच कर सकता है । जाँच के दौरान आयोग को सिविल प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत सिविल कोर्ट कों प्रदत्त धारा १८ (३) व १८ (४) में वर्णित अधिकार प्राप्त होगे।

धारा १९ (१) के अंतर्गत यदि किसी व्यक्ति को जन सूचना अधिकारी द्वारा ३० दिन में सूचना उपलब्ध नहीं कराई जाती या वह जनसूचना अधिकारी के निर्णय से असंतुष्ट है या उसे अतिरिक्त देय फीस नही बताई जाती तो वह उनके ऊपर के अपीलीय अधिकारी को प्रथम अपील उक्त अवधि में कर सकता है। अपीलीय अधिकारी को धारा १९ (६) के अनुसार अपील प्राप्त होने के ३० दिन या अधिकतम, ४५ दिन कारण बताने पर के अन्दर निस्तारण करना होगा। धारा १९ (३) के अनुसार अपीलीय अधिकारी के निर्णय के विरुद्ध द्वितीय अपील आयोग में ९० दिन उस तारीख से जब तक निर्णय ले लेना चाहिय था अथवा जब निर्णय प्राप्त हुआ हो, में की जा सकेगी।

धारा २० (१) के अनुसार यदि सूचना आयोग किसी शिकायत या अपील पर निर्णय लेते समय यह मानता है कि जनसूचना अधिकारी ने अकारण सूचना हेतु कोई प्रार्थना पत्र लेने से मना किया है या सूचना धारा ७ (१) में निर्धारित अवधि में उपलब्ध नही कराई या द्वेष वश सूचना देने से मना किया या जान बुझकर गलत, अधूरी या भ्रामक सूचना दी या मांगी हुई। सूचना नष्ट कर दी या किसी प्रकार सूचना उपलब्ध कराने में बाधा डाली तो वो २५० रूपये प्रति दिन की दर से जुर्माना लगाएगा जब तक प्रार्थना पत्र स्वीकार न हो जाय या सही सूचना उपलब्ध न करा दी जाय। जुर्माने की रकम २५००० रूपये से अधिक नहीं हो सकेगी । जुर्माना लगानें के पूर्व जन सूचना प्राधिकारी को सुनवाई का अवसर देना होगा। यह साबित करने का दायित्व उसी पर होगा की उसने सम्बंधित कानूनों और नियमों के अनुसार सही सूचना समय पर दी है। धारा २० (१) में वर्णित किसी भी कारण के पाए जाने पर आयोग सेवा नियमावली के अनुसार जन सूचना प्राधिकारी पर धारा २० (१) के अंतर्गत अनुशासनात्मक कारवाही की संस्तुति करेगा ।

धारा १९ (८) ख में आयोग कों यह अधिकार है की वो वादी कों हुई हानि या अन्य नुकसान की क्षति पूर्ति दिलाए। वादी कों चाहिए की वो आयोग कों अपने आवेदन में बताए कि धारा १९ (८) ख में किन किन मदों में वो कितनी राशि की मांग कर रहा है। क्षति पूर्ति में आने जाने का खर्च अतिरिक्त रहने खाने का खर्च सुनवाई पर उपस्थित होने के कारण दैनिक कमाई का हर्ज, सूचना न देने या गलत, अधूरी भ्रामक सूचना पाने या सूचना नष्ट किये जाने का हर्ज यदि कोई वकील किये हो तो उसकी फीस, डाक टाइप आदि कराने का खर्च, मानसिक उत्पीड़न की क्षति पूर्ति आदी सम्मलित है। वादी उपस्थित न होने का भी विकल्प चुन सकता है उस स्थिति में आयोग कों प्रस्तुत अभिलेख पर एक पक्षिर्य निर्णय देना होगा। ऐसे में कई में मदों में देय क्षति पूर्ति भी बचेगी।

कोई भी आरोप सही पाए जाने पर आयोग का धारा २० (१) में वर्णित दंड देना होगा। आयोग न तो उससे कम और न उससे अधिक दंड दे सकता है। आयोग कों धारा २० (२) में भी कारवाही करनी होगी सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश संख्या २० नियम संख्या ४ (२) के अंतर्गत उठाए गए सभी बिन्दुओं पर कारण सहित निर्णय देना होगा। मांगी गई क्षति पूर्ति दिलाने का आदेश देना होगा या न दिलाने का कारण बताना होगा ।

यदि कोई सूचना आयुक्त इस प्रक्रिया का पालन नहीं करेगा तो धारा १४/१७ में राष्ट्रपति /राज्यपाल से उसी सुप्रीम कोर्ट द्वारा जाँच में दोषी पाए जाने पर अक्षमता के आधार पर पदमुक्त कर सकता है। राष्ट्रपति /राज्यपाल से उसे भारतीय दंड संहिता की धारा १६६, १६७, २१९ में मुकदमा दायर करने की अनुमति भी मांगी जा सकती है। इससे गलत प्रक्रिया द्वारा नियुक्त अक्षम और संभवत: भ्रष्ट सूचना आयुक्तों से शीघ्र छुटकारा मिल सकेगा और योग्य, कर्मठ लोग ही भविष्य में इस पद कों स्वीकारेंगे।

इससे उन अक्षम सूचना आयुक्तों पर तुरंत अंकुश लग सकेगा जो इस प्रकार के निर्णय देते है कि प्रतिवादी का कहना है कि उसने मांगी गई सूचना उपलब्ध करा दी है। वादी का कहना है कि उसे कानून और नियमों के अनुसार गलत सूचना दी गई है। वादी सूचनाओं से संतुष्ट न हो तो किसी सक्षम फोरम की शरण ले सकता है। वाद निस्तारित किया जाता है। यह दायित्व सुचना आयुक्त का है की वो दोनों पक्षों की दलीलें पढ़ने सुनने के बाद निर्णय दे कि दी गई सूचना गलत, अधूरी या भ्रामक है या नही । यदि इतने उच्च पद पर आसीन अधिकारी उदघृत कानूनों, नियमों आर. टी. आई. के प्रावधानों तक कों समझने में अक्षम हैं या जान बुझकर उनकी अनदेखी करते है

चन्द्र प्रकाश महलवाला

राजनीति, इसी से चलती है हमारी सासें ।

व्यक्ति स्वभाव से अपने निजी संरक्षण और सुख की दिशा में निर्दिष्ट होता है । वह उनकी प्राप्ति के अलावा और कोई उद्देश्य नहीं रखता है । प्राकृतिक अवस्था में प्रत्येक व्यक्ति अपने जैसे से ही युद्ध की स्थित में रहता है । जिससे सभी का जीवन खतरे में अकेला,असहाय, पशुवत और अल्पकालिक होता है । जीवन का भय उसे राजनीतिक एकता में बंधने कों विवश करता हैं । किसी विचार पर सहमति या असहमति जाहिर करना ही राजनीति हैं । चाहे विचार हमारी जिंदगी और हमारी हिस्सेदारी कों ही लेकर क्यों न हो ।

क्या इस असहमति या विद्रोह के माध्यम से व्यक्तिगत स्वार्थ सिद्धि की जा सकती है । राजनीति की वर्तमान धारणा जो शक्ति, सामूहिक निर्णयों की निर्मात्री, भय संसाधनों के बंटवारे, छल, चालबाजी ऐसे बहुत सारे गुणों से युक्त हैं । इससे स्पष्ट होता है कि व्यक्तिगत स्वार्थ सिद्धि नहीं की जा सकती हैं जिसका कारण इसके पीछे एक या दो नहीं बल्कि दिमागों के हुजूम का काम करना हैं

रोचक बात है कि असहमति के द्वारा जन्मी विरोध के साथ ही सहयोग की भी संगिनी है। जहाँ किसी मत या आवश्यकता से असंतुष्ट होकर तोड़ने का काम करती है। वही एक जैसे लोगों को जोड़ने का काम करती है। राजनीतिक विचार पूरी तरह परिवेश या समाज की प्रतिक्रिया से प्रभावित होकर नहीं आते हैं। इसमें प्राकृतिक पोषण का भी योगदान होता है। यानी परिवेश साथ-साथ संरचना भी महत्वपूर्ण होती है।

राजनीति का एक मात्र उद्देश्य सत्ता पाना है। इसकी प्राप्ति के दो ही रास्ते है। किसी राजघरानें में जन्म हो यदि यह, किस्मत में नहीं हैं। तो पगडंडिया चुननी पड़ेगी। जिन पर चलने के लिये कोई नियम कानून नहीं होता है। बस आगे रहने के लिये तेज दौड़ये या फिर तेज दौड़ने वाले को बाहर कर दीजिये। सत्ता के लिये परिवारों में ही बहुत सी हत्याये हुई इसलिये सत्ताधारी परिवार का सदस्य हमेशा भय के साये में जीता हैं। हमेशा कमजोर शिकार और ताकतवर शिकारी होता हैं। इससे स्पष्ट है कि राजनीति जो परिवार जैसी संस्था से उपजी, उसी को कमजोर किया।

हमें जितनी सरकारों की जानकारी है सभी ने जनता के पीछे उदासीन होकर ही शासन किया हैं यह सभी राजनीतिक रूप से सचेत अल्पसंख्यक सरकारें ही हैं अरस्तु ने कहा हैं राजनीति पर सभी हितों के लिए काम करने वाले कुछ चुनिन्दा लोगों का अधिकार होता हैं चुनिन्दा शब्द आते ही राजनीति को शक की नजरों से देखा जाने लगता हैं भारत में चाणक्य नीति ही राजनीति का मुख्य वाहक बनी हुई है इसलिए आज देश में विचारों के लिए जीने-मरने और राजसत्ता के विरोध में खड़े होकर लोकतंत्र बहाली के लिए काम करने वाले राजनेताओं का अभाव हैं यही अभाव देश में भ्रष्टाचार के रास्तों को और सुदृढ़ कर रहा हैं

हिटलर ने अपने मित्र से कहा था "राजनीति में यदि झूठ बोलना हो तो उसकी घोषणा करनी पड़ती है । यही एक मात्र सत्य है यह राजनीति का नियम है । मैं उसका पालन करता हूँ । इस दुनिया में शायद ही कभी राजनीति में नीति रही हों । लेकिन व्यावहारिक स्तर पर राजनीति सदा अनीति पर आधारित रहती है। और घोषणायें सदा नीति की होती है । इन घोषणाओं के आधार पर ही राजनेताओं कों चुन लिया जाता है । जो राजनेता जितना अधिक कुशल एवं प्रभावशाली होता है । नीति की घोषणाएं करने में उतना अधिक सफल होता है ।" आज देश के अधिकतर लोग राजनीति से अपने कों अलग रखते हैं । उनको देश से कोई लेना देना ही नहीं हैं । जब कि राजनीति हमारा भविष्य तय करती है । तो हमें भी भविष्य की राजनीति तय करनी चाहिए । हम सभी को अच्छी राजनीति के लिए निस्वार्थ, ईमानदारी और नैतिकता कों ध्यान में रखना होगा । अभिभावक वर्ग को इस भ्रम से बाहर आना होगा कि हमारे पड़ोसी के घर भगत सिंह जन्म लेगा और पूरी व्यवस्था को सुधार देगा । जब जनता जागेगी तो उसकी मर्जी लागू होगी देखने योग्य बात है कि यह समय से जागेगी या नहीं।

आज हमारी आजादी के ६३ वर्ष बीत चुके है । हमारी विचार धारा और इतिहास भी धूमिल हो चुका है । भ्रष्टाचार की नाव अबाध रूप से बहती जा रही हैं । इन विषम परिस्थितियों में हमे अपने ही बीच वो नेतृत्व तलाशना हैं । जो हमें ऊर्जा दे और आगे बढ़ने कों प्रेरित करे। सपने हमें जीवित रखते है और चुनौतियाँ हमारे जीवन में अनिश्चितता लाकर आगे बढ़ने में सहयोग करती हैं । अभी-भी जीवन में बहुत कुछ बचा है जिसे हासिल कर समाज कों सुन्दर बनाया जा सकता है । यह सिर्फ राजनीति से ही सम्भव है चाहे लोकतंत्र हो या मानवाधिकार।

