आतंकवाद का सच
( शोभा शुक्ला)
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के वकील श्री प्रशांत भूषन जी की अध्यक्षता में आयोजित ‘आतंकवाद का सच’ कार्यक्रम में सुप्रसिद्ध पत्रकार श्री अजित साही को सुनने का अवसर लखनऊ वासियों को प्राप्त हुआ. साही जी ने पिछले कुछ महीनों में देश के अनेक भागों का दौरा करके जो तथ्य एकत्रित किए हैं वे वास्तव में चौंका देने वाले हैं. उनकी जानकारी के अनुसार,एक सरकारी साजिश के तहत, देश के अनेकों मुस्लिम युवकों को बेबुनियाद पुलिस आरोपों में जेल में डाल दिया गया है. यह सब आतंकवाद को रोकने के नाम पर किया जा रहा है, जबकि सच तो यह है कि आतंकवाद से सम्बंधित किसी भी प्रकरण में अभी तक न्यायलय में यह नहीं साबित हो पाया है की इन हादसों में सी.मी.(स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया) के सदस्यों का हाथ था.
पिछले कुछ सालों में, जहाँ कई निर्दोष नवयुवक पुलिस द्वारा आतंकवादी करार करके मार डाले गए हैं या जेल में सड़ रहे हैं,वहीं असली आतंकवादी आज तक खुले घूम कर देश भर में दहशत फैला रहे हैं. किसी भी आतंकवादी घटना के घटित होने के तुंरत बाद पुलिस अचानक ही सक्रिय हो उठती हैं और आनन् फानन में तथाकथित आतंकवादियों को गिरफ्तार करने में जुट जाती है. उनसे डंडे के जोर पर पुलिसिया बयान भी लिखवा लिया जाता है, जो अधिकांशतः कोर्ट में साबित नहीं हो पाता.
पुलिस/ मीडिया के भ्रामक प्रचार से देश के अनेकों निर्दोष मुसलमान सब की घृणा के पात्र बन गए हैं तथा स्वयं को समाज में सर्वथा असुरक्षित महसूस करने लगे हैं.
परन्तु, क्या वे अकेले ही इस भय और अविश्वास के शिकार हैं? आज तो देश का आम नागरिक, चाहे वो किसी भी धर्म/ ज़ाति/ समुदाय का हो, स्वयं को असहाय और असुरक्षित महसूस कर रहा है.
राज ठाकरे की नव निर्माण सेना उत्तर प्रदेश और बिहार के मूल निवासियों / हिन्दी भाषियों को ( जो मुम्बई में कार्यरत हैं) अपनी बेलगाम हिंसा का शिकार बना रही है---और वो भी मराठी संस्कृति की रक्षा के नाम पर. इस प्रकार जहाँ एक और हमारे देश के किसी भी राज्य में कार्य करने के मूल अधिकार का हनन हो रहा है वहीँ दूसरी ओर बहुसंख्यकों के बीच भी अलगाववाद का विष फैल रहा है.
बजरंग दल/ विश्व हिन्दू परिषद् के गुंडे तो हिंदुत्व के नाम पर हिंसा एवं तोड़ फोड़ करने में गर्व का अनुभव करते हैं. फिर चाहे वो दिल्ली के चित्रकार मंजीत सिंह जी की कला प्रदर्शिनी हो, या जयपुर के एक प्रतिष्ठित मिशनरी स्कूल के विद्यार्थियों की अनुशासनहीनता का मामला हो, या फिर उडीसा और कर्णाटक में ईसाईयों के विरुद्ध भड़की हुयी बेबुनियाद हिंसा हो. धर्मान्धता उन्हें केवल विनाशकारी कार्यों के लिए ही प्रेरित करती है, कोई सामाजिक उपयोग के कार्य के लिए नहीं.
प्रशासन अथवा पुलिस को भी उन गरीब किसानो पर गोली बरसाना न्यायोचित लगता है जो अपने मौलिक अधिकारों की पूर्ति के लिए आवाज़ उठाते हैं जब उनकी उर्वरक भूमि को औद्योगिक विकास के नाम पर औने पौने दामों पर सरकार द्वारा खरीद लिया जाता है.
ये सारी घटनाएं , जो आए दिन हमारे भारत महान में घट रहीं हैं, क्या किसी आतंकवाद से कम हैं? चाहे वह अमानुषिक बम विस्फोट हो, या किसी विशेष जाति/धर्म/समुदाय पर की गयी न्रिशन्स हिंसा हो, या किसानो/श्रमिकों पर हो रहे अमानवीय अत्याचार हों---इन सभी प्रकरणों में मारने वाला शक्तिशाली होता है और मरने वाला गरीब और असहाय. निर्बल को सता कर और निर्धन का दमन कर अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने में कदाचित हमें कोई पाशविक आनंद प्राप्त होता है. फिर चाहे वह प्रशासन द्वारा अल्पसंखयकों का दमन हो, अथवा उद्योगपतियों द्वारा गरीब किसानो का शोषण हो, अथवा निर्दोष जनता पर पुलिस का अत्याचार हो---सब तरफ़ एक ही राग गूंजता हुआ प्रतीत होता है--- मैं तुमसे आर्थिक/ सामाजिक/ धार्मिक/ सांस्कृतिक रूप से अधिक संपन्न हूँ और तुम निकृष्ट जीव, मेरी न्रिशंस्ता के पात्र हो.
