अंतर्राष्ट्रीय उपचार समिति में प्रोफ़ेसर डॉ रमा कान्त आमंत्रित

अंतर्राष्ट्रीय उपचार समिति में प्रोफ़ेसर डॉ रमा कान्त आमंत्रित

विश्व की प्रतिष्ठित तम्बाकू शोध संस्था ने लखनऊ के वरिष्ठ अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त शल्य-चिकित्सक/ सर्जन एवं तम्बाकू नियंत्रण में लगे हुए चिकित्सक प्रोफ़ेसर (डॉ) रमा कान्त को अपनी उपचार समिति में आमंत्रित किया है. प्रोफ० रमा कान्त पहले भारतीय हैं जो इस उपचार समिति में आमंत्रित किये गए हैं.

प्रोफ० रमा कान्त - लखनऊ के छत्रपति शाहूजी महाराज चिकित्सा विश्वविद्यालय के सर्जरी विभाग के विभागाध्यक्ष हैं और पहले भारतीय सर्जन हैं जिनको विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अंतर्राष्ट्रीय पुरुस्कार से २००५ में सम्मानित किया था.

प्रो० रमा कान्त को उपचार समिति में निमंत्रण जिनेवा स्विट्जरलैंड चिकित्सा विश्वविद्यालय के डॉ जीन फ़्रन्कोइस एत्टर ने बधाई के साथ दिया. डॉ एत्टर अम्रीका स्थित "सोसाइटी फॉर रिसर्च ऑन निकोटीन एंड टोबाको" (एस.आर.एन.टी) की उपचार समिति के अध्यक्ष हैं.

"अब यह शोध-द्वारा स्थापित हो चुका है कि तम्बाकू सेवन एवं तम्बाकू के धुए को परोक्ष रूप से भी श्वास द्वारा लेने से जान-लेवा बीमारियाँ और मृत्यु तक हो सकती है. गर्भवती महिलाओं द्वारा परोक्ष धूम्रपान से गर्भस्थ शिशु तक पर कुप्रभाव पड़ता है. परोक्ष धूम्रपान से व्यस्कों में ह्रदय रोग एवं फेफडे का कैंसर का खतरा अत्यधिक बढ़ जाता है. तम्बाकू सेवन का कोई भी 'सुरक्षित स्तर' नहीं है - इससे पहले कि तम्बाकू सेवन जान लेवा बने, सभी तम्बाकू सेवानियों को यह घातक नशा त्याग देना चाहिए" कहना है प्रोफ़ेसर (डॉ) रमा कान्त का, जो छत्रपति शाहूजी महाराज चिकित्सा विश्वविद्यालय की तम्बाकू नशा उन्मूलन क्लीनिक के अध्यक्ष हैं.

"तम्बाकू नशा उन्मूलन में मौजूदा स्वास्थ्य प्रणाली को ही लगाना चाहिए. एक लघु-कालीन परीक्षण के साथ जन-स्वास्थ्य में लगे लोग, जिनमें चिकित्सक, चिकित्सा छेत्र से जुड़े हुए अन्य कर्मी जैसे कि नर्स, छात्र, आदि, तम्बाकू नशा उन्मूलन में एक सक्रिय योगदान दे सकते हैं" कहना है प्रोफ़ेसर (डॉ) रमा कान्त का.

भारत में लगभग १० लख लोग हर साल तम्बाकू जनित मृत्यु का शिकार होते हैं. प्रतिदिन २५०० लोगों की मृत्यु भारत में तम्बाकू के कारण होती है. तम्बाकू नि:संदेह महामारी का रूप ले चुकी है और तम्बाकू नशा उन्मूलन प्रयासों को सशक्त करने के साथ-साथ जागरूकता कार्यक्रम भी बढ़ाने की आवश्यकता है जिससे कि बच्चे और युवा तम्बाकू सेवन आरंभ ही न करें, कहना है प्रो० डॉ रमा कान्त का।

आईसीडीबी पुरस्कार लेने आल इंडिया रेडियो से अर्चना प्रसाद न्यूयार्क जायेगी

आईसीडीबी पुरस्कार लेने आल इंडिया रेडियो से अर्चना प्रसाद न्यूयार्क जायेगी

लखनऊ, 25.9.09। आल इण्डिया रेडियों लखनऊ को विषेष बच्चों के संग विषेष कार्यक्रम के अन्र्तगत ‘‘बच्चों की आवाज सुने’’ के लिये इन्टरनेषनल चिल्ड्रिन डे आफ ब्राडकास्टिंग "आईसीडीबी" का छेत्रीय (रीजनल) पुरस्कार दिया गया है। इसमें बेघर, लाचार, मजबूर, बेबस, लावारिस और कूड़ा-कचरा जमा करने बाले बच्चों के जीवन पर आधारित बेहतरीन प्रसारण के लिये रेडियों या दूरदर्शन के कार्यक्रमों को चुनाकर पुरस्कृत किया जाता है।

अन्तरराप्ट्रीय बाल प्रसारण दिवस एक मार्च पर आल इण्डिया रेडियों लखनऊ और यूनीसेफ के विषेष सहयोग से बच्चों के विशेष रेडियों कार्यक्रम को प्रतियोगिता में भेजा गया था। इस कार्यक्रम के सुन्दर प्रस्तुतीकरण की प्रशंसा में उसे पुरस्कार से नवाजा गया है।

अंतर्राष्ट्रीय बाल प्रसारण दिवस पर आईसीडीबी हर साल रेडियों और दूरदर्शन पर बच्चों के कार्यक्रमों के प्रति युवाओं का रूझान बढ़ाने के लिये यह पुरस्कार देता है। इस साल आईसीडीबी 2009 का विषय था "बच्चों के लिये एकजुट हो, उनको बच्चों में तबदील करें"। यह पुरस्कार बच्चों की सोच, विचार, विश्वास, निडरता और उनके सपनों के सफल प्रस्तुतीकरण को दिया जाता है।

आल इण्डिया रेडियों लखनऊ ने यह पुरस्कार अपने कार्यक्रम ‘‘किड्स टयून इन टू अस’’ के लिये जीता है। इस कार्यक्रम की मुख्य निर्देशिका अर्चना प्रसाद और कार्यक्रम अधिकारी श्रीमती नूतन वषिष्ट ने बताया कि "वे बहुत खुश है और अपनी प्रसन्नता शब्दों में बयान नहीं कर सकती है। इस कार्यक्रम में भाग लेने वालों बच्चों के नाम हैः- हिना गुप्ता, गौरी शुक्ला, नव्या मिश्रा, सुप्रिया, अमन, अंशुमान, आयुष्मान, हर्ष, माल्या मिश्रा, रिया श्रीवास्तव, प्रखर, मुदित, प्रान्जल और आकाष राज चैहानइन। इन पुरस्कार के विजेताओं के नामों की घोषणा 10 नवम्बर 2009 को न्यूयार्क में की जायेगी। पुरस्कार को लेने के लिये आल इण्डिया रेडियों लखनऊ की प्रतिनिधि के रुप में कार्यक्रम की मुख्य निर्देशिका अर्चना प्रसाद न्यूयार्क जायेगी। कार्यक्रम अधिकारी श्रीमती नूतन वषिष्ट ने बताया कि आकाशवाणी लखनऊ रविवार को बच्चों पर आधारित दो घन्टे का कार्यक्रम प्रसारित करता है। पुरस्कृत कार्यक्रम को काटछांट कर आधे घन्टे का बनाकर भेजा गया था। यूनीसेफ बच्चों के अच्छे कार्यक्रमों को प्रस्तुत करने के लिये हर साल रेडियों और दूरदर्शन को पुरस्कृत करता है। पिछले 19 सालों में यह पहला मौका है जब किसी रेडियों या दूरदर्षन के किसी कार्यक्रम को पुरस्कार दिया गया है। हां ! यह अलग बात है कि आज तक किसी रेडियों या दूरदर्शन ने इसमें भाग ही नहीं लिया था। यूनीसेफ के अगस्टीन वेलियथ के प्रयासों से आल इण्डिया रेडियों लखनऊ को यह सम्मान मिलना संभव हो पाया है।
यूनीसेफ और मीडिया नेस्ट के संयुक्त तत्वावधान में आज यहां यू0पी0 प्रेस क्लब में ‘चिल्ड्रन आवर’ में यूनीसेफ के बाल विषेपज्ञ अगस्टीन वेलियथ ने कहा कि अगले साल जनवरी 2010 में बच्चों के कार्यक्रमों को फिर पुरस्कृत किया जायेगा और इस बार कार्यक्रम का विषय होगा "सारे बच्चों के लिये सारे कार्यक्रम"। इस बार लखनऊ ही नहीं पूरे उत्तर प्रदेश के रेडियों और दूरदर्शन से बच्चों पर आधारित कार्यक्रमों को एकत्र करके फिर स्क्रटनी करके उनको प्रतियोगिता में भेजा जायेगा।
इस अवसर पर यूनीसेफ के बाल विषेपज्ञ अगस्टीन वेलियथ ने कहा कि मीडिया ने अपनी लेखनी के माध्यम से हमेषा बच्चों और महिलाओं के कल्याण के लिये काम किया है। इस अवसर पर मीडिया नेस्ट की महामंत्री और वरिष्ठ पत्रकार कुलसुम तल्हा ने कहा कि बच्चों की प्रगति, प्रोत्साहन, सुधार और उनको अधिकार दिलाने के लिए पत्रकारों ने सदैव एकजुटता दिखाई है। ‘चिल्ड्रन आवर’ अपनी तरह का एक निराला कार्यक्रम है जिसको यूनीसेफ के सहयोग से एक विख्यात पत्रकार संगठन मीडिया नेस्ट आयोजित करता है जिसमें बच्चों और महिलाओं के उत्थान के लिये काम किया जाता है। इस कार्यक्रम में बच्चों और महिलाओं की समस्याओं को उठाया जाता है और उसके समाधान के उपाय खोजे जाते है।

भारत के अलावा बांग्लादेश को ‘‘वायस आफ चिल्ड्रिन’’ कीनिया को ‘‘ एंजिलस केफ’’, सूरीनाम को टेन मिनिुटन जुग्ड जनर्लस’, टागो को ‘‘ए नास ला प्लेनेट’’, यूक्रेन को ‘‘ बिग सीक्रेट’’, ब्राजील को ‘‘सिंटोजएस क्रेनक्रेस ना रेडियो जस्ट्सि’’, जर्मनी को ‘‘ किड्स फार जर्मनी मीट किड्स फाम बालकन्स’’, घाना को जेम्स आफ अपर टाइम’’, मलेशिया को ‘‘ टयून इनटॅ किड्स इऔर दक्षिण अफ्रीका को ‘‘ जिस्ज चिल्डिन रेडियों प्रोजेक्त’’ पुरस्कार दिया गया है।