-देवेश पटेल

एक मासूम बच्चे का खौफ से सामना


(कश्मीर के जाने माने पत्रकार जनाब अर्ज़िमंद हुसैन तालिब द्वारा लिखे गए लेख का हिंदी अनुवाद)


कश्मीर में इस बार की ईद बेहद संजीदा थी। माहौल दर्द से भरा था, त्यौहार की उमंग गायब थी। मेरी याद में पहली बार, ईद पर न तो खिलौने ही बिके, न ही कोई आतिशबाजी हुई। सभी लोग ग़मज़दा दिखे ।
मेरे लिए तो यह ईद बहुत ही ख़ास थी। इस ईद पर, मेरी डेढ़ साल की बेटी हिबा बे मुझे पहली बार 'बाबा' कहकर पुकारना शुरू किया था । यह उसकी पहली ईद थी जब उसने मेरा हाथ पकड़ कर मुझसे बाहर घुमाने ले चलने का इशारा किया था। मैं भी बहुत खुश था। अपने काम के सिलसिले में एक महीना चीन में बिता कर मैं अपने वतन वापस लौटा था और अपनी बेटी को साथ लेकर घूमने के लिए बेकरार था ।
घर से बाहर निकलने पर मुझे लगा कि जैसे श्रीनगर एक बारूद के ढ़ेर पर बैठा हुआ है, और किसी भी वक़्त फट सकता हैं । हफ़्तों की बेबसी के बाद, लोगों का हुजूम गाँवों से चलकर शहर की ओर आ रहा था। फिजाओं में गुस्से और बदले की आग भड़क रही थी। इस सबसे बेखबर, मेरी बच्ची हिबा, कार में सीट बेल्ट बांधे, मज़े में बैठी हुई चिड़ियों, गायों, गली के कुत्तों और बच्चों की बातें कर रही थी।

मगर पुराना श्रीनगर कुछ ज्यादा ही तनाव ग्रस्त लग रहा था। सड़कें गंदी थीं, चेहरों से मुस्कराहट गायब थी, और शायद ही कोई ऐसा घर रहा होगा जिसकी खिड़कियों के शीशे पैरामिलिटरी फोर्सेस ने तोड़ न दिये हों । रिश्तेदारों से ईद मिल कर हमने शाम होते ही कार जल्दी ही घर की तरफ वापस मोड़ दी। अलूची बाग़ पहुँचते ही हमारे आगे की गाड़ियों की रफ़्तार धीमी हो गयी । लग रहा था कि कुछ गड़बड़ ज़रूर है । तभी, अचानक ही न जाने कहाँ से दर्जनों सिपाही बंदूकें और लाठियां लिए हुए वहां आ पहुंचे और हर गाडी के शीशे तोड़ने लगे। मैंने हिबा को सीट पर से उठा कर अपने दोनों बाजुओं से ढँक दिया। अब वापस गाड़ी मोड़ लेना तो मुमकिन ही न था ।
अपने वहशीपन में, सिपाही कारों में बैठे लोगों को बेवजह ही मार रहे थे। मेरा मन कह रहा था कि कार को पीछे घुमा लूं । पर भागने का कोई रास्ता नहीं था। मेरे पीछे वाली गाड़ियाँ भागने की कोशिश में एक दूसरे से टकरा रही थीं। मुझे कुछ भी नहीं सूझ रहा था कि मैं क्या करूँ

जल्द ही सिपाही मेरी कार तक भी पहुंचे। तभी हमारी कार के शीशे के टूटने की आवाज़ आयी। हिबा डर कर चिल्लायी और मुझ से चिपट गयी। उसका चेहरा नीला पड़ गया था। मेरा सारा ध्यान हिबा की तरफ था। मुझेअपनी जान की परवाह थी। तभी मेरे आगे की गाड़ियाँ एक तरफ को हो गयीं। मुझे सामने कुछ खुली जगह मिल गयी। एक हाथ से हिबा को संभालते हुए, मैं वहाँ से गाड़ी निकालने की कोशिश करने लगा। तभी गाडी का एक और शीशा तड़ाक से टूटा। मैं और तेज़ गाड़ी चलाने लगा। मैं सोच रहा था कि बस इन सिपाहियों के हुजूम से निकल जाने के बाद मैं खैरियत से रामबाग की तरफ जा सकूँगा। पर मेरा यह ख़याल बिलकुल गलत निकलामैंने दहशत से देखा कि बंदूकों और लाठियों से लैस तकरीबन १०० सिपाही मेरी कार की ओर बढ़ कर मुझे रुकने का इशारा कर रहे हैंउस वक़्त सड़क पर सिर्फ हम दो ही सिविलियन थे, और सिपाही गुस्से से भरे थे । मुझे पता था कि अगर मैं वहां रुक गया तो वे मुझे मार ही डालेंगेंवो मुझे रुकने का इशारा करते रहे , पर मैं बेतहाशा तेज़ कार चलाते हुए वहाँ से भागने की कोशिश में लगा रहासिपाहियों को शायद यह लगा कि मैं उन्हें कार से कुचलने की कोशिश कर रहा थाजल्दी ही कुछ बंदूकें मेरी कार की तरफ तन गयींमैं दहशत से काँप उठामैं वैसे ही तेज़ रफ़्तार से कार चलाता रहाशायद उन्होंने मेरे साथ एक बच्चे को देखकर गोली नहीं चलायीउस जगह से रामबाग़ पहुँचने तक सिर्फ दो बार ही हमारी गाड़ी पर गोली लगी, पर हम दोनों में से किसी को भी चोट नहीं लगीहिबा अभी भी रो रही थी

मैं
बघात में रुका। मैं अभी भी सकते और सदमे की हालत में था। हिबा की आंसू भारी आँखें देख कर मेरे भी आंसूबह रहे थे। कुछ राह चलतों ने हमें पानी पिलाया और हमारी खैरियत पूछी। उनका शुक्रिया अदा करके मैं अपने घरकी तरफ बढ़ा

आज यह सब कुछ लिखते हुए मेरा ध्यान बार बार उन ७० लडके और लड़कियों की तरफ जाता है, जो ११ जून से अब तक,कश्मीर में सिपाहियों की गोली का शिकार हो चुके हैं । उनके माँ-बाप की दर्द भारी दास्ताँ को कौन लिखेगा ?

हिबा तो अभी बहुत छोटी है। शायद वो यह सब भूल जाय। पर क्या उसके ज़ेहन से खौफ की ये तस्वीरें पूरी तरह मिट पाएंगी ? हज़ारों बदनसीब कश्मीरी बच्चों की तरह, हिबा भी उस कश्मीर में पैदा हुई है जहाँ सिपाहियों को आम जनता को गोली मारने का लाइसेंस मिला हुआ है, जो किसी को भी एक इज्ज़तदार और आज़ाद ज़िंदगी नहीं जीने देना चाहते। और सबसे बड़ी विडम्बना तो यह है, कि जब हम अपने दर्द का बयान करते हैं, तो उसे हिंसा का नाम दिया जाता है।


(अनुवादिका: शोभा शुक्ला )


जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय

आठवां द्विवार्षिक सम्मेलन
24-26 अक्तूबर, 2010, बड़वानी मध्य प्रदेश
आमंत्रण - सभी आमंत्रित हैं!
शांति, न्याय एवं लोकतंत्र की ओर ......
मध्य प्रदेश में नर्मदा घाटी के बडवाणी में आयोजित जन आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय (एनएपीएम) के आठवें द्विवार्षिक सम्मलेन में आपकों आमंत्रित करते हुए खुशी हों रही है। इस सम्मलेन का मजेबान नर्मदा बचाओं आन्दोलन जो कि एनएपीएम के संस्थापक सगंठनों में से एक है और वह अपनें संघर्ष के २५ वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है। सन 1992 से शुरू हुई एनएपीएम की यात्रा ने 1996 में एक आकार लिया और आज एक अहम दारै में प्रवेश कर चुका हैं।

हमारी यात्रा तब शरू हुई जब उदारीकरण, निजीकरण एवं वैश्वीकरण की प्रक्रिया ने पैर पसारना शुरू किया, बाबरी मस्जिद ढहानें की आड़ में हिन्दूवादी ताकतों ने सिर उठाना शुरू किया और उस दौर में यह घोषणा कि गई कि कोई विकल्प मौजदू नही है। तब से अब तक हमने एक लम्बी यात्रा पूरी की है और विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यू.टी.ओ.), विश्व बैंक, एनरान, बड़े बांध, ग्रामीण एवं शहरी बेदखली व विस्थापन, महिलाओं, आदिवासियों के प्रति अत्याचार और दलित सांप्रदायिकता के खिलाफ कई अन्य आंदोलनों, स्वैच्छिक संगठनों, संघों एवं मंचों, संवेदनशील बुद्धिजीवियों, कलाकारों, छात्रों एवं अन्य के साथ कई महत्वपूर्ण संघर्षों का आयोजन किया है। सन 2003 में हमनें वैकल्पिक दुनिया के आदर्श का वास्तविकता में बदलनें के लिए एक राष्ट्रीय आन्दोलन विकसित करने लोगों के सामूहिक राजनैतिक ताकत के तौर पर मौजूदा गरीब विराधी एवं विकास विरोधी विकास प्रतिमान को बढ़ावा देने वाली राजनैतिक व्यवस्था को बदलने के उद्देश्य से एक देश व्यापी अभियान ‘‘देश बचाओ-देश बनाओ’’ शुरू किया। सन 2007 में कई अन्य समन्वयों मंचों एवं संघों कों समाहित करते हुए संघर्ष की प्रक्रिया शुरू की गई, जो कि एक बहेतर दुनिया हासिल करने की दिशा में एक अन्य कदम था।

एक दशक बाद हम घाटी में मिले, एक बार फिर हम ऐसे समय में मिल रहे हैं, जो कि सबसे अच्छे और सबसे बुरे समयों में से है। नव उदारवाद की जो प्रक्रिया तब शुरू हुई थी उसनें अब अपना असल रंग दिखाना शुरू कर दिया है, सार्वजनिक एवं निजी कार्पोरेशनों ही न सिर्फ संसाधनों कों हडप रहे है, बल्कि बाजार एवं सब सबंधित उपायों से राजनैतिक अवसर एवं सत्ता पर कब्जा कर रहे हैं। राष्ट्रीय से लेकर अंतरराष्ट्रीय निवेशकों ने समाज, राजनीति एवं अर्थव्यवस्था के हर आयाम का ‘‘निजीकरण’’ कर दिया है। आज बदलाव कल्पना के प्रति एक बहुत बड़ी चुनौती है, क्योंकि ग्लोबल वार्मिंग एवं ऊर्जा संकट और भी ज्यादा जाहिर हो रहा हैं। राज्य कल्याण एवं परोपकारी का चोला उतारकर मात्र बिचौलिया की भूमिका निभा रहा है, राजनैतिक वर्ग एवं ज्यादा मुखर मध्यम वर्ग बाजार की विचारधारा एवं अर्थव्यवस्था व विकास के नव-उदारवादी माँडलों के प्रति बिक चुकें है। हम श्रम के अनौपचारीकरण के गवाह है। जिसके परिणामस्वरूप आज 96 फीसदी कामगार असगंठित क्षेत्रों में कार्यरत है और अमीरों व गरीबों के बीच दूरी बढ रही है। इसके अलावा खाद्यान्न सुरक्षा की समाप्ति, कृषि पर हमला सहित खाद्यान्नों की कीमत में जबरदस्त बढ़ोतरी हो रही है। राजनैतिक वर्ग लोगों के मुद्दें कों शायद ही कभी हल करतें है बल्कि उन्हें अधिकतर वोट बैकं की तरह इस्तेमाल करतें हैं। सार्वजनिक अवसर, सार्वजनिक हित, सार्वजनिक पटल एवं प्राथमिकताएं इतने कम हो रहे हैं कि वे बुनियादी जरूरतों की पूर्ति भी नहीं हो पा रही है जो कि न सिर्फ वर्तमान को बल्कि भविष्य को खतरे में डाल रहे हैं। जबकि, हम यह भी नहीं भूल सकते कि सरकार द्वारा थोपे जाने वाले ‘‘आतंक के खिलाफ युद्ध,'' सैन्यीकरण एवं हिंसा की बढ़ती प्रवृत्ति से अहिंसक जन संघर्षों के लिए मुश्किलें बढ़ रही है, बल्कि साथ ही उन्हें ज्यादा महत्वपूर्ण भी बना रही हैं।

