मधुमेह और टीबी या तपेदिक में सम्बन्ध स्थापित: शोध

मधुमेह और टीबी या तपेदिक में सम्बन्ध स्थापित: शोध

पिछले हफ्ते प्रकाशित शोध से यह प्रमाणित हुआ है कि मधुमेह और तपेदिक (या टीबी) में सीधा सम्बन्ध है। टेक्सास विश्वविद्यालय के जन स्वास्थ्य विभाग के विशेषज्ञों द्वारा किए हुए शोध से यह प्रमाणित हुआ है कि टाइप- वाला मधुमेह जिन लोगों को होता है, उनके शरीर की प्रतिरोधक छमता कम होती है, और इसीलिए इन लोगों में अनेकों अवसरवादी संक्रामक रोग होने का बहुत अधिक खतरा होता है, जिनमें श्वास सम्बन्धी रोग, विशेषकर कि तपेदिक या टीबी प्रमुख है।

शोध में यह भी पाया गया कि जिन मधुमेहियों में रक्त शकर्रा अधिक अवधि तक बढ़ा रहता है, उनमें तपेदिक या टीबी होने का खतरा भी बढ़ जाता है। जिन लोगों को टाइप- मधुमेह और टीबी दोनों हो, उनमें टीबी की दवाइयों का असर भी देर से आता है, और इन लोगों में मल्टी-ड्रग रेसिस्तंत टीबी या MDR-TB होने का खतरा भी बढ़ा हुआ होता है।

MDR-टीबी में टीबी के रोगियों के लिये सबसे-प्रभावकारी टीबी की दवाइयाँ - इसोनिअजिद और रिफम्पिसिं - कारगर नहीं रहती। MDR-टीबी का इलाज लंबा होता है, १००० गुणा अधिक व्यय है और अन्य इलाज- सम्बंधित जटिलताएं भी आती हैं।

टाइप- मधुमेह से ग्रसित लोगों में प्रतिशत तक को
MDR-टीबी हो सकता है और ३०% MDR-टीबी से ग्रसित लोग मधुमेही भी होते हैं।

मधुमेह में मानव शरीर इंसुलिन को समुचित ढंग से इस्तेमाल नहीं कर पता है, और यदि मधुमेह नियंत्रित किया जाए तो इसके भीषण परिणाम हो सकते हैं, जिनसे शरीर के विभिन्न भाग कुप्रभावित हो सकते हैं, और रक्त वाहिनियाँ, नसें और आँख की 'रेटिना' भी कुप्रभावित हो सकती है।

'स्कान्दिनावियन जर्नल ऑफ़ इन्फेक्शस डिसीजेस' में प्रकाशित शोध के अनुसार मधुमेह टाइप- से ग्रसित लोगों को, टीबी का, खासकर कि दवा-प्रतिरोधक छमता वाले टीबी बक्टेरिया का, खतरा बढ़ा हुआ होता है।

अनेकों विशेषज्ञों का कहना है कि तपेदिक या टीबी से मधुमेह के रिश्ते से पहले ही चिकित्सक वर्ग अवगत था परन्तु इस शोध ने केवल इस ज्ञान की पुष्टि की है बल्कि टीबी-दवा प्रतिरोधक बक्टेरिया से सम्बंधित नए तथ्यों पर भी रौशनी डाली है।

शोधकर्ताओं के अनुसार मधुमेह विशेषज्ञों को टाइप- वाले मधुमेह के रोगियों के उपचार के दौरान
टीबी के लिये विशेष रूप से चेते रहना चाहिए और शंका होने पर टीबी का परीक्षण करना चाहिए। टीबी, और
MDR-टीबी दोनों का ही इलाज सम्भव है यदि सही समय पर टीबी का परीक्षण हो जाए और उपयुक्त इलाज भी पूरी अवधि तक रोगी को मिल पाये।

शोधकर्ताओं के अनुसार कुछ लोगों में यह मान्यता है कि टीबी या तपेदिक उन लोगों में अधिक होता हैजो शराब और अन्य व्यसन का सेवन करते हों, या मादक पदार्थों का सेवन करते हों, या भीड़-भाड़ वालेछेत्रों में बिना साफ़-सफाई के रहते हों। इस शोध से यह भी पुन: स्थापित हुआ है कि टीबी या तपेदिक उनलोगों में भी पायी गई जो साफ़-सफाई का ध्यान रखते थे, भीड़-भाड़ वाली जगह पर नहीं रहते थे औरशराब और अन्य व्यसनों का भी सेवन नहीं करते थे - इनमें से अधिकाँश लोगों को टाइप- मधुमेह था।

अब देखना यह है कि मधुमेह चिकित्सक किस हद तक टाइप- डायबिटीज़ या मधुमेह के रोगियों कोटीबी या तपेदिक के परीक्षण के लिये प्रोत्साहित करते हैं, और टीबी या तपेदिक चिकित्सक किस हदतक टीबी के रोगियों को मधुमेह की जांच के लिये प्रेरित करते हैं।

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मधुमेह से पीड़ित बच्चों एवं वयस्कों की देखभाल

मधुमेह से पीड़ित बच्चों एवं वयस्कों की देखभाल


अंतर्राष्ट्रीय डायबिटिक फेडेरेशन (आई.डी.ऍफ़.) के अनुसारमधुमेह एक जानलेवा बीमारी है जिसके घातक प्रभावोंके कारण प्रति वर्ष लगभग ४० लाख व्यक्ति मृत्यु को प्राप्त होते हैंअनेक बच्चों का जीवन भी इस रोग के कारणखतरे में पड़ जाता है --विशेषकर उन देशों में जहाँ मधुमेह से बचाव हेतु साधनों की कमी है।’

आई.डी.ऍफ़. के २०० सदस्य संगठन हैं जो १६० देशों में फैले हैंआई.डी.ऍफ़. विश्व मधुमेह दिवस ( जो प्रति वर्ष १४नवम्बर को मनाया जाता है) को सफल बनाने हेतु कटिबद्ध हैइस वर्ष के अभियान का मुख्य मुद्दा है बच्चों/ वयस्कों में फैल रही मधुमेह की बीमारी के प्रति जागरूकता को बढ़ाना

मधुमेह बच्चों में लंबे समय तक चलने वाली एक आम बीमारी हैप्रतिदिन २०० से अधिक बच्चों में टाइप मधुमेह की पहचान की जाती है, जिसके चलते उन्हें रोज़ इंसुलिन के इंजेक्शन लगाने पड़ते हैं तथा रक्त में शर्करा की मात्रा को भी नियंत्रित करना पड़ता हैबच्चों में यह रोग % वार्षिक की दर से बढ़ रहा है तथा बहुत छोटे बच्चों में यह दर % हैआई.डी.ऍफ़. के अनुसार विश्व भर में १५ वर्ष से कम आयु के ५००,००० बच्चे इस रोग से ग्रसित हैं

मधुमेह
एक लंबे समय तक चलने वाली बीमारी हैअत: जीवन पर्यंत इस रोग के इलाज एवं देखभाल की आवश्यकता पड़ती है । अब सवाल यह उठता है कि मधुमेहियों के लिए क्या अस्पताल आधारित इलाज बेहतर है या घर आधारित, अथवा दोनों का मिश्रण?

दिल्ली
की डाक्टर सोनिया कक्कड़ का कहना है कि, ‘ मधुमेह की गंभीर जटिलताओं से निपटने के लिए अस्पताल ज़रूरी हैपरन्तु ९९% रोगी स्वयं ही अपनी देखभाल कर के इस रोग को काबू में रख सकते हैंअत: उन्हें इस रोग से निपटने की उचित जानकारी की आवश्यकता है ताकि बिना अस्पताल जाए वो अपना ध्यान स्वयं रख सकें
डाक्टर कक्कड़ के अनुसारवयस्कों में इतनी मानसिक एवं शारीरिक क्षमता होती है की वे मधुमेह संबन्धी सभी सावधानियां बरतते हुए अपने भोजन/रक्त में शर्करा की मात्रा के अनुसार इंसुलिन ले सकेंयह आवश्यक है कि मधुमेह संबन्धी क्रिया कलापों की उचित जानकारी दी जाए ताकि वो धीरे- धीरे स्वयं अपनी देखभाल करने में सक्षम हो कर स्वाबलंबी बन सकेंहाँ इस बात पर ज़ोर देना आवश्यक है कि वे कार चलाने से पहले अपनी रक्त-शर्करा की मात्रा जांच लें ताकि वाहन चलाते समय उनके रक्त में शर्करा की मात्रा कम हो जाए।’

बच्चों/वयस्कों में मधुमेह की सार संभाल उचित रूप से तभी हो सकती है जब उनका पूरा परिवार इस प्रक्रिया से जुड़ा होपरिवार के सदस्यों को मधुमेह के उचित दैनिक प्रबंधन में डाक्टरों, भोजन विशेषज्ञों एवं अन्य स्वास्थ्य रक्षकों से निरंतर संपर्क स्थापित रखना चाहिएइस रोग से निपटने हेतु जानकारी, सहायता और मार्गदर्शन करने में रिश्तेदार, अध्यापक, स्कूली नर्सें, सलाहकार आदि की मदद ली जा सकती है