कृषि और किसान का संकट

कृषि और किसान का संकट

श्री बी.डी.शर्मा जो भूतपूर्व आई..एस अधिकारी हैं, और छत्तीसगढ़ में जनजातियों के अधिकारों के लिए संघर्षरत हैं, और कृषि एवं किसान से जुड़े हुए मुद्दों के विशेषज्ञ हैं, वो लखनऊ में २६ सितम्बर २००९ को गाँधी भवन के पुस्तकालय में व्याख्यान देंगेसभी आमंत्रित हैं

तिथि: २६ सितम्बर २००९
समय: ११ बजे सुबह से बजे दोपहर
स्थान: पुस्तकालय, गाँधी भवन, शहीद स्मारक के सामने, लखनऊ


अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें:
एस.आर.दारापुरी (९४१५१६४८४५), संदीप पाण्डेय (२३४७३६५)

पत्रकारिता विभाग के समानांतर एक और सेल्फ फायनेंस कोर्स चलाने और पत्रकारिता विभाग की उपेक्षा करने के संदर्भ में विभाग के छात्रों द्वारा प्रेषित मांगपत्

राष्ट्रपति/कुलाधिपति को प्रेषित ज्ञापन/ मांगपत्र

माननीय,

राष्ट्रपति/कुलाधिपति,
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद

पत्रकारिता विभाग के समानांतर एक और सेल्फ फायनेंस कोर्स चलाने और पत्रकारिता विभाग की उपेक्षा करने के संदर्भ में विभाग के छात्रों द्वारा प्रेषित मांगपत्र


महोदय/महोदया,


इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पत्रकारिता विभाग के समानांतर एक और सेल्फ फायनेंस कोर्स चलाने और पत्रकारिता विभाग की उपेक्षा करने के संदर्भ में विभाग के छात्रों द्वारा विरोध प्रदर्शन के 15वें दिन विश्वविद्यालय के कुलपति को आंदोलन के पहले दिन 3 सितम्बर 2009 को सौंपी गयी हमारी मांगों के संदर्भ में आपकी तरफ से कोई जवाब न मिलने पर असंतोष लगातार बढ़ रहा है। हमारे आंदोलन को देशव्यापी जनसमर्थन मिल रहा है। राष्टीय हो चले इस आंदोलन का दायरा बढ़ने के कारण इस आंदोलन के जरिये उठायी गयी हमारी मांगों पर राष्टीयस्तर पर सकारात्मक प्रतिक्रिया मिल रही है। कृपया ध्यान दें हमारे पहले 3 सितग्बर को कुलपति महोदय इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद को सौंपा गया था, मांगपत्र में इन मांगो को सम्मिलित कर हमारी मांगे बिंदुवार निम्नवत हैं -


1. पिछले 25 साल से चल रहे पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग की लगातार उपेक्षा की गयी है। अब इस विभाग के लिए यूजीसी के निर्धारित मानदण्डों के अनुरुप संसाधन ( कम्प्यूटर लैब, आडियो-विडियों लैब, फोटोग्राफी डार्करुम, लाईब्रेरी, क्लासरुम, और स्थायी प्राध्यापक ) की व्यवस्था तत्काल प्रभाव से की जाय। ये व्यवस्था द्वितीय छमाही छमाही (सत्र 2009-10 के लिए ) की समाप्ती से पूर्व हो जानी चाहिए।


2. इंस्टीट्यट ऑफ़ प्रोफेशनल स्टडीज के तहत इंस्टीट्यूट फॉर फोटोजर्नलिज्म एण्ड विजुअल कम्यूनिकेशन में इसी सत्र (2009-10 सत्र) से शुरु किये जा रहे बीए इन मीडिया स्टडी के पाठ्यक्रम में प्रवेश पर तत्काल रोक लगाई जाय। अगर विश्वविद्यालय को स्नातक स्तर का ऐसा कोर्स चलाना है तो संबधित विभाग में ही पर्याप्त संसाधन की व्यवस्था करके ही चलाया जाय।


3. इंस्टीट्यट ऑफ़ प्रोफेशनल स्टडीज की स्ववित्तपोषिता खत्म/समाप्त किया जाय। (राज्य स्तरीय विश्वविद्यालय 2005 में इसकी स्थापना के समय जिस उद्देश्य से इसे सृजित किया गया था, मसलन विश्वविद्यालय अपने लिए खुद संसाधन जुटायेंगे, की प्रासंगिकता अब समाप्तप्राय है क्योंकि केंद्रीय दर्जा पाने के बाद से विश्विद्यालय ने धन न खर्चकर पाने की वजह से वार्षिक अनुदान की धनराशि हर साल वापस लौटाई है।) अब इन सभी पाठ्यक्रमों की फीस न्यायसंगत एवं तर्कसंगत की जाय और छात्रों के उपर बोझ डालने के बजाय विश्वविद्यालय की बैंकों में जमापूंजी के ब्याज पर इन कोर्सों को चलाया जाय बाद में विश्वविद्यालय के बजट में प्रावधान किया जाय।


4. यूजीसी के मानको के अनुसार किसी भी विभाग/संस्था के अध्यक्ष/डायरेक्टर को प्रत्येक दो वर्षों पर रोटेट करने का निर्देश का पालन किया जाय। इंस्टीट्यट ऑफ़ प्रोफेशनल स्टडीज के डायरेक्टर को भी इस नियम के दायरे में लाकर तत्काल प्रभाव से हटा कर नयी नियुक्ति की जाय। क्या वजह है कि इंस्टीट्यट ऑफ़ प्रोफेशनल स्टडीज के डायरेक्टर को यूजीसी के मानकों के अनुसार रोटेट नही किया गया। क्या इंस्टीट्यट ऑफ़ प्रोफेशनल स्टडीज यूजीसी के मानकों से परे है?

5. इंस्टीट्यट ऑफ़ प्रोफेशनल स्टडीज चलाये रखने का तर्क संसाधनों के नाम पर दिया जाता है। विश्वविद्यालय के केंद्रीय बनने के बाद से विगत तीन सालों का इंस्टीट्यट ऑफ़ प्रोफेशनल स्टडीज की आय व्यय का ब्यौरा उपलब्ध कराया जाय।

6. इंस्टीट्यट ऑफ़ प्रोफेशनल स्टडीज के बारे में धारणा है कि इंस्टीट्यट अपना संसाधन स्वयं जुटाता है। विश्वविद्यालय के केंद्रीय बनने के बाद से अब तक इस इंस्टीट्यट को कितना अनुदान दिया गया है। और अन्य किन मदों में विश्वविद्यालय ने इंस्टीट्यट को अनुदान उपलब्ध कराया है अगर अनुदान उपलब्ध कराया है तो इसका ब्यौरा उपलब्ध कराया है तो फिर ये तर्क क्यों दिया जाता है कि इंस्टीट्यट ऑफ़ प्रोफेशनल स्टडीज स्वयं के संसाधनों पर संचालित है।


7. इंस्टीट्यट ऑफ़ प्रोफेशनल स्टडीज में चल रहा प्रत्येक पाठ्यक्रम विषय अनुसार विश्वविद्यालय में यूजीसी के मानकों के अनुसान चल रहे विभागों में वहां के विभागाध्यक्षों के निर्देंशन में चलाया जाय। सेंटर के एकेडमिक प्रोग्राम को संदर्भित विभाग की बोर्ड ऑफ़ स्टडीज व उसी की बोर्ड ऑफ़ फेकल्टी से पारित होने के बाद शुरु किया जाय।


8. इंस्टीट्यट ऑफ़ प्रोफेशनल स्टडीज के सभी डिप्लोमा के सभी अंकपत्र परीक्षा नियंत्रक के हस्ताक्षर के बगैर अवैध माना जाय। जिन पाठ्यक्रमों के अंकपत्रों पर परीक्षा नियंत्रक हस्ताक्षर करने से संवैद्यानिक रुप से इनकार करता हो उस पाठ्यक्रम को तत्काल बंद कर दिया जाय। विश्वविद्यालय में चल रही दोहरे अंकपत्र देने की व्यवस्था को समाप्त किया जाय।


9. व्यवसायिक कोर्सों के लिए यूजीसी/एआईसीटी द्वारा निर्धारित मानकों के अनुसार संसाधनों (लैब, लाईब्रेरी और छात्र संख्या के अनुपात में स्थायी प्राध्यापक ) कि व्यवस्था की जाय।


10. प्रत्येक विभाग के अंतर्गत चलने वाले व्यवसायिक कोर्सों के लिए (इंस्टीट्यट ऑफ़ प्रोफेशनल स्टडीज को समाप्त करने के बाद विषय संबधित विभाग में शुरु किए पाठ्यक्रम के संदर्भ में ) एवं नये कोर्स जो सत्र 2009-10 के लिए प्रस्तावित हैं, में प्रवेश प्रक्रिया तब तक न शुरु की जाय जब तक यूजीसी/एआईसीटी द्वारा निर्धारित मानकों के अनुसार संसाधनों (लैब, लाईब्रेरी और छात्र संख्या के अनुपात में स्थायी प्राध्यापक ) की व्यवस्था न हो जाय।


11. व्यवसायिक कोर्सों (इंस्टीट्यट ऑफ़ प्रोफेशनल स्टडीज को समाप्त करने के बाद विषय संबधित विभाग में शुरु किए पाठ्यक्रम को शामिल करते हुए विश्वविद्यालय के सभी व्यवसायिक कोर्से के संदर्भ में ) निर्धारित फीस ढांचे को बदला जाय। तर्कसंगत फीस ढांचे के लिए विशेषज्ञों की समिति गठित की जाय।


महोदय/महोदया से अपील है कि मामले की गंभीरता को समझते हुए अतिशीघ्र कार्यवाही कर देश के अन्य शिक्षण संस्थानों के लिए भी मिसाल के बतौर अनिवार्य रुप से बेहतर शैक्षणिक व्यवस्था की उपलब्धता सुनिश्चित करें।

धन्यवाद


समस्त छात्र

पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग,
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद

प्रधान की रहमत नहीं! ये नरेगा कानून है मेरे मजदूर साथियों!

प्रधान की रहमत नहीं!
ये नरेगा क़ानून है मेरे मजदूर साथियों!

चुन्नीलाल

नरेगा कानून को लागू हुए इतना समय हो गया है कि कई गरीब मजदूरों की मौत भूख से हो गई तो कई ने इसे पाने के लिए अपनी जिन्दगी ही गवां दी बाकी बचे भी तो, इसे प्रधान की रहमत ही समझते हैं । क्योंकि मजदूर/ग्रामीण लोग आज भी इस कानून से अनजान हैं और इसे अन्य योजनाओं की तरह ही समझते हैं जो सिर्फ ग्राम प्रधान और ग्राम सचिव की झोली तक ही सिमट कर रह जाती है। इनकी झोली तक जिसका हाथ पहुंच गया वही पा सकता है ग्राम विकास की योजनाओं का लाभ!