ये समय उतने निराशावादी नहीं हैं, हमारे सामूहिक प्रयासों से न सिर्फ सूचना का अधिकार कानून, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम, वन अधिकार अधिनियम आदि प्रगतिशील कानून लागू हुए हैं, बल्कि ऐसी परिस्थिति भी उत्पन्न हुई जहां लोगों ने जल, जंगल, जमीन एवं खनिज आदि के लूट के हर प्रयास को जमीनी स्तर पर चुनौती दी। हम सिंगुर, नंदी ग्राम, नियमगिरि, सोमपेटा, कारला, चेंगारा एवं संघर्ष के ऐसे कई जगहों में जीत के बीच खड़े हैं।
न्याय और समानता का सवाल पहले से कही ज्यादा सामने है एवं जनता, सरकार एवं कॉरपोरेशनों के बीच ‘प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार एवं नियंत्रण’ आज प्रतिवाद का केंद्र बिन्दु बन गया है। आज एनएपीएम सिर्फ समन्वय नहीं है और हमारे दायरे से बाहर भी बड़ी बिरादरी है जो कि विकल्पों के माध्यम से संघर्ष और पुनर्निर्माण में लगे हुए हैं, और सरकार एवं कॉरपोरेटों दोनों के भ्रष्टाचार, आपराधिक गतिविधियों एवं कठोरता के समक्ष निगमीकरण एवं वैश्वीकरण को चुनौती देने के लिए प्रतिबद्ध हैं। हमने हमेशा उनके बीच अवसर तैयार करने एवं चर्चा और देश में मौजूद संघर्षों व विचारधाराओं की विविधता को पर्याप्त अवसर प्रदान करने की कोशिश की है।

एक सकारात्मक पक्ष के तौर पर इसे हमारी सामूहिक जीत समझा जा सकता है कि आज सामाजिक कार्यकर्ता एवं मानव अधिकार कार्यकर्ता सरकार एवं उनके द्वारा निर्मित डिजाइनों के लिए इतना अधिक खतरा बन गये हैं कि उन्हें झूठे तौर पर ‘माओवादी’ या ‘आतंकवादी’ कहा जा रहा है। सांप्रदायिकता का जहर विभिन्न तरीके से समाज व शासन के रगो में फैल चुका है और उनसे लड़ने के लिए अलग-अलग समझ एवं रणनीति की जरूरत है। सरकार द्वारा हम पर थोपी गई सशस्त्र युद्ध एवं गैर-सरकारी एवं निजी सुरक्षा बलों द्वारा प्रतिहिंसा से ऐसी परिस्थिति पैदा हो रही है जिससे इस विकास प्रक्रिया में हाशिये में खड़े लाखो लोगों का जीवन व आजीविका को खतरा उत्पन्न हो रहा है। सांप्रदायिकता, निगमीकरण एवं अस्पष्ट जातिवाद एवं पितृसत्ता के तत्व एक साथ मिलकर न सिर्फ लोकतांत्रिक समाज के ढांचे के प्रति खतरा उत्पन्न कर रहे हैं बल्कि मौजूदा पारंपरिक लोकतंत्र के विरूद्ध लोगों के वास्तविक लोकतंत्र के सामूहिक प्रयास के लिए बाधा उत्पन्न कर रहे हैं।

आगामी दशक में अधिकार हासिल करने एवं जल, जंगल, जमीन एवं खनिज पर नियंत्रण के लिए जबरदस्त संघर्ष होने की संभावना है
और इस तरह दलितों, आदिवासियों, महिलाओं, अल्पसंख्यको, मजदूरों, भूमिहीन किसानों एवं विकास में पीछे छूट गये अन्य लोगों के लिए न्याय सुनिश्चित करना काफी कठिन होगा। हम सरकार के ‘‘सर्वोपरि के सिद्धांत’’ को चुनौती देते हैं और सत्ता को चुनौती देते हैं क्योंकि वह सिर्फ कोंरपोरेशनों की मध्यस्थ बन चुकी है और उनके पूंजीवादी हितों की रक्षा करने के लिए सेना का इस्तेमाल करती है। चाहे भूमि अधिग्रहण हो, विस्थापन या पुनर्वास के मुद्दें हो, आज ज्यादातर का राजनीतिकरण एवं ध्रुवीकरण हो रहा है, तो जरूरत इस बात की है कि आंदोलनों एवं समर्थकों के बीच शांति एवं लोकतंत्र के माध्यम से समानता एवं न्याय सुनिश्चित करने के लिए विकास नियोजन पर ... और इस तरह एक समन्वय के लिए सहमति बने !

ऐसे चुनौतीपूर्ण समय में एनएपीएम आपको आठवें द्विवार्षिक सम्मेलन में विभिन्न जन आंदोलनों एवं संगठनों को एक मजबूत समन्वय के निर्माण के लिए आमंत्रित करता है।
सम्मेलन का उद्देश्य ऐसा मंच उपलब्ध कराना है जहां कि विभिन्न मुद्दों, आंदोलनों एवं नागरिक समाज के प्रतिक्रियाओं पर सामूहिक चर्चा किया जा सके और जनशक्ति एवं जन राजनीति के साथ अभिनव रणनीतियों सहित एक नयी राजनैतिक शक्ति शुरूआत करने की ओर काम किया जा सके। इसके लिए आपकी उपस्थिति एवं योगदान काफी महत्वपूर्ण है। कृपया सम्मेलन में अवश्य शामिल हों!

संभावित कार्यक्रम इस प्रकार हैं, विस्तृत कार्यक्रम बाद में प्रेषित किया जाएगा:
24 अक्तूबर: उदघाटन समारोह, विषयपरक सत्र, सांस्कृतिक कार्यक्रम
25 अक्तूबर : विषयपरक सत्र
26 अक्तूबर : समन्वयकों के दल का चुनाव, प्रस्ताव

कार्यक्रम स्थल एवं सम्पर्क व्यक्ति के बारे में मार्गदर्शन निम्नलिखित है। कृपया किसी भी अतिरिक्त जानकारी या स्पष्टीकरण के लिए नि:संकोच सम्पर्क करें। हमेशा की तरह हमारे साथ आकर ज्यादा समय बिताने, हमारे साथ काम करने, हमारे साथ वालंटियर बनने, हमें संसाधनो का सहयोग करने, या हमारे साथ यात्रा में शामिल होने के लिए आपका स्वागत है.....।

समारोह की शुरूआत नर्मदा घाटी में संघर्ष के 25 साल के कार्यक्रम के साथ होगा। उदघाटन कार्यक्रम महाराष्ट्र के धड़गांव में 22 अक्तूबर को एवं समापन मध्य प्रदेश के बड़वानी में 23 अक्तूबर 2010 होगा। इसके लिए अलग से आमंत्रण प्रेषित किया गया है। कृपया विस्तृत जानकारी के लिए लिखे:
-222464@ 09423944390 @ 09423965152 @ 09420375730 @ 02595.220620

कृपया अपने आगमन के बारे में हमें सूचित करें ताकि हम पर्याप्त व्यवसथा कर सकें...। आप हमें फोन या ईमेल से सम्पर्क कर सकते हैं
सादर,
एनएपीएम समन्वयक दल


दिल्ली कार्यालय:
द्वारा: ६/6, जंगपुरा बी, नयी दिल्ली, फोन- 011 - 2437 4535 / ९८१८९०५३१६/ 9868200316
राष्ट्रीय कार्यालय:
कमरा संख्या 29-30, प्रथम तल, ‘ए’ विंग, हाजी हबीब बिल्डिंग, नईगांव क्रास रोड, दादर (पूर्व), मुम्बई - 400014, फोन: 022-२४१५०५२९/9969363065
बड़वानी सम्पर्क:
नर्मदा बचाओ आंदोलन, 62 महात्मा गांधी मार्ग, बड़वानी, मध्य प्रदेश - 451551
फोन : 07290-222464, फैक्स : 07290-222549;
nba.badwani@gmail.com
अन्य सम्पर्क :
असम, अखिल गोगोई/अरूपज्योति सैकिया :9435054140 / 9435557483
आध्र प्रदेश, रामकृष्ण राजू : 9866887299
बिहार, आशीष रंजन : 9973363664
छत्तीसगढ़, गौतम बंदोपाध्याय : 9826171304
दिल्ली, राजेंद्र रवि / मधुरेश : 9868200316 / 9818905316
गुजरात, आनंद मझगांवगर /स्वाति देसाई : 02640 220629 /9429556163
कर्नाटक, सिस्टर सेलिया : 9945716052
केरल, लियो जोस/हुसैन मास्टर : ९४४६०००७०१/ 9445375379
मध्य प्रदेश, श्रीकांत : 07290.222464 /9179148973
महाराष्ट्र, सुनीति आर/सिम्प्रीत सिंह : 09423571784 /9969363065
उड़ीसा, प्रफुल्ल सामंत्रा : 9437259005
तमिलनाडु, गैबरियेल डेइटरिच : 09442511292
उत्तर प्रदेश, संदीप पांडेय/ अरूंधति धुरू : 05222347365 / 9415022772
पश्चिम बंगाल, देबजीत दत्ता : ०९४३३६०२८०८

कैसे पहुंचे बड़वानी ?
बड़वानी मध्य प्रदेश का एक जिला है जो नर्मदा किनारे और इन्दौर, खंडवा (म.प्र.), बड़ौदा (गुजरात) तथा धुले (महाराष्ट्र) से करीब 4 से 5 घंटे की दूरी पर है। इंदौर बस स्टैंड से पूरे दिन, भोपाल के नये बस स्टैंड से रात को 8 बजे, खंडवा से 4 बजे शाम तक एवं बड़ौदा से 2 बजे दोपहर तक बस मिलती है।
मुंबई/पुणे से
मुम्बई व पुणे बस मार्ग से इंदौर से जुड़ा हुआ है। लगभग सभी बसें रात को चलती हैं। बस के लिए :

1. http://www.holidayiq.com

2. http://www.prasannatours.com

3. http://www.makemytrip.com

4. http://www.redbus.in

यदि आप दिन के समय यात्रा कर रहे हैं तो इंदौर के बजाय जुलवानियां उतरें एवं बस व टैक्सी से बड़वानी पहुंचे।


1। मुम्बई-इंदौर ट्रेन से भी जुड़ा हुआ है: उपलब्ध ट्रेनें :
• 2961 अवंतिका एक्सप्रेस : मुम्बई (19:05)- इंदौर (09:२०)
2. पुणे-इंदौर भी ट्रेन से जुड़ा हुआ है: उपलब्ध ट्रेनें :
• 9311 पुणे इंदौर एक्सप्रेस (मंगल, शुक्र, शनि): पुणे (15:३०)(- इंदौर (09:५०)