फोर्टिस
हॉस्पिटल, नई दिल्ली के मधुमेह विभाग के निदेशक डाक्टर अनूप मिश्रा के अनुसार, ‘रोगी बच्चे एवं उसके परिवार, दोनों के लिए यह बीमारी तनाव का कारण बन सकती हैप्रत्येक अभिभावक को अपनी संतान में मानसिक तनाव,शारीरिक वज़न में अकारण गिरावट, अथवा खानपान की अनियमितता के प्रति बहुत सतर्क रहना चाहिये क्योंकि ये सभी मधुमेह के लक्षण हो सकते हैंवैसे तो सभी अभिभावकों को अपने बच्चों को तम्बाकू, शराब नशीले पदार्थों से दूर रखना चाहिए, परन्तु विशेषकर मधुमेही बच्चों में इन व्यसनों का बहुत बुरा प्रभाव पड़ता हैधूम्रपान और मधुमेह, दोनों ही ह्रदय संबन्धी रोगों के खतरे को बढाते हैंजो मधुमेही धूम्रपान भी करते हैं उनमें ह्रदय रोग की संभावना कई गुना बढ़ जाती हैअत: मधुमेह से पीड़ित बच्चों/ वयस्कों के अभिभावकों /सम्बन्धियों को तम्बाकू का किसी भी रूप में सेवन नहीं करना चाहिए ताकि उनकी संतानों को ग़लत संकेत मिलें।'

मधुमेही बच्चों/वयस्कों को उनकी आयु एवं समझ के अनुसार स्वयं ही अपनी देखभाल के लिए प्रेरित करना चाहिएस्कूल जाने वाली आयु के अधिकतर बच्चे रक्त में शर्करा की मात्रा में कमी के लक्षण पहचान सकते हैं और १२ वर्ष से अधिक आयु वाले बच्चे स्वयं ही उचित मात्रा में इंसुलिन के इंजेक्शन भी लगा सकते हैंअपनी भोजन तालिका बनाने में भी वे सहयोग दे सकते हैंवयस्कों में मधुमेह का इलाज एक जटिल प्रक्रिया है जो केवल अनुभवी चिकित्सकों द्वारा ही सम्भव हैमधुमेहियों को उचित खान- पान, व्यायाम एवं औषधि संबंधी जानकारी देना अति आवश्यक है और यह कार्य अनेक सत्रों में ही पूरा किया जा सकता हैइंसुलिन की मात्रा निर्धारित करके, उसके इंजेक्शन स्वयं लगा लेने की प्रक्रिया का प्रदर्शन अभिभावकों/ बच्चों को समझाकर, बारम्बार उनके सामने दोहराने की आवश्यकता हैउन्हें स्वास्थ्यप्रद भोजन, शारीरिक व्यायाम एवं इंसुलिन/औषधि प्रबंधन में जागरूक बनाना भी आवश्यक है

आई.डी.ऍफ़. इस माह की २५ तारीख को लन्दन में एक सभा का आयोजन कर रहा है जिसका विषय हैविकासशील देशों में बच्चों के लिए मधुमेह की औषधियों की उपलब्धता ’। इसमें भाग लेने के लिए अनेक विकासशील देशों के स्वास्थ्य मंत्रालय, दवाई उद्योग के दिग्गज, मधुमेह संगठन, सेवा संस्थायें, और बाल चिकित्सकों को आमंत्रित किया गया है ताकि विकासशील देशों के हजारों मधुमेह पीड़ित बच्चों को उचित चिकित्सा सेवा उपलब्ध कराई जा सके जिससे कि वे मधुमेह से पीड़ित होते हुए भी एक स्वस्थ जीवन व्यतीत कर सकें और अकाल मृत्यु को प्राप्त हों

निम्न
एवं निम्न-मध्यमवर्गीय आय के देशों के लगभग ७५,००० बच्चे मधुमेह से पीड़ित होने के साथ साथ इस रोग की उचित देखभाल से भी वंचित हैंवे अत्यन्त शोचनीय स्थितियों में जी रहे हैंउन्हें इंसुलिन की आवश्यकता है, नियंत्रण उपकरणों की आवश्यकता है एवं उचित मार्गदर्शन की आवश्यकता है---ताकि वे मधुमेह की बीमारी को काबू में रख सकें और इस रोग की गंभीर जटिलताओं से मुक्त हो सकें

आई
.डी.ऍफ़. के प्रेसिडेंट डाक्टर मार्टिन सिलिंक के अनुसार, ‘हम उन सभी लोगों एवं संस्थाओं को जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं जो केवल मानवीय प्रतिक्रिया के आधार पर मासूम जिंदगियों को बचाने में सहायता कर सकते हैं, वरन उनके कष्टों के स्थायी निवारण की पृष्ठभूमि भी बना सकते हैं जिसके द्वारा सभी बच्चों का भला हो सकता है ।’

अमित द्विवेदी
लेखक सिटिज़न न्यूज़ सर्विस के विशेष संवाददाता हैं ।

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एच० आई ० वी० / एड्स के साथ जीवन जी रहे लोगों में टी० बी० के रोकथाम हेतु, टी० बी० वैक्सीन का सफल परिक्षण

एच० आई वी० / एड्स के साथ जीवन जी रहे लोगों में टी० बी० के रोकथाम हेतु, टी० बी०वैक्सीन का सफल परिक्षण

फ्रांस की राजधानी पेरिस में टी० बी० के रोकथाम और जागरूकता को लेकर आयोजित ३९ वी विश्वस्तरीय कार्यशाला में डर्टमाउथ चिकित्सा विश्वविद्यालय, अमेरिका तथा मुहिम्बिली स्वास्थ्य और संयुक्त विज्ञान विश्वविद्यालय, तंजानिया के विशेसग्यों द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट में बताया गया की एच० आई ० वी० / एड्स के साथ जीवन जी रहे लोगों में टी० बी० के रोकथाम हेतु टी० बी० के वैक्सीन का सफल परिक्षण कर लिया गया है। टी० बी० , एच० आई ० वी० / एड्स के साथ जीवन जी रहे लोगों में मौत का सबसे बड़ा कारण है, तथा ऐसे लोगों को जो एच० आई ० वी० / एड्स से ग्रसित हैं उनमे टी० बी० की बीमारी होने का खतरा सबसे ज्यादा रहता है।

टी० बी० के इस वैक्सीन का शोध दारुशालाम में डाक्टर विलियन मेटी और डाक्टर मिसाली पलान्ग्यो की देख-रेख में चल रहा था। यह शोध कार्यक्रम करीब २००० एच० आई ० वी० / एड्स से ग्रसित व्यक्तियों पर किया जा रहा था। शोध के दौरान जिस भी एच० आई ० वी० / एड्स से ग्रसित व्यक्तियों को यह वैक्सीन दिया गया उनमें टी० बी० के होने का खतरा काफी कम पाया गया।

कार्यशाला के दौरान डाक्टर पलोग्यो का कहना था “ की टी० बी० के इस वैक्सीन की खोज एक बहुत बड़ी उपलब्धी है, इससे उन लोगों में जो एच० आई ० वी० / एड्स के साथ जीवन जी रहे हैं टी० बी० द्वारा होने वाली मौत के खतरे को कम किया जा सकता है। खासकर सब सहारन अफ्रीकन इलाकों में जहाँ माइक्रो बैक्टीरियम टी० बी० एक सामान्य बीमारी है।

डर्टमाउथ चिकित्सा विश्वविद्यालय, अमेरिका के डाक्टर फोडे वां रेयान जो इस शोध के प्रमुख थे ने बताया “ की टी० बी० की बीमारी के होने का खतरा उन लोगों में सबसे ज्यादा है जो एच० आई ० वी० / एड्स से ग्रसित हैं इस वजह से शोध के दौरान शोध कर्ताओं ने इस बात पर ध्यान ज्यादा दिया की टी० बी० की वैक्सीन का सफलतम प्रयोग एच० आई ० वी० / एड्स से ग्रसित लोगों के लिए पहले हो और हमें इस बात की हार्दिक प्रसन्नता है की हम इसमें सफल रहे।”

टी० बी०के इस वैक्सीन का शोध कार्य वर्ष २००१ में अम्रीका की राष्ट्रिय स्वस्थ्य संसथान की शाखा राष्ट्रिय एलर्जी और संक्रमित रोग संसथान द्वारा शुरू किया गया था। कार्यशाला के दौरान उपस्थित डाक्टरों तथा स्वास्थ्य कर्ताओं ने टी० बी० वैक्सीन के इस सफलतम परिक्षण की काफी सराहना की। तपेदिक रोग तथा फेफडे से सम्बंधित बिमारियों पर बने विश्वव्यापी संगठन के कार्यकारी निदेशक डाक्टर नील्स बिल्लो का कहना था की दुनिया में इस वक्त करीब १ करोड़ ४० लाख लोग टी० बी० तथा एच० आई ० वी० से संक्रमित हैं ऐसे में टी० बी० वैक्सीन की खोज जन स्वास्थ्य की दिशा में निश्चय ही एक महत्वपूर्ण कदम होगा।

