तो आखिरकार तम्बाकू कंपनियों को हार माननी ही पड़ी

तो आखिरकार तम्बाकू कंपनियों को हार माननी ही पड़ी

सार्वजनिक स्थानों पर स्मोकिंग पर पूरी तरह बैन लगाने की केंद्र सरकार की अधिसूचना पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगाने से इनकार कर दिया है। सिगरेट बनाने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा अधिसूचना के कुछ हिस्सों पर स्टे लगाने के आग्रह को सुप्रीम कोर्ट ने ठुकरा दिया। सुप्रीम कोर्ट की हरी झंडी के बाद 2 अक्टूबर से देशभर में सार्वजनिक स्थलों पर स्मोकिंग करते पकड़े जाने पर 200 रुपये का जुर्माना भरना पड़ेगा।

जस्टिस बी. एन. अग्रवाल और जस्टिस जी. एस. सिंघवी की बेंच ने कहा कि कोई भी अदालत सुप्रीम कोर्ट के आदेश के विपरीत फैसला नहीं देगी। देशभर के विभिन्न हाई कोर्टों में स्मोकिंग बैन के खिलाफ दायर याचिकाओं के मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट ने यह आदेश दिया। सिगरेट बनाने वाली कंपनी आईटीसी और अन्य तीन कंपनियों द्वारा प्रतिबंध के खिलाफ दिल्ली हाई कोर्ट में दायर चार याचिकाओं को भी बेंच ने सुप्रीम कोर्ट में ट्रांसफर कर दिया।

इसमें कोई दो राए नहीं है की सरकार ने तम्बाकू नियंत्रण को प्रभावकारी बनाने में विभिन्न प्रकार के प्रयास किए हैं। जिसके तहत सरकार ने न केवल राष्ट्रीय स्तर पर बल्कि वैश्विक स्तर पर बनी तम्बाकू नियंत्रण संधि को प्रभावकारी बनाने की दिशा में भी अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। किंतु वैश्विक स्तर पर इतने प्रयासों के बावजूद भी तम्बाकू उत्पादों के प्रयोग में पिछले ५ सालों में वृद्धि देखि गई है। आख़िर इतने सारे प्रयासों के बावजूद तम्बाकू का प्रयोग इतना क्यो बढ़ता जा रहा है? इस सम्बन्ध में जिला तम्बाकू नियंत्रण सेल, लखनऊ के नोडल अधिकारी तथा बलरामपुर चिकित्सालय के मुख्य चिकित्सा अधिकारी श्री आर0 बी० अगरवाल का कहना है की "जबरदस्ती किसी को भी तम्बाकू का प्रयोग करने से नहीं रोका जा सकता, इसके लिए व्यक्ति को तम्बाकू के कुप्रभावों के बारे में संवेदनशील करना जरूरी है। उनका आगे कहना है की यद्यपी की सरकार ने प्रदेश और जिले स्तर पर तम्बाकू नियंत्रण सेल का गठन कर दिया है किंतु इस सेल को जिम्मेदारी और जबाबदेही के साथ काम करने की जरूरत है"।

तम्बाकू नियंत्रण सेल से हो सकता है की तम्बाकू उत्पाद अधिनियम को प्रभावी बनाने में मदद मिले किंतु वह लोग जो तम्बाकू से छुटकारा पाना चाहते हैं क्या उनके पहुँच में आसानी से कोई तम्बाकू नशा उन्मूलन केन्द्र की सुविधा उपलब्ध है। इस सम्बन्ध में पूछने पर तम्बाकू नशा उन्मूलन केन्द्र के प्रमुख प्रोफ़ेसर, डाक्टर रमाकांत का कहना है की "तम्बाकू नशा उन्मूलन केन्द्र ऐसे लोगों के लिए जो तम्बाकू प्रयोग से निजात पाना चाहतें हैं काफी लाभकारी होगी इसके लिए सरकार को प्रत्येक जिले के जिला चिकित्सालय और प्राथमिक स्वास्थय केन्द्रों पर कार्यरत चिकित्सकों को प्रशिक्षण दिए जाने की जरूरत है, जिसको बिना किसी अधिक अतिरिक्त आर्थिक सहायता से भी प्रभावकारी बनाया जा सकता है"। भारत में तम्बाकू उपभोग को रोकना एक गंभीर चुनौती है।

उत्तर प्रदेश देश का सबसे ज्यादा जनसँख्या वाला प्रदेश होने के वजह से यहाँ तम्बाकू द्वारा प्रभावित लोगों की संख्या काफी अधिक हो सकती हैं"। वैश्विक स्तर पर धुम्रपान को रोकने की लिए हमें न केवल तम्बाकू कंपनियों पर प्रतिबन्ध लगाने की जरूरत है बल्कि तम्बाकू नियंत्रण के लिए बनी वश्विक संधि और रास्ट्रीय स्तर पर बने अधिनियमों को भी प्रभावकारी करने की जरूरत है।

कई सारे शोधों के मुताबिक तम्बाकू उत्पादों पर लिखी वैधानिक चेतावनियाँ लोगों में तम्बाकू प्रयोग के अनुपात को कम कर सकती हैं। इसलिए तम्बाकू कम्पनियाँ ख़ुद तम्बाकू नियंत्रण की एक प्रभावकारी माध्यम हैं यदि वह अपने तम्बाकू उत्पाद के पैकेटों पर फोटो वाली चेतावनी और वैधानिक चेतावनी को सही तरीके से लगाते हैं।भारत में प्रतिदिन करीब ५,५०० नये युवा तम्बाकू का प्रयोग करते हैं और १५ साल से कम उम्र के करीब ४० लाख युवा तम्बाकू के उपभोगता हैं।

युवावों में तम्बाकू के बढ़ते चलन को लेकर भारत के स्वास्थय मंत्री श्री अम्बुमणि रामदोस ने भी अपनी चिंता जताई है। एक शोध के मुताबिक भारत में हर साल करीब १० लाख लोगों की मौत तम्बाकू द्वारा होने वाले रोगों से होती है, जिसमें से ७० प्रतिशत लोगों की मौत ३० से ६९ साल तक के उम्र की होती है। किसी भी देश के लिए इस उम्र के लोग सबसे ज्यादा उत्पादक माने जाते हैं।

अतः व्यापक स्तर पर तम्बाकू के प्रयोग और इसके कुप्रभावों को रोकने के लिए हमें सामूहिक तौर पर न केवल जिम्मेदारी लेन होगी बल्कि जिम्मेदार भी बनाना होगा। यदि तम्बाकू कम्पनियाँ जन- स्वास्थय की इतनी बड़ी हितैषी हैं तो इस प्रतिबन्ध में उनको सरकार को सहयोग प्रदान करना चाहिए। आख़िर कब तक मुनाफे के पीछे यह कम्पनियाँ लोगों की जान लेती रहेंगी।

अमित द्विवेदी

(लेखक, सिटिज़न न्यूज़ सर्विस के विशेष संवाददाता हैं)

* यह लेख, अक्टूबर २००८ को मेरी ख़बर में प्रकाशित हुआ है)


आतंकवाद के मूल में हिन्दुत्ववादी संगठन

आतंकवाद के मूल में हिन्दुत्ववादी संगठन
डॉ संदीप पाण्डेय

अब तो आतंकवादी घटनाओं ने पूरे देश को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। चारों तरफ असुरक्षा का माहौल है। कब कहाँ अगला विस्फोट हो जाए किसी को मालूम नहीं। बम विस्फोट वाली घटनाएँ पहले से ज्यादा होने लगी हैं। पहले पाकिस्तानी, फिर बंगलादेशी आतंकवादी संगठनों की और अब 'सिमी' की लिप्तता इनमें बताई जाती रही है। लेकिन ठीक से किसी को नहीं मालूम। संचार माध्यम पुलिस की ही बताई बातों को परोसते हैं। जो मुस्लिम युवक आरोपी के रूप में पकड़े जाते है उनके खिलाफ सिवाए पुलिस हिरासत में लिए गए उनके इकबालिया बयान के कोई ठोस सबूत नहीं होता। जिसकी वजह से कुछ बरी भी हो गए। किन्तु ज्यादातर सौभाग्यशाली नहीं होते और उन्हें वर्षों कारावास में बिताना पड़ता है।

भारत में बम विस्फोट किस्म की आतंकवादी घटनाओं की शुरुआत हुई है अयोध्या में बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद से। और इनमें तेजी आई है सन् २००१ में हुए अमरीका में आतंकवादी हमले के बाद से। बाबरी मस्जिद का गिराया जाना भारत की सबसे बडी आतंकवादी घटना थी जिसमें दिन दहाड़े हजारों लोगों ने कानून और व्यवस्था की धज्जियाँ उड़ा दीं। उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार, जिसने सर्वोच्च न्यायालय को संविधान की रक्षा का वचन दिया हुआ था, इस आपराधिक कार्यवाही में भागीदार बन गयी। उस दिन हिन्दुत्ववादी संगठन के कार्यकर्ताओं ने लोकतंत्र का माखौल उड़ाते हुए नंगा नाच किया। इस घटना से इन संगठनों को हिंदू मत के ध्रुवीकरण में मदद मिली तथा केन्द्र में भाजपा सरकार के गठन से एक प्रकार से सांप्रदायिक राजनीति को वैधता मिल गई। कायदे से तो लोकतंत्र में सांप्रदायिक विचार, जिसका आधार दोसरे के प्रति नफरत होता है, की कोई जगह ही नहीं होनी चाहिए। किन्तु दुर्भाग्य से हमारी लोकतान्त्रिक व्यवस्था का लाभ उठाते हुए यह विचार भारत की संसदीय राजनीति में पिछले दरवाजे से प्रवेश कर गया है तथा अब घुन की तरह उससे चिपक कर अन्दर से उसे खोखला करना में लगा हुआ है।