इंदौर से बस पकड़कर बड़वानी पहुंचे (5 घंटे)
चेन्नई/हैदराबाद से
ट्रेन से भोपाल पहुंचे। बस/साझा टैक्सी लेकर इंदौर (4 घंटे) पहुंचकर बड़वानी के लिए बस बदलें ।

बंगलोर
/केरल से

ट्रेन से खंडवा पहुंचे एवं वहां से बड़वानी के लिए बस पकड़ें (4 घंटे)। उपलब्ध ट्रेनें :
• 2627 कर्नाटक एक्सप्रेस : बंगलोर (19:२०)- खंडवा (19:३५)
• 2617 मंगला एक्सप्रेस : एर्नाकुलम (10:४५)- खंडवा (22:४०)

पश्चिम बंगाल से
हावड़ा से इंदौर के लिए सीधी ट्रेन है: उपलब्ध ट्रेनें :
• 9306 क्षिप्रा एक्सप्रेस (मंगल, गुरू, शनि) : हावड़ा (17:४०)- इंदौर (03:३०)
या हावड़ा-मुम्बई मार्ग पर ट्रेन से खंडवा उतरकर बड़वानी के लिए बस (4 घंटे) ले सकते हैं।

दिल्ली से
दिल्ली से इंदौर के लिए सीधी ट्रेन है। उपलब्ध ट्रेनें :
• 2416 निजामु द्दीन इंदौर एक्सप्रेस : निजामुद्दीन (22:१५) - इंदौर (11:४०)
• 2920 मालवा एक्सप्रेस : नयी दिल्ली (19:००) - इंदौर (12:४०)

इंदौर से बड़वानी बस द्वारा (4 घंटे)

जाति प्रमाण-पत्र : दलित यथास्थितिवाद

जाति प्रमाण-पत्र, आरक्षण और जातिवाद एक दूसरे से संबद्ध सच्चाई है। दलित जाति के चिन्तन का अन्तविरोध भी है। सच है, दलित जाति प्रथा को खत्म करना चाहता है। संघर्ष कर रहा है। डॉ. आम्बेडकर से पहले और उनके बाद भी लोग जाति की उत्पत्ति, संरचना और उसके विकास पर सोचते, लिखते और आन्दोलित होते रहे हैं। डॉ. आम्बेडकर ने १९१६ में ‘जाति प्रथा: उत्पत्ति, संरचना और विकास’ पर एक शोध पत्र प्रस्तुत किया। दलित जातियां इस शोध पत्र का अध्ययन लगातार कर रही है। १९३६ में आम्बेडकर ने ‘जाति प्रथा उन्मूलन’ लिखकर दलित जातियों को वैचारिक परिपक्वता प्रदान की। दलित जातियां जाति प्रथा उन्मूलन को पढ़कर आज भी तर्क प्रस्तुत करती है तथा जाति प्रथा उन्मूलन के लिये आन्दोलनरत रहती है। दलितों ने राजनैतिक समानता का अधिकार प्राप्त कर लिया है। राज सत्ता तक पहुँच कर राजनैतिक शोक्तियों शक्तिओं के “द्वारा वह जाति प्रथा की नींव कमजोर करना चाहता है एवं अपने समाज को बुद्धजीवी, शिक्षित तथा सुविधा सम्पन्न वर्ग बनाना चाहता हैं।

डॉ. आम्बेडकर ‘कम्युनल एवार्ड’ प्राप्त करना चाहते थे, जिससे दलित स्वयं अपना नेता विधान सभा और संसद में भेज सके। गांधी जी ने आमरण अनसन करके डॉ. आम्बेडकर को कम्युनल एवार्ड प्राप्त नहीं होने दिया। कम्युनल एवार्ड के बदले डॉ. आम्बेडकर को ‘आरक्षण नीति’ को स्वीकार करना पड़ा। आरक्षण ऐसी सुविधा का नाम है जिसने दलितों में एक स्वार्थी, अवसरवादी और कायर वर्ग को जन्म दिया। यह सही है कि आरक्षण ने दलितों को राजनीति और नौकरियों में जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व प्रदान किया। धीरे-धीरे यही आरक्षण दलित वर्ग के ‘नव-सुविधा सम्पन्न’ लोगों का हथियार बन गया, आदत में सुमार हो गया। बिना संघर्ष के सुविधा प्राप्त करना चरित्र हो गया है। दलितों का यह नव सम्पन्न वर्ग प्रचार करता है कि बिना आरक्षण के दलित पुन: दासत्व की पुरानी स्थिति में पहुंच सकता है। बिना आरक्षण के दलितों का उत्थान व कल्याण सम्भव नहीं है। यदि संविधान संशोधन द्वारा आरक्षण को सवर्ण जातियां खत्म कर ले जाती है तो मनुस्मृति दलितों पर पुन: लागू हो जायेगी। दलितों को नौकरी नहीं मिलेगी। दलित शिक्षा नहीं पायेगा। दलित तमाम राजनैतिक अधिकारों से वंचित हो जायेगा। अर्थात पुन: सम्पत्ति और शिक्षा से वंचित कर दिया जायेगा। दलितों का यह नव सम्पन्न अवसरवादी, स्वार्थी और कायर वर्ग एक ऐसी विचार प्रक्रिया का निर्माण करता हैं जिसके इसके इर्द-गिर्द के दलित एवं अलग धारा का निर्माण कर सकने वाला ‘दलित स्वार्थी वर्ग की विचारधारा’ के साथ गुमराह होकर उसी को सत्य मानता हुआ आरक्षण नीति से चिपका रहे। अलग कोई विचारधारा और आन्दोलन न विकसित कर सकें।

यदि दलितो का एक अलग वर्ग यह सोचने लग जाएं कि उसे आरक्षण नहीं चाहिये, तो उसको सामान्य वर्गों के साथ और मध्य प्रतियोगिता करनी पड़ेगी। चूंकि दलितों को शिक्षा प्राप्त करने में व्यवधान होता है। यह व्यवधान आर्थिक कमजोरी के कारण उत्पन्न होता है। आज भी दलितों की जिदंगी सुदृढ़ नहीं है। दूसरी तरफ सवर्ण जातियों के अमीर लोग है जो शिक्षा को खरीद सकते है, सम्पन्न होने के कारण सुचारू पढ़ लिख सकते है प्रतियोगिता लायक बनने में उन्हें आसानी होती है। हालांकि यह सभी सवर्णों के ऊपर लागू नहीं होता है क्योंकि सवर्णों में भी अधिकांश लोग (आर्थिक रूप से) गरीब ही है।

परिस्थितियां सच है, परन्तु किसी भी लड़ाई के लिये आरक्षण क्या, जीवन भी उत्सर्ग करना पड़ सकता है। हम, यदि इतने स्वार्थी बने रहेंगे, तो जाति प्रथा उन्मूलन के लिये स्वयं तथा परिजनों को अनिवार्यतय: बलिदान मार्ग के लिये कैसे प्रेरित करेंगे। अब दलित जातियों के इतने शिक्षित व सम्पन्न लोग हो चुके है कि जाति प्रथा उन्मूलन ही नहीं, शिक्षा, रोजगार एवं राजनीति के लिये एक बेहतर अगुवाई कर सकते है। दलित जातियों के विकास के लिये संवैधानिक प्रक्रिया के अनुपालन में सरकार और राजसत्ता को बाध्य कर सकते है। हाँ, संघर्ष की अनिवार्यता स्वीकार करनी पड़ेगी। संघर्ष को सतत प्रक्रिया में लाना होगा। पूरी ईमानदारी से ‘वैचारिक एकरूपता’ एवं ‘जनवादी केन्द्रीयता विकसित करते हुए मोनोलिथिक प्रणाली की तरह कार्य करना होगा। बिना नैतिक मूल्यों के अनुपालन के दलित अपनी लड़ाई जीत नहीं सकता हैं।

बहुत समय से यह विमर्श का विषय रहा है कि आरक्षण एक वैशाखी हैं वैशाखी को फेंके बिना सीधा नहीं हुआ जा सकता है। दुखद यह है कि दलितो का स्वार्थी, अवसरवादी और डरपोक वर्ग यह तर्क प्रस्तुत करने लगता है कि ऐसी विचारधारा दलितों के साथ पीठ में छूरा भोकने जैसा है। यह कम्युनिष्ट विचार धारा है। इसे ब्राह्मणवादी मानसिकता के लोग दलितों के मध्य उछालते रहते है। वे ब्राह्मणवादी व्यवस्था को बचाते हुए सवर्णों को राजनीति व रोजगार में बने रहने के पक्ष में चालबाजी करते है। किन्तु आज दलितों के गरीब पक्ष को यह समझने कि जरूरत है कि नव-सम्पन्न दलित वर्ग ऐसी विचारधारा के पक्ष में दलील देकर, न तो वह जाति प्रथा खत्म करना चाहता है, और न हीं दलितों के गरीब पक्ष को सुख-सुविधाएं दिलाना एवं शोंषण से मुक्त कराना ही चाहता है। यह आज दलितों के मध्य विमर्श का विषय होना चाहिए।

सच तो यह है कि दलितो के 24 करोड़ लोगों को न तो रोटी उपलब्ध है, और न ही शिक्षा। खेत-खिलायानों में काम करते हुए या तो वे खेत मजदूर हैं अथवा छोटे किसान। अधिकतर दलित आज भी भूमि हीन है। आज भी इन्हें सवर्णों के खेतों में बंधुवा मजदूर की तरह कार्य करना पड़ता है। दलितों की स्थिति गांव में बदतर है। वे अपनी जाति से अधिक गरीबी और भुखमरी से त्रस्त है। उनके पास उत्पादन के साधन नहीं है। न खेत है न खलियान, न बीज है न खाद, न शिक्षा है न नौकरी। रोज कुंआ खोदो-पानी पियों, जैसी परिस्थिति में दलित जातियां जीवित हैं। कहने को, दलित आज गांव में स्वत्रंत हैं तुलनात्मक आर्थिक स्थिति भी ठीक है। जातीय अस्मिता के मामले में बौद्ध धर्म और बसपा ने दलित जातियों के संस्कार, आत्मसम्मान और चिन्तन की दिशा बदल दी है। ये जातियां हित-अहित सोचने लगी है। संस्कार के नाम पर ब्राह्मणवादी संस्कारों के स्थानापन्न रूप में बौद्ध संस्कृति स्वीकार कर लिया है। ब्राह्मणों के स्थान पर दलित बुद्धिजीवी अथवा भिक्षु कर्मकाण्डों को सम्पन्न करवाता है। दलित ब्राह्मणों इस नियन्त्रण से दूर होकर खुश है। संस्कार और विचार के नाम पर दलित राम, कृष्ण, दुर्गा और भूतों, प्रेतों से मुक्त हुआ है। तीज त्यौहारों का रूपान्तरण हुआ है। आज राजनैतिक रूप से दलित जातियों का ध्रुवीकरण हुआ है। अन्ध भक्तों की तरह दलित बसपा व सुश्री मायावती को ही वोट देता है। सुश्री मायावती दलित जातियों की इसी जागरूकता की वजह से मुख्यमंत्री बनी एवं प्रधानमंत्री बनने की जुगत में हैं। अनेक धर्म परिवर्तन चक्रो, परिवर्तन स्थलों, आम्बेडकर ग्रामों, आम्बेडकर सड़कों आम्बेडकर पार्को, काशी राम परियोजनाओं के उपरान्त भी दलित जातियों की गरीबी उन्मूलन की कोई ठोस परियोजना व आन्दोलन का विकास सम्भव नहीं हो सका है। बस, केवल एक 'प्रश्नोत्तर’ कि दिल्ली की कुर्सी प्राप्त होने पर ही दलितो उत्थान हो सकता है। जाति प्रथा उन्मूलन तो दलित नेताओं के एजन्डे में अब रहा ही नहीं है। बहुजन से सर्वजन का सफर स्वार्थपरता का सफर है। यह राजनैतिक रणकौशल है। यह एक राजनैतिक गठबन्धन की राजनीतिक हैं।