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तपेदिक में तम्बाकू का सेवन जानलेवा

तपेदिक में तम्बाकू का सेवन जानलेवा

फ्रांस की राजधानी पेरिस में फेफडे के स्वास्थ्य को लेकर चल रही ३९ वीं अन्तरास्त्रिय सेमिनार के दौरान विसेसज्ञों द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट में यह बात निकल कर आयी है की विश्व में फेफडे के रोग द्वारा होने वाली कुल मौतों में से ५० प्रतिशत लोगों की मौत तम्बाकू जनित बिमारियों की वजह से होती है। यही नहीं दुनिया में तपेदिक रोग से होने वाली प्रत्येक ५ में से १ व्यक्ती की मौत तम्बाकू के सेवन से होने वाली तपेदिक की बिमारियों से होती है। इस सम्बन्ध में तपेदिक रोग तथा फेफडे से सम्बंधित बिमारियों पर बने अन्तरास्त्रिय संगठन के कार्यकारी निदेशक डाक्टर नील्स बिल्लो का कहना है की “तपेदिक से होने वाली इन पॉँच मौतों में से १ को आसानी से रोका जा सकता है यदि लोग धूम्रपान का सेवन बंद कर दें तो।” तपेदिक रोग तथा फेफडे से सम्बंधित बिमारियों पर बने अन्तरास्त्रिय संगठन वैश्विक स्तर पर तम्बाकू विरोधी तथा जन स्वास्थ्य से सम्बंधित विषयों पर काम कर रहा है। विश्व में कुल तम्बाकू का सेवन करने वाले लोगों में से ८० प्रतिशत लोग निम्न और मध्यम वर्गीय आय वाले देशों के लोग हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया में करीब ५० लाख लोगों की मौत हर साल तम्बाकू जनित कारणों से होती है। यदि तम्बाकू का प्रयोग इसी तरह से चलता रहा तो आने वाले ५० सालों में मरने वालों लोगों की संख्या करीब ४२० मिलियन हो जायेगी। समस्त विश्व के दो तिहाई तपेदिक की बीमारी से ग्रषित लोग एशिया के तीन देशों में रहतें हैं, यह देश हैं भारत, इंडोनेशिया और चीन। अकेले भारत में ही तपेदिक और तम्बाकू से मरने वाले लोगों की संख्या करीब २८ लाख है।

सेमिनार के दौरान यह बात भी निकल कर आई की तम्बाकू का प्रयोग डाक्टरों तथा जन स्वास्थ्य रक्षकों में उन देशों में ज्यादा पाया गया है जहाँ पर तपेदिक के द्वारा ग्रषित लोगों की संख्या ज्यादा है। इन देशों के कुछ इलाकों में तो तम्बाकू का प्रयोग करने वाले डाक्टरों की संख्या ५० प्रतिशत से भी ज्यादा है। स्वास्थ्य सुधारकों द्वारा ही इस तरीके से तम्बाकू का प्रयोग करने से इन देशों में तम्बाकू नियंत्रण अभियान में और भी बाधाएं आ रही हैं। इसलिए यह आवश्यक है की सबसे पहले हम इन स्वास्थ्य सुधारकों को तम्बाकू छोड़ने में मदद करें जिससे की यह और तम्बाकू का प्रयोग कर रहे लोगों को छोड़ने में मदद कर सकें।

छत्रपती चिकित्सा विश्वविद्यालय में चल रही तम्बाकू नशा उन्मूलन केन्द्र के प्रमुख तथा विश्व स्वास्थ्य संगठन के अन्तरास्त्रिय तम्बाकू विरोधी पुरूस्कार से सम्मानित डाक्टर रमाकांत का कहना है की “ यह अत्यन्त आवश्यक है की तपेदिक रोग के साथ जीवन जी रहे लोगों के लिए तम्बाकू नशा उन्मूलन केन्द्र को और बढाया जाए इस तरह के केन्द्र प्रत्येक जनपद के जिला चिकित्सालय तथा जिले के प्रत्येक विकास खंडों पर हो।” हार्वर्ड विश्वविद्यालय की ओर से कराए गए एक अध्ययन में पाया गया है कि यदि चीन में धूम्रपान की आदत और जैव ईधन एवं कोयले की खपत की मौजूदा प्रवृत्ति जारी तो वर्ष २०३३ तक क्रोनिक प्रतिरोधी फेफडे के रोग (सीओपीडी) से करीब ६।५ करोड और फेफडे के कैंसर से अनुमानित १.८ करोड लोगों की मौत हो जाएगी। विज्ञान पत्रिका "साइंस डेली" ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि श्वास से संबंधित रोग चीन में होने वाली मौतों के १० प्रमुख कारणों में से हैं।

यह बड़े ही विरोधाभास का विषय है की तम्बाकू कम्पनियाँ तम्बाकू के जानलेवा स्वरुप को जानते हुए भी लोगों को आसानी से मौत का सामान बेच रहीं हैं। लेकिन दोष सिर्फ़ तम्बाकू कंपनियों को ही देना सही नहीं होगा इसमें गलती कहीं न कहीं हमारी भी है की हम आसानी से तम्बाकू कंपनियों के भ्रामक बहकावे में आकार उनके खतरनाक उत्पादों का सेवन शुरू कर देतें हैं और अपने बहुमूल्य जीवन को दांव पर लगा बैठतें हैं।

अमित द्विवेदी
लेखक सिटिज़न न्यूज़ सर्विस के विशेष संवाददाता हैं

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गहरे संकट में खाद्य सुरक्षा

गहरे संकट में खाद्य सुरक्षा
डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, लखनऊ, उत्तर प्रदेश
१६ अक्टूबर २००८


गरीबों को भी हो सकता है मधुमेह

गरीबों को भी हो सकता है मधुमेह


एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, मधुमेह की बीमारी आधुनिक जीवन पध्यति की देन है। परन्तु इसका यह अर्थकदापि नहीं है की निर्धन वर्ग इससे अछूता है। वास्तव में इस रोग के विश्व व्यापी रूप को देख कर ही अंतर्राष्ट्रीय डायबिटीज़ फेडेरेशन (आई. डी. ऍफ़.) ने विश्व स्वास्थ्य संगठन के साथ मिल कर विश्व मधुमेह दिवस की स्थापना१९९१ में करी। यह दिवस सम्पूर्ण विश्व में १४ नवम्बर को, इंसुलिन के खोजकर्ता फ्रेद्रेरिक बैंटिंग के जन्म दिवस परमनाया जाता है। आई. डी. ऍफ़. का मुख्य उद्देश्य है मधुमेह रोग के बढ़ते हुए प्रकोप के प्रति जनमानस का ध्यानआकर्षित करते हुए इसकी रोकथाम का प्रयत्न करना।

चेन्नई स्थित ‘भारतीय मधुमेह अनुसंधान संस्थान’ (आई.डी.आर .ऍफ़.) के निदेशक, अम्बाडी रामचंद्रन काकहना है कि, ‘ मधुमेह का रोग समाज के सभी वर्गों को आतंकित कर रहा है-चाहे वो धनी हों या निर्धन;

उच्च जाति के हों या निम्न जाति के; ग्रामवासी हों अथवा नगरवासी’।

हाल ही में आई.डी.आर .ऍफ़. के द्वारा तमिलनाडु में किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार केवल महानगरों में रहने वाला धनिक वर्ग ही इससे पीड़ित नहीं है, वरन ग्रामीण क्षेत्रों में भी इसका प्रकोप है। डाक्टर रामचंद्रन का यह भी कहना है कि इस रोग के कारण रोगी को जीवन पर्यंत बहुत अधिक आर्थिक भार वहन करना पड़ता है। दवाओं की कीमत, अस्पताल में रहने का खर्चा, रोगी के परिचार में हुआ व्यय---ये सब मिल कर रोगी को आर्थिक रूप से निर्बल बना देते हैं।

अंतर्राष्ट्रीय डायबिटीज़ फेडेरेशन के अनुसार, २००७ में लगभग ४.१ करोड़ भारतवासी मधुमेह से पीड़ित थे, जो विश्व भर के मधुमेहियों का १६.७ प्रतिशत है। यह संख्या २०२५ में ७ करोड़ तक बढ़ जाने की संभावना है। २०२५ तक भारत, चीन एवं अमेरिका में इस बीमारी का प्रकोप सबसे अधिक होगा। यहाँ तक की पाँच में से एक मधुमेही भारतीय होगा। इस सबका भारत पर बहुत अधिक आर्थिक बोझ पड़ सकता है ।

