विश्व 'ओज़ोन' दिवस पर विशेष
(१६ सितम्बर)
'ओज़ोन' और हमारी प्रतिबधतायें
वसु शेन मिश्रा
प्रत्येक वर्ष की ही भांति इस वर्ष भी समस्त संसार १६ सितम्बर को विश्व ओज़ोन दिवस के रूप में समस्त संसार मना रहा है. यह दिवस वास्तव में प्रथ्वी पर सूर्य की हानिकारक पैराबैगनी किरणों के प्रकाश से धरती की रक्षाकरने वाली ओज़ोन परत को बचानें हेतु अपनी प्रतिबधता को दोहराने के प्रयास के रूप में प्रतिवर्ष जाता हैं। आईये प्रथ्वी पर पैराबैगनी किरणों के कुप्रभाव तथा 'ओज़ोन' परत की जीवनदायनी शक्ति को नज़दीक से समझते हैं, तभी हम इस दिन की महत्ता को समझ सकेंगे।
हमारी प्रथ्वी पर जीवन सूर्य द्वारा उपलब्ध करायी ऊर्जा पर ही निर्भर है। यदि सूर्य द्वारा प्रथ्वी को उपलब्ध ऊर्जा को १०० प्रतिशत मान लें तो सौर्य ऊर्जा का अव्शूशन तथा परावर्तन का समीकरण कुछ इस प्रकार होगा:-
प्रथ्वी पर सूर्य द्वारा प्राप्त कुल उर्जा = १००%
प्रथ्वी के वायुमंडल में उपस्थित बादलों, तथा धूल के kadon
द्वारा परावर्तित भाग = ३५%
बचा भाग = ६५% (१००%-35%)
इसमें से १४% का अवशोषण 'ओज़ोन' परत द्वारा किया जाता हैं।
यह अवशोषण 'ओज़ोन' परत द्वारा किया जाता हैं।यह अवशोषण कम भेदन क्षमता वाली हानिकारक पैराबैगनीकिरणों का होता है, जो यदि पृथ्वी पर पहुँच जायें तो 'कैंसर' जैसी घातक बीमारियाँ बन सकती हैं।
बचा भाग :-६५%-१४%=५१%
सूर्य द्वारा प्रदान की गयी कुल ऊर्जा का यह ५१ % भाग ही वास्तव में प्रभावी रूप से प्रथ्वी को प्राप्त होता हैं।
इस ५१% में से ३४% भाग प्रत्यक्ष सौर्य विकीरण के रूप में तथा १७% भाग पार्थिव विकीरण के रूप में प्रथ्वी से बाहर चला जाता हैं।
'ओज़ोन' छिद्र की मोटाई में कमी (जो १९५६ की ३२५ 'डोकसन' की सीमा से १९९४ में मात्रा ९४ 'डोकसन' ९४ डोकसन ही रह गयी तथा और ह्रास जारी है।) अथवा वायुमंडल में उपस्थित ऐसी गैसों की अत्याधिक उपस्थिति, जो वायुमंडल में अप्राकृतिक तथा घनत्व में अधिक, बादलों का निर्माण करती है; पैराबैगनी किरणों के ज़्यादा प्रवेश तथा ज़्यादा समय तक उपस्थिति का कारण बनती हैं. इसी के कारण अप्रत्यक्ष रूप से प्रथ्वी के तापमान में वृद्धि होती है; जो प्रथ्वी पर विभिन्न प्रकार की आपदाओं का कारण बनती हैं।(उदाहरणस्वरुप:-असमय वर्षा, बाढ़, सूखा,'कैंसर' जनित रोग आदि।)
जो गैस प्रभावी रूप से पृथ्वी के तापमान को अप्रत्यक्ष रूप से तापमान को अप्रत्यक्ष रूप से बढ़ाने में ठाठ ओज़ोन की जीवनदायनी परत को हानि पहुचने में सहायक होती है। उन्हें 'ग्रीनहाउस' गैसें कहा जाता है। ६ गैसों को मुख्यतय: 'ग्रीनहाउस' गैस कहा जाता है , मीथेन, सल्फरहेक्साफ्लोराइड,परफ्लोरोकार्बन, आदि।