आम निर्दोष आदमी के प्रशासन/ पुलिस के हाथों दमन की अनेको घटनाएँ हमारे चारों और प्रतिदिन घटित होती हैं. परन्तु हम उन सभी को सहज रूप से स्वीकार कर लेते हैं, जब तक स्वयं हम पर या हमारे संबन्धी पर ही आघात न हो.
केवल बम विस्फोट करना ही आतंक वाद नही है. क्या हमारी भ्रष्ट पुलिस आम जनता की रक्षा करने के बजाय, उस को आतंकित करके खुले आम निर्भय होकर नहीं घूम रही?
क्या प्रशासन गरीब किसान की भूमि का अपहरण करके अथवा बाढ़/ सूखे/ दंगे से पीड़ित लोगों के लिए आवंटित धनराशि का घोटाला कर के जनता को आतंकित नहीं कर रहा?
क्या बजरंग दल, शिवसेना, एवं अन्य तथाकथित धार्मिक संगठन देश भर में धर्म के नाम पर हिंसा फैला कर हमें आतंकित नहीं कर रहे?
बिनायक सेन जैसे स्वार्थहीन सामाजिक कार्यकर्त्ता एवं शिक्षा/ स्वास्थ्य के क्षेत्र में नि:स्वार्थ योगदान देने वाले किसी विशिष्ट समुदाय के व्यक्ति क्या अमानवीय शक्तियों के कोप के शिकार नही बन रहे?
क्या हमारी सेना, जो देश के हिंसा ग्रस्त क्षेत्रों में आम जनता की सुरक्षा के लिए तैनात की जाती है, महिलाओं की अस्मिता एवं नागरिकों के मूल अधिकारों का हनन नहीं कर रही है?
आए दिन हम सड़कों पर पुलिस की आँख के नीचे यातायात नियमों को भंग होते हुए देखते हैं; समाज और परिवार में महिलाओं के साथ अमानुषिक दुर्व्यवहार होते ही देखते हैं( चाहे वह कन्या भ्रूड की हत्या हो या दहेज़ न लाने के अपराध में स्त्री को जलाये जाने का मामला हो या पारिवारिक प्रतिष्ठा के नाम पर उसे मार डालने की साजिश हो या बलात्कार के माध्यम से पौरुष शक्ति का वीभत्स प्रदर्शन हो); खुले आम निर्दोष, गरीब नागरिक पर पुलिस के क्रूर अत्याचार होते हुए देखते हैं.
ये सभी आतंकवादी कृत्य हैं जो हमारे सभ्य समाज में किसी भी निरीह, आम आदमी पर शक्तिशाली ताकतों (जो नितांत देशी हैं) द्वारा आजमाए जा रहे हैं. केवल मुसलमान ही नही, इस देश का प्रत्येक शांतिप्रिय और कानून प्रिय नागरिक, पुलिस/ प्रशासन/ न्यायपीठ से आशंकित एवं भयभीत है. राजनैतिक एवं आर्थिक रूप से संपन्न व्यक्ति शायद ही कभी आतंकवादी घटनाओं का शिकार होता है. बम विस्फोट कोई भी करे, पिस्ता तो आम आदमी ही है.
हमारे और आप जैसा बेचारा नागरिक आख़िर कब इन आतंकवादी घटनाओं का शिकार होता रहेगा? हम चाहे किसी भी धर्म अथवा जाती अथवा संप्रदाय के हों, हमें एकजुट होकर अहिंसात्मक तरीकों से सत्य का साथ देते हुए , अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठानी ही होगी ( जैसा की अभी हाल ही में झारखण्ड और दिल्ली के आस पास के इलाकों के किसानों ने किया है).
हम बम विस्फोटों से अभी तक अवश्य न मरे हों, परन्तु हमारी आत्मा और अस्मिता को मारने के जो प्रयास प्रतिदिन किए जा रहे हैं उनके प्रति हमें सचेत होना ही होगा.
प्रशासन के आतंकवाद और हमारी नपुंसकता का अंत होना ही चाहिए।
शोभा शुक्ला
(लेखिका, सिटिज़न न्यूज़ सर्विस की संपादिका हैं और लखनऊ के लोरेटो कॉन्वेंट में वरिष्ठ अध्यापिका भी)