इस जानकारी ने हमें उस समय आश्चर्य में डाल दिया जब हम जिला सीतापुर के एक गांव में अपने साथी शकील अहमद जो उसी गांव के निवासी है, के साथ गये। यह गांव इन्दिरा नहर और केवानी नदी के बीच में बसा है । एक तरफ इन्दिरा नहर और दूसरी तरफ केवानी नदी है जिसकी खुशी इस गांव को दुःख और भुखमरी में बदल देती है। इस गांव का नाम मुर्थना है जो स्वयं ग्राम सभा भी है । यह जिला सीतापुर के बिसवां तहसील और ब्लाक सकरन से संबंधित है । मजदूरों से मिलने और बातचीत करने पर पता चला कि यह मजदूर तो नरेगा कानून से अनजान हैं । इस ग्राम सभा में लगभग 2000 हजार से ज्यादा मजदूर हैं लेकिन सिर्फ 350 जॉबकार्ड बनाये गये हैं वो भी प्रधान के रहमों करम पर !

इस गांव के ग्राम प्रधान रामलखन (अनुसूचित जाति), ग्रामपंचायत मित्र संतोष कुमार (अनुसूचित जाति), ग्राम सचिव श्याम किशोर (सामान्य) हैं । इस गांव में मार्च 2009 को करीब 50-60 मजदूरों ने नरेगा के तहत काम किया था लेकिन उन्हें अब भी इसका भुगतान नहीं हुआ है। मजदूरों ने इसके लिए जिला मुख्यालय पर धरना भी दिया था । लेकिन अभी भी इनके लिए किसी अधिकारी ने सुध नहीं ली है।


इसी गांव का एक पुरवा है जो नदी में बाढ़ आने पर पूरा डूब जाता है तो इस पुरवा के लोग मुर्थना गांव चले आते हैं । इन्हें कई-कई दिनों तक भूखे रहना पड़ता है । इनको न तो ग्राम प्रधान रामलखन और न ही सरकार की तरफ से किसी योजना का लाभ मिला है । किसी के पास बी0पी0एल0 कार्ड तक नहीं है । इनका भी जॉबकार्ड नहीं बना है । सब लोग इतने परेशान हैं कि जब मैं इस गांव में पहुंचा तो लोगों का जमावड़ा इकट्ठा हो गया और यह जमावड़ा एक बैठक में बदल गया !

गांव के मजदूरों के साथ एक बैठक करने का मौका मिला जिसमें नरेगा के मुद्दे पर चर्चा हुयी । लोगों के दिलों में तमाम सवाल थे जैसे-
ऽ जॉबकार्ड प्रधान नहीं बना रहे हैं तो हम क्या करें ?
ऽ जॉबकार्ड बन भी जाता है तो काम नहीं मिलता है क्योंकि प्रधान जिसको चाहते हैं उन्हीं लोगों को काम देते हैं।
ऽ काम करते हैं तो मजदूरी नहीं मिलती है इसके लिए किसके पास जाये या शिकायत करें ?
ऽ अगर प्रधान काम भी देते हैं तो ऐसे मौके पर जब हम अपने कृषि कामों को कर रहे होते हैं ?
ऽ जॉबकार्ड कहाँ और कैसे बनवायें ?
ऽ काम पाने के लिए हम क्या करे ?
ऽ जॉबकार्ड प्रधान अपने पास ही रखे है ?
ऽ ग्राम पंचायत मित्र बिना प्रधान के कोई काम नहीं करते हैं ? इसकी शिकायत किससे करें ?
ऽ हम तो अनपढ़ हैं तो हम अपने जॉबकार्ड बनवाने के लिए कैसे आवेदन लिखें ?
ऽ अगर हम गरीबी रेखा के नीचे नहीं है तो क्या हम काम नहीं कर सकते हैं ? हमारा जॉबकार्ड नहीं बनेगा ?

इन तमाम सवालों के जवाब में मैंने बताया कि पहली बात तो यह है कि यह कोई योजना नहीं है कि सरकार की तरह बनती बिगड़ती रहती है बल्कि यह एक कानून है जो सरकारें बदलने पर भी नहीं बदलेगा । इसमें किसी गरीब और अमीर का भेदभाव नहीं है भेदभाव है तो ! बस, इस बात का , कि कौन काम करेगा और कौन नहीं करेगा, जो काम करेगा उसे काम मिलेगा तथा जो नहीं करना चाहता है उसे काम नहीं मिलेगा । प्रधानों, ग्राम पंचायत मित्र, ग्राम सचिव, सरकारी अफसर, सरकारें जरूर एक न एक दिन चली जानी हैं लेकिन यह कानून को कहीं नहीं जाना है सिवाय मजदूरों के पास ।

रही बात कि जॉबकार्ड बनने कि तो यह प्रधान के घर का कागज नहीं है और न ही उसकी रबड़ स्टैम्प है जो उसकी मर्जी के बिना नहीं लगेगी ! यदि प्रधान आपका जॉबकार्ड नहीं बना रहे हैं तो आप एक सादे कागज पर जॉबकार्ड बनवाने का आवेदन लिखें और उस पर उन मजदूरों का नाम और हस्ताक्षर करायें जो जॉबकार्ड बनवाना चाहते है। फिर इसे ग्राम प्रधान, पंचायत मित्र, ग्राम सचिव, या खण्ड विकास अधिकारी को दें । आवेदन पत्र देने की रसीद जरूर ले लें । यदि आप आवेदन लिखना नहीं जानते हैं तो यह जिम्मेदारी खण्ड विकास अधिकारी की है कि वह स्वयं या अपने सहयोगी से आपका जॉबकार्ड बनाने का फार्म भरे और फोटो खिचवाकर लगवाये । आपको अपने पास से फोटो का पैसा नहीं देना होगा । आपका जॉबकार्ड जब बन जायेगा तो आपको सूचित या आपके घर पहुंचा दिया जायेगा ।

जॉबकार्ड बनने के बाद आप एक आवेदन काम के लिए लिखें और उस पर भी उन मजदूरों का नाम, हस्ताक्षर समेत लिखें जो काम करना चाहते हैं और इसे ग्राम प्रधान, पंचायत मित्र, ग्राम सचिव, या खण्ड विकास अधिकारी को प्राप्त करा दें साथ में प्राप्ति रसीद जरूर ले लें यह रसीद आप को काम न मिलने के बाद मजदूरी भत्ता दिलाने के लिए मदद करेगी। यदि आपको काम का आवेदन देने के 15 दिनों तक काम नहीं मिलता है तो आप मजदूरी भत्ता पाने के हकदार उस तारिख से हो जायेगें जिस तारीख में आपने काम के लिए आवेदन/अर्जी दी है । यह भत्ता मजदूरी का एक चैथाई यानी 25 रूपये 30 दिनों तक मिलेगा इसके बाद भी काम न देने पर यह भत्ता एक चैथाई से बढ़कर मजदूरी का आधा यानी 50 रूपये प्रतिदिन हो जायेगा और यह तब तक मिलेगा जब तक काम नहीं मिलता है । इस कानून में यह भी प्रावधान है कि गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले मजदूर अपने खेतों को सुधारने के लिए भी आवेदन कर सकते हैं और उन्हें भी पूरी मजदूरी यानी 100 रूपये मिलेंगें । इसमें महिला, पुरूष, विकलांग, बृद्ध भी काम कर सकते हैं और उन्हें भी 100 रूपये ही मजदूरी मिलेगी । इसमें अन्य योजनाओं की अपेक्षा अनेक सुविधाएं भी हैं जो मजदूरी करने वाले मजदूर के लिए उपयोगार्थ हैं जैसे-छाया, पानी, आंगनबाड़ी, चिकित्सा, मुआवजा आदि ।

अब बात आई कि जॉबकार्ड तो प्रधान जी के पास है उन्हें हम कैसे लें । तो मैंने बताया कि जॉबकार्ड प्रधान, ग्राम पंचायत मित्र, सचिव या कोई अन्य व्यक्ति बिलकुल नहीं रख सकता है सिवाय मजदूर के ! और अगर आपके जॉबकार्ड प्रधान के पास हैं तो आप धारा 25 के तहत प्रधान के खिलाफ एफ0आई0आर0 कर सकते हैं । रही बात काम के समय की तो आप जब अपने कृषि कामों से खाली हों तो आप काम का आवेदन देकर काम मांग सकते हैं और आपको काम मिलेगा । अब मजदूरी का पैसा आपके बैंक खाते में आयेगा अगर मजदूरी नहीं मिलती है तो आप सीधे ग्राम्य विकास आयुक्त से इसकी शिकायत कर सकते हैं ।

यह मीटिंग करीब दोपहर से शुरू होकर शाम 5 बजे तक चली तथा इसी के साथ गांव का भ्रमण भी किया गया । इस मीर्टिग में शकील अहमद, जाबिर अली, रमेश, सूर्यप्रताप, गप्पू, विजय, राजू, रामप्रसाद, जितेन्द्र, नीरज तिवारी, रामू, रामकुमार, रामस्वरूप, रामभरोसे, बलिराम, मैनुद्दीन, आदित्य, अनिल, साज़िद अली, निसार अहमद, संजय, केशन, विमलेश तिवारी, सहित गांव के तमाम लोग मौजूद थे ।

अब सवाल यह है कि यह जिम्मेदारी किसकी है जो इन मजदूरों को नरेगा कानून के विषय में बताये और इसे लागू करवाये ताकि यह भी प्रधान के पैर पड़ने की बजाय काम और कानून के पैर पड़े जिनसे इनका पेट भर सके इनकी जीविका चल सके और गुलामी का दाग इनके बदन से छूटे ! उपरोक्त सवाल करने के साथ ही मैं ही इसका जवाब, लोगों से अपील करने के साथ देना चाहता हूँ कि यह जिम्मेदारी हमारी लोगों यानी पढ़े लिखे और कानून जानकारों और मजदूरों के संगठित होने की है जो इतना जानते हुए कि यह देश किसी अमीर से नहीं बल्कि इन्हीं मजदूरों के संगठन से ही विजयी हुआ था, विजयी होता रहा है और विजयी होता रहेगा । जिस तरह हम मजदूर लोग मिलकर किसी सरकार को बना सकते हैं तो उसी तरह हम इसे गिरा भी सकते हैं । बस जरूरत है तो सिर्फ हौसला आफजाई करने वालों की, समाजसेवियों की, समाज के जागते हुए लोगों की, जो इनकी खोपड़ी और दिल से यह भरम निकालें कि यह कानून नेताओं, सरकारी कर्मचारियों का नहीं जो हमारे नौकर हैं बल्कि काम करने वाले मजदूरों का हक है न कि प्रधान की रहमत !

लेखक: आशा परिवार एवं जन आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय से जुड़कर शहरी झोपड़-पट्टियों में रहने वालेगरीब, बेसहारा लोगों के बुनियादी अधिकारों के लिए संघर्षरत हैं तथा सिटिज़न न्यूज़ सर्विस के घुमंतू लेखक हैं|
chunnilallko@gmail.com, मो० ०९८३९४२२५२१

"मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम, २००९" का विरोध

"मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम, २००९" का विरोध

आज दिनांक १९ सितम्बर २००९ को जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय एवं लोक राजनीति मंच के तत्वावधान में विधान सभा धरना स्थल पर "मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम, २००९" के विरोध में धरना आयोजित किया गया. इस धरने में काफी बुद्धिजीवियों एवं गरीब बच्चों ने भाग लिया जिन के हाथों में तख्तियों पर "गरीब ७५% हैं तो आरक्षण २५% ही क्यों", "दोहरी शिक्षा व्यवस्था को समाप्त करो", "शिक्षा का निजीकरण बंद करो", तथा "पड़ोस के विद्यालय की अवधारणा लागू करो" आदि नारे लिखे हुए थे.