यह दलित गरीब है तो उसका कारण है कि उसके पास उत्पादन के साधन नहीं हैं। दलितो की सरकार न तो उन्हें खेत दे रही है, और न संसाधन दे रहीं हे तो तमाम ये झूठी परियोजनाएं, जिससे दलित सिर्फ मुगालते में रहे, भ्रम में जिये। इन परिस्थितियों के लिये सिर्फ दलित राजनीति और दलित राजनैतिक दल ही जिम्मेदार नहीं है। दलितों को सिखाने वाले बहुत सारे दलित अधिकारी, दलित प्रबन्धन, दलित बुद्धिजीवी और दलित आन्दोलनकारी भी है, जो उनके हितों के लिये कोई भी ठोस कदम नहीं उठाते, और न ही सही आन्दोलन विकसित होने देते है। और तो और, ये दलित नेतृत्वकर्ता दलितो में क्रांति की चिन्गारी नहीं भरते तथा सही क्रांतिकारी लाइन पैदा होने से रोकते है। ऐसा इसलिये, क्योंकि सच्ची क्रांतिकारी लाइन सुश्री मायावती व बसपा का विकल्प तैयार करने की क्षमता रखती है तथा इन धोखेबाज, अवसरवाद, यथास्थितिवादी, स्वार्थी दलित नेतत्व व बुद्धिजीवियों को भी धूल चटा सकती है। सच्ची क्रांतिकारी लाइन के विकसित होने से दलित अपने दोस्त और दुश्मन को पहचान सकेगी। दलित जनता यह जान लेगी कि आरक्षण की पूरी सुविधायें नव-संभ्रान्त दलितों को ही मिलती है। इस अनुपातिक श्रेणी के लाभ से कुछ थोड़े से संभ्रान्त दलित ही पैदा होते है, जो खूबसूरती से अपने अवसर को बनाये रखने के लिये अपनी जातियों के गरीबों में भ्रम की स्थिति पैदा करते हुए उन्हीं के मध्य अपनी विचारधारा के अनुसार उन्हीं को गुमराह करने में लगे रहते है, जिससे गरीब वर्ग इनसे इतर कहीं जा न पाये। अब ऐसी परिस्थिति पैदा हो चुकी है और दलित वर्ग इतना तैयार हो चुका है कि वह अपना नेतृत्व पैदा कर सकता है तथा जाति प्रथा के साथ-साथ शोंषण मूलक व्यवस्था को भी उखाड़ फेक सकता है।

आरक्षण से ही जुड़ा एक दूसरा सवाल भी है, और बहुत महत्वपूर्ण भी है, वह है-जाति प्रमाण-पत्र। जाति प्रथा एवं जातिवादी व्यवस्था के पोषक ब्राह्मणवादी व्यवस्था को उखाड़ फेकने का दम भरने वाली दलित जनता खुद जाति प्रमाण-पत्र बनवा कर अपने दलित होने का प्रमाण देती है। कोई चमार, कोई पासी, कोई कोरी, कोई धोबी। यह प्रमाण-पत्र ही आरक्षण के मुख्य आधार हैं। बहुत खुशी -खुशी बड़े शौक से दलित अपने बेटे-बेटियों का जाति प्रमाण-पत्र बनवाता है। घर के अन्दर इनके बच्चे जाति प्रमाण-पत्र प्रस्तुत करने का विरोध करते हैं। बच्चे स्कूल कॉलेजों में जाति नहीं बताना चाहते है। उन्हें जाति बताना बुरा लगता है। वे एस सी\एस टी तथा उपजाति लिखने या बताने के पक्ष में बिल्कुल नहीं होते है। एक तरह से, वे जाति प्रथा का विरोध कर रहे होते हैं। उम्मीद है कि यदि उन्हें बचपन से ही जातिप्रथा के विरोध में संघर्ष करने के तैयारी के लिये तैयार किया जाये, तो वे निश्चित रूप से अपने युवावस्था तक आते-आते जाति प्रथा उन्मूलन के लिये विगुल फूंक देगें। किन्तु हम जबरदस्ती जाति प्रमाण-पत्र बनवाने के लिये उनसे कहते है कि इससे तुमको नौकरियों में छूट मिलेगी। जो पीढ़ी सही सीख देने से जाति प्रथा के खिलाफ लड़ाई लड़ सकती है, हम उसी के हाथ में आरक्षण की बैशाखी पकड़ा देते हैं। कुसंस्कृति का शिकार बना देते है। हीनता बोध से भर देते हैं। वह नौकरी और आरक्षण के मोह में संघर्ष की संस्कृति को त्याग देता है, अवसरवादी हो जाता है, लक्ष्य के प्रति सचेत नहीं रहता है, लापरवाही की लचर संस्कृति उसका पीछा करने लगती हैं। क्या दलित क्रांतिकारी, दलित चिन्तन, दलित बुद्धिजीवी, दलित संगठन व दलित आन्दोलनकारी अथवा दलित राजनीति के नेता यह बता सकने में समर्थ होंगे कि जब हम ब्राह्मणवाद का विरोध करते है, सोपानक्रम जाति व्यवस्था के खिलाफ है, ऊँच-नीच मिटाना चाहते हैं, गैर बराबरी की व्यवस्था खत्म करके डा.आम्बेडकर द्वारा उल्लिखित समता, स्वतंत्रता और बन्धुत्व की ‘एक व्यक्ति-एक मूल्य के सिद्धान्त’ को लागू करना चाहते हैं तो खुद जाति प्रमाण-पत्र क्यों बनवाते है ? हम जाति प्रमाण-पत्र बनवाकर खुद को शुद्र, चमार, धोबी, पासी, कोरी, खटिक, धानुक, भंगी क्यों साबित करते है ? क्या यह विचित्र नहीं है कि हम खुद अपने का चमार-धोबी होने का प्रमाण-पत्र प्रस्तुत करें और सवर्ण जातियों से यह उम्मीद करे कि वे उन्हें धोबी, पासी, चमार और भंगी न कहे तथा स्वयं को भी ब्राह्मण -ठाकुर मानना या कहना छोड़ दें ? यदि सवर्ण जातियां ऐसा नहीं करती है तो दलित जातियों का आरोप रहता है कि ये परम्परावादी होते है, ये ब्राह्मणवाद छोड नहीं सकते है। यह है ‘दलितों का विचित्रवाद’। जिनको अपनी जाति से हीनता का बोध होता है, जाति की वजह से नीच समझे जाते है, उनसे छुआछूट किया जाता है, चमार व भंगी शब्द गाली सा प्रयोग किया जाता है, इन शब्दों को बहुत ही गलत अर्थों में प्रयोग किया जाता हैं। ऐसी घृणित स्थिति के उपरान्त भी ‘दलित यथास्थितवादी अवस्थिति’ से दूर नहीं हो पाता हैं। किसी जड़ता से दूर होना और दूर होने की सोचना एक दूसरे से संबन्धित तो है परन्तु क्रिया की स्थिति में एक दूसरे के विपरीत भी है। दलित आज अपने मूल चिन्तन के विरूद्ध क्रियाशील है। जहाँ उसे अपनी जाति छोड़ देनी चाहिए, वहीं वह अपनी जाति का प्रमाण-पत्र प्रस्तुत कर दलित बना हुआ हैं।

यदि दलित बुद्धिजीवी इस सवाल को तत्काल हल नहीं करता है तो जाति प्रथा उन्मूलन के लिये न तो दलित जनता तैयार हो पायेगी और न ही जाति प्रथा उन्मूलन हो पायेगा। डॉ। आम्बेडकर यदि कम्युनल एवार्ड के स्थान पर आरक्षण लेकर अपना जंग हार गये थे, तो उस हारे जंग को दलित कब तक ढोता रहेगा। आरक्षण व जाति प्रमाण-पत्र दलित के जाति प्रथा उन्मूलन की लड़ाई में बाधक है। दलितों को आरक्षण पर आश्रित रहना और जाति प्रमाण-पत्र को पीठ व मस्तक पर चिपकाये घूमना बन्द कर देना चाहिए ।

मानता हूँ यह प्रश्न कठिन है। आरक्षण छोड़ देने पर आप विकल्पहीन महसूस करते हैं। ऐसा लगता है जैसे न आप घर के रहे न घाट के तो क्या, जाति पहचान-पत्र लिये हमें घूमते रहना चाहिए ? तो क्या, इस पर विमर्श नहीं हो सकता है ? क्या विमर्श विकल्प का आधार नहीं है ? मुख्य क्या है-जाति प्रथा उन्मूलन अथवा जाति प्रमाण-पत्र के आधार पर आरक्षण ?

ब्राह्मणवादी व्यवस्था में बने रहकर आरक्षण से काम चल रहा , तो जाति व्यवस्था के खिलाफ लड़ने की क्या जरूरत ? यदि स्वाभिमान चाहिए, पूंजीवादी शोषण से मुक्ति चाहिए तो जाति प्रथा से लड़ने की जागरूरकता दलितों में पैदा करना पड़ेगा। मुझे लगता है, यदि नव-सम्पन्न दलित व अवसरवादी नेतृत्व दलितों को गुमराह न करें, तो दलित शीघ्र अति शीघ्र वह जागरूकता हासिल कर लेगा, जिससे वह अपनी लड़ाई इन ब्राह्मणवादी शक्तिओं से जीत सकता हैं ।

आर. डी. आनंद

देश आर्थिक रूप से गुलाम हो गया है .............

एक आजाद देश की नदी, खदान जमीन, जंगल, जल, पहाड़, बीमा क्षेत्र बैंक और सार्वजनिक निगम तक को देशी-विदेशी कम्पनियों के हाथों बेचा जा रहा हैं तब हम कैसे आजाद हैं ? एक समय इसे यह कहकर निजी हाथों से छिना गया कि यह 'राष्ट्र' की सम्पति है इसी राष्ट्र की सुरक्षा के नाम पर हमने परमाणु बम तक बना डाला हमारी सैन्य शक्ति का आकार भी काफी बड़ा है। हमारा दे सैनिक व्यय के मामले में दुनिया में नवें स्थान पर है। जबकि मानव विकास सूचकांक में 134 वें स्थान पर है। जब हम सारे संसाधनों को बेच डालेगें तो हमारी आजादी, सम्प्रभुंता का मतलब ही क्या हैं ? फिर हम किसकी रक्षा करेगें। जो लोग सोचतें है कि गुलामी की घोषणा टी.वी. अखबारों से होगी अब ऐसा न ही होगा यह गुलामी अपने हुक्मरानों द्वारा लादी जायेगी।

इसी गुलामी के खिलाफ अपनी आजादी को बचाये रखने और अपने प्राकृतिक संसाधनों पर अपना अधिकार रखने के लिये देश भर में किसान, खेत मजदूर, आदिवासी जगह-जगह लड़ रहे हैं। 9 अगस्त 2010 को मऊ कलेक्ट्रट में ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ दिवस पर आयोजित कार्यक्रम स्थानीय संसाधनों पर स्थानीय लोगों को हक दो धरने को सम्बोधित करते हुए सच्ची मुच्ची के सम्पादक अरविंद मूर्ति ने कही उन्होंने कहा कि प्रकृति, पर्यावरण और जन संघर्षो को रोकने बचाने का एक मात्र तरीका है। स्थानीय संसाधनों स्थानीय लोगों का हक हो। परन्तु सरकार यह मानने को तैयार ही नही हैं। और वह इन सारे संसाधनों को दे
शी-विदेशी पूंजीपतियों को बेच रही है। इस पूरी लूट को देश की संसद के द्वारा वैधता दी जा रही है। जो खुद इनके हाथों बिक्री हुई हैं।