कदाचित इसीलिये भारत को विश्व की मधुमेह राजधानी कहा जाता है। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में भी इस रोग का प्रकोप बढ़ रहा है। परन्तु वहाँ के प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों में इस रोग की जांच करने के लिए उपयुक्त साधन तक नहीं हैं।

तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई स्थित मद्रास मधुमेह अनुसंधान संस्थान के निदेशक डाक्टर विश्वनाथन मोहन के अनुसार, ग्रामीण क्षेत्रों में प्रत्येक 'नवजात शिशु देखभाल केन्द्र' में मधुमेह के उचित निदान के लिए रोग निदान केन्द्रों की स्थापना आवश्यक है ताकि बच्चों और वयस्कों में इसके बढ़ते हुए प्रकोप को रोका जा सके। विश्व बैंक के अनुसार इस बीमारी के चलते प्रत्येक रोगी पर लगभग १००० रुपयों का वार्षिक व्यय आएगा।

शहरी वयस्कों में टाइप -२ मधुमेह का प्रकोप ग्रामीण वयस्कों के मुकाबले अधिक होता है। कदाचित इसका कारण है महानगरों की आधुनिक जीवन शैली। यहाँ के वयस्कों ( विशेषकर उच्च आय वर्ग ) के खान- पान में वसा एवं परिष्कृत अनाज की मात्रा अधिक होती है तथा वे शारीरिक श्रम भी कम ही करते हैं। परिणाम स्वरुप, छोटी उम्र में ही उनमें मोटापा बढ़ने के साथ साथ टाइप -२ मधुमेह के लक्षण बढ़ने की संभावना भी प्रबल होती है। टाइप -२ मधुमेह ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में समान रूप से व्याप्त है।

इन सभी तथ्यों को ध्यान में रखते हुए आई.डी.ऍफ़. ने इस वर्ष के विश्व मधुमेह दिवस ( www.worlddiabetesday.org) का मुख्य विषय रखा है —‘बच्चों एवं वयस्कों में मधुमेह’। यह एक चिंताजनक समस्या है और इसका समाधान ढूंढ़ना आवश्यक है । मधुमेह से किसी भी बच्चे की मृत्यु नहीं होनी चाहिए।

डाक्टर शरद पेंडसे, जो एक मधुमेह विशेषज्ञ हैं, दिल्ली में एक सेवा संस्थान चलाते हैं जिसका नाम है 'मधुमेह अनुसन्धान, शिक्षा एवं प्रबंधन ट्रस्ट'। इस ट्रस्ट के द्वारा टाइप -१ मधुमेह से पीड़ित बच्चों को इंसुलिन, सिरिंजें एवं मधुमेह सम्बंधी अन्य स्वास्थ्य सेवाएँ मुफ्त उपलब्ध कराई जाती हैं। डाक्टर पेंडसे के अनुसार बच्चों में मधुमेह के लक्षणों की जांच नियमित रूप से होनी चाहिए और इस बीमारी की प्राथमिक स्तर पर ही रोकथाम करने के प्रयास किए जाने चाहिए। यदि ऐसा नहीं किया गया तो मधुमेहियों की संख्या में वृद्धि ही होगी।


अमित द्विवेदी

लेखक सिटिज़न न्यूज़ सर्विस के विशेष संवाददाता हैं।

प्रकाशित

मेरी ख़बर, बिहार/झारखण्ड

मधुमेह रोग - केवल धन ही नहीं, जीवन की भी हानि

मधुमेह रोग - केवल धन ही नहीं, जीवन की भी हानि



अमित द्विवेदी
सिटिज़न न्यूज़ सर्विस के विशेष संवाददाता हैं

खाद्य सुरक्षा पर गहराता संकट

खाद्य सुरक्षा पर गहराता संकट

आहार का आभाव गरीबी का शायद सर्वाधिक तात्कालिक, स्वाभाविक और सहवर्ती लक्षण है। लेकिन आहार आवश्यकताओं या भोजन के अधिकार की धारणा को विकसित रूप से समझने की आवश्यकता है, ताकी यह जाना जा सके की इसे कैसे बेहतर ढंग से पूरा किया जा सकता है।

संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार अभी तक विश्व में भूखों की संख्या ७.५ करोड़ है और यदि अनाज के दामों की यह बढ़त जारी रही तो यह संख्या बढ़कर ९२।२५ करोड़ हो सकती है. इस संगठन की स्थापना १६ अक्टूबर १९४५ में की गई थी। इस संगठन की स्थापना के दिन ही विश्व के करीब १५० देशों ने १६ अक्टूबर को विश्व खाद्य दिवस के रूप में घोषित कर दिया। इस साल खाद्य दिवस की थीम रखी गयी है, ‘विश्व खाद्य संकट: जलवायु परिवर्तन की चुनौती और जैव उर्जा।’ इसमें कोई दो राए नहीं की वर्तमान समय में जलवायु परिवर्तन का सीधा असर कृषि पर पड़ रहा है, जिसका सीधा सम्बन्ध खाद्य सुरक्षा से है क्योंकि भारत सदियों से कृषि प्रधान देश रहा है। बढती कीमतों की वजह से वैश्विक स्तर पर वर्ष २००७ में करीब २.५ अरब भूख से ग्रसित लोगों में वृद्धि हुई है। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा जारी की गई ‘ सहस्त्राब्दी घोषना पत्र भी वैश्विक स्तर पर खाद्य सुरक्षा के संकट को कम करने में असफल रहा है। जबकी ‘ सहस्त्राब्दी घोषना पत्र की खाद्य संकट से निपटना उच्च प्राथमिकता थी।

तेल की बढ़ती कीमतों तथा अस्थिर अर्थव्यवस्था ने विकासशील देशों में खाद्यान संकट को और भी गंभीर बना दिया है। वर्ष २००७ में गेहूं की कीमतों में बढोत्तरी देखि गयी है। विश्व के दो प्रमुख गेहूं उत्पादक देश आष्ट्रेलिया और यूरोप नें गंभीर सूखे की मार झेली है। यद्यपी की वैश्विक स्तर पर भारतीय अर्थव्यवस्था को एक मजबूत अर्थव्यवस्था के रूप में देखा जा रहा है। किंतु विश्व के कुल भूख से पीड़ित लोगों में अकेले भारत में ही ५० प्रतिशत लोग रहते हैं। भारत की कुल जनसँख्या की २५ प्रतिशत लोगों की आमदनी प्रतिदिन १२ रूपये से भी कम है और करीब ७५ प्रतिशत लोगों की आमदनी एक डालर से भी कम है। भारत की करीब ८० प्रतिशत जनसँख्या को कम से कम पोषक आहार की मात्र भी प्राप्त नहीं नसीब होती है। भारत के ०-३ वर्ष के करीब ४६ प्रतिशत बच्चे कुपोषण से ग्रसित हैं। वहीँ उत्तर प्रदेश में यह आंकडा ४७ प्रतिशत है जहाँ देश के सबसे ज्यादा बच्चे कुपोषण से ग्रसित हैं।

तमाम तकनीकी विकास के बावजूद भी भारत की अधिकतर कृषि मौसम के ऊपर निर्भर है। भारत को सार्वजानिक वितरण प्रडाली को भी मजबूत बनाने की जरूरत है। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन के निदेशक डाक्टर जैकुस दिओउस ने विश्व के लोगों से अनुरोध किया है की वह अपने देश की कृषि उत्पादकता और जल प्रबंधन पर पर्याप्त ध्यान दें। खाद्य सामग्री की कमी को देखते हुए राज्य सरकार को कमजोर वर्ग की तरफ़ ज्यादा ध्यान देना चाहिए क्योंकि खाद्य संकट का सबसे बुरा असर इसी वर्ग पर पड़ता है. यह बड़े दुर्भाग्य का विषय है की कृषि प्रधान देश होते हुए भी भारत को खाद्य संकट से गुजरना पड़ रहा है।

इस सम्बन्ध में गोरखपुर इन्वायरमेंटल एक्शन ग्रुप के अध्यक्ष डाक्टर शिराज ऐ वजीह का कहना है “ की यह बात सत्य है की पिछले वर्षो में भारतीय आर्थव्यवस्था के सकल घरेलु उत्पाद में ८.५ प्रतिशत की वृद्धि हुई है किंतु कृषि खेत्र में विकास की यह दर मात्र २.६ प्रतिशत रही है। उद्योगों को प्रोत्साहित करने और विशेष आर्थिक खेत्र के तहत ज्यादा से ज्यादा कृषि योग्य भूमी पर अधिग्रहण से कृषि उत्पादकता में कमी आयी है। उनका आगे कहना है की चुकी आहार एक अधिकार है अतः यह राज्य के लिए अनिवार्य है की वह इस बारे में एक निति और वैधानिक ढांचा कायम करे की सामाजिक भौगोलिक या अन्य विभिन्न घटकों जैसे की कृषि सब्सिडी इत्यादी में उनके अधिकार को और सुरक्षित किया जाए। भूख से मुक्ति प्रत्येक व्यक्ति का मौलिक अधिकार है। भोजन के आभाव के रूप में भूख एक ऐसे स्थिति है जिसे अवश्य समाप्त कर देना चाहिए, लेकिन इसका मतलब यह नहीं की जिन्हें भूख की बेचैनी महसूस नहीं होती उन्हें अच्छा - खासा भोजन प्राप्त होता है। इसलिए आहार की आवश्यकता पर पर्याप्तता बल दिया जाना।

अमित द्विवेदी
लेखक सिटिज़न न्यूज़ सर्विस के विशेष संवाददाता हैं


प्रकाशित

डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट

मेरी ख़बर, बिहार/ झारखण्ड


तीसरे वीसा-रहित और शांतिपूर्ण दक्षिण एशिया अधिवेशन के लिए अपने नाम दीजिये

तीसरे वीसा-रहित और शांतिपूर्ण दक्षिण एशिया अधिवेशन के लिए अपने नाम दीजिये

तीसरा वीसा-रहित और शांतिपूर्ण दक्षिण एशिया अधिवेशन
नई दिल्ली, भारत
२०-२१ दिसम्बर २००८

तीसरा वीसा-रहित और शांतिपूर्ण दक्षिण एशिया अधिवेशन २०-२१ दिसम्बर २००८ के दौरान नई दिल्ली, भारत में आयोजित होगा.