इनका नाम ग्रीनहाउस गैसेस इसलिए पड़ा क्यूँकि वैज्ञानिकों ने प्रयोग कर कांच से घिरी, एक कृत्रिम बाग़ का निर्माण कर उसमें अन्दर आती हुई सूर्य की किरणों को बाहर जाने से रोका, जो इन गैसों के निर्माण में सहायक हुआ तथा इसने ठंडी स्थानों पर गर्म छेत्र (कृत्रिम रूप से) की स्थिति पैदा कर गर्म स्थलों के पौधे यहां उपजयाने की स्थिति पैदा की। अतः छोटे पैमाने पर जहाँ मानव का यह कृत्रिम निर्माण उसके लिए सहायक लगता है, परन्तु यह ही स्थिति जब संपूर्ण पृथ्वी पर पड़ती है, तो अभूतपूर्व गरमी तथा इसके चलती असीमित विपदाएं आती हैं।
क्लोरो-फ्लोरो कार्बन (सी.अफ.सी) आदि इन गैसों का उपयोग 'फ्रिजों' में ,ओप्टिकल फाइबर आदि में होता है । आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि 'ओजोन परत' में कमी अथवा ओजोन छिद्र ,जो आज फुटबॉल के स्टेडियम जितना बड़ा है , का निर्माण हमारी ध्रुवों पर हुआ है जहाँ औद्योगिक गतिविधियाँ न्यूनतम हैं.इसका कारण है -ध्रुवी संताप मंडल बादल कम तापमान पर(जो ध्रुवों पर होता है) क्लोरीन को सुअतंत्र क्रिया करने के लिए सतह प्रदान करती है तथा सूर्य की रौशनी की उपस्थिति में 'अंतर्तिका'में बसंत के आगमान पर बर्फ जमने के समय क्लोरीन (जो सी.अफ.सी. में उपस्थित है) ओजोन आडुओं पर आक्रमण कर उन्हें नष्ट कर देते है.अतः हमारे 'ग्लेशियर' क्यों तीव्रता से पिघल रही हैं,समझ में आया होगा।
आई.पी.सी.सी (या इंटर गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेन्ज') की वर्त्तमान रिपोर्ट के अनुसार पृथ्वी का तापमान पिछले १०० वर्षों में ०.७४% तक बढ़ा है.इसके प्रभाव विनाशक होंगे,:-
* समुद्र स्तर में अप्रत्याशित बढोतिरी।(अतः इंग्लैंड जैसी तटीय देश जलमग्न हो सकते हैं)
* भारत जैसे देश में 'ग्लेशियर' (हिमाद्री आदि) पिघलने पर पहले बाढ़ का खतरा फिर सूखे की विभीषिका से सामना हो सकता है.
तो समझे, उत्तर भारत में वर्ष २००८ में जल्द मानसून आना कोई हर्ष का विषय नहीं था अपितु चेतावनी थी.
अब हमारी प्रतिबधता की भी बात कर लें। अमेरिका जो विश्व के नेता होने का दंभ भरता है,वास्तव में इन विनाशकारी गैसों का सबसे बड़ा उत्सर्जनकर्ता है। और तो और 'क्योटो प्रोटोकॉल' जो एक बाध्यकारी संधि है (ग्रीनहाउस गैसों को कम करने के सम्बन्ध में) अमेरिका ने उस पर अभी तक हस्ताक्षर नहीं किए हैं। यह सन्दर्भ हमारी मानसिकता को झंझोर देने हेतु पर्याप्त होने चाहिए कि "सतत विकास" का विरोधी विश्व नेता कदापि नहीं हो सकता.
विकट समस्या से निपटने हेतु अभी!! और अभी!!कदम उठाने की आवश्यकता है। कुछ उपयोगी कदम इस प्रकार है:-
१)वृक्षों को बचाना होगा जो कार्बन-डी-ऑक्साइड जैसे गैसों को नियंत्रित करते है.
२) जीवन शैली में परिवर्तन लाना होगा.(जैसे:-कम ऊर्जा के दोहन का सतत प्रयास)
३) प्रकृति से धनात्मक सम्बन्ध रखने वाली तकनीकों का उपयोग. जैसे:- जैविक खाद का प्रयोग, कृत्रिम खाद के स्थान पर.
४) कार्बन ट्रेडिंग को विभिन्न देशों द्वारा अपनाए जाने की प्रक्रिया में तेज़ी लाना.
५) जलवायु को बेहतर बनने की तकनीकों का वैश्वीकरण.
सही वक्त है चिपको आन्दोलन जैसे आंदोलनों को पुनर्जीवित करने का,अन्यथा,हमारा अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा.