धरने को पी.यू.एच.आर. के जोनल सचिव वसन्त राजभर ने सम्बोधित करते हुए कहा कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक दे
का प्रधानमंत्री जनता के द्वारा नहीं चुना जाता है। यह लोकतंत्र के लिये दे के लिये र्म की बात है मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री पद की तनख्वाह दे से नहीं लेते बल्कि अमेरिका से पें लेते है। धरने को विजय सिंह हैवी ने सम्बोधित करते हुए कहाकि आपरे ग्रीन हंट के नाम पर निर्दोष गरीब आदिवासियों का सरकार कत्ल कर रही है जबकि वे अपने संसाधनों पर अपने हक की मांग कर रहे है। यह पूरी व्यवस्था अमीरों दंबगों के पक्ष में खड़ी है इसका ताजा उदाहरण हर के नर्सिंग होम के मैले के टैंक में मरे तीन गरीब सीवर सफाई कर्मियों की मौत का हैं। जब यह काम कानून अपराध है। तो इसे करवाने वालो पर आज तक कार्यवाही क्यों नहीं हुई। धरने को हाजी अनवारूल हक, का रामनवल आदि ने भी सम्बोधित किया धरने में विनय कुमार, सुखराम राजभर, हाजरा खातून, अवधेश कुमार साहनी, राजकुमार, इनौस के का0 अर्जुन सहित कई प्रमुख साथी शमिल रहे धरने का आयोजन जन आन्दोलन का राष्ट्रीय समन्यव पी0यू0एच0 आर0 मूवमेंट फार राइट ने किया।

विनय कुमार मऊ

मेरी चीन यात्रा

(फैज जमाल द्वारा अंग्रेजी में लिखे गए लेख का शोभा शुक्ला द्वारा हिंदी अनुवाद)

18 जून 2010 की उस सुहानी सुबह को में किस तरह भूल सकता हूँ। में अपनी पहली विदेश यात्रा शुरू करने के लिए हौंग कांग हवाई अडडे पर खड़ा था। अप्रवास की औपचारिकताएं पूरी करने के बाद में एक पब्लिक फोन बूथ की तरफ बढ़ा। मुझे शेन जेन निवासी अलेक्स से बात करनी थी, जिसे मेरे परम मित्र शुन मियां ने वहां मेरी अगवानी के लिए प्रयुक्त किया था। शुन मियाँ से मैं एक साल पहले मिला था। दिल्ली के हिन्दू कालेज में वह मेरे फिलोसोफी आनर्स क्लास का सहपाठी था। हम लोग शीघ्र ही अभिन्न मित्र बन गए थे। दशहरे की छुट्टियों में, मैं उसके गाइड और दुभाषिये के रूप में उसके साथ बनारस, सारनाथ, कोलकाता, पटना, बोध गया और लखनऊ घूमा। उसने मुझसे वायदा किया कि जब कभी भी मैं चीन आऊँगा तो वो भी मेरी मेजबानी करेगा। यह प्रस्ताव वाकई में आकर्षक था, और पहला मौका मिलते ही मैंने इसका लाभ उठाने का निश्चय हैं ।

हांग कांग हवाई अडडे से मैंने अलेक्स को फोन करने की कई बार नाकामयाब कोशिश की। पर फोन था कि लग ही नहीं रहा था और मेरा पर्स भी इस कोशिश में हल्का हो रहा था। मेरी इस परेशानी को वहां खड़ी एक काली महिला ने शायद भाँप लिया। उसने अपना मोबाइल फोन मेरी तरफ बढ़ा दिया। मैंने वाकई राहत की सांस ली, उस अनजान महिला का तहेदिल से शुक्रिया अदा किया और अलेक्स से बात करने में सफल हो गया। बात चीत के दौरान उस महिला ने बताया कि वो एक मेक्सिकन एयर लाइन में काम करती है। मुझे नौसिखिया जान कर उसने मुझे कुछ हिदायतें भी दीं। मसलन कि मुझे अपना पर्स सामने वाली जेब में रखना चाहिए, तथा सावधान रह कर यात्रा करनी चाहिए, क्योंकि काले लोगों के लिए यह दुनिया बहुत बेदर्द है। शायद यह सच उसकी भी आपबीती थी।

मैं बस द्वारा शयूंग शुई पहुँच गया, जो हौंग कांग की ईस्ट रेल लाइन का एक रेलवे स्टेशन था तथा एअरपोर्ट से एक घंटे की दूरी पर था। सुबह की ठंडी हवा और ऊँची अट्टालिकाओं के पीछे पहाड़ियों के अदभुत नजारे ने मन को खुशी भर दिया। शयूंग शुई से मुझे हौंग कांग और चीन की सीमा पर स्थित लो वू नामक स्थान पर पहुँचने के लिए दूसरी ट्रेन पकड़नी थी। चीन से आने जाने वाले यात्रियों के लिए लो वू काफी प्रचलित इमिग्रेशन कंट्रोल पाइंट है। अलेक्स ने मुझे बताया था कि शयूंग शुई से लो वू अगला स्टेशन है तथा वहां पहुँचने में मुझे केवल 6 मिनट का समय लगेगा। परन्तु मैं शायद गलत ट्रेन में बैठ गया था। जब मैं ट्रेन से उतरा तो वो तो कोई और ही स्टेशन निकला। मैं दुबारा जल्दी से उसी ट्रेन में, जो शयूंग शुई वापस जा रही थी, चढ़ गया। फिर सही ट्रेन में बैठ कर लो वू पहुंचा। वहां इमिग्रेशन चेकपोस्ट पर मेरे पासपोर्ट पर स्टैम्प लग गया, और लो वू पुल पार करके मैं मेनलैंड चाइना में शेन जौन पहुँच गया ।

शेन जौन वास्तव में चीन के उदारीकरण काल का ज्वलंत उदाहरण है। विगत में मछुआरों का जो एक छोटा सा गाँव था, वो चीन का प्रथम विशेष आर्थिक जौन बन कर आज दुनिया का एक तेज रफ्तार महानगर है। इसके विस्तार के वर्णन में कहा जाता है कि ‘प्रतिदिन एक गगनचुम्बी इमारत, और तीन दिनों में एक मुख्या मार्ग’, इस शहर में २०० मीटर से अधिक ऊँची १३ इमारतें हैं, जिनमे से शुन हिंग स्क्वैर विश्व भर में नवीं सबसे ऊँची इमारत हैं , यहाँ विश्व की बड़ी बड़ी हाई टेक कंपनियों के दफ्तर हैं, तथा अनेकों विदेशी आई. टी. कम्पनियां भी यहाँ से कारोबार करती हैं। यहाँ मुझे कई भारतीय भी दिखाई पड़े, जिनमें कुछ तो पर्यटक थे और कुछ व्यापारी लग रहे थे। एक गुजराती व्यापारी श्री शंकर ने तो मुझसे मेरे बिजनेस के बारे में भी पूछा, जब मैंने उन्हें बताया कि मैं तो केवल घूमने और नए-नए लोगों से मिलने के उददेश्य से आया हूँ तो वे बहुत प्रभावित हुए, उनके अनुसार इतनी कम उमर में अकेले घूमने के लिए बहुत साहस चाहिए ।

अलेक्स ने फोन पर मुझे बताया कि चे मिन नामक व्यक्ति मुझे स्टेशन से ले जायेगा। कुछ समय बाद मुझे एक चीनी व्यक्ति किसी को ढूँढता हुआ सा दिखाई दिया, मेरे पास आकर उसने मुझसे पहले तो मेरे भारतीय होने की पुष्टि की, फिर बताया कि वो शुन मियाँ का दोस्त है तथा मुझे लेने के लिए आया है। मेरी संतुष्टि के लिए उसने शुन मियाँ का नाम और फोन नंबर अपने मोबाइल पर दिखाया। चे मिन के साथ बुलेट ट्रेन में बैठ कर हम 147 किलोमीटर की यात्रा एक घंटे से भी कम समय में पूरी करके अपने गंतव्य पर पहुंचे। चे मिन को अंग्रेजी न के बराबर आती थी, पर मैं यह तो जान ही गया कि वो भी एक महीने के बाद मेरे और शुन मियाँ के साथ भारत आकर दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाला था।

स्टेशन से शुन मियाँ के घर तक पहुँचने में 2 घंटे लग गए। परन्तु शुन मियाँ तो नदारद थे, वे अपने होम टाउन गए हुए थे तथा 7 दिनों के बाद लौटने वाले थे। तब तक मुझे उनके बड़े भाई शुन हुआंग के साथ रहना था, जो बढ़िया अंग्रेजी जानते थे। हम सबने एक ढाबे में 700 युआन में भरपेट स्वादिष्ट कैंटोनिस स्टाइल सी फूड भोजन किया। अगली सुबह मैं प्रान्त की राजधानी इस शहर में घूमने निकला। मेरे गाइड शुन हुआंग थे। यह शहर पर्ल नदी (जो दक्षिण चाइना सी में जाकर मिलाती है) पर बसा हुआ एक मुख्य बंदरगाह है, मैंने कहीं पढ़ा था कि यह चीन का तीसरा सबसे घनी आबादी वाला शहर है, परन्तु सडकों पर ऐसी कोई भीड़ भाड़ नहीं थी, छुट्टी का दिन न होने पर भी सडकों पर बहुत कम यातायात था। दिल्ली के ट्रेफिक जामों से त्रसित होने के बाद यह मेरे लिए एक सुखद आश्चर्य था। सड़कें साफ सुथरी थीं। कहीं पर भी कोई कूड़ा करकट नजर नहीं आ रहा था। एक धनी महानगर होने के कारण आस पास के गाँवों से कई किसान यहाँ की फैक्टरियों में काम की तलाश में आते हैं, पर मुझे कोई भी शक्स मैले कुचैले कपड़े पहने नहीं दिखाई दिया, न ही कोई भिखारी या झुग्गी झोपड़ी दिखाई पड़े।

एक दिन के बाद शुन मियाँ अपनी माँ और एक चचेरी बहन के साथ वापस लौट आये। उनकी माँ को मैं बहुत पसंद आया, और वो मुझसे मिल कर बहुत खुश हुई। अगले 10 दिन मैंने इस हंसमुख और बातूनी महिला के साथ बहुत खुशगवार बिताये, वे खाना भी बहुत ही उमदा पकाती थीं, अंग्रेजी न जानते हुए भी वो लगातार मुझसे चीनी भाषा में बात करती थीं, और शुन मियाँ की बहन अनुवादक का काम करती थी। एक सच्चे पर्यटक की तरह मैं बरसाती और चिपचिपे मौसम की परवाह किये बगैर रोज नई-नई जगहों पर घूमने जाता। शुन मियाँ तो हमेशा अपने दोस्तों से घिरे रहते, क्योंकि वो दो साल बाद घर लौटे थे। एक दिन मैं उनके साथ उनके एक दोस्त के घर गया जो पुराने शहर की तंग गलियों के बीच था, जो मुझे चांदनी चौक की याद दिला रहीं थीं। परन्तु बिल्डिंग के मुख्य द्वार पर पहुँचते ही नजारा बदल गया। घरों के दरवाजों पर इलेक्ट्रोनिक स्मार्ट कार्ड वाले ताले थे जैसे बड़े बड़े होटलों में हुआ करते हैं। नागरिक रख रखाव भी बहुत बढ़िया था।