सांप्रदायिक राजनीति ने अपने को स्थापित कराने व बनाए रखने के लिए हमेशा हिंसा का सहारा लिया है। महात्मा गाँधी की हत्या, बाबरी मस्जिद का ध्वंस व परमाणु हथियारों का परीक्षण इस राजनीति का चरण बद्ध अभियान है। समय-समय पर हुए सांप्रदायिक दंगों ने भी इसे आगे बढ़ाया है। निश्चित रूप से इसकी प्रतिक्रिया भी हुई है तथा कट्टरपंथी मुस्लिम संगठनों को भी अपनी राजनीति को आगे बढ़ाने का मौका मिला है। जो सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पहले दंगों से होता था वह अब बम विस्फोट की घटनाओं से हो रहा है। हरेक बम विस्फोट की धटना के बाद बिना किसी सबूत या जाँच पड़ताल के तुंरत कुछ देशी-विदेशी मुस्लिम संगठनों को जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है। जिस तरह से पहले सांप्रदायिक दंगों को लेकर राजनीति होती थी ठीक उसी तरह की राजनीति बम विस्फोट की घटनाओं को लेकर हो रही है। यह परिवर्तन जब से हम एक तरफा घोषणा करके अमरीका के 'आतंकवाद के ख़िलाफ़ युद्ध’ में सहयोगी बने हैं तब से आया है। इस्लाम को आतंकवाद का पर्याय बताने वाली राजनीति में हम शामिल हो गए हैं। जैसे-जैसे इन घटनाओं से निबटने के लिए और कठोर उपाए अपनाये जा रहे हैं, इनमें इजाफा ही हो रहा है।

ज्यादातर आतंकवादी घटनाओं में पुलिस मुख्य अपराधियों को पकड़ने में नाकाम रही है। उदाहरण के लिए संसद पर हुए हमले में यह अभी तक मालूम नहीं कि हमला किसने करवाया था। इस मामले में मोहम्मद अफजल गुरू को फांसी की सजा जरूर हुई है लेकिन उसका सीधे-सीधे हमले की कार्यवाही में या उसकी तैयारी में शामिल होना साबित नहीं हो पाया है। इसी तरह अन्य आतंकवादी घटनाओं में जो लोग पकड़े जा रहे हैं उनके खिलाफ भी पुलिस के पास कोई ठोस सबूत नहीं है। गिरफ्तार किए जाने वाले सारे मुस्लिम युवक हैं। इसके विपरीत कुछ ऐसी बम विस्फोट की घटनाएँ हुई हैं, जैसे अप्रैल २००६ में नांदेड़, महाराष्ट्र में, जनवरी २००८ में तमिल नाडू के तिरुनेलवेल्ली जिले स्थित तेनकाशी में, जून २००८ में गड़करी रंगायतन, महाराष्ट्र में तथा अगस्त २००८ में कानपुर में, जिनमें हिन्दुत्ववादी संगठनों की लिप्तता सिद्ध हुई है। हाल ही में अयोध्या के एक साधू को दो बजरंग दल के कार्यकर्ताओं ने 'सिमी' व 'अल-कायदा' के नाम से धमकियां दीं और वे पकड़े भी गए। नांदेड़ में तो पुलिस विभाग के आतंकवाद विरोधी दस्ते ने जहाँ बम बनाते समय दो बजरंग दल के कार्यकर्ता विस्फोट में मारे गए थे वहां से नकली दाढ़ी-मूछ, कुर्ता-पजामा व मुसलमानी टोपी भी बरामद किए जो किसी काले कृत्य को करते समय मुसलमानी पहनावा दिखाने के लिए इस्तेमाल किए जा सकते थे। इसके बावजूद उपर्युक्त किसी भी घटना की विवेचना गम्भीरता से नहीं की गयी, न ही हिन्दुत्ववादी संगठनों के कार्यकर्ताओं को उस तरह से गिरफ्तार किया गया जिस सनसनीखेज तरीके से मुस्लिम युवाओं को पकड़ा जाता है और न ही इन घटनाओं को देश में हो रहे अन्य आतंकी कार्यवाइयों से जोड़ा गया जिस तरह पुलिस मुस्लिम युवकों के मामले में आसानी से एक घटना के तार दूसरी घटना से जुड़े बता देती है।

जब से दिल्ली उच्च न्यायालय की न्यायाधीश गीता मित्तल की 'सिमी' पर सात वर्षों से लगे प्रतिबन्ध को, चूँकि उसके ख़िलाफ़ देश-विरोधी गतिविधियों में संलिप्तता के कोई ठोस सबूत नहीं थे, जारी न रखने की संस्तुति आई है तब से तो जैसे देश में भूचाल ही आ गया है। पुलिस द्वारा धड़ाधड़ कई मुस्लिम युवकों की गिरफ्तारियां की जा चुकी हैं। इनमें से हरेक को सम्बन्ध 'सिमी' से जोड़ा जा रहा है ताकि 'सिमी' पर प्रतिबन्ध लगा रहे। लेकिन ये सभी युवा निर्दोष हैं तथा न्यायालय में इनके खिलाफ कोई ठोस सबूत पेश करना पुलिस के लिए मुश्किल होने वाला है। लेकिन इन घटनाओं से पूरे देश के माहौल में सांप्रदायिक ज़हर मिलाया जा रहा है।

जो भी आतंकवादी घटनाओं को अंजाम दे रहा हो इस बात में तो कोई संदेह नहीं है कि सांप्रदायिक आधार पर मतों का जो ध्रुवीकरण हो रहा है उसका लाभ तो आगामी लोक सभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को ही मिलेगा। वैसे यह सोचने का विषय है कि संसद में अमरीका परमाणु समझौते के मुद्दे पर विश्वास मत में भारतीय जनता पार्टी की करारी शिकस्त तथा आगामी चुनावों के मद्देनजर मायावती का प्रधान मंत्री पद की दावेदारी में प्रबल उम्मीदवार बनकर लाल कृष्ण आडवानी के लिए एक चुनौती बनकर उभरने के बाद अचानक अमरनाथ श्राइन बोर्ड की जमीन का मुद्दा व अब आतंकवाद का मुद्दा अंतर्राष्ट्रीय महत्व रखने वाले परमाणु समझौते के मुद्दे के ऊपर कैसे हावी हो गए? ये दोनों मुद्दे ऐसे है जिनसे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हुआ है तथा भाजपा ने घोषणा की है कि वह उन्हें चुनावी मुद्दे बनाएगी। यह देश के, भौतिक नहीं तो मानसिक, विभाजन की साजिश है तथा भारत में इजराइल जैसी परिस्थितियां निर्मित करने की कोशिशें है। पिछली भाजपा नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार के कार्यकाल से हम इजराइल से आतंकवाद के खिलाफ लड़ने का प्रशीक्षण ले ही रहे हैं।

आतंकवादी घटनाओं में अभियुक्तों के पक्ष में खड़े होने वाले वकीलों की हिन्दुत्ववादी वकील मिलकर न्यायालय परिसर में ही पिटाई कर दे रहे हैं। ऐसी घटनाएँ मध्य प्रदेश व उत्तर प्रदेश के फैजाबाद और लखनऊ में हुईं । लखनऊ में तो समाजवादी पृष्ठभूमि के वरिष्ठ वकील मोहम्मद शोएब की न सिर्फ़ पिटाई हुई बल्कि उनके कपड़े फाड़ कर उन्हें पूरे न्यायालय परिसर में घुमाते हुए अपमानित किया गया। बिना मुकदमा चले एवं फैसला आए अभियुक्त को अपराधी घोषित कर देना, न्यायिक प्रक्रिया की खुलेआम अवमानना करना तथा साथी वकील के साथ गुंडागर्दी करना आख़िर आतंकवाद नहीं तो क्या है?