जैसा की हम सब लोग जानते हैं, वीसा-प्रक्रिया में ६-८ हफ्ते लग सकते हैं, इसलिए पाकिस्तान और अन्य दक्षिण एशिया के देशों से आने वाले लोगों से अनुरोध है कि वोह सब अपने नाम और पासपोर्ट विवरण १५ अक्टूबर २००८ से पहले, सईदा दीप को और राजेश्वर ओझा को ईमेल द्वारा भेज दें: saeedadiep@yahoo.com और rajeshwar.ojha@gmail.com


अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें:

राजेश्वर (rajeshwar.ojha@gmail.com)
फैज़ल (faisalkj2002@yahoo.co.in)
मोनिका वाही (monica.wahi@gmail.com)
रमणीक मोहन (ramneek।mohan@gmail.com)

To read the resolution passed at the First Visa Free and Peaceful South Asia Convention (7-8 August 2005, New Delhi, India), click here

To read the resolution passed at the Second Visa Free and Peaceful South Asia Convention (15-17 September 2006, Lahore, Pakistan), click here
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मधुमेह रोग-----केवल धन ही नहीं, जीवन की भी हानि

मधुमेह रोग - केवल धन ही नहीं, जीवन की भी हानि

‘यह रुपयों का सवाल नहीं है. मैं चाहे जितने भी पैसे खर्च करूँ ,मेरा पाँव मुझे वापस नहीं मिलेगा।’ यह दु:ख है एक ६५ वर्षीय, मधुमेह से पीड़ित,एक महिला का जिन्हें हाल ही मे, गांधी स्मारक एवं सम्बंधित चिकित्सालय में, अपना पैर कटवाना पड़ा। निकट भविष्य में, १४ नवम्बर,२००८ को आने वाले विश्व मधुमेह दिवस के लिए इस महिला की कराह एक संदेश है---मधुमेह से उपजे अनेक शारीरिक विकारों को रोकने के लिए।

डाक्टर ऋषि सेठी (जो छत्रपती साहूजी महराज मेडिकल यूनिवर्सिटी मे ह्रदय रोग विभाग मे कार्यरत हैं) का कहना है, “ मधुमेह के रोगियों मे ह्रदय रोग एवं पक्षाघात की सम्भावना बढ़ जाती है। इस सम्भावना को कम करने के लिए रोगी के शरीर मे शर्करा और कोलेस्ट्रोल की मात्रा एवं उसके रक्तचाप को नियंत्रित रखना आवश्यक है। ऐसा करने से पैरों की रक्त धमनियों के सिकुड़ने या उनमें अवरोध उत्पन्न होने को रोका जा सकता है।”

छत्रपति शाहूजी महराज मेडिकल यूनिवर्सिटी के ‘डायबेटिक फुट’ इकाई के अध्यक्ष, प्रोफेसर रमा कान्त के अनुसार “मधुमेह के रोगी के शरीर के स्नायुओं के क्षतिग्रस्त होने की भी सम्भावना होती है। कुछ रोगियों मे इस क्षति के कोई बाह्य लक्षण नहीं दिखाई देते, परन्तु कुछ रोगियों को हाथ-पैरों में दर्द, झंझनाहट या संज्ञा शून्यता महसूस होती है। मधुमेही के गुर्दों पर भी इस रोग का बुरा प्रभाव पड़ सकता है। गुर्दे शरीर को साफ़ रखने मे असमर्थ होते जाते हैं और अंतत: कार्य करना बंद कर देते हैं। इस स्थिति को ‘क्रोनिक किडनी फेलियर' कहते हैं।”

डाक्टर रमा कान्त का कहना है की गुर्दों के निष्काम होने का सबसे आम कारण है मधुमेह, जिसके चलते लगभग ४४% नए रोगियों के गुर्दे क्षतिग्रस्त होते हैं। मधुमेह को नियंत्रित करने के बाद भी गुर्दों के निष्काम होने की सम्भावना बने रहती है। परन्तु मधुमेह का सबसे भयानक प्रभाव है ‘डायबेटिक फुट’ अथवा ‘मधुमेही पाँव' जिसने उपर्युक्त वर्णित महिला को विकलांग बना दिया। अधिक समय तक मधुमेह रोग होने से पांवों की धमनियों और स्नायुओं मे विकार हो जाता है, जिसके चलते न केवल रोगी के पैर को, वरन उसके जीवन को भी खतरा हो सकता है। ‘ मधुमेही पाँव’ से पीड़ित होने पर रोगी को लंबे समय तक अस्पताल मे रहना पड़ सकता है तथा उसके परिचार मे भी बहुत सजगता बरतनी पड़ती है।

मधुमेही के पाँव काटने की स्थिति आने के दो मुख्य कारण हैं---लंबे समय तक चलने वाले अनियंत्रित मधुमेह की वजह से पैर के स्नायुओं का संज्ञाशून्य हो जाना अथवा पाँव के तलवों मे ‘हाई प्रेशर पॉइंट' बन जाने से वहां घाव हो जाना। और यदि रोगी धूम्रपान भी करता हो तो स्नायु क्षतिग्रस्त होने से पैरों मे रक्त संचार कम हो जाता है। बढ़ती उम्र के साथ साथ रोगी के पैरों मे रक्तसंचार बाधित होने से और संज्ञाहीनता बढ़ने से पाँव मे संक्रमण की सम्भावना बढ़ जाती है।

प्रोफेसर रमा कान्त के अनुसार मधुमेह के रोगियों को अपने पाँव की रक्षा हेतु निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिये —
(१) पैरों को नियमित रूप से धो कर साफ़ रखें।
(२) केवल गुनगुने पानी का प्रयोग करें---गर्म पानी,आयोडीन, अल्कहौल या गर्म पानी की बोतल का प्रयोग न करें।
(३) पैरों को सूखा रखें---विशेषकर उँगलियों के बीच के स्थान को. सुगंधहीन क्रीम /लोशन के प्रयोग से त्वचा को मुलायम रखें।
(4) पैरों के नाखून उचित प्रकार से काटें---किनारों पर गहरा न काटें।
(५) गुख्रू को हटाने के लिए ब्लेड, चाकू , ‘कॉर्न कैप' का प्रयोग न करें।
(६) नंगे पाँव कभी न चलें, घर के अन्दर भी नहीं. हमेशा जूता/चप्पल पहन कर ही चलें।
(७) कसे हुए या फटे पुराने जूते/चप्पल न पहनें. आरामदेह जूते/चप्पल ही पहनें।
(८) स्वयं ही अपने पाँव की जांच नियमित रूप से करें और कोई भी परेशानी होने पर तुंरत अपने चिकित्सक से संपर्क करें।
(९) केवल चिकित्सक द्वारा बताई गयी औषधि का ही प्रयोग करें —घरेलू इलाज न करें।
‘मधुमेह का रोग केवल धन ही नहीं, और भी बहुत कुछ गंवाता है।’

अंतर्राष्ट्रीय डायबिटीज़ फेडेरेशन (आई.डी.ऍफ़.) ने एक डायबिटीज़ एटलस प्रकाशित किया है जिसके अनुसार भारत मे २००७ मे लगभग ४ करोड़ व्यक्ति मधुमेह से पीड़ित थे। यह संख्या २०२५ मे ७ करोड़ हो जाने की सम्भावना है। २०२५ तक चीन, भारत एवं अमेरिका मे विश्व के सबसे अधिक मधुमेही होंगे और संभवत: हर पांचवा मधुमेही भारतीय होगा। इतने अधिक मधुमेह पीड़ित रोगियों के कारण उत्पन्न आर्थिक भार का बहुत अधिक बोझ भारत को ही उठाना पडेगा।
आई.डी.ऍफ़. जनसाधारण मे इस रोग के प्रति जागरूकता बढ़ाने मे एवं वैश्विक स्तर पर इस रोग का उपचार सभी रोगियों को उपलब्ध कराने मे सतत प्रयत्नशील है। विश्व मधुमेह दिवस (१४ नवम्बर,२००८) मे कुछ ही दिन शेष हैं। यह दिन भारत में अपने प्रथम प्रधानमंत्री, स्वर्गीय श्री जवाहरलाल नेहरू (जिन्हें बच्चों से बहुत स्नेह था) के जन्म दिवस की याद मे ‘बाल दिवस’ के रूप में भी मनाया जाता है।