धरने के मध्यम से भारत के प्रधान मंत्री श्री मनमोहन सिंह जी को संबोधित ज्ञापन प्रेषित किया गया. उक्त ज्ञापन में "मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम, २००९" का विरोध करने के निम्नलिखित कारण बताये गए:

१- यह कानून भारत में भेदभावपूर्ण शिक्षा व्यवस्था, जिसमें अमीरों और गरीबों के बच्चों के लिए दो अलग किस्म की व्यवस्थाएं अस्तित्व में हैं, को बरक़रार रखेगा.

२- यह कानून शिक्षा के निजीकरण के एजेंडे को बढ़ावा देगा

ज्ञापन के मध्यम से निम्नलिखित मांगे उठाई गयीं:
1. वर्तमान कानून को वापस लेकर एक नया कानून लाया जाए जो समान शिक्षा प्रणाली तथा पड़ोस के विद्यालय की अवधारणा को लागू किया जाए।
2. शिक्षा का बजट बढ़ाकर सकल घरेलू उत्पाद का 6 प्रतिशत किया जाए।
3. शिक्षा का निजीकरण रोका जाए। सभी के लिए एक जैसी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सरकारी खर्च पर उपलब्ध होनी चाहिए।


एस.आर.दारापुरी
राज्य समन्वयक, जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय एवं लोक राजनीति मंच
फ़ोन: ९४१५१ ६४८४५

मंदबुद्धि बच्चा अभिशाप नहीं है!

मंदबुद्धि बच्चा अभिशाप नहीं है!
डॉ० दीप्ति मिश्रा

मंदबुद्धि बच्चा वह है जिसका बौद्धिक स्तर उसकी उम्र के अन्य बच्चों की अपेक्षा कम होता है । इसकी वजह से उसका बोलचाल का तरीका व व्यवहार काफी बचकाना होता है।

किसी भी परिवार में मंदबुद्धि बच्चे का आना अभिशाप माना जाता है। उसके साथ असामान्य व्यवहार किया जाता है। और कई बार तो उसका नाम ही ‘पगला’ रख दिया जाता है। यह बच्चा पास-पड़ोस व कई बार तो घर वालों के भी मजाक का पात्र बनता है।

पर क्या ! उस बच्चे की स्थिति में उसका अपना कोई हाथ है? जाहिर है कि नहीं! फिर वह अपनी स्थिति, जो कि ईश्वर की देन है, की सज़ा क्यों भुगते? और सोचा जाए तो क्या इसमें किसी का भी दोष है? कौन माँ-बाप चाहेंगे कि उनकी संतान इस स्थिति में हो? यह स्थिति किसके लिए रूचिकर या फायदेमंद होगी? इन सभी सवालों के जवाब में शायद ही किसी को कोई संशय होगा लेकिन फिर भी आमतौर पर सभी लोग इन बच्चों को हेयदृष्टि से देखते हैं और हमारे समाज में इससे संबंधित कई भ्रांतियां भी प्रचलित हैं।

इन बच्चों को देखकर साधारण तथा सबसे पहला ख्याल लोगों के मन में यही आता है कि ये सब माँ-बाप या परिवार के बुरे कर्मो का फल है । और तो और , अक्सर माँ को ही दोषी माना जाता है। जबकि सच्चाई यह है कि यह स्थिति कभी भी किसी भी परिवार में आ सकती है और मेडिकल साइन्स में इसके अनेक कारण बताए गए हैं। यह समस्या गर्भावस्था, प्रसव के दौरान या शैशवकाल की किसी समस्या अथवा बीमारी की वजह से बच्चे के दिमाग पर असर होने पर उत्पन्न होती है। किन्तु यह बढ़ने वाली बीमारी नहीं है अतः यदि छोटी अवस्था से ऐसे शिशु को उचिल प्रशिक्षण व सहायक थेरेपी दी जाए तो उसका विकास अच्छा होता है तथा वह काफी हद तक आत्मनिर्भर हो सकता है। केवल गंभीर व अतिगंभीर मंदता वाले बच्चों की आत्मनिर्भरता में दिक्कत होती है परन्तु यह स्थिति मानसिक मंदता के केवल कुछ ही बच्चों में होती है । और यह भी सत्य है कि यह किसी को दोष नहीं है, खासकर माँ को तो बिल्कुल भी नहीं। बच्चों को तो इससे सबसे अधिक तकलीफ होती है क्योंकि इस बच्चे का पालन-पोषण अत्यधिक मेहनत और जिम्मेदारी का काम है जो माँ को ही करना पड़ता है । और यह प्रक्रिया सालों-साल चलती है। माँ के लिए तो इस बच्चे का पालन-पोषण तपस्या के समान है।

दूसरा विचार जो आमतौर पर लोगों के मन में आता है वह यह है कि ये बच्चे कुछ सीख नहीं सकते और ताउम्र अपने घर-परिवार पर बोझ बने रहते हैं। किन्तु असलियत में ये बच्चे काफी कुछ सीख सकते हैं। इनकी सीखने की गति धीमी होती है अतः इनको कार्यात्मक शिक्षा दी जाती है जिससे ये दैनिक जीवन में आत्मनिर्भर हो जाते हैं तथा व्यावसायिक शिक्षा के द्वारा आर्थिक रूप से भी स्वावलंबी बन सकते हैं। जो लोग इन बच्चों के संपर्क में आए होंगे वे जानते होंगे कि ये बच्चे काम सीख लेते हैं उसे बहुत ही कायदे से करते हैं और अपने कार्य के प्रति पूरे ईमानदार होते हैं।

अक्सर हम सब मानसिक मंदता और मनोवैज्ञानिक बीमारियों को एक ही समझते हैं यह बहुत बड़ी गलती है तथा मंदबुद्धि बच्चे के साथ अन्याय है क्योकि मंदबुद्धि बच्चे की कार्यक्षमता, व्यवहार व सोंच अपनी उम्र से काफी कम उम्र के सामान्य बच्चे की तरह होती है तथा उचित मार्गदर्शन से उसका विकास सीघ्र होता है। इसके विपरीत मनोवैज्ञानिक बीमारी में आदमी की सोंच व व्यवहार अप्राकृतिक होता है तथा बिना इलाज यह समस्या बढ़ती जाती है । जबकि मानसिक मंदता के लिए किसी दवा की आवश्यकता नहीं होती है।

अक्सर यह भी देखा गया है कि लोग मंदबुद्धि बच्चों से डरते हैं कि ये दूसरों को नुकसान पहुचायेंगें । इस विचार के एकदम विपरीत, ये बच्चे अक्सर बहुत ही सौम्य व प्यार करने वाले होते हैं। मारपीट तोड़फोड़ आदि व्यवहार संबंधी दोष इनमें अनुचित माहौल की वजह से उत्पन्न हो जाते हैं और सही माहौल देने पर इस तरह के व्यवहार ठीक भी हो जाते हैं। यह जरूर है कि कभी-कभी ये बच्चे अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति उचित तरीके से नहीं कर पाते हैं और हमें उनका व्यवहार अजीब लगता है किन्तु सही प्रशिक्षण से सही अभिव्यक्ति भी ये शीघ्र सीख लेते हैं।
यदि हम यह सोचें कि इन बच्चों के संपर्क में अन्य बच्चे भी गलत आदतें सीख जायेंगें तो हमारे समाज में वैसे भी अनेक बुराइयाँ हैं। जब हम उनसे बचने के लिए अपने बच्चे का उचित मार्गदर्शन कर सकते हैं तो मंदबुद्धि बच्चे की गलत आदतें सीखने से भी हम उन्हें रोक सकते हैं। जरूरत सिर्फ इतनी है कि मंदबुद्धि बच्चों को हम खुले दिल से अपनाएं उन्हें अपने समाज व परिवार का ही एक हिस्सा समझें। रही बात पूजा-पाठ,ब्रत-अनुष्ठान, टोटके आदि की, तो ये सब केवल मन की शांति के लिए ही उपयोगी हैं। बच्चे की स्थिति या उसकी प्रगति में इन सबका कोई असर नहीं होते है अपितु समय ही नष्ट होना है। जिस चीज की इन्हें आवश्यकता है वह है हमारा भरपूर प्यार व प्रोत्साहन इनकी जरूरत यह है कि हम इन्हें पूरी तरह से अपनाएं ओर इनके प्रति सकारात्मक रवैया रखें।

हमारे मानव शरीर में अनेकों अंग हैं और हमेशा हर अंग सूचारू रूप से काम करता रहे यह तो संभव नहीं है। यदि किसी को गुर्दे को रोग होता है, तो हृदय रोग होता है या पेट की या फेफड़े की बीमारी होती है तो हम उसका यथोचित उपचार करवाते हैं किन्तु यदि दिमाग की कार्यक्षमता कुछ कम होती है तो उस इंसान का उपहास करते हैं, भेदभाव करते हैं। क्या यह उचित है? एक बार कलकत्ता की रानी के मंदिर की मूर्ति का हाथ टूट गयी। रानी ने रामकृष्ण परमहंस जी से पूछा कि क्या यह मूर्ति गंगा में प्रवाहित कर दी जाए। परमहंस जी ने उनसे पलट कर सवाल किया कि यदि आपके दामाद का हाथ टूट जाए तो आप क्या करेंगी? परमहंस जी का कहना था कि हमारा हर कृत्य भावनाओं से ही संचालित होता है इसलिए यदि हम इन बच्चों को अपने समाज और परिवार का हिस्सा मानकर चलें तो इनके प्रति हमारा नज़रिया स्वयं बदल जाएगा।

आज हमारा फर्ज़ यह है कि इन बच्चों को छोटी उम्र से उचित शिक्षण-प्रशिक्षण दिया जाए, इनकी कमजोरियों को दूर करने के लिए उचित उपाय किए जायें और इनके हुनर को बढ़ावा देने के लिए उचित अवसर दिए जाएं। बच्चे की स्थिति को समझते हुए उनकी क्षमता के अनुसार उन्हें कार्य सिखाया जाए जिससे वे अपना कार्य स्वयं बेहतर ढंग से कर पाएं तथा घर समाज का उपयोगी किस्सा बन सकें।