अतः विश्व 'ओज़ोन' दिवस के दिन हमारी प्रतिबधता मात्रा इस दिन तक की संवेदनशीलता तक ही सीमित नहीं रह जानी चाहिए आपितु प्रत्येक साँस के साथ हमें पृथ्वी को बचाने हेतु कार्य करना होगा। नहीं तो यह आने वाला विध्वंस मानव-जनित होगा ,प्राकृतिक नहीं।
वसु शेन मिश्रा
लेखक, लखनऊ विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर शिक्षा प्राप्त, स्थायी विकास के लिए समर्पित युवा कार्यकर्ता हैं, और सिटिज़न न्यूज़ सर्विस के संवाददाता भी। संपर्क ईमेल: vasusmisra@yahoo.co.in
(१६ सितम्बर)
'ओज़ोन' और हमारी प्रतिबधतायें
वसु शेन मिश्रा
प्रत्येक वर्ष की ही भांति इस वर्ष भी समस्त संसार १६ सितम्बर को विश्व ओज़ोन दिवस के रूप में समस्त संसार मना रहा है. यह दिवस वास्तव में प्रथ्वी पर सूर्य की हानिकारक पैराबैगनी किरणों के प्रकाश से धरती की रक्षाकरने वाली ओज़ोन परत को बचानें हेतु अपनी प्रतिबधता को दोहराने के प्रयास के रूप में प्रतिवर्ष जाता हैं। आईये प्रथ्वी पर पैराबैगनी किरणों के कुप्रभाव तथा 'ओज़ोन' परत की जीवनदायनी शक्ति को नज़दीक से समझते हैं, तभी हम इस दिन की महत्ता को समझ सकेंगे।
हमारी प्रथ्वी पर जीवन सूर्य द्वारा उपलब्ध करायी ऊर्जा पर ही निर्भर है। यदि सूर्य द्वारा प्रथ्वी को उपलब्ध ऊर्जा को १०० प्रतिशत मान लें तो सौर्य ऊर्जा का अव्शूशन तथा परावर्तन का समीकरण कुछ इस प्रकार होगा:-
प्रथ्वी पर सूर्य द्वारा प्राप्त कुल उर्जा = १००%
प्रथ्वी के वायुमंडल में उपस्थित बादलों, तथा धूल के kadon
द्वारा परावर्तित भाग = ३५%
बचा भाग = ६५% (१००%-35%)
इसमें से १४% का अवशोषण 'ओज़ोन' परत द्वारा किया जाता हैं।
यह अवशोषण 'ओज़ोन' परत द्वारा किया जाता हैं।यह अवशोषण कम भेदन क्षमता वाली हानिकारक पैराबैगनीकिरणों का होता है, जो यदि पृथ्वी पर पहुँच जायें तो 'कैंसर' जैसी घातक बीमारियाँ बन सकती हैं।
बचा भाग :-६५%-१४%=५१%
सूर्य द्वारा प्रदान की गयी कुल ऊर्जा का यह ५१ % भाग ही वास्तव में प्रभावी रूप से प्रथ्वी को प्राप्त होता हैं।
इस ५१% में से ३४% भाग प्रत्यक्ष सौर्य विकीरण के रूप में तथा १७% भाग पार्थिव विकीरण के रूप में प्रथ्वी से बाहर चला जाता हैं।
'ओज़ोन' छिद्र की मोटाई में कमी (जो १९५६ की ३२५ 'डोकसन' की सीमा से १९९४ में मात्रा ९४ 'डोकसन' ९४ डोकसन ही रह गयी तथा और ह्रास जारी है।) अथवा वायुमंडल में उपस्थित ऐसी गैसों की अत्याधिक उपस्थिति, जो वायुमंडल में अप्राकृतिक तथा घनत्व में अधिक, बादलों का निर्माण करती है; पैराबैगनी किरणों के ज़्यादा प्रवेश तथा ज़्यादा समय तक उपस्थिति का कारण बनती हैं. इसी के कारण अप्रत्यक्ष रूप से प्रथ्वी के तापमान में वृद्धि होती है; जो प्रथ्वी पर विभिन्न प्रकार की आपदाओं का कारण बनती हैं।(उदाहरणस्वरुप:-असमय वर्षा, बाढ़, सूखा,'कैंसर' जनित रोग आदि।)
जो गैस प्रभावी रूप से पृथ्वी के तापमान को अप्रत्यक्ष रूप से तापमान को अप्रत्यक्ष रूप से बढ़ाने में ठाठ ओज़ोन की जीवनदायनी परत को हानि पहुचने में सहायक होती है। उन्हें 'ग्रीनहाउस' गैसें कहा जाता है। ६ गैसों को मुख्यतय: 'ग्रीनहाउस' गैस कहा जाता है , मीथेन, सल्फरहेक्साफ्लोराइड,परफ्लोरोकार्बन, आदि।
इनका नाम ग्रीनहाउस गैसेस इसलिए पड़ा क्यूँकि वैज्ञानिकों ने प्रयोग कर कांच से घिरी, एक कृत्रिम बाग़ का निर्माण कर उसमें अन्दर आती हुई सूर्य की किरणों को बाहर जाने से रोका, जो इन गैसों के निर्माण में सहायक हुआ तथा इसने ठंडी स्थानों पर गर्म छेत्र (कृत्रिम रूप से) की स्थिति पैदा कर गर्म स्थलों के पौधे यहां उपजयाने की स्थिति पैदा की। अतः छोटे पैमाने पर जहाँ मानव का यह कृत्रिम निर्माण उसके लिए सहायक लगता है, परन्तु यह ही स्थिति जब संपूर्ण पृथ्वी पर पड़ती है, तो अभूतपूर्व गरमी तथा इसके चलती असीमित विपदाएं आती हैं।