हम सभी को यह आशा करनी चाहिए की मधुमेह के प्रति जनसाधारण मे जागरूकता बढ़ने से इस बीमारी की रोकथाम मे सहायता मिलेगी।


अमित द्विवेदी
लेखक सिटिज़न न्यूज़ सर्विस के विशेष संवाददाता हैं


(यह लेख मेरी ख़बर में अक्टूबर २००८ को प्रकाशित हुआ है, जिसको पढ़ने के लिए यहाँ पर क्लिककीजिये )
डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट में जिसको पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें)

निमंत्रण: तीसरा वीसा-रहित और शांतिपूर्ण दक्षिण एशिया अधिवेशन

निमंत्रण: तीसरा वीसा-रहित और शांतिपूर्ण दक्षिण एशिया अधिवेशन
२०-२१ दिसम्बर २००८
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पहला वीसा-रहित और शांतिपूर्ण दक्षिण एशिया अधिवेशन (७-८ अगस्त २००५, नई दिल्ली) में पारित 'रेसोलूशन' या ज्ञापन को पढ़ने के लिये, यहाँ पर क्लिक कीजिये

दूसरे वीसा-रहित और शांतिपूर्ण दक्षिण एशिया अधिवेशन (१५-१७ सितम्बर २००६, लाहौर, पाकिस्तान) में पारित
'रेसोलूशन' या ज्ञापन को पढ़ने के लिये यहाँ पर क्लिक कीजिये
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नोट: कृपया अपने जवाब राजेश्वर ओझा को इस ईमेल पर भेजें: rajeshwar.ojha@gmail.com

प्रिय मित्रों,

२०-२१ दिसम्बर २००८ को तीसरा वीसा-रहित और शांतिपूर्ण दक्षिण एशिया अधिवेशन को संपन्न करने का प्रस्ताव है. यह अधिवेशन, नई दिल्ली में आयोजित किया जाएगा.

चूँकि दक्षिण एशिया के अन्य देशों से आने वाले मित्रों को वीसा औपचारिकता पूरी करने के लिये ८ हफ्ते चाहिए, इसीलिए यह अधिवेशन दिसम्बर में संपन्न करने का प्रस्ताव रखा गया है.

दिसम्बर २२ को एक-दिवसीय उपवास रखा जाएगा.

दिसम्बर २३-२४ को संगम-नगरी इलाहाबाद में कार्यक्रम आयोजित किए जायेंगे.

इस अधिवेशन में भाग लेने के लिये कृपया कर के अपने नाम राजेश्वर ओझा को इस ईमेल पर अवश्य भेजें: rajeshwar.ojha@gmail.com

पाकिस्तान से आने वाले लोगों को वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता सईदा दीप जी से संपर्क करना चाहिए जो उनकी सम्भव मदद करेंगी.

इस अधिवेशन से सम्बंधित जानकारी के लिये कृपया करके संपर्क कीजिये:

राजेश्वर ओझा
ईमेल: rajeshwar.ojha@gmail.com
मोनिका वही
ईमेल: monica.wahi@gmail.com
फैसल खान
ईमेल: faisalkj2002@yahoo.co.in
रमणीक मोहन
ईमेल: ramneek.mohan@gmail.com
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पहले वीसा-रहित और शांतिपूर्ण दक्षिण एशिया अधिवेशन (७-८ अगस्त २००५, नई दिल्ली) में पारित
'रेसोलूशन' या ज्ञापन को पढ़ने के लिये, यहाँ पर क्लिक कीजिये

दूसरे वीसा-रहित और शांतिपूर्ण दक्षिण एशिया अधिवेशन (१५-१७ सितम्बर २००६, लाहौर, पाकिस्तान) में पारित
'रेसोलूशन' या ज्ञापन को पढ़ने के लिये यहाँ पर क्लिक कीजिये

www.XDRTB.org वेबसाइट: संदेश फैलाएं और टीबी या तपेदिक को रोकें

www.XDRTB.org वेबसाइट: संदेश फैलाएं और टीबी या तपेदिक को रोकें

'टेड पुरुस्कार २००७ विजेता के विजेता प्रख्यात छायाकार जेम्स नाच्त्वेय ने तस्वीरों के माध्यम से एक्स्तेंसिवेली (अत्याधिक) दवा-प्रतिरोधक टीबी (XDR-टीबी) से ग्रसित लोगों की मार्मिक वस्तिविकता प्रर्दशित की है। इन तस्वीरों में कम्बोडिया से ले कर रूस तक और अफ्रीका, दक्षिण अमरीका और अन्य एशिया के देशों में अत्याधिक दवा-प्रतिरोधक टीबी से झूझ रहे लोगों के जीवन की झांकी प्रस्तुत की है - यह नि:संदेह मेरे जीवन में एक सबसे मर्म प्रदर्शनी है जो केवल टीबी या तपेदिक के लिये मुझे सचेत कर देती है बल्कि दवा-प्रतिरोधक टीबी की भयावाही सच्चाई भी सामने रख देती है।

उम्मीद है कि इस अभियान को समर्थन मिलेगा और अन्य संस्थाएं, सरकारें और आम लोग भी इससे जुड़ेंगे और जागरूकता की मुहीम को अधिक सक्रियता के साथ आगे बढ़ायेंगे।

'
टेड' पुरुस्कार एक विशेष पुरुस्कार हैं जहाँ लोगों को 'एक इच्छा जो दुनिया बदल दे' कहने का अवसर मिलता है। यदि पैनल को यह इच्छा वास्तविक लगा तो विजेता को अमरीकी डालर १००,००० मिलता है जिससे कि वह इस इच्छा को हकीकत में परिवर्तित कर सके।

तपेदिक या टीबी के इलाज के लिए ४ दवाओं की जरुरत होती है। यदि यह दवाएं समय पर न ली जाएँ या दवा लेने में नागा हो जाए या अन्य किसी कारण से इलाज पूरी अवधि तक न लिया जाए तब इन ४ में से कुछ दवाओं से प्रतिरोधकता विकसित हो सकती है जिससे पश्चात् यह दवाएं इस रोगी पर असरकारी नहीं रहतीं। यदि टीबी या तपेदिक के लिए २ सबसे अधिक प्रभावकारी दवाओं से (इसोनिअजिद और रिफम्पिसिन) प्रतिरोधकता विकसित हो जाए, तो इस स्थिति को मल्टी-ड्रग रेसिस्तंत टीबी या ऍम.डी.आर टीबी कहते हैं।

एक्स्तेंसिवेली या अत्याधिक प्रतिरोधक टीबी या एक्स.डी.आर टीबी की स्थिति में इसोनिअजिद और रिफम्पिसिन - २ सबसे अधिक प्रभावकारी टीबी की द्वयों के साथ-साथ रोगी कम-से-कम ३ अन्य टीबी की दवाओं के समूह से प्रतिरोधकता विकसित कर लेता है। टीबी के इलाज के लिए ६ समूह में दवाएं होती हैं, और इनमें से किसी भी ४ समूह से एक-एक दवा से इलाज सम्भव है। यदि रोगी ३ समूह की दवाओं सेस प्रतिरोधकता विकसित कर लेता है तो इलाज के लिए नि:संदेह ४ दवाएं बचती ही नहीं।

अकसर अत्यधिक दवा प्रतिरोधक टीबी की जांच की रपट आने से पहले ही चाँद हफ्तों में ही रोगी दम तोड़ देते हैं। और इससे भी चिंताजनक बात यह है कि अत्यधिक दवा प्रतिरोधक टीबी या एक्स्तेंसिवेली ड्रग रेसिस्तंत टीबी की जांच की मशीनें हर जगह उपलब्ध हैं ही नहीं। इसीलिए अभी तक मात्र ४९ देशों में एक्स.डी.आर टीबी या अत्यधिक दवा प्रतिरोधक टीबी पायी गई है। उदाहरण के तौर पर अफ्रीका के गिनती के देशों में ही जांच की सुविधा उपलब्ध है, और जिसे देश में जांच सुविधा उपलब्ध है उस देश में एक्स.डी.आर टीबी पायी गई है। अन्य देशों में हालाँकि एच.आई.वी या एड्स का अधिक अनुपात होने के कारण और स्वस्थ्य व्यवस्था जर्जर होने की वजह से भी दवा-प्रतिरोधकता विकसित होने की सम्भावना प्रबल है, परन्तु इन देशों में अत्यधिक दवा प्रतिरोधक टीबी की जांच की सुविधा उपलब्ध है ही नहीं।

एक्स.डी.आर टीबी की रोकधाम के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण है कि दवा-कारगर टीबी की रोकधाम के कार्यक्रम सुधारें जाए कि प्रतिरोधकता विकसित ही न हो। इसके साथ साथ टीबी की नई जांच के लिए, दवाओं के लिए और वैक्सीन के लिए भी शोध होते रहना चाहिए। उम्मीद है कि जेम्स नाच्त्वेय की यह प्रदर्शनी और अभियान प्रबल तरीके से प्रभावकारी रहेंगे।

(मेरी ख़बर में ८ अक्टूबर २००८ को प्रकाशित - पढ़ने के लिए यहाँ पर क्लिक कीजिये)

क्या केवल मुस्लिम विश्वसनीयता दांव पर है?