बच्चों के अलावा और जिनको समाज की सही सोंच व सहायता की आवश्यकता है वह हैं इन बच्चों के अभिभावक! बच्चों के साथ-साथ वे भी समाज से कटते जाते हैं। अपने बच्चे की स्थिति व उसके भविष्य को स्वीकार कर पाना ही उनके लिए काफी मुश्किल हो जाता है, ऊपर से बच्चे के प्रति दूसरों की उपेक्षा व तिरस्कार भी मिलता है। इसके साथ-साथ बच्चे की परवरिश की अतिरिक्त जिम्मेदारी का दबाव अभिभावकों में कई बार अवसाद व हीन-भावना की स्थिति उत्पन्न कर देता है। कई बार वे इस स्थिति को स्वीकार करने में असमर्थ होते हैं और पलायन-वादी रवैया अपना लेते हैं। वे बच्चे की जरूरतों को अनदेखा करके अन्य चीजों में अपनी खुशियाँ ढूढ़ने लगते हैं लेकिन उनका कर्तव्य बोध उन्हें वहां भी खुश नहीं रहने देता।

इस सब का सीधा असर बच्चे पर ही पड़ता है क्योंकि जो उसके सीखने की उम्र है वो तो इन्हीं सब बातों में निकल जाती है और जितना विकास हो सकता था वो नहीं होता है। इसके अलावा समुचित प्यार व देखभाल के अभाव में बच्चे में व्यवहार संबंधी दोष भी उत्पन्न हो जाते हैं जो कि उसके विकास में बाधक होते है तथा घरवालों के लिए भी कष्टकारी होते हैं।

इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए हम सब को यह सोंचना है कि क्या हममें से कोई भी संपूर्ण हैं? कमियां तो सभी में होती हैं। ऐसे में इन बच्चों का तिरस्कार करना क्या उचित है? किसी ना किसी रूप में ईश्वर की उपासना हम सभी करते हैं तो फिर ईश्वर की इस रचना की उपेक्षा करना क्या न्याय-संगत है? वह बच्चा जो अपनी जरूरत और इच्छा व्यक्त करने तक में असमर्थ है और वे अभिभावक जो तन-मन धन से अपने बच्चे की सेवा में लगे रहते हैं, क्या उपहास के पात्र है अथवा प्रशंसा व संवेदना के ?
यदि ऐसा कोई भी बच्चा आपके परिवार या पास-पड़ोस में है तो उसके समुचित विकास के लिए हम क्या कर सकते हैं इसके विषय में जानकारी अगले स्तम्भ में..........।

लेखिकाः दो० दीप्ति मिश्रा, जो एम0बी0एस0डाक्टर हैं, अब संकल्प डे केयर सेन्टर के नाम से मंदबुद्धि बच्चों के लिए एनजीओ मेकरबर्ट हास्पिटल, सिविल लाइन्स में चलाती हैं।

प्रस्तुत द्वारा: चुन्नीलाल (सिटिज़न न्यूज़ सर्विस)

नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा अधिकार अधिनियम, २००९, का विरोध प्रदर्शन

नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा अधिकार अधिनियम, २००९, का विरोध प्रदर्शन
लखनऊ: आज दिनांक 19 सितम्बर, 2009 को आशा परिवार, एन.ए.पी.एम. और लोक राजनीति मंच के कार्यकर्ताओं तथा झुग्गी-झोपड़ी में निवास करने वाले गरीब मजदूर, रिक्शा चालक, फेरीवाले तथा असहाय लोगों ने अपने बच्चों के साथ शिक्षा अधिनियम २००९ के खिलाफ़, धरना स्थल, विधान सभा के सामने, लखनऊ में अपनी मांगों को लेकर नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा अधिकार अधिनियम, २००९, के विरोध में प्रदर्शन किया |
विरोध प्रदर्शन कर रहे लोगों का मानना है कि शिक्षा के नाम पर हम लोगों को हमेशा छला गया है क्योंकि जो भी अधिनियम हम गरीब लोगों का नाम लेकर बनाया तो जाता है पर उस अधिनियम के माध्यम से हम लोगों को कुछ नहीं मिलता है सिर्फ भेदभावपूर्ण व मंहगी शिक्षा, मंहगाई, गरीबी, बेरोजगारी, बीमारी, बेघर, प्रताड़ना (पुलिस की, सरकार अफसरों और नेताओं तथा अमीर समाज की)। हमारा प्रदर्शन केन्द्रीय सरकार द्वारा बनाये गए शिक्षा अधिनियम के खिलाफ है क्योंकि यह अधिनियम शिक्षा व्यवस्था में व्याप्त पक्षपात को बनाये रखता है जो भविष्य में अमीर और गरीब के बीच भेदभाव को पनपाता है। सरकार ने अपनी शिक्षा व्यवस्था को संसाधन के अभाव में साल-दर-साल जानबूझ कर नजरंदाज किया है जिससे कि सरकारी शिक्षा व्यवस्था अवमानक होकर रह गया है और निजी शिक्षा व्यवस्था को पनपने का मौका मिला है। वर्त्तमान में जो शिक्षा अधिकार अधिनियम है वह शिक्षा के निजीकरण को ही बढ़ावा देता है।
इन लोगों ने बताया कि हमारी मांगे हैं-
1. वर्त्तमान शिक्षा अधिकार अधिनियम, २००९, को निरस्त किया जाए!
2. एक नया अधिनियम लाया जाए जो समान शिक्षा व्यवस्था को लागु करे!
3. पड़ोस के स्कूल के सुझाव को अंजाम दें!
4. शिक्षा के लिए बजट को बढ़ा कर जी.डी.पी का ६ प्रतिशत कर देना चाहिए जिससे कि सबको शिक्षित करने के लिए पर्याप्त संसाधन हों!

इनकी मांगें ही इनका नारा बन गयी हैं जो सरकार के खिलाफ एक लाठी का काम करती हैं-
- जब गरीब ७५% हैं, तो निजी स्कूलों में उनके लिए आरक्षण सिर्फ २५% क्यो?
- सरकारी अधिकारीयों एवं राजनीतिक दलों के नेताओं के बच्चे आख़िर सरकारी स्कूलों में क्यों नहीं पढ़ते?
- समान शिक्षा व्यवस्था को लागु करो!
- पड़ोस के स्कूल सुझाव को लागू करो!
- जो शिक्षा व्यवस्था भेदभाव करता हो, उसको हटाओ!
- शिक्षा के निजीकरण को रोको!
- सबके लिए निष्पक्ष शिक्षा व्यवस्था को कायम करो!
उपरोक्त मांगों और नारों के साथ ही प्रधानमंत्री के नाम एक ज्ञापन दिया गया है। जो इस प्रकार है-

ज्ञापन
दिनांकः 19 सितम्बर, 2009

सेवा में: आदरणीय मनमोहन सिंह जी
प्रधान मंत्री, भारत सरकार
नई दिल्ली
विषयः मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा के अधिकार अधिनियम, 2009, का विरोध।

माननीय मनमोहन सिंह जी,
हम हाल ही में आपकी सरकार द्वारा पारित मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा के अधिकार अधिनियम का विरोध करते हैं
क्योंकिः
1. यह कानून भारत में भेदभावपूर्ण शिक्षा व्यवस्था, जिसमें अमीरों व गरीबों के बच्चों के लिए दो अलग किस्म की व्यवस्थाएं अस्तित्व में हैं, को बरकरार रखेगा।
2. यह कानून शिक्षा के निजीकरण के एजेण्डे को बढ़ावा देगा।

हमारी मांग है किः
1. वर्तमान कानून को वापस लेकर एक नया कानून लाया जाए जो समान शिक्षा प्रणाली तथा पड़ोस के विद्यालय की अवधारणा को लागू किया जाए।
2. शिक्षा का बजट बढ़ाकर सकल घरेलू उत्पाद का 6 प्रतिशत किया जाए।
3. शिक्षा का निजीकरण रोका जाए। सभी के लिए एक जैसी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सरकारी खर्च पर उपलब्ध होनी चाहिए।
उम्मीद है आप देश के गरीब बच्चों को निराश नहीं करेंगे।

इस धरने में एस0आर0दारापुरी(राज्य समन्वयक, जन आंदोंलनों का राष्ट्रीय समन्वय और लोक राजनीति मंच), चुन्नीलाल (जिला समन्वयक, आशा परिवार, लखनऊ), उर्वशी शर्मा, शहजहा, हिमांशु, महेन्द्र, आशीष श्रीवास्तव, किरण, मुन्नालाल, अखिलेश सक्सेना, कृष्णा, सत्तन, मुबारक अली, झगडू, सुरेश, समैदीन, श्यामलाल समेत लगभग 60 लोग शामिल हुए। यह धरना दिन के 11 बजे से शाम 2 बजे तक चला। उपरोक्त ज्ञापन को सिटी मजिस्ट्रेट को सौपने के साथ ही इस धरने का समापन हुआ।

रिपोर्टर:- आशा परिवार एवं जन आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय से जुड़कर शहरी झोपड़-पट्टियों में रहने वाले गरीब, बेसहारा लोगों के बुनियादी अधिकारों के लिए संघर्षरत हैं तथा सिटिज़न न्यूज़ सर्विस के घुमंतू लेखक हैं|
chunnilallko@gmail.com

मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा के अधिकार अधिनियम, 2009, का विरोध।

ज्ञापन

दिनांकः 19 सितम्बर, 2009

सेवा में
आदरणीय मनमोहन सिंह जी

प्रधान मंत्री, भारत सरकार
नई दिल्ली

विषयः मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा के अधिकार अधिनियम, 2009, का विरोध।

माननीय मनमोहन सिंह जी,

हम हाल ही में आपकी सरकार द्वारा पारित मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा के अधिकार अधिनियम का विरोध करते हैं क्योंकिः


1. यह कानून भारत में भेदभावपूर्ण शिक्षा व्यवस्था, जिसमें अमीरों व गरीबों के बच्चों के लिए दो अलग किस्म की व्यवस्थाएं अस्तित्व में हैं, को बरकरार रखेगा।
2. यह कानून शिक्षा के निजीकरण के एजेण्डे को बढ़ावा देगा।

हमारी मांग है किः
1. वर्तमान कानून को वापस लेकर एक नया कानून लाया जाए जो समान शिक्षा प्रणाली तथा पड़ोस के विद्यालय की अवधारणा को लागू किया जाए।
2. शिक्षा का बजट बढ़ाकर सकल घरेलू उत्पाद का 6 प्रतिशत किया जाए।
3. शिक्षा का निजीकरण रोका जाए। सभी के लिए एक जैसी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सरकारी खर्च पर उपलब्ध होनी चाहिए।

उम्मीद है आप देश के गरीब बच्चों को निराश नहीं करेंगे।

भवदीय,


एस.आर. दारापुरी
राज्य समन्वयक, जन आंदोंलनों का राष्ट्रीय समन्वय और लोक राजनीति मंच

डॉ संदीप पाण्डेय, अरुंधती धुरु, Mahesh, चुन्नीलाल, ऊषा विश्वकर्मा, किरण , उर्वशी शर्मा, विवेक राय, हिमांशु, महेन्द्र, अभिषेक, आशीष श्रीवास्तव, अब्दुल नबी, मुन्नालाल, बाबी रमाकांत

‘अब पुलिस के हवाले कैंपस साथियों’

