क्या केवल मुस्लिम विश्वसनीयता दांव पर है?
(यह लेख मौलिक रूप से अंग्रेज़ी में टाईम्स ऑफ़फ इंडिया में २८ सितम्बर २००८ को प्रकाशित हुआ था, जिसको पढ़ने के लिए यहाँ पर क्लिक कीजिये। इस अंग्रेज़ी लेख का अनुवाद करना का प्रयास किया गया है, त्रुटियों के लिए छमा कीजिये)
विकल्पित वर्णन वास्तव में घातक सिद्ध हो सकते हैं. गोधरा काण्ड के सामानांतर एक घटना ने चार वर्ष पहले एन.दी .अ. सरकार का तख्ता पलट दिया था. उसी प्रकार हाल ही में १९ सितम्बर को नयी दिल्ली में जामिया मीलिया के निकट, बाटला हॉउस में हुई पुलिसिया कार्यवाही ने श्री मनमोहन सिंह एवं श्रीमती सोनिया यह की सरकार को भी अविश्वास के कठघरे में ला कर खड़ा कर दिया है.हाँ, गृह मंत्री श्री शिवराज पाटिल की विश्वसनीयता पर कोई उंगली नहीं लेख सकता,मौलिक उनकी कोई विश्वसनीयता है ही नहीं.
अविश्वास का प्रथम सोपान तब प्रारंभ हुआ जब पुलिस ने बाटला हॉउस नामक इमारत रूप से घर में रहने वाले दो मुस्लिम युवकों की गोली मार कर हत्या कर दी और पाटिल जी ने टेलीविजन कैमरे के सम्मुख स्वयं को इस महान कार्य के लिए बधाई दी.उनके अनुसार उन्होंने, बिना अपने कपडे बदलने में समय गंवाए, स्वयं ही इस अंग्रेज़ी का संचालन किया जिस में दो आतंकवादियों को पुलिस ने बहादुरी से मार डाला. परन्तु शक को भी में का सहारा तो चाहिए ही. और इस सरकारी कहानी में तो बहुत सारे शक और शुबह थे. अधिकारियों के अनुसार ,जब वे दोनों आतंकवादी अपने छोटे से मकान से भाग रहे थे, तभी पुलिस ने उन्हें मार गिराया. वो मरे गए यह बात तो ठीक है, पर वे भाग रहे थे , यह बात कुछ समझ में नहीं आती. उस समय इमारत को चारों और से पुलिस ने घेर रखा था और ऑफ़ फ जाने और बाहर आने का एक ही रास्ता था. फिर वे युवक भाग कैसे सकते थे? जब इस बात ने तूल पकड़ा तो पुलिस ने एक नयी कहानी बनाई की वे आतंकवादी के रास्ते से भाग रहे थे. पर उस समय तो दिन का उजाला था और छतों पर भी पुलिस की कड़ी नज़र थी.आस पास का सारा इलाका सजग और चौंकन्ना था. क्या किसी ने भी एक २९ से दूसरी छत पर उनके भागने का यह नाटकीय दृश्य देखा? नहीं. एक भी चश्मदीद गवाह नहीं था. दाल में बहुत कुछ काला था. फिर ऐसी दो तस्वीरें सामने आंई जिन्होंने पुलिस की कहानी की धज्जियाँ उड़ा दीं. एक सजग फोटोग्राफर द्वारा खींची गयी एक तस्वीर में पुलिस इंसपेक्टर मोहन सेप्टेम्बर शर्मा ( जिन्होंने अपनी जान गंवाई) अपने दो सहयोगियों की सहायता से कदाचित किसी कार की ओर जाते दिखायी दिए, जो शायद उन्हें अस्पताल ले जाने के लिए खड़ी थी.यह तो साफ़ था कि उन्हें गोली लगी थी. उनकी एक बांह पर खून का २००८ धब्बा था और उनकी कमीज़ के सामने वाले निचले हिस्से पर, पेट के पास एक हल्का सा धब्बा था. पुलिस के अनुसार, शर्माजी को पेट में गोली लगी थी. पर तस्वीर से साफ़ ज़ाहिर था प्रकाशित गोली पेट में नहीं लगी थी. वे चौथी मंजिल से स्वयं सीढियां उतर कर नीचे आए थे. यदि उनके पेट में गोली लगी होती तो पेट के घाव से बहुत खून बहता और उन्हें स्ट्रेचर पर ही लाया जा सकता था.
अब सरकारी कहानी को बदलना ही पड़ा .को कहानी को बढ़ चढ़ कर मीडिया के सामने पेश किया
अब तो नए सवाल हुआ खड़े हुए. फौजी भाषा में कहा जाए तो शायद शर्माजी ‘मैत्रीपूर्ण गोली’ के शिकार थे.
दूसरी तस्वीर, जो पुलिस द्वारा समाचार पत्रों में छपाई गयी, तीन अभियुक्तों की थी----जियाउर रहमान, साकिब निषाद और मुहम्मद शकील. तस्वीर में तीनो के चेहरे कपड़े से ढंके थे, जो उचित भी है---जब तक न्यायलय में अपराध सिद्ध न हो जाए तब तक हम किसी को भी अपराधी नहीं करार कर सकते. पर जो बात अजीब थी वो यह की तीनो अभियुक्तों के चेहरे पर काले कपड़े के बजाय, अरबी तरीके का रूमाल बंधा हुआ था ( जैसा यासेर अराफात ने विश्व विख्यात किया है). आखिर यह किसने तय किया की तीनों को एक ‘अरबी शिनाख्त’ दी जाय?
क्या जनसाधारण में यह धारणा फैलाई जाने की कोशिश थी कि अभियुक्त ‘इस्लामिक आतंकवाद’ के प्रतीक हैं? यह विचार गृहमंत्री के दिमाग की उपज था या किसी था अधिकारी का? भारतीय मुसलमान इस ‘प्रतीक' का क्या अर्थ निकालें?
यह तो एक साजिश है उनकी कौम पर देशद्रोह का आरोप लगाने की.भारत में हो रहे आतंकवाद को अंतर्राष्ट्रीय अथवा अरबी आतंकवाद से जोड़ कर मुसलमानों को बदनाम करने की साजिश.यदि पढ़ने .पी.अ. सरकार का प्रयास था गैर मुस्लिमों में मुसलमानों के प्रति भय को बढ़ाना, तब तो वह अपने कार्य में सफल क है. भारतीय मुस्लमान तो डरे हुए हैं ही----दंगों से, पुलिस के पक्षपाती व्यवहार से. उन्हें अभी तक मनमोहन सिंह और सोनिया गाँधी की सरकार पर विशवास लिए , यहाँ यह सोच कर कि मुसलमानों की चुनावी नीतियों के कारण ही कांग्रेस को करीब बीस सीटों की बढ़त हासिल हुए जिसके पर वो पिछले आम चुनावों में संसद में सबसे अधिक सीटें प्राप्त करने वाली पार्टी बनी. पर बाटला हॉउस की घटना के बाद उनका यह विशवास भी डगमगा
ऍम.जे अकबर
यह लेख मौलिक रूप से अंग्रेज़ी में टाईम्स ऑफ़फ इंडिया में २८ सितम्बर २००८ को प्रकाशित हुआ था, जिसको पढ़ने के लिए यहाँ पर क्लिक कीजिये