बम विस्फोट वाली अधिकांश घटनाओं में भले ही यह बता पाना कठिन हो कि उन्हें किसने करवाया किन्तु उड़ीसा व कर्नाटक में तो बजरंग दल द्वारा ईसाईयों की जान व माल पर हो रहे हमले सर्वविदित हैं। एक तरफ हिंदू धर्म को सबसे सहिष्णु बताने वाले बदले की भावना से प्रेरित हिंसा पर उतारू हिन्दुत्ववादी संगठन के कार्यकर्त्ता हैं तो दूसरी तरफ वह ईसाई समुदाय जिसके ग्राहम स्टेन्स को उसके दो बच्चों के साथ जीप में बंद कर जलाकर मार देने वाले बजरंग दल के कार्यकर्त्ता दारा सिंह को ग्राहम स्टेन्स की पत्नी ने माफ़ कर दिया था । हिंदू धर्म पर कालिख पोतने वाले बजरंग दल को रोकने के लिए राज्य व केन्द्र सरकार कुछ भी नहीं कर रही, बम विस्फोट की घटनाओं की जिम्मेदारी लेने वाली जो ईमेल आई है उनमें बाबरी मस्जिद ढहे जाने तथा २००२ के गुजरात नरसंहार का बदला लेने की बातें कही गई हैं। बम विस्फोट के लिए चाहे जो भी जिम्मेदार हो यह तय है कि यदि बाबरी मस्जिद न गिरी होती तथा गुजरात में मुसलमानों के साथ अत्याचार न हुआ होता तो आज देश के सामने आतंकवाद का दैत्य इतने भयावह तरीके से मुँह बाए न खड़ा होता। अतः देश में आतंकवाद को खड़ा करना के लिए हिन्दुत्ववादी संगठन ही जिम्मेदार हैं।


डॉ संदीप पाण्डेय

(लेखक, मग्सय्सय पुरुस्कार प्राप्त वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता हैं और जान-आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय के समन्वयक भी। इनका ईमेल है: ashaashram@yahoo.com)

(नोट: इस लेख को युवा कार्यकर्ता रितेश आर्य ने टाइप किया है, जिसके हम सब शुक्रगुजार हैं)

उन्हें माफ करना मुश्ताक

उन्हें माफ करना मुश्ताक

नवीन कुमार

आज कई महीने बाद मुश्ताक का फोन आया है। उसका पहला वाक्य था, क्या मैं आतंकवादी लगता हूं। उसका लहजा इतना तल्ख है कि मैं सहम जाता हूं। मेरी जुबान जम जाती है। वह बिना मेरे बोलने का इंतजार किए कहता चला जाता है। ...तुमलोग हमें खत्म क्यों नहीं कर देते। यह लड़ाई किसके खिलाफ है। कुछ लोगों के खिलाफ या फिर पूरी एक कौम के खिलाफ।... वह रोने लगता है। मुश्ताक रो रहा है। भरोसा नहीं होता। उसे मैं पिछले 18 साल से जानता हूं। तब से जब हम पांचवीं में थे। उसके बारे में मशहूर था कि वो अब्बू के मरने पर भी नहीं रो सकता। वह मुश्ताक रो रहा है।

दो दिन पहले ही दिल्ली के बटला हाउस इलाके में मुठभेड़ हुई है। यह ख़बर देखते ही देखते राजधानी के हर गली-कूचे-चौराहे पर पसर गई है। मुश्ताक सॉफ्टवेयर इंजीनियर है। वह नोएडा में एक मल्टीनेशनल कंपनी के दफ्तर में काम करता है। है नहीं था। आज उसे दफ्तर में घुसते हुए रोक दिया गया। मैनेजमेंट ने उसे कुछ दिनों तक न आने को कहा है। यह कुछ दिन कितना लंबा होगा उसे नहीं मालूम। उसके दफ्तरी दोस्तों में से ज्यादातर ने उससे किनारा कर लिया है। मुश्ताक हिचकी ले रहा है। मैं सन्न हूं।

मुश्ताक पटना वापस लौट रहा है। मैं स्टेशन पर उससे मिलने आया हूं। वह बुरी तरह से बिखरा हुआ है। टूटा हुआ। वह मेरी नजरों में भरोसे की थाह लेना चाह रहा है। पूछता है यह मुल्क हमारा होकर भी हमारा क्यों नहीं लगता। मैं उसे रुकने को नहीं कह पाता। वह खुद ही कहता चला जाता है। रुक कर क्या होगा। तुम्हें सोच भी नहीं सकते हमपर क्या बीत रही है। अंदाजा भी नहीं हो सकता तुम्हारे नाम की वजह से दफ्तर के दरवाजे पर रोक दिए जाने की टीस। कलेजा फट जाता है।

मुश्ताक सवाल नहीं कर रहा है। हथौड़े मार रहा है। हमारी लोकतांत्रिक चेतना पर। सामाजिक सरोकारों पर। कोई नहीं पूछता कि अगर पुलिस को पता था कि आतंकवादी एक खास मकान के खास फ्लैट में छिपे बैठे हैं उन्हें जिंदा पकड़ने की कोशिश क्यों नहीं हुई। उनके खिलाफ सबूत क्या हैं। आतंकवाद के नाम पर वो किसी को भी उठा सकते हैं। किसी को भी मार सकते हैं। कहा जा रहा है वो अपना पाप छिपाए रखने के लिए ऊंची तालीम ले रहे हैं। एक पुलिसवाला पूरी बेशर्मी से कहता है सैफ दिखने में बहुत स्मार्ट है, उसकी कई महिला मित्र हैं। जैसे यह कोई बहुत बड़ा अपराध हो।

जैसे भरोसे की मीनारें ध्वस्त होती जा रही हैं। बटला हाउस की मुठभेड़ सिर्फ एक घटना नहीं है। कानून और मान्यताओं के बीच फैला एक ऐसा रेगिस्तान है जिसपर अविश्वास की नागफनी का एक भयावह जंगल उग रहा है। ट्रेन खुलने वाली है। मुश्ताक अपने पर्स से निकालकर मेरा विजिटिंग कार्ट फाड़ रहा है। कहता है, क्या पता किसी एनकाउंटर में कब मार दिया जाऊं और वो तुम्हें भी कठघरे में खड़ा कर दें। वह कसकर मेरा हाथ पकड़ लेता है। लगता है उसकी आत्मीयता की तपिश मुझे पिघला देगी। ट्रेन सरकने लगती है। दरकती जा रही है विश्वास की दीवार।

नवीन कुमार

Associate Sr. Producer
Star News
सी-17, डीडीए फ्लैट्स

फेज-1, कटवारिया सराय

नई दिल्ली-110016

फोन - 9868525121

(Source: ArkitectIndia eGroup)

विश्व मधुमेह (डायबिटीज़) दिवस (१४ नवम्बर २००८) से पूर्व ५० दिनों में जागरूकता अभियान आरंभ

विश्व मधुमेह (डायबिटीज़) दिवस

(१४ नवम्बर २००८)

से
पूर्व ५० दिनों में

जागरूकता
अभियान आरंभ


विश्व मधुमेह दिवस, १४ नवम्बर २००८ के पूर्व ५० दिनों में इस रोग के प्रति जागरूकता बढ़ाने के प्रयत्न किए जा रहे हैंअंतर्राष्ट्रीय डायबिटीज़ फेडेरेशन (आई.डी.ऍफ़) के अनुसार, इस वर्ष के अभियान का प्रमुख विषय हैबच्चों एवं किशोरावस्था में मधुमेह

मधुमेह बच्चों को होने वाली एक ऐसी बीमारी हैं जो लंबे समय तक चलती हैकिसी भी आयु का बच्चा इससे पीड़ित हो सकता है, यहाँ तक कि एक शिशु भीप्रतिदिन करीब २०० बच्चों में टाइप- की डायबिटीज़ के लक्षणों का निदान चिकित्सकों द्वारा किया जाता हैजिसके कारणवश इन बच्चों को प्रतिदिन इंसुलिन के इंजेक्शन लगाने पड़ते हैं ताकि उनके रक्त में शर्करा की मात्रा को नियंत्रित किया जा सकेमधुमेह से ग्रसित बच्चों की संख्या में % की वार्षिक वृद्धि हो रही है और बहुत ही छोटे बच्चों में यह वृद्धि % है१५ वर्ष से कम आयु वाले लगभग ७०,००० बच्चे प्रतिवर्ष इस रोग से ग्रस्त हो रहे हैं

यदि समय से इस रोग का निदान नहीं होता है तो यह रोगी की मृत्यु का कारण बन सकता है अथवा उसके मस्तिष्क में विकार पैदा कर सकता हैइस रोग के मुख्य लक्षण हैं :अधिक पेशाब होना, अधिक प्यास लगना, शारीरिक शिथिलता या वज़न कम होनाप्राय: इन लक्षणों को फ्लू का लक्षण मान कर नज़रंदाज़ कर दिया जाता है तथा रोग का निदान समय पर नहीं हो पता

डाक्टर मार्टिन सिलिंक ( जो आई.डी.ऍफ़. के अध्यक्ष हैं) के अनुसारप्रत्येक अभिभावक, शिक्षक,स्कूली नर्स, डाक्टर तथा बच्चों के साथ कार्यरत लोगों को इस रोग के लक्षणों से भली भांति अवगत होना चाहिए ताकि रोग का निदान सही समय पर हो सके, वरना रोगीमधुमेही मूर्छाकी अवस्था में जाकर मर भी सकता है।’

विकासशील देशों के मधुमेह पीड़ित बच्चे इंसुलिन मिल पाने के कारण मृत्यु का शिकार बन रहे हैं। आई.डी.ऍफ़. का मानना है कि इस रोग की उचित चिकित्सा उपलब्धता प्रत्येक बच्चे का सौभाग्य नहीं वरन अधिकार होना चाहिए

पिछले वर्ष, विश्व मधुमेह दिवस पर विश्व की अनेकों इमारतों को नीले रंग के प्रकाश से सज्जित किया गया थाइसवर्ष भी फेडेरेशन विश्व समाज से उसकी राय जानने को उत्सुक है कि मधुमेह के प्रति जागरूकता बढ़ाने के लिए क्या उपाय किए जाएँ

भारत सरीखे देशों में करीब ३४० से ३५० लाख व्यक्ति इस व्याधि का शिकार हैं, जो एक विश्व रिकार्ड है१७% नगरवासी एवं .% ग्रामवासी इस बीमारी से पीड़ित हैंइस रोग का सबसे बड़ा कुप्रभाव हैडैबेटिक फुटजिसके चलते पैरों में घाव हो जाता है तथा पैर काटना तक पड़ सकता हैडॉ. राम कान्त जो किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज में डैबेटिक फ़ुट विभाग के अध्यक्ष हैं, उनके अनुसार प्रतिवर्ष लगभग ५०,००० व्यक्तियों को यह त्रासदी झेलनी पड़ती है, जबकि उनमें से ७५% अपना पैर खोने से बच सकते हैं यदि समय रहते इस रोग का निदान एवं उपचार हो जाए