‘अब पुलिस के हवाले कैंपस साथियों’

"अनुराग शुक्ला"

सामाजिक बदलावों के लिए अपने तरीके से काम कर देश विदेश में नाम काम चुकी गुलाबी गैंग की राष्ट्रीय अध्यक्ष संपतपाल को जब इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के लाइब्रेरी गेट पर सिक्योरिटी और पुलिस वालों से बहस कर रहीं थी तब उन्हें नहीं पता था कि हमारी यूनिवर्सिटी के ‘अकादमिक‘ मुखिया कैंपस को पुलिस के हवाले कर गए हैं| संपत जर्नलिज्म और जनसंचार विभाग के उन स्टूडेंटस के समर्थन में आई थी जो अपने कोर्स के समांतार खोले जा रहे मीडिया स्टडी सेंटर नाम की एक डिग्री बेंचू दुकान के विरोध में आंदोलन कर रहे हैं| संपत यूनिवर्सिटी प्रशासन के प्रोफेशनल स्टडीज के नाम पर की जा रही उस भूल चूक लेनी देनी वाली अकादमिक सेटिंग का विरोध करने आईं थीं जिसमें कोई भी लक्ष्मीपु़त्र आए हरे भरे नोटों के बंडल फेंक कर पत्रकार और मीडिया प्रोफेशनल की डिग्री ले जाए. संपत गांव गरीब के बीच में काम करती हैं और गांव गरीब की बात करने आईं थीं| संपत अपनी गुलाबी गैंग के साथ कहने आई थीं कि डिग्रियां मत बेचो,गांव के लोगों को नरेगा के काम से इतने पैसे नहीं मिलते कि वह प्रोफेशनल स्टीडज के महंगे शो रूम से एक लाख बीस हजार वाली पत्रकारिता की डिग्री खरीद सकें| लेकिन संपत की गुलाबी गैंग को विचारवानों की यूनिवर्सिटी में लाठी और संगीनों के बल पर घुसने नहीं दिया गया.| लाठी और संगीन यूनिवर्सिटी के नए अकादमिकों का नया विचार है| पता लगा है कि मिस्टर राजन हर्षे यूनिवर्सिटी से जाते वक्त पत्रकारों और मास्टरी में ही अफसरी का मजा ले रहे कुछ सहयोगियों से कह गए थे ‘अब पुलिस के हवाले कैंपस साथियों’

एकेडमिक थानेदारी
संपत जब पुलिस के छोटे बडे थानेदारों से मुखातिब थीं, तभी यूनिवर्सिटी के एकेडमिक थानेदार को फोन लगाया गया लेकिन वज्र वाहनों और बूटों की ठक ठक की संगत में रहने वाले प्राक्टर साहब ने फरमाया कि युनिवर्सिटी में बाहरी लोगों का प्रवेश वर्जित है| बाहरी शब्द की यूनिवर्सिटी के संविधान में क्या व्याख्या है इस बात को राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर मिस्टर हर्षे शायद ज्यादा बेहतर बता पाएं क्योंकि उन्होंने यूनिवर्सिटी में अपने लिए पीस जोन और छात्रों के लिए वार जोन की अवधारणा विकसित की हैं| और हो सकता है आगे के अकादमिक इतिहास में प्रो. हर्षे यूनिवर्सिटीज में फोर्स डेवोल्पमेंट की "वार जोन पीस जोन" अवधारणा और शिक्षा को ज्यादा से ज्यादा कीमत पर बेचने का कंस्पेट देने के लिया याद किया जाए|
लेकिन जिस वक्त गुलाबी गैंग की सामाजिक कार्यकर्ताओं को बाहरी कहकर कैंपस में आने से रोक दिया गया सुना है उसी समय यूनिवर्सिटी में काई सेमिनार चल रहा था वाइस चांसलर के आज्ञाकारी प्राक्टर क्या ये बताना चाहेंगे कि उस सेमिनार में बोलने वाले सारे लोग भीतरी थे| यूनिवसिटी प्रोफेसरानों की नई भाषा में भीतरी का मतलब छात्रों से ही होगा। गेट पर खडे सभी लोग देख रहे थे गुलाबी गैंग के आने से कुछ देर पहले गेट पर बिना बाहरी भीतरी की पहचान किए लोगों को आने जाने दिया जा रहा था|

विचारों की पहरेदारी का साइंस
लेकिन यूनिवर्सिटी की अकादमिक दुनिया ने विचारों की पहरेदारी के साइंस को ऐसे डेवलेप किया है है कि उनका जवाब होगा कि सेमिनार में आए हुए लोग यूनिवर्सिटी में बौद्धिक व्यायाम करने के लिए बतौर मेहमान आए थे| उनकी आवभगत यूनिवर्सिटी का फर्ज था तो साहबान गलाबी गैंग को क्यूं रोका गया. संपत भी यूनिवर्सिटी की मेहमान थी और पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के छात्रों के आंदोलन के समर्थन में आईं थीं| विभाग के छात्र और अध्यापक उनकी आवभगत में खडे थे लेकिन फिर भी जंजीरों और संगीनों का सहारा लेना ही पडा| विचारों को रोकने के लिए जंजीरों और संगीनों से रोकने का तरीका बहुत पुराना है| हिटलर से लेकर मुसोलिनी ने इस तरीके का इस्तेमाल किया है| लेकिन अब इस तरीके के इस्तेमाल में खसियत यह है कि अब ये तरीके वे लोग आजमाते हैं जो क्लास में लोकतंत्र की अवधारणाएं पढाते हुए अगले पे कमीशन का इंतजार किया करते हैं|

यूनिवर्सिटी में विचारों की कमी है

संपत भी यूनिवर्सिटी में एक विचार लेकर आई थीं जो उन्होंने बुंदेलखंड में लोगों के साथ काम करके हासिल किए हैं, अकादमिक अनुलोम विलोम में टीए0 डीए0 बनाकर नहीं। संगीनों के साए में घिरी यूनिवर्सिटी में संपत के विचारों का आना इसलिए भी जरूरी था क्योंकि प्रोफेसरों से भरी हमारी यूनिवर्सिटी में विचारों की कमी है. खैर गुलाबी गैंग जो विचार,अनुभव लेकर आया था वह छात्रों तक पहुंचा पुलिस से तकरीर और तकरारों के बाद ताले और जंजीर खुली और छात्र एक बार फिर मार्च करते हुए उस अधनंगे फकीर गांधी के पास पहुंचे जिसने आजाद भारत को विचारों की कद्र करना सिखाया | विचार चाहें सरकारों के सलाहकार रह चुके किसी प्रोफेसर का हो या गुलाबी गैंग की संपत का| संपत शिक्षाविद नहीं है लेकिन उन्होंने कहा कि प्रोफेशनल स्टडीज के नाटकों में लाखों रूपए लेकर पत्रकार बनाने वाली शिक्षा व्यवस्था उन्हीं काले अंग्रेजों की व्यवस्था है जो शिक्षा के जरिए साहब और नौकर की वर्गीय अवधारणा बनाए रखना चाहते हैं. ये उन्हीं दुकानदारनुमा सलाहकार प्रोफेसरों की विचारधारा है जो गांव में बच्चों को खिचडी बंटवाने और हर हाथ को जीने भर का काम देने की योजनाएं बनवाते हैं|

हम्टी डम्टी मेंटलिटी

लेकिन यूनिवर्सिटी में आकर इन प्रोफेसरानों की हम्टी डम्टी मेंटलिटी हावी हो जाती है| फिर डिग्रयों को लाखों में बेंचने की तरकीबें शुरू होती हैं| चिकने चुपडे चेहरों का लालच देकर डिग्री के नाम पर ग्लैमर की दुनिया में घुसने के एंटीकार्ड बांटे जाते हैं| लेकिन इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में प्रोफेशनल स्टडीज के नाम पर इन एंटीकार्ड की कीमत लाखों में रखी जा रही है| जर्नलिज्म एंड मास कम्युनिकेशन डिपार्टमेंट के छात्र इसी बात को लेकर आंदोलन कर रहे हैं कि हमारे जैसा सेलेबेस का दूसरा कोर्स यूनिवर्सिटी में इतने महंगे दाम पर क्यूं बेंचा जा रहा है, जहां सिर्फ पैसा ही आपकी योग्यता है. क्या धीरे धीरे ये पूरे पत्रकारिता विभाग के निजीकरण की तैयारी है.

डिग्री को दुकानों पर मत बेचिए

"पत्रकारिता शिक्षा है व्यवसाय नहीं, इसकी डिग्री को दुकानों पर मत बेचिए" के नारे के साथ शुरू हुए आंदोलन में संपत ने अपने तरीके से अपनी बात रखी| पिछले दस दिनों से स्टूडेंटस के आंदोलन में अपनी आवाज से आवाज मिलाने वाले डिपार्टमेंट के टीचर सुनील उमराव ने कहा कि यूनिवर्सिटी प्रशासन की गुंडागर्दी के चलते छात्र और शिक्षकों को एक बार फिर गांधी की शरण में आना पडा| सुनील ने कहा कि विश्वविघालय का मतलब है कि दुनिया भर के विचारों को अपने में जगह दें| प्रो0 हर्ष ने अपनी मंचीय तकरीरों में अमरीकी साम्राज्य विरोधी नोम चीयामसकी का खूब नाम लेते हैं तो फिर क्यूं कैंपस को पुलिस के हवाले कर देते हैं। सुनील ने कहा कि अगर विश्वविधालय अपने में अलग अलग तरह के बिचारों को जगह नहीं दे सकता है और उसे कुलपति और प्राक्टर की तानाशाही में ही चलना है तो यूनिवर्सिटी की जगह वाइस चांसलर एंड कंपनी कहा जाए तो ज्यादा बेहतर होगा| पत्रकारिता के दोनों बैचों के स्टूडेंटस ने अपनी बात रखी है और मीडिया स्टडीज को ऐसा धीमा जहर बताया जो मास क्म्युनिकेशन की डिग्री को खरीद फरोख्त की दुकान बना देगा|

डिपार्टमेंट के पुरा छात्र शहनवाज और राजीव ने कहा कि आज गुलाबी गैंग की संपत को यूनिवर्सिटी में आंदोलन का समर्थन करने के लिए रोक दिया गया| लेकिन कल संदीप पांडे, अरूणा राय जैसे लोग आंदोलन को समर्थन देने आएंगे तो यूनिवर्सिटी प्रशासन उन्हें रोक पाएगा| दरअसल मीडिया स्टडीज के नाम पर दुकान खोल कर डिग्री बेचने और संपत को रोके जाने की घटना का सीधा ताल्लुक है| महज कुछ लोगों की दुकानें चमकाने के लिए पत्रकारित्रा की शिक्षा को मीडिया स्टडीज की दुकान में मुहैया कराया जा रहा है| अपनी दुकानों के चमकाने के साथ ये कैंपस की एजूकेशन को अपर मिडिल क्लास का होम प्ले बना देना चाहते हैं| वे नहीं चाहते कि यहां मिड डे मील खाने वाले बच्चे भी दुनिया की खबरनवीसी का सपना पूरा कर सकें|