क्लोरो-फ्लोरो कार्बन (सी.अफ.सी) आदि इन गैसों का उपयोग 'फ्रिजों' में ,ओप्टिकल फाइबर आदि में होता है । आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि 'ओजोन परत' में कमी अथवा ओजोन छिद्र ,जो आज फुटबॉल के स्टेडियम जितना बड़ा है , का निर्माण हमारी ध्रुवों पर हुआ है जहाँ औद्योगिक गतिविधियाँ न्यूनतम हैं.इसका कारण है -ध्रुवी संताप मंडल बादल कम तापमान पर(जो ध्रुवों पर होता है) क्लोरीन को सुअतंत्र क्रिया करने के लिए सतह प्रदान करती है तथा सूर्य की रौशनी की उपस्थिति में 'अंतर्तिका'में बसंत के आगमान पर बर्फ जमने के समय क्लोरीन (जो सी.अफ.सी. में उपस्थित है) ओजोन आडुओं पर आक्रमण कर उन्हें नष्ट कर देते है.अतः हमारे 'ग्लेशियर' क्यों तीव्रता से पिघल रही हैं,समझ में आया होगा।
आई.पी.सी.सी (या इंटर गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेन्ज') की वर्त्तमान रिपोर्ट के अनुसार पृथ्वी का तापमान पिछले १०० वर्षों में ०.७४% तक बढ़ा है.इसके प्रभाव विनाशक होंगे,:-
* समुद्र स्तर में अप्रत्याशित बढोतिरी।(अतः इंग्लैंड जैसी तटीय देश जलमग्न हो सकते हैं)
* भारत जैसे देश में 'ग्लेशियर' (हिमाद्री आदि) पिघलने पर पहले बाढ़ का खतरा फिर सूखे की विभीषिका से सामना हो सकता है.
तो समझे, उत्तर भारत में वर्ष २००८ में जल्द मानसून आना कोई हर्ष का विषय नहीं था अपितु चेतावनी थी.
अब हमारी प्रतिबधता की भी बात कर लें। अमेरिका जो विश्व के नेता होने का दंभ भरता है,वास्तव में इन विनाशकारी गैसों का सबसे बड़ा उत्सर्जनकर्ता है। और तो और 'क्योटो प्रोटोकॉल' जो एक बाध्यकारी संधि है (ग्रीनहाउस गैसों को कम करने के सम्बन्ध में) अमेरिका ने उस पर अभी तक हस्ताक्षर नहीं किए हैं। यह सन्दर्भ हमारी मानसिकता को झंझोर देने हेतु पर्याप्त होने चाहिए कि "सतत विकास" का विरोधी विश्व नेता कदापि नहीं हो सकता.
विकट समस्या से निपटने हेतु अभी!! और अभी!!कदम उठाने की आवश्यकता है। कुछ उपयोगी कदम इस प्रकार है:-
१)वृक्षों को बचाना होगा जो कार्बन-डी-ऑक्साइड जैसे गैसों को नियंत्रित करते है.
२) जीवन शैली में परिवर्तन लाना होगा.(जैसे:-कम ऊर्जा के दोहन का सतत प्रयास)
३) प्रकृति से धनात्मक सम्बन्ध रखने वाली तकनीकों का उपयोग. जैसे:- जैविक खाद का प्रयोग, कृत्रिम खाद के स्थान पर.
४) कार्बन ट्रेडिंग को विभिन्न देशों द्वारा अपनाए जाने की प्रक्रिया में तेज़ी लाना.
५) जलवायु को बेहतर बनने की तकनीकों का वैश्वीकरण.
सही वक्त है चिपको आन्दोलन जैसे आंदोलनों को पुनर्जीवित करने का,अन्यथा,हमारा अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा.
अतः विश्व 'ओज़ोन' दिवस के दिन हमारी प्रतिबधता मात्रा इस दिन तक की संवेदनशीलता तक ही सीमित नहीं रह जानी चाहिए आपितु प्रत्येक साँस के साथ हमें पृथ्वी को बचाने हेतु कार्य करना होगा। नहीं तो यह आने वाला विध्वंस मानव-जनित होगा ,प्राकृतिक नहीं।
वसु शेन मिश्रा
लेखक, लखनऊ विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर शिक्षा प्राप्त, स्थायी विकास के लिए समर्पित युवा कार्यकर्ता हैं, और सिटिज़न न्यूज़ सर्विस के संवाददाता भी। संपर्क ईमेल: vasusmisra@yahoo.co.in