इस रोग का सही निदान उपचार होने से उत्पन्न कुप्रभावों के अनेक कारण हैं, जैसे (a) इस रोग के प्रति जागरूकता की कमी, (b) नंगे पाँव चलने की आदत (c) घरेलू उपचार, (d) ग़लत प्रकार का जूता पहनना आदिभारत तथा थाईलैंड जैसे देशों में, जहाँ अधिकाँश जनता गाँवों में रहती है, पैरों की देखभाल करके उनके घावों को रोकना अति आवश्यक है

आइये, हम सभी इन ५० दिनों में ( और उसके बाद भी) इस रोग के प्रति जागरूकता उत्पन्न करने का अभियान चलायें जिससे इस रोग से पीड़ित व्यक्तियों की संख्या में कमी आए और इससे ग्रसित लोगों में मधुमेह या डायबिटीज़ का सफलता पूर्वक नियंत्रण हो सके।

शोभा शुक्ला
(लेखिका, सिटिज़न न्यूज़ सर्विस की संपादिका हैं और लखनऊ के लोरेटो कॉन्वेंट में वरिष्ठ अध्यापिका भी)

२०१० तक संपूर्ण भारत में दवा-प्रतिरोधक तपेदिक (टीबी) का इलाज उपलब्ध होगा

२०१० तक संपूर्ण भारत में दवा-प्रतिरोधक तपेदिक (टीबी) का इलाज उपलब्ध होगा

अमित द्विवेदी

हाल ही में जारी हुई वैश्विक तपेदिक (टीबी) रिपोर्ट के मुताबिक, तपेदिक रोग विकासशील देशों के लिए गंभीर खतरा बनता जा रहा है। यदि इसको उचित समय पर नियंत्रित नहीं किया गया तो आने वाले समय में इस स्वास्थ्य समस्या से निपटने के लिए एक गंभीर चुनौती खड़ी हो सकती है।

भारत में हर साल १८ लाख नए तपेदिक के रोगी जुड़ जातें हैं वहीँ लगभग हर साल ४ लाख लोग इसकी वजह से मौत का शिकार हो जाते हैं। वर्ष २००६ में विश्व स्तर पर करीब ९२ लाख नए तपेदिक के रोगियों की संख्या बड़ी है जिसमे से करीब १० लाख बच्चे हैं जो १५ साल तक की उम्र के हैं।

पोषण की कमी, शरीर की प्रतिरोधक छमता का कमज़ोर पड़ना, निम्न जीवन स्तर आदि तपेदिक के रोग के फैलने में मदद करते हैं। दुनिया में एच० आई० वी०/ एड्स से ग्रसित लोगों में मौत का सबसे प्रमुख कारण तपेदिक रोग है। तपेदिक एक घातक संक्रामक रोग है जिसका इलाज सम्भव है, यदि सही समय पर इसका पता चल जाए और उपचार शुरू हो जाए। तपेदिक हमारे शरीर के किसी भी भाग में हो सकता है। तपेदिक के इलाज के दौरान यदि हम इसकी दवाओं का सही तरीके से सेवन नहीं कर रहे हैं और इसकी दवाईयों को समयानुसार लेने में नागा कर रहे हैं तो तपेदिक रोग गंभीर रूप धारण कर लेता है, जिसे दवा-प्रतिरोध टीबी या तपेदिक रोग कहते हैं जिसमें फिर तपेदिक की कोई भी दवा कारगर नहीं हो सकती है।

दवा-प्रतिरोधक टीबी या तपेदिक हमारे देश की एक गंभीर समस्या बनता जा रहा है। तपेदिक की बीमारी से निपटने की लिए सरकार ने प्रत्येक स्वास्थ्य केन्द्रों और नजदीक के सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर निःशुल्क दवाईयाँ उपलब्ध करा रखी हैं। किंतु दवाईयों की उपलब्धताओं के बावजूद भी मरीज इन दवाईयों का सेवन नियमित तरीके से विभिन्न विभिन्न कारणों की वजह से नहीं कर पाते हैं और दवा-प्रतिरोधक टीबी या तपेदिक का शिकार हो जाते हैं। भारत में तपेदिक के दवाओं को मरीजों तक निःशुल्क रूप से पहुंचाने के लिए भारत सरकार ने आशा प्राथमिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की नियुक्ती कर रखी है। किंतु इसके बावजूद भी लोग दवा-प्रतिरोधक टीबी या तपेदिक का शिकार हो रहे हैं और दवाओं का समुचित सेवन नहीं कर रहे हैं ।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के दक्षिण-पूर्वी एशिया छेत्र के संक्रामक रोगों के विभाग के निदेशक डॉ० जय पी नरेन का कहना है कि २०१० के अंत तक भारत में २४ विशेष प्रयोगशालाएं निर्मित की जा रही हैं जिससे टीबी या तपेदिक, विशेषकर कि दवा-प्रतिरोधक टीबी की जांच बिना विलंब समयानुसार हो सके और उपयुक्त इलाज भी मुहैया करवाया जा सके।

कई बार अक्सर ऐसा होता है कि सही समय पर जाँच के आभाव से तपेदिक की बीमारी व्यक्ति में गहराई से अपनी जड़ें जमा लेती है। भारत सरकार द्वारा चलाया गया 'डॉट्स' कार्यक्रम काफी सराहनीय सफलता प्राप्त है परन्तु कुछ सामाजिक-आर्थिक और अन्य कारणों की वजह से कुछ टीबी से ग्रसित लोगों को टीबी की सबसे सशक्त दवाओं से प्रतिरोधकता उत्पन्न हो जाती है और यह दवाएं उनपर कारगर नहीं रहतीं।

विभिन्न राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर इस बात की वकालत की जा रही है कि ऐसे लोग जो दवा प्रतिरोधक तपेदिक से ग्रसित हैं उनको तपेदिक के दूसरे चरण की दवाएं उपलब्ध कराई जायें। कुछ जगहों पर तो यह शुरू भी हो गए हैं। किंतु तपेदिक की बीमारी से प्रभावकारी तरीके से निपटने के लिए हमें सरकार द्वारा 'डाट्स' कार्यक्रम के तहत उपलब्ध कराई जा रहीं दवाओं को सही तरह से वितरित करवाने में अधिक सफलता हासिल करनी चाहिए और समस्त टीबी कार्यक्रम को प्रभावकारी बनाना चाहिए।


अमित द्विवेदी

लेखक सिटिज़न न्यूज़ सर्विस के विशेष संवाददाता हैं।

आतंकवाद का सच

आतंकवाद का सच
( शोभा शुक्ला)


हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के वकील श्री प्रशांत भूषन जी की अध्यक्षता में आयोजित ‘आतंकवाद का सच’ कार्यक्रम में सुप्रसिद्ध पत्रकार श्री अजित साही को सुनने का अवसर लखनऊ वासियों को प्राप्त हुआ. साही जी ने पिछले कुछ महीनों में देश के अनेक भागों का दौरा करके जो तथ्य एकत्रित किए हैं वे वास्तव में चौंका देने वाले हैं. उनकी जानकारी के अनुसार,एक सरकारी साजिश के तहत, देश के अनेकों मुस्लिम युवकों को बेबुनियाद पुलिस आरोपों में जेल में डाल दिया गया है. यह सब आतंकवाद को रोकने के नाम पर किया जा रहा है, जबकि सच तो यह है कि आतंकवाद से सम्बंधित किसी भी प्रकरण में अभी तक न्यायलय में यह नहीं साबित हो पाया है की इन हादसों में सी.मी.(स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया) के सदस्यों का हाथ था.

पिछले कुछ सालों में, जहाँ कई निर्दोष नवयुवक पुलिस द्वारा आतंकवादी करार करके मार डाले गए हैं या जेल में सड़ रहे हैं,वहीं असली आतंकवादी आज तक खुले घूम कर देश भर में दहशत फैला रहे हैं. किसी भी आतंकवादी घटना के घटित होने के तुंरत बाद पुलिस अचानक ही सक्रिय हो उठती हैं और आनन् फानन में तथाकथित आतंकवादियों को गिरफ्तार करने में जुट जाती है. उनसे डंडे के जोर पर पुलिसिया बयान भी लिखवा लिया जाता है, जो अधिकांशतः कोर्ट में साबित नहीं हो पाता.

पुलिस/ मीडिया के भ्रामक प्रचार से देश के अनेकों निर्दोष मुसलमान सब की घृणा के पात्र बन गए हैं तथा स्वयं को समाज में सर्वथा असुरक्षित महसूस करने लगे हैं.

परन्तु, क्या वे अकेले ही इस भय और अविश्वास के शिकार हैं? आज तो देश का आम नागरिक, चाहे वो किसी भी धर्म/ ज़ाति/ समुदाय का हो, स्वयं को असहाय और असुरक्षित महसूस कर रहा है.