मैंने यह भी पाया कि अधिकतर लोगों का आर्थिक स्तर उच्च मध्यम वर्गी अथवा उच्च वर्गी तथा न तो कोई भिखारी नजर आया न ही कोई आडम्बरपूर्ण धनाडय- अधिकतर लोग सरकारी आवासों में किराए पर रहते हैं। मेरे दोस्त के भाई के पास 3 बेडरूम का बड़ा मकान था जिसका किराया 700 रुपये मासिक था। मुख्य मेहमानों को पिलाना अपने लघु कालिक चीन प्रवास में मैं चायनीज चाय एवं उसको पेश करने की रोचक प्रणाली से अत्यधिक प्रभावित हुआ। चीन में चाय पीना एवं मेहमानों को पिलाना एक ललित कला ही है। किसी भी होटल में जाने पर, पानी के बजाय, पारंपरिक ढंग से चाय पेश की जाती है। पर यह बिना ढूढ़ की चाय होती है, जो स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभप्रद है। इस चाय का इस्तेमाल, चीनी खाने में प्रयुक्त होने वाले बाउल और चौप स्टिक्स धोने के लिए भी किया जाता है। वहां की चायदानी का आकार हमारे यहाँ प्रयुक्त होने वाली शक्कर दानी से काफी मिलता जुलता है। खौलता हुआ पानी, चाय दानी में पड़ी चाय की पत्ती में डालने के लिए हमेशा तैयार मिलता है। चायदानी और हमारे यहाँ के मिटटी के कुल्लहड़ के आकार के छोटे प्याले एक विशेष प्रकार की लकड़ी की छिद्रित ट्रे में रख कर मेहमानों को परोसा जाता है। प्यालों को पहले ताजा तैयार हुई चाय से ही खंगाला जाता है। यह चाय ट्रे के छिद्र से बह कर, नीचे लगी हुई एक दूसरी ट्रे में एकत्रित करके फेंक दी जाती है। लकड़ी की ट्रे को कभी धोया नहीं जाता, क्योंकि चीन में यह मान्यता है कि जब उस लकड़ी में चाय की सुगंध आ जाती है तब वो बहुत शुभ हो जाती है। मेरे दोस्त ने मुझे भी, चाय पत्ती समेत, एक पारंपरिक टी सेट भेंट में दिया है, और मैं उस ट्रे के शुभ होने का इंतजार कर रहा हूँ ।

कभी कभी मैं केवल घर पर रह कर या तो कोई फिल्म देखता, या फिर शुन मियाँ की माँ से संकेत भाषा में बात करता। जब वो अपना हैण्ड बैग मेरे सामने लहरातीं तो मैं समझ जाता कि आज मुझे उनके साथ सब्जी और मछली खरीदने बाजार जाना है। सब्जी मंडी में भी वो मेरी पसंद पूछे बिना न रहती। ओ। के। शब्द का अर्थ वो समझती थीं- अधिकाँश चीनी बतख का गोश्त खाना पसंद करते हैं। परन्तु उन्हें पता था कि मुझे मुर्गी अधिक पसंद है। इसलिए वो मुर्गी और बतख दोने ही खरीदतीं ? इस प्रकार हम एक दूसरे की भाषा न जानते हुए भी मजे में सांकेतिक वार्तालाप का आनंद उठाते।

शुन मियाँ के दोस्तों, रिश्तेदारों और परिवार के सदस्यों से चाय के अनगिनत प्यालों के साथ बढ़िया गपशप होती। हमें एक दूसरे की संस्कृति एवं सामाजिक मूल्यों को जानने समझने के अनेक अवसर मिले। भारत-चीन के राजनैतिक सम्बन्ध भले ही बहुत अच्छे न रहे हों, पर चीन के नागरिकों का व्यवहार हम भारतीयों के प्रति बहुत ही सहृदय एवं सम्मानजनक है। वे हमारे यहाँ के स्वामित्व अधिकार ढाँचे को समझने के लिए काफी उत्सुक दिखे। वे हमारी टाटा कम्पनी से बहुत ही प्रभावित थे, क्योंकि यह कम्पनी स्टील, मोटर कार और दूर संचार जैसे विभिन्न क्षेत्रों से जुड़ी हुई हैं।

मुझे वहां एक और आश्चर्यजनक बात पता चली, पाश्चात्य देशों को भेजा जाने वाला चीनी सामान, भारत के बाजारों में बिकने वाले सस्ते और घटिया चीनी सामानों के मुकाबले कहीं अधिक उत्तम कोटि का होता है। यहाँ तक कि हमारे देश में बिकने वाले सस्ते चीनी मोबाइल फोन तो चीन में भी कहीं नहीं मिलते।

चीनवासियों के मन में भारतीय डॉक्टर द्वारकानाथ कोटनिस, (जो सन 1938 में दूसरे चीनी-जापानी युद्ध के दौरान चिकित्सीय सहायता प्रदान करने के लिए चीन भेजे गए थे) के प्रति बहुत श्रद्धा है। वे एक अच्छे डॉक्टर होने के साथ साथ चीन भारत के बीच मैत्री सम्बन्ध एवं सहकारी को बढ़ावा देने में भी अग्रणी थे। अपने पर्यटन के दौरान मैंने एक पहाड़ी पर अनेकों लाल झंडे एक डंडे से बंधे हुए देखे जो चीनियों द्वारा अपनी मन्नत पूरी हों एक लिए बांधे गए थे। एक ट्रांसमिशन टोंवर के नीचे मैंने कई ताले भी बंधे देखे, क्योंकि स्थानीय मान्यता के अनुसार अगर नव विवाहित जोड़ा वहा ताला लगाता है तो उसका वैवाहिक जीवन सुरक्षित और दुरुस्त रहता हैं।

मैंने पर्ल नदी और guangzhou शहर में स्थित सन यात सेन विश्वविद्यालय और प्राणी उद्यान के भी दर्शन किये, इसी शहर में सोलहवें एशियन गेम्स आगामी 12-27 नवम्बर को होने वाले हैं, जो दिल्ली में होने वाले कॉमनवेल्थ गेम्स के करीब एक महीने बाद होंगे परन्तु जहाँ हम अभी तक सड़के बनाने, मलबा हटाने, एक दूसरे पर दोषारोपण करने और बाकी तैयारियाँ पूरी करने में लगे हुए हैं, वही guangzhou शहर बहुत पहले से ही पूरे साजो सामान के साथ नवम्बर आने की प्रतीक्षा कर रहा है। प्रत्येक स्पर्धा स्थल और भवन नए अंदाज में चमक रहा है, और फूल पौधे खिलाडियों के स्वागत में प्रतीक्षारत हैं- गेम्स का प्रतीक चिन्ह शहर के मुख्य केंद्र पर प्रदर्शित किया जा चुका है, और उसके पास एक डिजिटल घड़ी भी लगी है जो गेम्स के भव्य आरम्भ में बचे हुए समय की सूचना निरंतर दे रही हैं।

मेरा चीन का 15 दिवसीय प्रवास वास्तव में अद्वितीय एवं अविस्मरणीय था। मुझे एक स्नेही परिवार के मध्य रहने का मौका मिला, और यह सुखद अनुभव मैं जीवन पर्यंत नहीं भूलूंगा। वहां रह कर मैंने चीनी रहन सहन को बहुत बारीकी से देखा और परखा- जिस प्रकार वहां आधुनिकता और परंपरा का समन्वय किया गया है वह वास्तव में अनुकरणीय है। भारत और चीन का लक्ष्य तो कदाचित एक ही है, जन साधारण का कल्याण एवं समृद्धि, परन्तु शायद हमारे रास्ते अलग अलग हैं।

दोस्ती के अलावा विकल्प क्या ...?

मेरे परिवार में कुछ लोग बंटवारे के समय पाकिस्तान के कराची जा बसे। बंटवारे और हिंसक पलायन ने दोनों देशों के लाखों लोगों के दिलो-दिमाग पर गहरा प्रभाव भी डाला। मेरे माता-पिता परिवार वालों से मिलने भी गये। उस समय में छोटा था और तब मुझे पाकिस्तान से बड़ा दुश्मन कोई नहीं मालूम होता था। मैं अपने पिता जी से कहा करता कि मैं कभी भी पाकिस्तान नहीं जाऊँगा, यह भी कोई जगह है ? लेकिन जब मैंने होश संभाला तो मालूम चला कि बंटवारे के जख्म दोनों देशों के अवाम के लिए कितने हरे हैं। धीरे-धीरे जब साहित्य में रूची हुई तो भारत- पाकिस्तान के बंटवारे पर कहानियां और उपन्यास पढ़ने को मिले, उन्हीं में से एक था ’दी ट्रेन टु पाकिस्तान’। यह कौन नहीं जानता कि अगस्त १९४७ के पहले भारत और पाकिस्तान एक देश थे।

अभी हाल ही में मुझे भारत-पाकिस्तान शांति कारवां में शामिल होने का अवसर प्राप्त हुआ। जब इस शांति कारवां के बारे में लोगों को मालूम होता तो वह यही कहते कि यह दोनों देश गु - लकड़ी करते रहेंगे। गेट वे ऑफ इंडिया से शुरू हुआ यह कारवां गुजरात के वलसाड, नवसारी, सुरत, भरूच और नमक सत्याग्रह की सूचक रही दांडी और अन्य राज्यों से होते हुए वागाह बांर्डर तक जायेगा। जगह - जगह हमारे इस कारवां का रंगा-रंग कार्यक्रमों से स्वागत हुआ, उस मंजर को इतने कम शब्दों में बयां कर पाना कठिन है। अधिकतर लोगो ने इस कदम कि सराहना की लेकिन कुछ लोग ऐसे भी टकराए जो अमन के इस कदम में निराशा का भाव देख रहे थे।

गुजरात में मुझसे एक महोदय ने कहा कि इस कारवां की क्या जरूरत है, पाकिस्तान दाऊद को पाले हुए है। मैंने उन्हे समझाया कि देखिए महोदय भारत पाकिस्तान के बीच १९४७, १९६५, १९७१ और कारगिल मिलाकर चार युद्ध हुए हैं, पांचवा युद्ध किसे मंजूर है। अच्छे-बुरे लोग तो हर जगह हैं। वह जनाब स्कूटर स्टार्ट कर चलते बने। इस यात्रा में विभिन्न राज्यों के लोग शामिल हुए, कारवां आगे बढ़ता जा रहा था और हम भारत-पाकिस्तान के संबंधों और उससे जुड़ी समस्याओं के समाधान पर विचार-विमर्श कर रहे थे। जब हमारा पढ़ाव गुजरात के भरूच में हुआ तो मुझे वहां कि जनता से मुकातिब होने का अवसर प्राप्त हुआ। जब सगे संबंधियों के शरीर में रक्त एक है तो सरहदें क्यों, दोनों सरकारों की नीतियों में जनता क्यों पिसे। सीमा के आर-पार लोगों का आवागमन आसान हो जाए, न कोई पासपोर्ट हो और न ही कोई वीजा। कश्मीर के मसले को इससे जोड़ कर नहीं देना चाहिए।

एक दूसरे को नीचा दिखाने की चाहत और बदला लेने की भावना ने दोनों देशों की शांति को भंग कर दिया है। वास्तविकता तो यह है कि भारत और पाकिस्तान एक दूसरे के पड़ोसी हैं, जैसा मैं समझता हुं, पड़ोसी कैसा भी हो उसके साथ रहना एक विश्वता है क्योंकि आप मित्र तो बदल सकते हैं, पड़ोसी नहीं बदला जा सकता। हमारा एक हजार साल से ऊपर का साझा इतिहास, संस्कृति और परंपरा है। हमें सोचना पड़ेगा कि इतना सब कुछ सांझा होने के बावजूद ऐसा क्या है जो हमें बांट रहा है। क्या हम अनंत काल तक एक दुसरे का खून बहाते या फिर चूस्ते रहेंगे। अगर उत्तर है नहीं तो प्रश्न यह उठता है कि फिर क्यों न एक अच्छे पड़ोसी की तरह रहा जाय। क्या यह संभव है। मुझे दोनों तरफ के राजनीतिज्ञों, सेना से कोई उम्मीद नहीं है। इस संबंध में दोनों देशों की सिविल सोसाईटी को पहल करनी होगी।