लेखक: इलाहाबाद यूनिवर्सिटी पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के पूर्व छात्र हैं| वह फिलहाल दैनिक जागरण से जुड़े हुए हैं और अवकाश लेकर पत्रकारिता विभाग के छात्र आंदोलन के हमकदम हैं|

योजना आयोग का ‘ मिड टर्म ’ मूल्यांकन

योजना आयोग का ‘ मिड टर्म ’ मूल्यांकन

लखनऊ,17 सितम्बर। योजना आयोग ने ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में महिलाओं, बच्चों, अल्पसंख्यकों, स्वास्थ्य
तथा एड्स/एच आई वी आदि योजनाओं का लाभ लाभार्थियों तक पहुंचाने, लाभार्थियों की योजनाओं तक पहुंच और इन योजनाओं के सफल क्रियान्वयन के लिये जमीनी स्तर पर आंकलन शुरू कर दिया है। इसके लिए योजना आयोग द्वारा स्वयं सेवी संगठनों के सहयोग से क्षेत्रीय, प्रदेशीय और राष्ट्रीय स्तर पर कार्यशालाओं का आयोजन किया जा रहा है। इसी सन्दर्भ में आज यहां पथ, नावो और विहाई ने एक कार्यशाला का आयोजन किया जिसमें उत्तर प्रदेश के विभिन्न जिलों से दो दर्जन प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इसमें स्वयं सेवी संगठनों के अलावा हिन्दु, मुस्लिम, सिख, इसाई आ साथ ही दि समुदाय के लोगों ने भाग लिया। इन कार्यशालाओं में यूनीसेफ विशेषरूप से सहयोग दे रहा है। इस अवसर पर पथ की अध्यक्षा डॉ. मंजू अग्रवाल ने बताया कि योजना आयोग अपनी ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजनाओं का ‘ मिड टर्म ’ मूल्यांकन कर रहा है। इसमें स्वयं सेवी संगठन विभिन्न समुदाय के लाभार्थियों की आवाज को योजना आयोग तक पहुंचायेगा। ये एनजीओ आयोग को बतायेगे कि सरकारी योजनाओं की वस्तुस्थित क्या है, क्या यह योजनाएं लाभार्थियों तक पहुंच रही है, उसकी गुणवत्ता क्या है और उसमें समुदाय की भागीदारी कितनी है। इस अवसर पर उन्होंने कहा कि ऐसा पहली बार हो रहा है कि सरकार समुदाय के लोगो की आवाज को महत्व दे रही है साथ ही स्वयं सेवी संगठनों को भी अपने साथ जोड़ने महत्व दे रही है और सरकार ने उनको अपने साथ जोड़ने का काम किया है। अब स्वयं सेवी संगठनों ने भी बीड़ा उठाया है कि वह सरकार के इस जनहित के कार्यों में पूरी तरह से सहयोग करेंगे। उन्होंने उम्मीद जतायी - इस तरह की कार्यशालाओं से सरकार को एक दृप्टिकोण मिलेगा और सरकार को इन योजनाओं को और अच्छी तरह क्रियान्वयन करने में मदद मिलेगी। उन्होंने बताया कि यह कार्यशाला राज्य स्तर पर हो रही है। इसमें समुदाय की भागीदारी, उसकी योजनाओं तक पहुंच, योजनाओं की गुणवत्ता, वस्तुस्थित और जमीनी हकीकत की रिर्पोट तैयार करके उसकी सिफारिश को रीजन स्तर पर भेजा जायेगा और वहां से राष्ट्रीय स्तर पर एकत्र करके योजना आयोग तक पहुंचेगी। इस तरह की कार्यशालाओं का आयोजन हर प्रदेश में हो रहे है। उत्तर प्रदेश, पंजाब,हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, उतराखण्ड और हरियाण उत्तरी क्षेत्र में आते है और इस क्षेत्र की कार्यशाला 23 व 24 सितम्बर को चंड़ीगढ़ में होगी।

यू पी वालिटरी हेल्थ एसोसिएशन के एक प्रतिनिधि ने बताया कि योजना आयोग चाहता है कि जो योजनायें
क्रियांवित हो रही है उनका लाभ लाभर्थियों को कितना पहुंच रहा है और उसकी क्या स्थिति है। उन्होंने बताया कि हरियाण, दिल्ली हिमाचल में इस प्रकार की कार्यशालाओ का आयोजन किया जा रहा है। 21 अगस्त 09 को वालिटरी हेल्थ एसोसिएशन आफ इंडिया की दिल्ली में राष्ट्रीय स्तरीय बैठक हुई थी जिसमें कार्यशाल के उद्देश्यों पर प्रकाश डाला गया। यह उद्देश्य है- ग्यारहवी पंचवर्शीय योजना के अन्र्तगत सामुदायिक स्वास्थ्य, बाल एवं महिला तथा अल्पसंख्यक कार्यक्रम सम्बन्धी मुद्दों पर चर्चा, राष्ट्र स्तरीय योजनाओं के विभिन्न मुद्दों पर सामुदायिक सदस्यों की जानकारी, योजनाओं का लाभ सही लाभार्थियों तक पहुचं रहा है कि नहीं, अल्पसंख्यकों को योजनाओं का कितना लाभ मिल रहा है और केन्द्रीय सरकारी कार्यक्रमो में सामुदायिक स्तर पर सहभागिता। उन्होंने बताया कि योजना आयोग यह जानना चाहता है कि उनकी योजनाओं- जननी सुरक्षा योजना, परिवार नियोजन, गा्रमीण स्वास्थ्य एवं पोषण दिवस, सुरक्षित प्रसव, सुरक्षित गर्भपात, बाल स्वास्थ्य, आशा,की भूमिका, स्तनपान की जानकारी टीकाकरण, ;छह जानलेवा बीमारियां- गलाघेटू, काली खांसी, टिटनेस, खसरा, पोलियो और क्षय रोगद्धै से कितने बच्चें लाभार्थियों हो रहे है और विभिन्न समुदायों की कितनी पहुंच इन योजनाओं तक है। स्वास्थ्य सेवाओ की देखभाल कितनी कारगर है, उनको क्या-क्या सरकारी सुविधाएं मिल रही है और अल्पसंख्यकों की सरकारी योजनाओं तक कितनी पहुंच है।

नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा अधिकार अधिनियम, २००९, के विरोध में प्रदर्शन

नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा अधिकार अधिनियम, २००९, के विरोध में प्रदर्शन

स्थान: विधान सभा के सामने, लखनऊ
तिथि: १९ सितम्बर २००९, शनिवार
समय: ११ बजे सुबह से बजे दोपहर तक

क्यों: यह अधिनियम शिक्षा व्यवस्था में व्याप्त पक्षपात को बनाये रखता है जो भविष्य में अमीर और गरीब के बीच भेदभाव को पनपाता हैसरकार ने अपनी शिक्षा व्यवस्था को संसाधन के अभाव में साल-दर-साल जानबूझ कर नज़रंदाज़ किया है जिससे कि सरकारी शिक्षा व्यवस्था अवमानक हो कर रह गया है और निजी शिक्षा व्यवस्था को पनपने का मौका मिला हैवर्त्तमान में जो शिक्षा अधिकार अधिनियम है वोह शिक्षा के निजीकरण को ही बढ़ावा देता है

मांग: वर्त्तमान शिक्षा अधिकार अधिनिय, २००९, को निरस्त किया जाए और एक नया अधिनियम लाया जाए जो सामान्य शिक्षा व्यवस्था को लागु करे और 'पड़ोस' के स्कूल के सुझाव को अंजाम देशिक्षा के लिए बजट को बढ़ा कर जी.डी.पी का प्रतिशत कर देना चाहिए जिससे कि सबको शिक्षित करने के लिए पर्याप्त संसाधन हों

"स्लोगन" या नारा:
- जब गरीब ७५% हैं, तो निजी स्कूलों में उनके लिए आरक्षण सिर्फ़ २५ प्रतिशत क्यो?
- सरकारी अधिकारीयों एवं राजनीतिक दलों के नेताओं के बच्चे आख़िर सरकारी स्कूलों में क्यों नहीं पढ़ते?
- सामान्य शिक्षा व्यवस्था को लागु करो
- पड़ोस के स्कूल सुझाव को लागु करो
- जो शिक्षा व्यवस्था भेदभाव करता हो, उसको हटाओ
- शिक्षा के निजीकरण को रोको
- सबके लिए निष्पक्ष शिक्षा व्यवस्था को कायम करो

आयोजक: आशा परिवार, जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (एन..पी.एम्) एवं लोक राजनीति मंच

अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें: चुन्नी लाल ९८३९ ४२२ ५२१, उषा विश्वकर्मा ९६२१११६३०९, एस.आर दारापुरी ९४१५१६४८४५

नौकरशाही और सूचना अधिकार

नौकरशाही और सूचना अधिकार

ऋषि कुमार सिंह

लोकतंत्र यानि जवाबदेही...पारदर्शिता..और जनहित। लेकिन आजाद भारत में औपनिवेशिक कानूनों की मौजूदगी और उससे उपजी सरकारी मानसिकता ने लोकतंत्र मूल उत्स को बहाल में अड़चने डाल रखी है। जिसका कारण है कि सूचना अधिकार कानून लागू होने के बावजूद गोपनीयता अधिनियम-1923 जैसे कानून भी बरकरार हैं। जबकि इसी गोपनीयता अधिनियम के विरोध में विरोध में सूचना को अधिकार बनाए जाने की मांग पैदा हुई थी। बढ़ते जनान्दोलन को देखकर सरकारी गोपनीयता को कम करने का फैसला लिया गया। केवल 6 अध्याय,31 अनुच्छेदों और दो अनुसूचियों वाला सूचना अधिकार अधिनियम जनतंत्र को जानकारी के जरिए जनता की बेहतर भागीदारी लाने के लिए लागू किया गया। लेकिन नौकरशाही की सामन्ती मानसिकता ने इसे पंगु बना कर रख दिया है। नौकरशाही ने अपने काम करने के तरीके से सूचना अधिकार कानून को एक जटिलता के फेर में उलझा दिया है। इसका सीधा मकसद कारगुजारियों को छिपाना है। ऐसे में सूचना को आधा-अधूरा देना या तय समय में सूचना न देना या सूचना देते समय जानकारी को शब्दों के जाल में उलझा देने का काम हो रहा है।

सनद रहे कि उत्तर प्रदेश के मुख्य सूचना आयुक्त एम.ए.खान ने आरोप लगाया था कि “उत्तर प्रदेश राज्य सूचना आयोग में कम योग्यता वाले व्यक्तियों की नियुक्तियां की गई हैं। जबकि यह पद एक तरह से न्यायिक पद है।’’ साथ ही नियुक्तियों में पारदर्शिता की कमी का आरोप भी लगाया था। अगर इन बातों को आरोपों से अधिक कुछ न मानें तो भी उत्तर प्रदेश में राज्य सूचना आयोग के काम करने का जो भी तरीका है,उससे आयोग की जिम्मेदारी पर संदेह जरूरी हो जाता है। उत्तर-प्रदेश राज्य सूचना आयोग और जन सूचना अधिकारियों के कारनामों को समझने के लिए कुछेक उदाहरणों को देखना जरूरी हो जाता है।