राज ठाकरे की नव निर्माण सेना उत्तर प्रदेश और बिहार के मूल निवासियों / हिन्दी भाषियों को ( जो मुम्बई में कार्यरत हैं) अपनी बेलगाम हिंसा का शिकार बना रही है---और वो भी मराठी संस्कृति की रक्षा के नाम पर. इस प्रकार जहाँ एक और हमारे देश के किसी भी राज्य में कार्य करने के मूल अधिकार का हनन हो रहा है वहीँ दूसरी ओर बहुसंख्यकों के बीच भी अलगाववाद का विष फैल रहा है.

बजरंग दल/ विश्व हिन्दू परिषद् के गुंडे तो हिंदुत्व के नाम पर हिंसा एवं तोड़ फोड़ करने में गर्व का अनुभव करते हैं. फिर चाहे वो दिल्ली के चित्रकार मंजीत सिंह जी की कला प्रदर्शिनी हो, या जयपुर के एक प्रतिष्ठित मिशनरी स्कूल के विद्यार्थियों की अनुशासनहीनता का मामला हो, या फिर उडीसा और कर्णाटक में ईसाईयों के विरुद्ध भड़की हुयी बेबुनियाद हिंसा हो. धर्मान्धता उन्हें केवल विनाशकारी कार्यों के लिए ही प्रेरित करती है, कोई सामाजिक उपयोग के कार्य के लिए नहीं.

प्रशासन अथवा पुलिस को भी उन गरीब किसानो पर गोली बरसाना न्यायोचित लगता है जो अपने मौलिक अधिकारों की पूर्ति के लिए आवाज़ उठाते हैं जब उनकी उर्वरक भूमि को औद्योगिक विकास के नाम पर औने पौने दामों पर सरकार द्वारा खरीद लिया जाता है.

ये सारी घटनाएं , जो आए दिन हमारे भारत महान में घट रहीं हैं, क्या किसी आतंकवाद से कम हैं? चाहे वह अमानुषिक बम विस्फोट हो, या किसी विशेष जाति/धर्म/समुदाय पर की गयी न्रिशन्स हिंसा हो, या किसानो/श्रमिकों पर हो रहे अमानवीय अत्याचार हों---इन सभी प्रकरणों में मारने वाला शक्तिशाली होता है और मरने वाला गरीब और असहाय. निर्बल को सता कर और निर्धन का दमन कर अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने में कदाचित हमें कोई पाशविक आनंद प्राप्त होता है. फिर चाहे वह प्रशासन द्वारा अल्पसंखयकों का दमन हो, अथवा उद्योगपतियों द्वारा गरीब किसानो का शोषण हो, अथवा निर्दोष जनता पर पुलिस का अत्याचार हो---सब तरफ़ एक ही राग गूंजता हुआ प्रतीत होता है--- मैं तुमसे आर्थिक/ सामाजिक/ धार्मिक/ सांस्कृतिक रूप से अधिक संपन्न हूँ और तुम निकृष्ट जीव, मेरी न्रिशंस्ता के पात्र हो.

आम निर्दोष आदमी के प्रशासन/ पुलिस के हाथों दमन की अनेको घटनाएँ हमारे चारों और प्रतिदिन घटित होती हैं. परन्तु हम उन सभी को सहज रूप से स्वीकार कर लेते हैं, जब तक स्वयं हम पर या हमारे संबन्धी पर ही आघात न हो.

केवल बम विस्फोट करना ही आतंक वाद नही है. क्या हमारी भ्रष्ट पुलिस आम जनता की रक्षा करने के बजाय, उस को आतंकित करके खुले आम निर्भय होकर नहीं घूम रही?

क्या प्रशासन गरीब किसान की भूमि का अपहरण करके अथवा बाढ़/ सूखे/ दंगे से पीड़ित लोगों के लिए आवंटित धनराशि का घोटाला कर के जनता को आतंकित नहीं कर रहा?

क्या बजरंग दल, शिवसेना, एवं अन्य तथाकथित धार्मिक संगठन देश भर में धर्म के नाम पर हिंसा फैला कर हमें आतंकित नहीं कर रहे?

बिनायक सेन जैसे स्वार्थहीन सामाजिक कार्यकर्त्ता एवं शिक्षा/ स्वास्थ्य के क्षेत्र में नि:स्वार्थ योगदान देने वाले किसी विशिष्ट समुदाय के व्यक्ति क्या अमानवीय शक्तियों के कोप के शिकार नही बन रहे?

क्या हमारी सेना, जो देश के हिंसा ग्रस्त क्षेत्रों में आम जनता की सुरक्षा के लिए तैनात की जाती है, महिलाओं की अस्मिता एवं नागरिकों के मूल अधिकारों का हनन नहीं कर रही है?

आए दिन हम सड़कों पर पुलिस की आँख के नीचे यातायात नियमों को भंग होते हुए देखते हैं; समाज और परिवार में महिलाओं के साथ अमानुषिक दुर्व्यवहार होते ही देखते हैं( चाहे वह कन्या भ्रूड की हत्या हो या दहेज़ न लाने के अपराध में स्त्री को जलाये जाने का मामला हो या पारिवारिक प्रतिष्ठा के नाम पर उसे मार डालने की साजिश हो या बलात्कार के माध्यम से पौरुष शक्ति का वीभत्स प्रदर्शन हो); खुले आम निर्दोष, गरीब नागरिक पर पुलिस के क्रूर अत्याचार होते हुए देखते हैं.

ये सभी आतंकवादी कृत्य हैं जो हमारे सभ्य समाज में किसी भी निरीह, आम आदमी पर शक्तिशाली ताकतों (जो नितांत देशी हैं) द्वारा आजमाए जा रहे हैं. केवल मुसलमान ही नही, इस देश का प्रत्येक शांतिप्रिय और कानून प्रिय नागरिक, पुलिस/ प्रशासन/ न्यायपीठ से आशंकित एवं भयभीत है. राजनैतिक एवं आर्थिक रूप से संपन्न व्यक्ति शायद ही कभी आतंकवादी घटनाओं का शिकार होता है. बम विस्फोट कोई भी करे, पिस्ता तो आम आदमी ही है.
हमारे और आप जैसा बेचारा नागरिक आख़िर कब इन आतंकवादी घटनाओं का शिकार होता रहेगा? हम चाहे किसी भी धर्म अथवा जाती अथवा संप्रदाय के हों, हमें एकजुट होकर अहिंसात्मक तरीकों से सत्य का साथ देते हुए , अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठानी ही होगी ( जैसा की अभी हाल ही में झारखण्ड और दिल्ली के आस पास के इलाकों के किसानों ने किया है).

हम बम विस्फोटों से अभी तक अवश्य न मरे हों, परन्तु हमारी आत्मा और अस्मिता को मारने के जो प्रयास प्रतिदिन किए जा रहे हैं उनके प्रति हमें सचेत होना ही होगा.

प्रशासन के आतंकवाद और हमारी नपुंसकता का अंत होना ही चाहिए।

शोभा शुक्ला
(लेखिका, सिटिज़न न्यूज़ सर्विस की संपादिका हैं और लखनऊ के लोरेटो कॉन्वेंट में वरिष्ठ अध्यापिका भी)

शिक्षा के मन्दिर या धर्म के अखाडे

शिक्षा के मन्दिर या धर्म के अखाडे
डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, लखनऊ, उत्तर प्रदेश
शोभा शुक्ला


'ओज़ोन' और हमारी प्रतिबधतायें

'ओज़ोन' और हमारी प्रतिबधतायें
स्वतंत्र भारत, लखनऊ
वसु शेन मिश्रा


जन-स्वास्थ्य नीतियों को बिना-विलम्ब लागु करे भारत!

जन-स्वास्थ्य नीतियों को बिना-विलम्ब लागु करे भारत!

जन-स्वास्थ्य नीतियों को, विशेषकर कि सिगरेट एवं अन्य तम्बाकू उत्पाद अधिनियम २००३ को, लागु करने में भारत बारम्बार देर कर रहा है।


अब मात्र २ हफ्ते बाद २ अक्टूबर २००८ से संपूर्ण भारत में धूम्रपान पर प्रतिबन्ध लगने की आह्वान है, और चंद हफ्तों बाद, ३० नवम्बर २००८ से हर तम्बाकू उत्पादन पर फोटो-वाली चेतावनी भी लगायी जायेगी।

आज नई दिल्ली में, 'तीसरी ग्लोबल टोबैको ट्रीटी एक्शन गाइड: जन स्वास्थ्य नीतियों को तम्बाकू उद्योग के हस्तछेप से बचाएं' रपट का विमोचन हुआ। इस रपट से साफ़ ज़ाहिर है कि जन स्वास्थ्य नीतियों को बनाने की प्रक्रिया में तम्बाकू उद्योग की भागीदारी नहीं होनी चाहिए। यह रपट 'कारपोरेट अकौंताबिलिटी इंटरनेशनल' के द्वारा प्रकाशित की गयी है।


यदि तम्बाकू उद्योग सही मायने में तम्बाकू-जनित कुप्रभावों के अनुपात को कम करना चाहता है, और जन-स्वास्थ्य के प्रति अपना सहयोग देना चाहता है, तो उसको सरकार को जन स्वास्थ्य नीतियों को लागु करने देना चाहिए। सिगरेट एवं अन्य तम्बाकू उत्पाद अधिनियम २००३ और अंतर्राष्ट्रीय तम्बाकू नियंत्रण संधि जिसे फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन टोबैको कंट्रोल कहते हैं, इन नीतियों को भारत को सक्रियता से लागु करना चाहिए. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, इन नीतियों को भरसक तरीके से लागु करने पर २० करोड़ लोगों की जान बच सकती है।

तम्बाकू से ५४ लाख से भी अधिक लोग प्रति वर्ष मृत्यु को प्राप्त होते हैं. भारत में १० लाख से अधिक लोग तम्बाकू जनित कारणों से मृत्यु को हर साल प्राप्त होते हैं.