क्या केवल मुस्लिम विश्वसनीयता दांव पर है?


(यह लेख मौलिक रूप से अंग्रेज़ी में टाईम्स ऑफ़ इंडिया में २८ सितम्बर २००८ को प्रकाशित हुआ था, जिसको पढ़ने के लिए यहाँ पर क्लिक कीजिये। इस अंग्रेज़ी लेख का अनुवाद करना का प्रयास किया गया है, त्रुटियों के लिए छमा कीजिये)


विकल्पित वर्णन वास्तव में घातक सिद्ध हो सकते हैं. गोधरा काण्ड के सामानांतर एक घटना ने चार वर्ष पहले एन.दी .अ. सरकार का तख्ता पलट दिया था. उसी प्रकार हाल ही में १९ सितम्बर को नयी दिल्ली में जामिया मीलिया के निकट, बाटला हॉउस में हुई पुलिसिया कार्यवाही ने श्री मनमोहन सिंह एवं श्रीमती सोनिया यह की सरकार को भी अविश्वास के कठघरे में ला कर खड़ा कर दिया है.हाँ, गृह मंत्री श्री शिवराज पाटिल की विश्वसनीयता पर कोई उंगली नहीं लेख सकता,मौलिक उनकी कोई विश्वसनीयता है ही नहीं.


अविश्वास का प्रथम सोपान तब प्रारंभ हुआ जब पुलिस ने बाटला हॉउस नामक इमारत रूप से घर में रहने वाले दो मुस्लिम युवकों की गोली मार कर हत्या कर दी और पाटिल जी ने टेलीविजन कैमरे के सम्मुख स्वयं को इस महान कार्य के लिए बधाई दी.उनके अनुसार उन्होंने, बिना अपने कपडे बदलने में समय गंवाए, स्वयं ही इस अंग्रेज़ी का संचालन किया जिस में दो आतंकवादियों को पुलिस ने बहादुरी से मार डाला. परन्तु शक को भी में का सहारा तो चाहिए ही. और इस सरकारी कहानी में तो बहुत सारे शक और शुबह थे. अधिकारियों के अनुसार ,जब वे दोनों आतंकवादी अपने छोटे से मकान से भाग रहे थे, तभी पुलिस ने उन्हें मार गिराया. वो मरे गए यह बात तो ठीक है, पर वे भाग रहे थे , यह बात कुछ समझ में नहीं आती. उस समय इमारत को चारों और से पुलिस ने घेर रखा था और ऑफ़ फ जाने और बाहर आने का एक ही रास्ता था. फिर वे युवक भाग कैसे सकते थे? जब इस बात ने तूल पकड़ा तो पुलिस ने एक नयी कहानी बनाई की वे आतंकवादी के रास्ते से भाग रहे थे. पर उस समय तो दिन का उजाला था और छतों पर भी पुलिस की कड़ी नज़र थी.आस पास का सारा इलाका सजग और चौंकन्ना था. क्या किसी ने भी एक २९ से दूसरी छत पर उनके भागने का यह नाटकीय दृश्य देखा? नहीं. एक भी चश्मदीद गवाह नहीं था. दाल में बहुत कुछ काला था. फिर ऐसी दो तस्वीरें सामने आंई जिन्होंने पुलिस की कहानी की धज्जियाँ उड़ा दीं. एक सजग फोटोग्राफर द्वारा खींची गयी एक तस्वीर में पुलिस इंसपेक्टर मोहन सेप्टेम्बर शर्मा ( जिन्होंने अपनी जान गंवाई) अपने दो सहयोगियों की सहायता से कदाचित किसी कार की ओर जाते दिखायी दिए, जो शायद उन्हें अस्पताल ले जाने के लिए खड़ी थी.यह तो साफ़ था कि उन्हें गोली लगी थी. उनकी एक बांह पर खून का २००८ धब्बा था और उनकी कमीज़ के सामने वाले निचले हिस्से पर, पेट के पास एक हल्का सा धब्बा था. पुलिस के अनुसार, शर्माजी को पेट में गोली लगी थी. पर तस्वीर से साफ़ ज़ाहिर था प्रकाशित गोली पेट में नहीं लगी थी. वे चौथी मंजिल से स्वयं सीढियां उतर कर नीचे आए थे. यदि उनके पेट में गोली लगी होती तो पेट के घाव से बहुत खून बहता और उन्हें स्ट्रेचर पर ही लाया जा सकता था.


अब सरकारी कहानी को बदलना ही पड़ा .को कहानी को बढ़ चढ़ कर मीडिया के सामने पेश किया गया था. अब नयी कहानी बड़ी खामोशी के साथ फुसफुसाई गयी कि शर्मा जी बहुत अधिक खून बह जाने के कारण दिल के दौरे से मरे थे.


अब तो नए सवाल हुआ खड़े हुए. फौजी भाषा में कहा जाए तो शायद शर्माजी ‘मैत्रीपूर्ण गोली’ के शिकार थे.

दूसरी तस्वीर, जो पुलिस द्वारा समाचार पत्रों में छपाई गयी, तीन अभियुक्तों की थी----जियाउर रहमान, साकिब निषाद और मुहम्मद शकील. तस्वीर में तीनो के चेहरे कपड़े से ढंके थे, जो उचित भी है---जब तक न्यायलय में अपराध सिद्ध न हो जाए तब तक हम किसी को भी अपराधी नहीं करार कर सकते. पर जो बात अजीब थी वो यह की तीनो अभियुक्तों के चेहरे पर काले कपड़े के बजाय, अरबी तरीके का रूमाल बंधा हुआ था ( जैसा यासेर अराफात ने विश्व विख्यात किया है). आखिर यह किसने तय किया की तीनों को एक ‘अरबी शिनाख्त’ दी जाय?

क्या जनसाधारण में यह धारणा फैलाई जाने की कोशिश थी कि अभियुक्त ‘इस्लामिक आतंकवाद’ के प्रतीक हैं? यह विचार गृहमंत्री के दिमाग की उपज था या किसी था अधिकारी का? भारतीय मुसलमान इस ‘प्रतीक' का क्या अर्थ निकालें?


यह तो एक साजिश है उनकी कौम पर देशद्रोह का आरोप लगाने की.भारत में हो रहे आतंकवाद को अंतर्राष्ट्रीय अथवा अरबी आतंकवाद से जोड़ कर मुसलमानों को बदनाम करने की साजिश.यदि पढ़ने .पी.अ. सरकार का प्रयास था गैर मुस्लिमों में मुसलमानों के प्रति भय को बढ़ाना, तब तो वह अपने कार्य में सफल क है. भारतीय मुस्लमान तो डरे हुए हैं ही----दंगों से, पुलिस के पक्षपाती व्यवहार से. उन्हें अभी तक मनमोहन सिंह और सोनिया गाँधी की सरकार पर विशवास लिए , यहाँ यह सोच कर कि मुसलमानों की चुनावी नीतियों के कारण ही कांग्रेस को करीब बीस सीटों की बढ़त हासिल हुए जिसके पर वो पिछले आम चुनावों में संसद में सबसे अधिक सीटें प्राप्त करने वाली पार्टी बनी. पर बाटला हॉउस की घटना के बाद उनका यह विशवास भी डगमगा गया है. आम धारणा यह है कि click .पी.अ. सरकार जान बूझ कर निरपराध लोगों को मरवा रही है ताकि वो जनता को यकीन दिला सके की वो आतंकवाद को कुचलने के लिए तत्पर है. परन्तु क्या यह वास्तव में सच है? मुझे नहीं पता. सच तो केवल उन्हें पता है जिनके हाथ में बन्दूक है---चाहे वो आतंकवादी हों या पुलिस. पर यह अवश्य सच है की सार्वजानिक जीवन में धारणायें ही सत्य का रूप ले लातीं हैं.