नवम्बर 2007 में बहराइच के ‘जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी’ के कार्यालय से जून 2006 के बाद रिटायर्ड हुए अध्यापकों की पेंशन से जुड़ी जानकारी मांगी गई थी। सबसे पहले जन सूचना अधिकारी ने तय समय सीमा(30 दिन) में कोई जवाब देना जरूरी नहीं समझा। पहली अपील करने तक कोई सूचना नहीं दी गई और 60 दिन से ज्यादा समय बीत जाने पर आधी-अधूरी सूचना उपलब्ध कराई गई। जिसमें पेंशन न शुरू होने से जुड़े प्रश्न का जवाब दिया गया कि इन अध्यापकों की पेंशन-पत्रावली लेखा कार्यालय को नहीं मिली है। जबकि जानकारी पेंशन न शुरू होने के सभी कारणों के बारे में मांगी गई थी। जन-सूचना अधिकारी ने तो सूचना का बंटाधार किया ही,यूपी राज्य सूचना आयोग भी इसमें पीछे नहीं रहा। आयोग में 12 मार्च 2008 को दूसरी अपील करने के बाद करीब आठ महीने से ज्यादा समय बीतने के बाद सुनवाई की तिथि तय की गई। खास बात यह कि इससे जुड़ा पत्र सुनवाई की तारीख बीतने के बाद मिला। कारण था कि साधारण डाक से भेजा गया था।

एक और उदाहरण उत्तर प्रदेश परिवहन निगम की ए.सी.बसों से जुड़ा है। सूचना-आवेदन में इसके टेण्डर से लेकर रखरखाव सहित किराया बढ़ाने की नीति और नागरिक घोषणा-पत्र तक की जानकारी मांगी गई। इस सन्दर्भ में आया जवाब काफी दिलचस्प और हैरत में डालने वाला रहा। दो अलग-अलग जगह से बसों की संख्या के बारे में मिली सूचनाओं में 43 बसों का अन्तर पाया गया। मुख्य प्रधान प्रबन्धक ए.के.श्रीवास्तव के कार्यालय से मिले पत्र में बसों की संख्या 218 बताई गयी, तो प्रधान प्रबंधक(संचालन-2) पी.पी.पाण्डेय के कार्यालय से मिले पत्र में बसों की संख्या 261 बतायी गई। जानकारी दी गई कि बसों की खरीद खुली निविदा प्रक्रिया के तहत की गई है। टेण्डर की छायाप्रति पाने के लिए शुल्क जमा करने की बात कही गई,लेकिन कितना शुल्क लगेगा यह नहीं बताया गया। आश्चर्य है कि सूचना देने वाले जन-सूचना अधिकारी को यह भी नहीं पता कि अगर 30 दिन के अन्दर सूचना नहीं दी जाती है,तो उसके बाद सूचना को निशुल्क उपलब्ध कराने का प्रावधान सूचना अधिकार कानून का हिस्सा है। सूचना अधिकार अधिनियम की धारा-7(6) में इसका जिक्र है और इस आधार पर टेण्डर की छायाप्रति के लिए शुल्क मांगना अधिनियम के उल्लंघन के दायरे में आता है। बस खरीदने के लिए आबंटित धन राशि की जानकारी को दबा लिया गया। बसों की आय और व्यय के ब्यौरे के बारे में बताया गया कि संचालन शाखा में सूचना उपलब्ध नहीं है। अधिनियम की धारा 6(3) में साफ-साफ कहा गया है कि अगर मांगी गई सूचना किसी अधिकारी से जुड़ी हुई नहीं है,तो वह अधिकारी आवेदन को पांच दिन के भीतर उपयुक्त विभाग या अधिकारी के पास भेजेगा। ताकि आवेदक को समय से सूचना मिल सके। किराए में परिवर्तन को लेकर कहा गया कि पीक सीजन और लीअन सीजन के आधार पर किराये में बदलाव किया जाता है। जबकि इस पूरे मामले की फाइल नोटिंग्स की जानकारी को छिपा लिया गया। बसों को ‘संचालन के लिए ठीक’ जैसा प्रमाणपत्र और साफ-सफाई,रखरखाव के खर्चे सम्बन्धित जानकारी के लिए मुख्यालय में सूचना न होने का बहाना बनाया गया। 1 अप्रैल 2008 को जब मैंने बस(नम्बर-0992) में सफर किया था,तो उस दिन केवल 13 यात्री ही थे। कुछ दिन पहले ही किराये को 95 रुपए से बढ़ाकर 117 रुपए किया गया था। इस आधार पर किराया बढ़ोत्तरी के बाद आय-व्यय के बारे में मांगी गई जानकारी को अप्रासंगिक बताते हुए नहीं दिया गया। हॉ,इस बात की जानकारी भी दी गई कि निर्धारण विपणन नीति के तहत आता है। कुल मिलाकर अगर जवाब देने के तरीके पर गौर करें तो यह बात समझ में आने लगती है कि जन-सूचना अधिकारी आय-व्यय के लेखे-जोखे से जुड़ी जानकारियों को देने से परहेज क्यों करते हैं ? ए.सी बसों के लिए अलग से नागरिक चार्टर और सुविधाओं से जुड़ी जानकारी के बारे में कहा गया कि परिवहन विभाग ने अलग से ऐसी कोई जरूरत नहीं समझी है। उत्तर प्रदेश में चल रही तमाम ए.सी बसों की हालत देखकर नागरिक चार्टर न बनाने के पीछे की मंशा सामने आ जाती है। ए.सी बसों को चलाने के फैसले कितना सही है या गलत इसका हाल पता कर लेते हैं। लखनऊ से बहराइच की दूरी 120 किमी है और इस मुख्य सम्पर्क मार्ग की हालत ऐसी है कि अगर किसी बीमार को जल्दबाजी में सफर करा दिया जाए,तो उसके मरने का रास्ता साफ हो जाएगा। इन बदहाल सड़कों पर ए.सी. बसें चलायी गईं,जो कुछ दिनों में खटारा हो गईं। इस रूट की सभी बसों में अगर कुछ ठीक से काम करता हुआ मिल सकता है,तो वह अप्रैल महीने में माघ का अहसास कराने वाला कूलिंग सिस्टम। जैसे उसमें आदमी नहीं आलू के बोरों को लादा जाना हो। चारों तरफ से शीशे से बंद बसों में गुटखे की थूक और लोगों की पल्टियों से निकली दम घोटू दुर्गंध तो आम बात है। इन ए.सी बसों में ज्यादातर सीटें खाली ही रहती है। बसों में टी.वी.रखने वाले खांचें को ड्राइवर और कंडक्टर ने सामान रखने का बक्सा बना लिया है। प्राथमिक उपचार के लिए फर्स्ट एड बॉक्स लिखा तक नहीं मिलता है,शिकायत पुस्तिका तो दूर की बात है। यह सब विकास के नए चेहरे के तौर पर प्रचारित की जाने वाली उस लक्जरी बस की सुविधाएं हैं,जिसका किराया अद्यतन जानकारी के अनुसार 125 रुपये है, जो साधारण बसों के किराए से 53 रुपए अधिक है। तथ्य है कि भारत की बहुत बड़ी आबादी प्रतिदिन 20 रुपए की कमाई पर अपना जीवन गुजार रही है।

प्रधान प्रबन्धक(जन सूचना) अजय सिंह ने सूचना अधिकार अधिनियम की धारा-2(च) को आधार बनाते हुए निगम को घाटे से बचाने के उपायों,जन सुविधाओं की देखभाल करने वाले अधिकारी की नियुक्ति और किसी उच्च पदस्थ प्रशासनिक अधिकारी के कार्यालय के एक साल के खर्चे का ब्यौरे को सूचना की श्रेणी में मानने से इन्कार कर दिया। वहीं पी.पी.पाण्डेय (प्रधान प्रबन्धक,संचा-2) ने बौद्दिकता की छौंक लगाते हुए लिख भेजा कि “एयर लाइन्स तो दिन-रात के किराए में ही अन्तर कर देती हैं”। दरअसल यह बताना नौकरशाहों की उस मानसिकता का परिचय है,जिसमें वह मानता है कि सिर्फ वही जानकार और योग्य हैं,शेष सभी दोयम दर्जे के अयोग्य नागरिक हैं। कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश राज्य सूचना आयोग की हालत जानते हुए इस मामले में दूसरी अपील नहीं की गई। एक अन्य मामले में पुलिस मुख्यालय से सूचना मांगी गई थी,जिसमें आयोग ने बाकायदा सुनवाई करके पुलिस मुख्यालय को मांगी गई सूचना उपलब्ध कराने का आदेश जारी किया था,बावजूद इसके मुख्यालय ने कोई सूचना नहीं भेजी है।

पूरी प्रक्रिया से अंदाजा लगाया जा सकता है कि किस तरह से 30 दिन में सूचना देने की प्रक्रिया को महीनों की कसरत बना दिया गया है। अधिकारों को सशक्त बनाने के लिए लाया गया सूचना का अधिकार खुद नाइंसाफी का शिकार हो रहा है। सूचना मांगने वालों को नौकरशाही हर तरह से उलझाने और परेशान करने की कोशिश करती है। कहीं कहीं तो सीधे तौर पर हमले भी हुए हैं। खासकर पुलिसिया अत्याचार के बारे में सूचना मांगने पर कई लोगों को झूठे मामलों में फंसाने की घटनाएं सामने आयीं है। बात सूचना अधिकार की नियाममक संस्था यानी राज्य सूचना आयोग की सक्षमता और निष्पादन क्षमता को लेकर ज्यादा चिंता जनक है। न्यायालयों की तरह ही यहां पर आयुक्तों की कमी है,जिससे दूसरी अपील के लम्बित मामले तेजी से बढ़े हैं। राजनीति मंशा भी बेपरवाही की है। जिससे सूचना अधिकार कानून को सही से लागू करने में दिक्कतें पेश आ रही हैं। जनता को सूचित होने से रोकने के लिए इस कानून को सही से लागू नहीं किया जा रहा है,क्योंकि जनता के पास जानकारी होगी और वह जागरुक होगी तो नेताओं से प्रश्न करेगी और बेहतर व्यवस्था की मांग करेगी। इस दशा में बरगलाने वाली राजनीति की जगह नहीं बचेगी। ऐसे में उन नेताओं को नुकसान होगा जो बरगलाहट के सहारे राजनीति कर रहे हैं।



लेखक: जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसायटी के सदस्य हैं, सम्पर्क नंबर-०९६५४३२०१४७, ई.मेल-rishi2585@gmail.com)

प्रस्तुत द्वारा: चुन्नीलाल, सिटिज़न न्यूज़ सर्विस, लखनऊ |