सिगरेट एवं अन्य तम्बाकू उत्पाद अधिनियम २००३ के तहत और अंतर्राष्ट्रीय तम्बाकू नियंत्रण संधि के तहत, कई ऐसे कार्यक्रम प्रस्तावित हैं जो असरदायक हैं और अन्य देशों में तम्बाकू जनित मृत्यु दर को कम करने में प्रभावकारी रहे हैं। इनमें तम्बाकू विज्ञापनों पर बंदी, तम्बाकू उद्योग द्वारा खेलों आदि के प्रायोजन पर बंदी, तम्बाकू पर कर बढ़ाना और तम्बाकू उत्पादनों पर प्रभावकारी फोटो-वाली चेतावनी लगाना शामिल है।

विभिन्न सरकारी और गैर-सरकारी संगठनों को एकजुट हो कर इन जन स्वास्थ्य नीतियों को बिना-विलम्ब लागु करना चाहिए - कहना है स्वस्थ्य कार्यकर्ताओं का.

(यह लेख मेरी ख़बर में प्रकाशित हुआ है)

'ओज़ोन' और हमारी प्रतिबधतायें

विश्व 'ओज़ोन' दिवस पर विशेष
(१६
सितम्बर
)

'ओज़ोन' और हमारी प्रतिबधतायें

वसु शेन मिश्रा

प्रत्येक वर्ष की ही भांति इस वर्ष भी समस्त संसार १६ सितम्बर को विश्व ओज़ोन दिवस के रूप में समस्त संसार मना रहा है. यह दिवस वास्तव में प्रथ्वी पर सूर्य की हानिकारक पैराबैगनी किरणों के प्रकाश से धरती की रक्षाकरने वाली ओज़ोन परत को बचानें हेतु अपनी प्रतिबधता को दोहराने के प्रयास के रूप में प्रतिवर्ष जाता हैं। आईये प्रथ्वी पर पैराबैगनी किरणों के कुप्रभाव तथा 'ओज़ोन' परत की जीवनदायनी शक्ति को नज़दीक से समझते हैं, तभी हम इस दिन की महत्ता को समझ सकेंगे।

हमारी प्रथ्वी पर जीवन सूर्य द्वारा उपलब्ध करायी ऊर्जा पर ही निर्भर है। यदि सूर्य द्वारा प्रथ्वी को उपलब्ध ऊर्जा को १०० प्रतिशत मान लें तो सौर्य ऊर्जा का अव्शूशन तथा परावर्तन का समीकरण कुछ इस प्रकार होगा:-

प्रथ्वी पर सूर्य द्वारा प्राप्त कुल उर्जा = १००%

प्रथ्वी के वायुमंडल में उपस्थित बादलों, तथा धूल के kadon
द्वारा परावर्तित भाग = ३५%
बचा भाग = ६५% (१००%-35%)
इसमें से १४% का अवशोषण 'ओज़ोन' परत द्वारा किया जाता हैं।

यह अवशोषण 'ओज़ोन' परत द्वारा किया जाता हैं।यह अवशोषण कम भेदन क्षमता
वाली हानिकारक पैराबैगनीकिरणों का होता है, जो यदि पृथ्वी पर पहुँच जायें तो 'कैंसर' जैसी घातक बीमारियाँ बन सकती हैं।

बचा भाग :-६५%-१४%=५१%
सूर्य द्वारा
प्रदान की गयी कुल ऊर्जा का यह ५१ % भाग ही वास्तव में प्रभावी रूप से प्रथ्वी को प्राप्त होता हैं।

इस ५१% में से ३४% भाग प्रत्यक्ष सौर्य विकीरण के रूप में तथा १७% भाग पार्थिव विकीरण के रूप में प्रथ्वी से बाहर चला जाता हैं।


'ओज़ोन' छिद्र की मोटाई में कमी (जो १९५६ की ३२५ 'डोकसन' की सीमा से १९९४ में मात्रा ९४ 'डोकसन' ९४ डोकसन ही रह गयी तथा और ह्रास जारी है।) अथवा वायुमंडल में उपस्थित ऐसी गैसों की अत्याधिक उपस्थिति, जो वायुमंडल में अप्राकृतिक तथा घनत्व में अधिक, बादलों का निर्माण करती है;
पैराबैगनी किरणों के ज़्यादा प्रवेश तथा ज़्यादा समय तक उपस्थिति का कारण बनती हैं. इसी के कारण अप्रत्यक्ष रूप से प्रथ्वी के तापमान में वृद्धि होती है; जो प्रथ्वी पर विभिन्न प्रकार की आपदाओं का कारण बनती हैं।(उदाहरणस्वरुप:-असमय वर्षा, बाढ़, सूखा,'कैंसर' जनित रोग आदि।)

जो गैस प्रभावी रूप से पृथ्वी के तापमान को अप्रत्यक्ष रूप से तापमान को अप्रत्यक्ष रूप से बढ़ाने में ठाठ ओज़ोन की जीवनदायनी परत को हानि पहुचने में सहायक होती है। उन्हें 'ग्रीनहाउस' गैसें कहा जाता है। ६ गैसों को मुख्यतय: 'ग्रीनहाउस' गैस कहा जाता है , मीथेन, सल्फरहेक्साफ्लोराइड,परफ्लोरोकार्बन, आदि।
इनका नाम ग्रीनहाउस गैसेस इसलिए पड़ा क्यूँकि वैज्ञानिकों ने प्रयोग कर कांच से घिरी, एक कृत्रिम बाग़ का निर्माण कर उसमें अन्दर आती हुई सूर्य की किरणों को बाहर जाने से रोका, जो इन गैसों के निर्माण में सहायक हुआ तथा इसने ठंडी स्थानों पर गर्म छेत्र (कृत्रिम रूप से) की स्थिति पैदा कर गर्म स्थलों के पौधे यहां उपजयाने की स्थिति पैदा की। अतः छोटे पैमाने पर जहाँ मानव का यह कृत्रिम निर्माण उसके लिए सहायक लगता है, परन्तु यह ही स्थिति जब संपूर्ण पृथ्वी पर पड़ती है, तो अभूतपूर्व गरमी तथा इसके चलती असीमित विपदाएं आती
हैं।

क्लोरो-फ्लोरो कार्बन (सी.अफ.सी) आदि इन गैसों का उपयोग 'फ्रिजों' में ,ओप्टिकल फाइबर आदि में होता है । आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि 'ओजोन परत' में कमी अथवा ओजोन छिद्र ,जो आज फुटबॉल के स्टेडियम जितना बड़ा है , का निर्माण हमारी ध्रुवों पर हुआ है जहाँ औद्योगिक गतिविधियाँ न्यूनतम हैं.इसका कारण है -ध्रुवी संताप मंडल बादल कम तापमान पर(जो ध्रुवों पर होता है) क्लोरीन को सुअतंत्र क्रिया करने के लिए सतह प्रदान करती है तथा सूर्य की रौशनी की उपस्थिति में 'अंतर्तिका'में बसंत के आगमान पर बर्फ जमने के समय क्लोरीन (जो सी.अफ.सी. में उपस्थित है) ओजोन आडुओं पर आक्रमण कर उन्हें नष्ट कर देते है.अतः हमारे 'ग्लेशियर' क्यों तीव्रता से पिघल रही हैं,समझ में आया होगा।

आई.पी.सी.सी (या इंटर गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेन्ज') की वर्त्तमान रिपोर्ट के अनुसार पृथ्वी का तापमान पिछले १०० वर्षों में ०.७४% तक बढ़ा है.इसके प्रभाव विनाशक होंगे,:-

* समुद्र स्तर में अप्रत्याशित बढोतिरी।(अतः इंग्लैंड जैसी तटीय देश जलमग्न हो सकते हैं)

* भारत जैसे देश में 'ग्लेशियर' (हिमाद्री आदि) पिघलने पर पहले बाढ़ का खतरा फिर सूखे की विभीषिका से सामना हो सकता है.

तो समझे, उत्तर भारत में वर्ष २००८ में जल्द मानसून आना कोई हर्ष का विषय नहीं था अपितु चेतावनी थी.


अब हमारी प्रतिबधता की भी बात कर लें। अमेरिका जो विश्व के नेता होने का दंभ भरता है,वास्तव में इन विनाशकारी गैसों का सबसे बड़ा उत्सर्जनकर्ता है। और तो और 'क्योटो प्रोटोकॉल' जो एक बाध्यकारी संधि है (ग्रीनहाउस गैसों को कम करने के सम्बन्ध में) अमेरिका ने उस पर अभी तक हस्ताक्षर नहीं किए हैं। यह सन्दर्भ हमारी मानसिकता को झंझोर देने हेतु पर्याप्त होने चाहिए कि "सतत विकास" का विरोधी विश्व नेता कदापि नहीं हो सकता.