हाल ही में एस.एम. कृष्ण पाकिस्तान गये थे उन्होंने कहा था कि भारत एक स्थिर और मजबूत पाकिस्तान देखना चाहता है और मुझे विश्वास है कि मेरी यात्रा से सकारात्मक परिणाम निकलेंगे मगर आप सोच रहे होंगे कि रिश्ते तो वहीं हैं ढाक के तीन पात। चरमपंथी गुट हमेशा यही मनसूबे बनाएंगे कि दोनों देशों के हालात कभी बहतर न हों लेकिन लोकतंत्र में तय तो जनता को करना है। मैं इस यात्रा में बापू की सरजमीं दांडी, जहां से नमक सत्याग्रह शुरू हुआ था अपने साथियों के साथ मन में यह विश्वास और भरोसा लेकर आया हुं कि दोनों देशों के रिश्ते मजबूत होंगे। तब न तो कोई आतंक फैलाने वाला होगा और न ही कोई बांटो और राज्य करो नीति के तहत नफरत का बीज बोने वाला।

हमें इतिहास की गठरी जो विरासत में मिली है उसे रददी की टोकरी में फेंकना होगा। एक दुसरे की इज्जत करना सीखना होगा। दोनों तरफ से बगैर किसी रूकावट के आवागमन होना चाहिए। साहित्य शिक्षा, विज्ञान एवं तकनीकी, स्वास्थ्य के क्षेत्र में आदान प्रदान होना चाहिए। कलाकारों, फिल्मों का आदान प्रदान होना चाहिए। दोनों देशों के बीच वाणिज्य का विस्तार होना चाहिए। मैं यह नहीं कहता की इन उपायों से सारी समस्याओं का हल निकल आएगा, लेकिन धीरे-धीरे आपसी समझदारी और सहयोग के लिए वातावरण का निर्माण हो सकता है जैसे युवा फिल्म निर्देशक संजय पुराण सिंह चौहान ने अपनी फिल्म ‘लाहौर‘ में कर दिखाया है। अमन के बढ़ते कदम ऐसे ही बढ़ेंगे, हो सकता है कभी निराशा हाथ लगे जैसे अब तक लगती आई है, कुछ लोग इस लेख को पढ़ने के बाद भी कहेंगे कि यह काम इतना आसान नहीं है, लेकिन मैं तो यही कहुंगा की हमारे पास विकल्प भी क्या है ?

लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं
सैय्यद अली अख्तर

भ्रष्टाचार के जाल में फंसा राष्ट्र

आज इस संसार में चारों तरफ भ्रष्टाचार विद्यमान हैं। भ्रष्टाचार से हम अपने राष्ट्र को बचा नहीं सकते हैं। क्योंकि कुछ भ्रष्टाचार ऐसे है, जो लोग भ्रष्टाचार को रोकने वाले हैं, वो ही लोग भ्रष्टाचार करते है। पुलिस जब किसी आतंकवादी को पकड़ती है तो उससे रूपये या रिश्वत लेकर उसे छोड़ देती है और गरीब व्यक्ति को आतंकवादी बनाकर, उसे जेल में बन्दकर, उसे यातनायें देती है। इस जगह पर भ्रष्टाचार ने कार्य किया कि एक असली आतंकवादी रूपये या रिश्वत के कारण से सजा पाने से बच गया और एक गरीब व्यक्ति को सजा मिली। यह राष्ट्र की सुरक्षा कर्मचारियों द्वारा भ्रष्टाचार है।

भगवान कहे जाने वाले डॉक्टरों के बीच भी भयंकर भ्रष्टाचार पनप रहा है। सरकारी अस्पतालों की दवाईया डॉक्टरों तथा अस्पताल में काम करने वाले कर्मचारियों की जेबों में जा रहें हैं वे पैसा लेकर दवाओं को बेच रहें है। जब गरीब जनता दवा लेने सरकारी अस्पताल जाती है, तब वे लोग कहतें है कि दवा बाहर मैडिकल स्टोर से खरीद लो, सरकार, अस्पतालों को दवा नहीं भेज रहीं है। बताइये किसकी बात सत्य है क्योंकि लोहिया अस्पताल की दवाईया मैंने स्वयं डॉक्टरों साहब को अपनी जेबों में भरते देखा है, रोकने पर कहते है आप क्या कर लेगें। यह भ्रष्टाचार लगभग सभी सरकारी अस्पतालों में विद्यमान है। अगर भगवान कहे जाने वाले डॉक्टरों और अस्पताल के कर्मचारियों में भ्रष्टाचार समाप्त नहीं हुआ तो आम गरीब जनता रोटी खरीदकर जिन्दा रहेगी या दवा खरीदकर। मुझकों यह जवाब गरीब जनता की सुरक्षा करने वाली सरकार दे। क्योंकि अधिकतर गरीब जनता के पास दवाईया खरीदने के रूपये नहीं होते और उन्हें कर्ज लेना पड़ता है। जो कर्ज गरीब जनता के आत्महत्या का कारण बनता है। अस्पतालों की इस भ्रष्टाचार को रोकने के लिये सरकार को उचित कार्यवाही करनी होगी क्योंकि ये भ्रष्टाचार गरीब बीमार लोगों की जान ले सकती है।

भ्रष्टाचार का यह रूप केवल यहीं तक सीमित नहीं है। जब आम जनता को यात्रा करने जाना होता है। सरकारी बसें, आटो, टैक्सी आदि चलाने वाले चालकों में भ्रष्टाचार अधिक पाया जाता है। आये दिन यात्रियों को भ्रष्टाचार से परेशान कर रहे है। सरकारी बसें, आटो, टैक्सी चलाने वाले लोग, सरकार द्वारा तय किये गये किराये से ज्यादा किराया लेते है, देने पर लड़ाई उतर आते है। और यात्रा करना आम जनता की लिये मजबूरी है। और यदि आम जनता या सरकार द्वारा यात्रा के समय हुए भ्रष्टाचार को रोका गया तो स्पष्ट हैं कि आम गरीब जनता का क्या होगा ? अगर गरीब जनता को अपने रोगी को दूर अस्पताल में ले जाना है तो उसको इस भ्रष्टाचार से कितनी मुश्किलें आती है। यह सरकार अच्छी तरह से जानती है।

भ्रष्टाचार केवल ज्यादा पढ़े लिखे लोग कर रहे है यह आपकी, हमारी एक प्रकार की भूल है अगर हम अनपढ़ लोगों के बीच जाकर देखे तो अनपढ़ लोगों में भी काफी भ्रष्टाचार विराजमान है भले ही इस भ्रष्टाचार से राष्ट्र के विकास में कोई प्रभाव नहीं पड़ता है,परन्तु अनपढ़ लोगों में जो भ्रष्टाचार है उससे उसके परिवार वालों का नुकसान निश्चित रूप से होता है। एक अनपढ़ व्यक्ति अगर दूध बेचता है एक लीटर दूध में दो लीटर पानी मिलाते हुए देखा गया है, और दूध को ऊँचे दाम पर बेचता है तो क्या यह भ्रष्टाचार नहीं है एक अनपढ़ मजदूर अपने पैसे से शराब पीता है तथा पत्नी और बच्चों को मारता है तो क्या अनपढ़ व्यक्ति द्वारा भ्रष्टाचार नहीं है ? एक अनपढ़ व्यक्ति अपनी पत्नी तथा बच्चों का खाना छिन कर शराब पी जाता हैं, तो क्या यह भ्रष्टाचार नहीं है ? और उस अनपढ़ व्यक्ति के बच्चे अनपढ़ रह जाते है। और इस भ्रष्टाचार से उन बच्चों का केवल पढ़ने लिखने का अधिकार ही नहीं बल्कि उनके खाना खाने का अधिकार भी छिन लिया जाता है। यह भ्रष्टाचार अनपढ़ गरीब लोगों में ज्यादा पनप रहा है, तथा परिवार के परिवार नष्ट हुए जा रहे है और हम इस भ्रष्टाचार को जानते हुए भी इसे भ्रष्टाचार नहीं मानते है तथा ऐसे अनपढ़ भ्रष्टाचारियों से उसके परिवार को बचा नहीं सकते है। उदाहरण के लिये मैंने तीन बच्चों को गुलाम हुसैन पूर्वा प्राथमिक विद्यालय में दाखिला दिला दिया १४ जुलाई २०१० को उन तीन बच्चों में से अर्चना (१३ वर्ष) नाम की लड़की के माता-पिता ने केवल अर्चना को विद्यालय जाने से रोका बल्कि उसे बुरी तरह से मारा-पीटा। मेर समझाने पर गरीबी का नाटक करते है। और अर्चना का पिता अवधेश वाल्मीकि 16 जुलाई 2010 को शराब पीकर सड़क पर गाली दे रहा था। जो अनपढ़ गरीब माँ-बाप अपने बच्चों को इसलिये नहीं पढ़ाते है क्योंकि वे गरीब है। परन्तु शराब पीने के लिये उनके पास पैसे है तो क्या यह बच्चों के प्रति भ्रष्टाचार नहीं हैं।

एक उदाहरण 16 जुलाई 2010 को एक माँ अपने एक बच्चे जिसका नाम मोना (7 वर्ष) था, उसको एक छोटी सी बात पर उठाकर जमींन पर पटक दिया, उसके मुँह से काफी खुन आधे घण्टे तक बहता रहा जब मैंने उसकी माँ से बच्चे को अस्पताल ले जाने को कहा तो वह बच्चे को मारने के लिये दौड़ाती है और कहती है, आपको इसको बचाने के लिए पैंसे मिलते होगे। तब मैंने उस बच्चे को बचाने के लिये चाइल्ड लाइन से मदद लेकर उसको लोहिया इमरजेंसी में इलाज कराया। उस बच्चे का मुँह इतना ज्यादा घायल है कि वह बच्चा लगभग एक सप्ताह तक खाना नहीं खा सकता। अब बताइये एक अनपढ़ माँ के द्वारा यह भ्रष्टाचार हैं कि नहीं, कि वे बच्चे को मार तो सकती है परन्तु विद्यालय नहीं भेज सकती है।

इसके अतिरिक्त अन्य रूपों में राष्ट्र में भ्रष्टाचार विद्यमान है। जैसे राशन की दुकान पर भ्रष्टाचार राशन कार्ड धारकों को समय पर राशन देकर राशन को ऊँचे दामों पर बेचना है। और इस प्रकार पूरे राष्ट्र में भ्रष्टाचार विद्यमान है। अगर सरकार या जनता द्वारा भ्रष्टाचार को रोका नहीं गया तो आम गरीब जनता का क्या होगा।

इस भ्रष्टाचार को रोकने के लिये कानून बनाना होगा, और अगर कानून है तो भ्रष्टाचार को रोका क्यों नहीं जा रहा है ? परन्तु क्या हम सभी परी पहल दिशा निर्दे का ही इंतजार करते रहेंगे या फिर कई बातों को लेकर भ्रष्टाचार को रोकने का प्रयास भी शुरू करेगें जैसा कि कानून में वर्णित है। भ्रष्टाचार को रोकने के लिये कानून समाज के प्रगतिशी मूल्यों को र्शाता है। इन मूल्यो को बढ़ावा मिलना हम सभी के सामूहिक प्रयास से ही संभव है।

किरन