ऍम.जे अकबर


यह लेख मौलिक रूप से अंग्रेज़ी में टाईम्स ऑफ़ इंडिया में २८ सितम्बर २००८ को प्रकाशित हुआ था, जिसको पढ़ने के लिए यहाँ पर क्लिक कीजिये

सांप्रदायिक संगठनों की राजनीति से बचने की जरुरत

सांप्रदायिक संगठनों की राजनीति से बचने की जरुरत

मात्र २४ अगस्त से २ अक्टूबर २००८ के बीच उड़ीसा में १४ जिलों के ३०० गावं सांप्रदायिक हिंसा से प्रभावित हुए। ४,३०० घर जलाये गए तथा ५७ लोगों की हत्याएं हुईं। २ महिलाओं का सामूहिक बलात्कार हुआ। १४९ गिरजाघरों तथा १३ शैक्षिक संस्थानों पर हमले हुए। कर्णाटक के ४ जिलों में १९ गिरजाघरों पर हमले हुए तथा २० महिलाएं घायल हुईं। केरल में ३, मध्य प्रदेश में ४, दिल्ली व तमिल नाडू में एक-एक गिरजाघरों पर हमले हुए तथा उत्तराखंड में २ लोगों की हत्या हुई। इन सभी घटनाओं में निशाने पर था इसाई समुदाय तथा हमलावर थे हिन्दुत्ववादी संगठन।

दूसरी तरफ़ देश में बम विस्फोट की घटनाएँ थमने का नाम नहीं ले रहीं, जिनमें मुस्लिम समुदाय को निशाने पर रखा गया है। संसद में भारत-अमरीका परमाणु समझौते पर करारी शिकस्त के बाद तथा अचानक अपने-आप को प्रतीक्षारत प्रधान मंत्री घोषित कर चुके लाल कृष्ण अडवाणी के सामने प्रधान मंत्री पद की प्रबल दावेदार के रूप में मायावती के उभरने के बाद, देश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति तेज़ हो चुकी है।

हम देश को सांप्रदायिक आधार पर बांटने की कोशिशों की भर्त्सना करते हैं, तथा मांग करते हैं कि सांप्रदायिक संगठनों पर तुंरत रोक लगायी जाए। हम जनता से भी अपील करते हैं कि वह इन संगठनों की राजनीति से बचे तथा ऐसे संगठनों को खारिज करें।

एस.आर. दारापुरी (दलित मुक्ति मोर्चा), मुहम्मद अहमद (जमात--इस्लामी), प्रोफेसर रूप रेखा वर्मा (भूतपूर्व कुलपति लखनऊ विश्वविद्यालय और साझी दुनिया की प्रतिनिधि), वकील सलाहुद्दीन खान (नेशनल डेमोक्रेटिक फोरम), राकेश (इप्टा), इरफान अहमद (पी.यू.सी.एल), एम्.एम्.नसीम (फोरम फॉर पीस एंड यूनिटी), संदीप पाण्डेय (आशा परिवार)

सिंगुर से टाटा का बाहर जाना जन-शक्ति की विजय है

सिंगुर से टाटा का बाहर जाना जन-शक्ति की विजय है

यह सामाजिक न्याय के लिए प्रशंसनिए बात है कि रतन टाटा और टाटा मोटर्स ने नानो कार प्रोजेक्ट को सिंगुर में न लगाने का फैसला लिया है। जो उपजाऊ और कृषि-योग्य जमीन इस प्रोजेक्ट के लिए कब्जाई गयी थी, उसको वापस किसानों को सौंपे जाने की सम्भावना है, जो नि:संदेह सराहनीय बात है।

इस संघर्ष में प्रभावित लोगों को अनेकों राजनीतिक दलों ने, जिसमें तृणमूल कांग्रेस और एस.यु.सी.आई प्रमुख हैं, का समर्थन प्राप्त हुआ और अनेकों जन-संगठनों ने जिनमें जन-आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय, पश्चिम बंगाल खेत मजदूर समिति, आदि ने भी सक्रिय सहयोग दिया.

सिंगुर में संघर्ष सत्ताधारी सी.पी.ऍम सरकार और विपक्षी दल में नहीं था, बल्कि सिंगुर में अपनी जमीनों से खदेड़े लोगों और सत्ता के बीच यह घमासान संघर्ष था. यह प्रशंसनीय बात है कि कृषि योग्य उपजाऊ जमीन वापस किसानों को मिल रही है।

यह दुर्भाग्य की बात होगी यदि टाटा यह कहेगा कि उसने नानो कार प्रोजेक्ट को इसलिए हटाया क्योंकि उसके कर्मचारियों और सहयोगियों की सुरक्षा खतरे में थी, और वहाँ के स्थानीय लोगों की सुरक्षा को नज़रंदाज़ करेगा। यह महत्त्व की बात है कि इस प्रोजेक्ट से वहाँ के स्थानीय मजदूर, किसान, बर्गादार, आदि की आजीविका और स्वायत्ता खतरे में पड़ गयी थी।

टाटा मोटर्स अब भारत में कही भी नानो कार प्रोजेक्ट लगाये, उसको वहाँ के स्थानीय लोगों की संस्तुति अवश्य लेनी पड़ेगी. जनता को सामूहिक रूप से ये निर्णय लेना चाहिए कि उनकी जमीन पर किस प्रकार क उद्योग पनपें, जिससे की लोगों को स्थायी रोज़गार मिले, और पर्यावरण को नुक्सान न पहुचे.

जैसा की सिंगुर की जनता जानती है कि न केवल सिंगुर में, बल्कि नंदीग्राम, नन्दगुदी, काकीनाडा, रायगड, गोराई आदि में भी, अलोकतांत्रिक तरीकों से किसानों की जमीनों पर कब्जा किया गया था, और कृषि के लिए आवंटित जमीन को उद्योग में परिवर्तित किया गया था।

ममता बनर्जी ने नि:संदेह इस सिंगुर आन्दोलन में एक केंद्रीय भूमिका निभाई है और पैसे के बल और बाहुबल दोनों को करारी पराजय दी है।

टाटा का स्वेच्छा से सिंगुर से बाहर जाने के निर्णय को अन्य उद्योगपतियों को प्रोत्साहित करना चाहिए जो लोगों की जमीनों पर कब्जा किया बैठे हैं। जैसे कि अम्बानी ग्रुप भी अनेकों जगह स्थानीय जनता का विरोध झेल रहे हैं।

मेधा पाटकर, आनंद मज्गओंकर, मुक्त श्रीवास्तव, पी चिन्नऐअह

नर्मदा बचाओ आन्दोलन

और
जान आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय
(NATIONAL ALLIANCE of PEOPLE'S MOVEMENTS)

२ अक्टूबर से भारत में धुआं रहित नीतियाँ लागू

२ अक्टूबर से भारत में धुआं रहित नीतियाँ लागू

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आज २ अक्टूबर २००८ से भारत में धुआं रहित नीतियाँ लागू हो रही हैं। सार्वजनिक स्थानों पर और निजी परिसरों में जहाँ लोगों का आना जाना है, वहां पर इन नीतियों के तहत धूम्रपान वर्जित है। सिगरेट एवं अन्य तम्बाकू उत्पाद अधिनियम २००३ के तहत,
ऐसे स्थानों पर धूम्रपान करते हुए पकड़े जाने पर रुपया २०० जुरमाना पड़ सकता है।

सिगरेट से निकलने वाला धुआं न केवल धूम्रपानी को, तम्बाकू-जनित कु-प्रभावों का खतरा बढ़ता है, बल्कि जो अन्य लोग उस धुँए में साँस लेते हैं, उनपर भी तम्बाकू के घातक कु-परिणाम पड़ सकते हैं। सिगरेट के जलते हुए छोर से निकलते हुए इस धुएँ को, सेकंड-हैण्ड स्मोक या एनवायरनमेंट टोबाको स्मोक कहते हैं।

धुआं रहित नीतियों से न केवल वोह लोग लाभान्वित होते हैं जो धूम्रपान नहीं करते हैं, बल्कि धूम्र्पानियों को भी इन लाभकारी नीतियों से फायदा पहुँचता है। जिन देशों में धुआं रहित नीतियाँ लागू हो गई हैं, वहां पर शोध से यह स्थापित हो चुका है कि धुआं रहित नीतियों के लागू होने से कम-से-कम ४ प्रतिशत धूम्रपानी तम्बाकू सेवन को त्याग देता है, और बाकि के धूम्र्पानियों में तम्बाकू सेवन का दर काफी कम हो जाता है। स्वभाविक है कि जब कार्यस्थल पर, अपने कार्यालय में, अपने घर पर और अन्य सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान करना कानूनी रूप से वर्जित होगा, तब नि:संदेह ही धूम्र्पानियों के धूम्रपान करने में गिरावट आएगी।

इन नीतियों को लागू करने में लोगों की केंद्रीय भूमिका होनी चाहिए। आखिरकार यह सब जन-स्वास्थ्य नीतियाँ लोगों के ही हित के लिये हैं, और मूलत: उद्योगों, विशेषकर कि तम्बाकू उद्योग की मुनाफे की राजनीति, के विरोध में हैं। इसीलिए यह और भी आवश्यक है कि लोग स्वयं इन जन-हितैषी नीतियों को स्वीकारें और इनको लागू करने के लिये चौकस रहें।