विकट समस्या से निपटने हेतु अभी!! और अभी!!कदम उठाने की आवश्यकता है। कुछ उपयोगी कदम इस प्रकार है:-

१)वृक्षों को बचाना होगा जो कार्बन-डी-ऑक्साइड जैसे गैसों को नियंत्रित करते है.
२) जीवन शैली में परिवर्तन लाना होगा.(जैसे:-कम ऊर्जा के दोहन का सतत प्रयास)
३) प्रकृति से धनात्मक सम्बन्ध रखने वाली तकनीकों का उपयोग. जैसे:- जैविक खाद का प्रयोग, कृत्रिम खाद के स्थान पर.
४) कार्बन ट्रेडिंग को विभिन्न देशों द्वारा अपनाए जाने की प्रक्रिया में तेज़ी लाना.
५) जलवायु को बेहतर बनने की तकनीकों का वैश्वीकरण.

सही वक्त है चिपको आन्दोलन जैसे आंदोलनों को पुनर्जीवित करने का,अन्यथा,हमारा अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा.

अतः विश्व 'ओज़ोन' दिवस के दिन हमारी प्रतिबधता मात्रा इस दिन तक की संवेदनशीलता तक ही सीमित नहीं रह जानी चाहिए आपितु प्रत्येक साँस के साथ हमें पृथ्वी को बचाने हेतु कार्य करना होगा। नहीं तो यह आने वाला विध्वंस मानव-जनित होगा ,प्राकृतिक नहीं।


वसु शेन मिश्रा

लेखक, लखनऊ विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर शिक्षा प्राप्त, स्थायी विकास के लिए समर्पित युवा कार्यकर्ता हैं, और सिटिज़न न्यूज़ सर्विस के संवाददाता भीसंपर्क
ईमेल: vasusmisra@yahoo.co.in

तम्बाकू नियंत्रण एक गंभीर चुनौती


तम्बाकू नियंत्रण एक गंभीर चुनौती

इसमें कोई दो राए नहीं है की सरकार ने तम्बाकू नियंत्रण को प्रभावकारी बनाने में विभिन्न प्रकार के प्रयास किए हैं। जिसके तहत सरकार ने न केवल राष्ट्रीय स्तर पर बल्कि वैश्विक स्तर पर बनी तम्बाकू नियंत्रण संधि को प्रभावकारी बनाने की दिशा में भी अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। किंतु वैश्विक स्तर पर इतने प्रयासों के बावजूद भी तम्बाकू उत्पादों के प्रयोग में पिछले ५ सालों में वृद्धि देखि गई है। आख़िर इतने सारे प्रयासों के बावजूद तम्बाकू का प्रयोग इतना क्यो बढ़ता जा रहा है? इस सम्बन्ध में जिला तम्बाकू नियंत्रण सेल, लखनऊ के नोडल अधिकारी तथा बलरामपुर चिकित्सालय के मुख्य चिकित्सा अधिकारी श्री आर0 बी० अगरवाल का कहना है की "जबरदस्ती किसी को भी तम्बाकू का प्रयोग करने से नहीं रोका जा सकता, इसके लिए व्यक्ति को तम्बाकू के कुप्रभावों के बारे में संवेदनशील करना जरूरी है। उनका आगे कहना है की यद्यपी की सरकार ने प्रदेश और जिले स्तर पर तम्बाकू नियंत्रण सेल का गठन कर दिया है किंतु इस सेल को जिम्मेदारी और जबाबदेही के साथ काम करने की जरूरत है"।

तम्बाकू नियंत्रण सेल से हो सकता है की तम्बाकू उत्पाद अधिनियम को प्रभावी बनाने में मदद मिले किंतु वह लोग जो तम्बाकू से छुटकारा पाना चाहते हैं क्या उनके पहुँच में आसानी से कोई तम्बाकू नशा उन्मूलन केन्द्र की सुविधा उपलब्ध है। इस सम्बन्ध में पूछने पर तम्बाकू नशा उन्मूलन केन्द्र के प्रमुख प्रोफ़ेसर, डाक्टर रमाकांत का कहना है की "तम्बाकू नशा उन्मूलन केन्द्र ऐसे लोगों के लिए जो तम्बाकू प्रयोग से निजात पाना चाहतें हैं काफी लाभकारी होगी इसके लिए सरकार को प्रत्येक जिले के जिला चिकित्सालय और प्राथमिक स्वास्थय केन्द्रों पर कार्यरत चिकित्सकों को प्रशिक्षण दिए जाने की जरूरत है, जिसको बिना किसी अधिक अतिरिक्त आर्थिक सहायता से भी प्रभावकारी बनाया जा सकता है"। भारत में तम्बाकू उपभोग को रोकना एक गंभीर चुनौती है।

भारत के स्वास्थय और परिवार कल्याण मंत्री अंबुमणि रामदोस का कहना है २ अक्टूबर से भारत के समस्त सार्वजानिक स्थानों पर धुम्रपान प्रतिबंधित हो जायेंगे। क्या वास्तव में ऐसा हो पायेगा यह कहना शायद थोड़ा मुश्किल है। इस सम्बन्ध में उत्तर प्रदेश के चिकित्सा सेवा निदेशक, श्री प्यारे मोहन का कहना है की " सिर्फ़ अधिनियमों मात्र से ही सार्वजानिक स्थानों पर धुम्रपान को प्रतिबंधित नही किया जा सकता है इसके लिए समाज के प्रत्येक व्यक्ति को जिम्मेदारी लेनी होगी और ऐसे लोगों को स्वस्थ्य समाज के प्रति जिम्मेदार करना होगा जो सार्वजानिक स्थानों पर धुम्रपान करते हैं और न केवल अपने स्वाय्थ्य को बल्कि दुसरे के स्वास्थय को भी नुक्सान पहुंचाते हैं। उत्तर प्रदेश देश का सबसे ज्यादा जनसँख्या वाला प्रदेश होने के वजह से यहाँ तम्बाकू द्वारा प्रभावित लोगों की संख्या काफी अधिक हो सकती हैं"। वैश्विक स्तर पर धुम्रपान को रोकने की लिए हमें न केवल तम्बाकू कंपनियों पर प्रतिबन्ध लगाने की जरूरत है बल्कि तम्बाकू नियंत्रण के लिए बनी वश्विक संधि और रास्ट्रीय स्तर पर बने अधिनियमों को भी प्रभावकारी करने की जरूरत है।

कई सारे शोधों के मुताबिक तम्बाकू उत्पादों पर लिखी वैधानिक चेतावनियाँ लोगों में तम्बाकू प्रयोग के अनुपात को कम कर सकती हैं। इसलिए तम्बाकू कम्पनियाँ ख़ुद तम्बाकू नियंत्रण की एक प्रभावकारी माध्यम हैं यदि वह अपने तम्बाकू उत्पाद के पैकेटों पर फोटो वाली चेतावनी और वैधानिक चेतावनी को सही तरीके से लगाते हैं।भारत में प्रतिदिन करीब ५,५०० नये युवा तम्बाकू का प्रयोग करते हैं और १५ साल से कम उम्र के करीब ४० लाख युवा तम्बाकू के उपभोगता हैं।

युवावों में तम्बाकू के बढ़ते चलन को लेकर भारत के स्वास्थय मंत्री श्री अम्बुमणि रामदोस ने भी अपनी चिंता जताई है। एक शोध के मुताबिक भारत में हर साल करीब १० लाख लोगों की मौत तम्बाकू द्वारा होने वाले रोगों से होती है, जिसमें से ७० प्रतिशत लोगों की मौत ३० से ६९ साल तक के उम्र की होती है। किसी भी देश के लिए इस उम्र के लोग सबसे ज्यादा उत्पादक माने जाते हैं।

अतः व्यापक स्तर पर तम्बाकू के प्रयोग और इसके कुप्रभावों को रोकने के लिए हमें सामूहिक तौर पर न केवल जिम्मेदारी लेन होगी बल्कि जिम्मेदार भी बनाना होगा। सिर्फ़ अधिनियमों को बना देने मात्र से ही इस महामारी पर नियंत्रण नहीं पाया जा सकता है।


अमित द्विवेदी
लेखक सिटिज़न न्यूज़ सर्विस के विशेष संवाददाता हैं।

नो स्मोकिंग के नियम से परेशान हैं पब मालिक


नो स्मोकिंग के नियम से परेशान हैं पब मालिक

निजी व सार्वजनिक इमारतों में 2 अक्टूबर से स्मोकिंग पर प्रतिबंध लगाने के स्वास्थ्य मंत्री अंबुमणि रामदॉस के फैसले को लागू करने के लिए कई कंपनियां तैयार हैं। हालांकि उनका कहना है कि इसके लिए उन्हें काफी मशक्कत करनी पड़ेगी। पब और रेस्तरां मालिक रामदॉस के इस निर्णय से परेशान हैं। वे भी मजबूरी में इस निर्णय को मानने की बात तो कह रहे हैं लेकिन उन्हें अपनी धंधे की फिक्र सता रही है।

अपने परिसर में पहले से ही स्मोकिंग पर बैन लगा चुके कुछ कॉरपोरेट हाउस और बीपीओ नए नियम को सही कदम मान रहे हैं। जेनपेक्ट के वाइस प्रेजिडंट विभु नारायण का कहना है कि हम नियमों को लागू करेंगे। स्मोकर्स को बाहर जाकर सिगरेट पीनी होगी। क्वाटरो बीपीओ सॉल्यूशंस के सीईओ रमन रॉय कहते हैं कि इस निर्णय से स्मोकर्स के लिए काफी मुश्किल हो जाएगी। लोग इसकी काफी शिकायत भी कर रहे हैं। हालांकि एक बार जब नियम लागू हो जाता है तो उसका पालन भी करना पड़ता है। नए नियम के तहत यह प्रावधान है कि यदि कोई भी कर्मचारी परिसर में स्मोकिंग करता हुआ पाया जाता है तो कंपनी को प्रति स्मोकर 5 हजार रुपये जुर्माना देना होगा।

