एक गांव के सामूहिक संघर्ष की प्रेरणादायक कहानी

एक गांव के सामूहिक संघर्ष की प्रेरणादायक कहानी

हरदोई जिले की पंचायत रामपुर अटवा का गांव है जमुनीपुर। गांव के सभी 424 मतदाताओं ने आम चुनाव का पूर्ण बहिष्कार किया। उनका कहना था कि पिछले नौ वर्षों से गांव में कोई भी विकास का कार्य नहीं हुआ था। चुनाव के दिन सभी गांववासी मतदाता केन्द्र के सामने बैठे रहे।

वैसे तो चुनाव बहिष्कार इस इलाके के ग्यारह गांवों ने किया किन्तु जमुनीपुर के लोग चुनाव के बाद भी चुप नहीं बैठे । 13 जून, 2009, को उन्होंने गांव के अन्दर ही धरना शुरू दिया। उन्हें कहीं जाने की जरूरत महसूस नहीं हुई - न तो खण्ड विकास कार्यालय, न ही तहसील और न ही जिला मुख्यालय। उनका विश्वाश कि उनकी बात गांव में ही सुनी जाएगी। सारे फैसले ग्रामीण खुद ही ले रहे थे। उनके धरने की खबर आखिर समाचारपत्रों के माध्यम से अधिकारियों तक पहुंची। तीन बार वार्ता के लिए खण्ड विकास अधिकारी आए और आखिर में उप जिलाधिकारी आए। दोनों अधिकारियों के गांव में विकास कार्य शुरू के आश्वाशन देने के बाद धरना 3 जुलाई को समाप्त हुआ।

जमुनीपुर के साथ मुख्य दिक्कत यह है कि जिस पंचायत से यह गांव जुड़ा हुआ है उस गांव की दूरी यहां से दस किलोमीटर है। ग्राम प्रधान इतनी दूर रहता है कि उसे गांव के विकास में कोई रुचि ही नहीं है। इस गांव के मतों के बगैर भी वह ग्राम प्रधान का चुनाव जीत जाता है तो उसे इस गांव की कोई परवाह भी नहीं। प्रधान का नाम है दया शंकर। इससे पहले उन्हीं की पत्नी प्रधान थीं।

धरना देने के बाद गांव में रोजगार गारण्टी योजना के तहत काम शुरू हो गया। गांव वालों ने खुद ही फैसला करके एक तालाब खोदने का निर्णय लिया। करीब डेढ़ सौ मजदूरों ने 19 दिन काम किया जिसकी पूरी मजदूरी करीब ढाई लाख रुपए वितरित हुई। मुख्य बात यह है कि ग्राम प्रधान की इच्छा के विरुद्ध यहां काम हुआ। धरने के दबाव में ग्राम प्रधान को अधिकारियों की बात मान कर यहां के काम में सहयोग करना पड़ा। चूंकि काम लोगों ने तय करके अपनी पहल पर किया था इसलिए उसकी गुणवत्ता बहुत अच्छी रही। एक खास बात यहां यह रही कि गांव की महिलाओं ने धरने में व रोजगार गारण्टी के काम में भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। आमतौर पर इस इलाके में रोजगार गारण्टी में 33 प्रतिशत के काम करने के मानक का पालन नहीं हो पाता। किन्तु जमुनीपुर में 33 प्रतिशत से अधिक महिलाओं ने काम किया।

गांव वालों की मांग पर चालीस शौचालय कागज पर बने दिखाए गए थे किन्तु वास्तव में नहीं बने थे पर भी जांच का काम शुरू हो गया। खण्ड विकास अधिकारी ने इन शौचालयों के पैसे को ग्राम पंचायत के खाते में वापसी की कार्यवाही प्रारम्भ कर दी है।

उधर गांव के ही एक निवासी श्रीपाल ने ग्राम पंचायत के आय-व्यय के ब्यौरे की नकल सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत मांग ली है। नियत समय बीत जाने के बाद जब यह नहीं मिला तो प्रथम अपीलीय अधिकारी के यहां अपील की गई। वहां भी जब बात नहीं बनी तो अंततः राज्य सूचना आयोग में द्वितीय अपील की गई है। इस बीच ग्राम पंचायत विकास अधिकारी का एक पत्र प्राप्त हुआ कि रु0 1226 शुल्क जमा कर मांगी गई सूचना प्राप्त कर लें। हलांकि सूचना के अधिकार अधिनियम के अनुसार यदि सूचना देने में एक माह से अधिक का विलम्ब होता है तो सूचना निःशुल्क मिलनी चाहिए। फिर भी गांव वालों में सामूहिक कार्यवाही का इतना उत्साह है कि उन्होंने चंदा करके यह पैसे भी जुटा लिए हैं। लेकिन अफसोस यह है कि वे जब ग्राम पंचायत विकास अधिकारी या खण्ड विकास कार्यालय से सूचना प्राप्त करने की कोशिश करते हैं तो उन्हें असफलता हाथ लगती है। ग्राम पंचायत विकास अधिकारी ने तो साफ कह दिया है कि सूचना नहीं मिलेगी।

फिलहाल लोगों का संघर्ष जारी है। रोजगार गारण्टी का काम कर कर उन्हें सूखे के समय में मजदूरी के रूप में कुछ नकद हासिल हो गए। प्राथमिक विद्यालय पर एक शौचालय का निर्माण शुरू हो गया है। पहले के विकास कार्यों में हुई गड़बड़ी की जांच शुरू हो गई है। उम्मीद है जल्दी ही गांव के आय-व्यय का ब्यौरा भी मिल जाएगा।

जमुनीपुर के लोगों ने दिखा दिया है कि किसी राजनीतिक दल के भरोसे बैठे रहना जरूरी नहीं है। न ही कियी भय, प्रलोभन या किसी जाति के प्रभाव में मत देना जरूरी है। यदि लोग खुद अपने दिमाग से फैसले लेने लगें और दलाल राजनीतिक व्यक्तियों से दूर रहें तो वे अपने दम पर अपना काम करा सकते हैं। जमुनीपुर अन्य गांवों के लिए भी, जहां विकास के काम न होने की शिकायत हो, प्रेरणा का स्रोत बन सकता है।

लेखकः संदीप पाण्डेय

(लेखक, मग्सय्सय पुरुस्कार से सम्मानित वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता हैं, जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (एन.ए.पी.एम्) के राष्ट्रीय समन्वयक हैं, लोक राजनीति मंच के राष्ट्रीय अध्यक्षीय मंडल के सदस्य हैं। सम्पर्क:ईमेल:(asha@ashram@yahoo-com, website: www-citizen&news-org )