हालांकि सरकार के पास इस निर्णय को लागू करवाने के पुख्ता इंतजाम नहीं है। गुड़गांव की एक बड़ी बीपीओ कंपनी के इग्जिक्यटिव का कहना है कि दफ्तरों में चेकिंग करने कौन आएगा? क्या सरकार इसके लिए इंस्पेक्टर रखेगी? तीस सीटों से ज्यादा वाले कैफे, पब और डिस्कोथेक भी स्वास्थ्य मंत्री के नए नियमों के दायरे में आ जाएंगे। इस निर्णय से अपने बिज़नस पर पड़ने वाले बुरे प्रभाव को देखते हुए बड़े रेस्तरां मालिक अपने यहां अलग एरिया और सेपरेट वेंटिलेशन लगाने की तैयारी कर रहे हैं, लेकिन छोटे रेस्तरां के पास ऐसे विकल्प नहीं हैं।

निमंत्रण: आतंकवाद का सच

निमंत्रण: आतंकवाद का सच
पीपुलस यूनियन फॉर सिविल लिबरटीज़ (PUCL) और
पीपुलस यूनियन फॉर ह्यूमन राइट्स (PUHR)

तहलका के संपादक श्री अजीत साही से एक साक्षात्कार पढ़ने के लिए, यहाँ पर
क्लिक कीजिये
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आतंकवाद का सच

तिथि: शनिवार, १३ सितम्बर २००८

समय: ११ - २ बजे

स्थान: प्रेस क्लब, हजरतगंज, लखनऊ

मुख्या वक्ता:
अजीत साही,
संपादक, तहलका

अध्यक्षता
प्रशांत भूषण,
वरिष्ठ अधिवक्ता, सर्वोच्च न्यायालय

आयोजक:
पीपुलस यूनियन फॉर सिविल लिबरटीज़ (PUCL) और
पीपुलस यूनियन फॉर ह्यूमन राइट्स (PUHR)

अधिक जानकारी के लिए, संपर्क कीजिये:
अरुंधती धुरु, ९४१५०२२७७२
शाहिरा नईम, ९४१५१०८८०६

शाहरुख़ खान के ऊपर कड़ी कार्यवाही की जानी चाहिए

शाहरुख़ खान के ऊपर कड़ी कार्यवाही की जानी चाहिए

हाल ही में भारत के स्वस्थ्य और परिवार कल्याण मंत्री अंबुमणि रामदोस द्वारा किए गए घोषणा की २ अक्टूबर से सम्पूर्ण भारत में सार्वजानिक स्थानों पर धूम्रपान पर पूरी तरह से प्रतिबन्ध लग जाएगा बालीवुड के मशहूर फ़िल्म स्टार शाहरुख़ खान ने धज्जियाँ उदा दी। अमृतसर के खालसा कालेज के अन्दर उन्होंने नें युवाओं को सिगरेट पीने के लिए उकसाया है जो काफी निन्दनिये है, और यह कोई पहली बार नहीं है जब उन्होंनें इस तरह की गलती की है। सच तो यह है की सारे सच को जानते हुए भी हमारे मशहूर फ़िल्म स्टार शाहरुख़ खान तम्बाकू नियंत्रण अधिनियमों का खुलेआम उल्लंघन कर रहे हैं।

शाहरुख़ खान द्वारा उनके खालसा कालेज के अन्दर धुम्रपान करने पर वहां की सरकार नें इस पुरे मामले की जाँच के आदेश दिए हैं जो काफी सराहनिए है।

सलमान ने किया सिगरेट से तौबा

सलमान ने किया सिगरेट से तौबा


बालीवुड फिल्म स्टार सलमान खान ने कहा है की अब वह अपनी किसी भी फिल्म में धूम्रपान करते हुए नहीं दिखेंगे। सलमान खान ने यह बात अपनी फिल्म की शूटिंग के दौरान कही। उन्होंनें कहा है किसी यदी वह सिखों के लिबाज में हैं तो सिगरेट को हाथ तक नहीं लगायेंगे। किंतु हॉल ही में शाहरुख़ खान ने अपनी एक फिल्म के शूटिंग के दौरान पटियाला के एक खालसा कॉलेज में सिगरेट पिया था।

शिक्षा के मंदिर या धर्म के अखाडे ?

शिक्षा के मंदिर या धर्म के अखाड़े ?
शोभा शुक्ला

आजकल
हमारी राजनैतिक पार्टियों एवं धार्मिक संगठनों की एक आदत सी बन गयी है की साधारण से साधारणघटना पर भी धर्म का लेप चढा कर उसे साम्प्रदायिकता की आग में झोंक कर अपने अपने स्वार्थ की रोटियां सेंकी जाएँ. धर्म के नाम पर घृणा की भावनाओं को उत्तेजित करना जितना सरल है, धर्मांध हिंसा की आग को बुझानाउतना ही कठिन.

ऐसी हे एक घटना अभी हाल ही में जयपुर के १४२ साल पुराने, अति प्रतिष्ठित सेंत जेवियर स्कूल में घटित हुई. इस स्कूल की बारहवीं कक्षा के सात छात्रों को उनके प्रधानाचार्य फादर जोस जेकब ने अनुशासन एवं उद्दंडता केआरोप में निलंबित कर दिया. ये विद्यार्थी, गणेश चतुर्थी के अवसर पर, कक्षा में गणेश जी का पोस्टर लगा करउसकी तथा कथित पूजा कर रहे थे और पूरी कक्षा शोर मचा कर इस मनोरंजन का मज़ा लूट रही थी. यह तो एकप्रकार से उनके अपने ही धर्म का अपमान करने के समान था.पूजा जैसे पवित्र मांगलिक कार्य को उन विद्यार्थियोंने मौज मस्ती का रूप देकर गणपति जी का ही अपमान किया. और इसके लिए वे छात्र वास्तव में निंदा के पात्र थे. परन्तु भारतीय जनता युवा मोर्चा के कार्यकर्ताओं को तो ऐसे ही सुनहरे अवसरों की तलाश रहती है. उन्होंने फादरजोस पर हिन्दुओं की धार्मिक आस्था को ठेस लगाने का आरोप लगाया. स्कूल में तोड़ फोड़ करने का बहाना मिलगया इन विवेकहीन युवाओं को. युवा मोर्चा के अध्यक्ष ने तो प्रधानाचार्य की गिरफ्तारी तक की मांग कर डाली. स्कूल में अनुशासनहीनता फैलाने वाले विद्यार्थियों का समर्थन कर के भारतीय युवा मोर्चा के सदस्यों ने अपनी हीउश्रन्खालाता का परिचय दिया है.

यह तो सर्व विदित है कि हमारी अधिकांश शिक्षण संस्थाएं असामाजिक कार्यों और गुंडागर्दी का अड्डा बन चुकी हैं, जहाँ पढ़ाई लिखाई के अलावा और सब कुछ होता है. इसका एक बहुत बड़ा कारण है शिक्षा के क्षेत्र में राजनैतिकपार्टियों एवं धार्मिक संगठनों का अनुचित एवं अनावश्यक हस्तकक्षेप .

हम सभी समझदार नागरिकों का कर्तव्य है की युवाओं के चारित्रिक हास को रोकने का प्रयत्न करें कि उसे बढ़ावा दे. हम सभी मन, वचन कर्म से अपने बच्चों को अनुशासन का पाठ पढाएं तथा उनकी निरंकुशता पर प्रेम काअंकुश लगाते हुए उन्हें अपने गुरुजनों का आदर करना सिखाएं. उन्हें धर्म का वास्तविक अर्थ समझना होगा औरधर्म के नाम पर हो रही विचारहीन हिंसा के विरुद्ध आवाज़ उठानी होगी. हमारी तथा कथित धर्म निरपेक्ष राजनैतिक पार्टियों का कर्तव्य है कि वो युवा वर्ग को हिंसा के लिए उकसाने के बजाये उनका उचित मार्गदर्शन करें . स्कूल और कॉलेज मंदिर के समान पवित्र स्थल हैं और उनके प्रांगण में केवल शिक्षा का सम्मानीय कार्य ही होनाचाहिए कि गुंडागर्दी. उपरोक्त प्रकरण में, एक भुक्तभोगी छात्र के पिता ने अपरोक्ष रूप से यह माना कि छात्र नेग़लत काम तो किया, पर निलंबन सज़ा कुछ ज़्यादा ही सख्त थी.

भारतीय युवा मोर्चा के गुंडों के निंदनीय व्यव्हार को नज़र अंदाज़ करने का अर्थ होगा उन गिने चुने शिक्षकों के प्रतिविश्वासघात जो अपने विद्यार्थियों को एक सभ्य एवं संवेदनशील नागरिक बनाने में सतत प्रयत्नशील हैं. साम्प्रदायिकता की आग को बढ़ावा देने वालों का बहिष्कार करमा ही होगा चाहे वे किसी भी जाति या धर्म या पार्टी के हों

शोभा शुक्ला

(लेखिका, सिटिज़न न्यूज़ सर्विस की संपादिका हैं और लखनऊ के प्रसिद्ध लोरेटो कॉन्वेंट में अध्यापिका भी)