विश्व मधुमेह (डायबिटीज़) दिवस
(१४ नवम्बर २००८)
से पूर्व ५० दिनों में
जागरूकता अभियान आरंभ
विश्व मधुमेह दिवस, १४ नवम्बर २००८ के पूर्व ५० दिनों में इस रोग के प्रति जागरूकता बढ़ाने के प्रयत्न किए जा रहे हैं। अंतर्राष्ट्रीय डायबिटीज़ फेडेरेशन (आई.डी.ऍफ़) के अनुसार, इस वर्ष के अभियान का प्रमुख विषय है ‘बच्चों एवं किशोरावस्था में मधुमेह’।
मधुमेह बच्चों को होने वाली एक ऐसी बीमारी हैं जो लंबे समय तक चलती है। किसी भी आयु का बच्चा इससे पीड़ित हो सकता है, यहाँ तक कि एक शिशु भी। प्रतिदिन करीब २०० बच्चों में टाइप-१ की डायबिटीज़ के लक्षणों का निदान चिकित्सकों द्वारा किया जाता है। जिसके कारणवश इन बच्चों को प्रतिदिन इंसुलिन के इंजेक्शन लगाने पड़ते हैं ताकि उनके रक्त में शर्करा की मात्रा को नियंत्रित किया जा सके। मधुमेह से ग्रसित बच्चों की संख्या में ३% की वार्षिक वृद्धि हो रही है और बहुत ही छोटे बच्चों में यह वृद्धि ५% है। १५ वर्ष से कम आयु वाले लगभग ७०,००० बच्चे प्रतिवर्ष इस रोग से ग्रस्त हो रहे हैं।
यदि समय से इस रोग का निदान नहीं होता है तो यह रोगी की मृत्यु का कारण बन सकता है अथवा उसके मस्तिष्क में विकार पैदा कर सकता है। इस रोग के मुख्य लक्षण हैं :अधिक पेशाब होना, अधिक प्यास लगना, शारीरिक शिथिलता या वज़न कम होना। प्राय: इन लक्षणों को फ्लू का लक्षण मान कर नज़रंदाज़ कर दिया जाता है तथा रोग का निदान समय पर नहीं हो पता।
डाक्टर मार्टिन सिलिंक ( जो आई.डी.ऍफ़. के अध्यक्ष हैं) के अनुसार ‘प्रत्येक अभिभावक, शिक्षक,स्कूली नर्स, डाक्टर तथा बच्चों के साथ कार्यरत लोगों को इस रोग के लक्षणों से भली भांति अवगत होना चाहिए ताकि रोग का निदान सही समय पर हो सके, वरना रोगी ‘मधुमेही मूर्छा’ की अवस्था में जाकर मर भी सकता है।’
विकासशील देशों के मधुमेह पीड़ित बच्चे इंसुलिन न मिल पाने के कारण मृत्यु का शिकार बन रहे हैं। आई.डी.ऍफ़. का मानना है कि इस रोग की उचित चिकित्सा उपलब्धता प्रत्येक बच्चे का सौभाग्य नहीं वरन अधिकार होना चाहिए।
पिछले वर्ष, विश्व मधुमेह दिवस पर विश्व की अनेकों इमारतों को नीले रंग के प्रकाश से सज्जित किया गया था। इसवर्ष भी फेडेरेशन विश्व समाज से उसकी राय जानने को उत्सुक है कि मधुमेह के प्रति जागरूकता बढ़ाने के लिए क्या उपाय किए जाएँ।
भारत सरीखे देशों में करीब ३४० से ३५० लाख व्यक्ति इस व्याधि का शिकार हैं, जो एक विश्व रिकार्ड है। १७% नगरवासी एवं २.५% ग्रामवासी इस बीमारी से पीड़ित हैं। इस रोग का सबसे बड़ा कुप्रभाव है ‘डैबेटिक फुट’ जिसके चलते पैरों में घाव हो जाता है तथा पैर काटना तक पड़ सकता है। डॉ. राम कान्त जो किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज में डैबेटिक फ़ुट विभाग के अध्यक्ष हैं, उनके अनुसार प्रतिवर्ष लगभग ५०,००० व्यक्तियों को यह त्रासदी झेलनी पड़ती है, जबकि उनमें से ७५% अपना पैर खोने से बच सकते हैं यदि समय रहते इस रोग का निदान एवं उपचार हो जाए।
इस रोग का सही निदान व उपचार न होने से उत्पन्न कुप्रभावों के अनेक कारण हैं, जैसे (a) इस रोग के प्रति जागरूकता की कमी, (b) नंगे पाँव चलने की आदत (c) घरेलू उपचार, (d) ग़लत प्रकार का जूता पहनना आदि। भारत तथा थाईलैंड जैसे देशों में, जहाँ अधिकाँश जनता गाँवों में रहती है, पैरों की देखभाल करके उनके घावों को रोकना अति आवश्यक है।
आइये, हम सभी इन ५० दिनों में ( और उसके बाद भी) इस रोग के प्रति जागरूकता उत्पन्न करने का अभियान चलायें जिससे इस रोग से पीड़ित व्यक्तियों की संख्या में कमी आए और इससे ग्रसित लोगों में मधुमेह या डायबिटीज़ का सफलता पूर्वक नियंत्रण हो सके।
शोभा शुक्ला
(लेखिका, सिटिज़न न्यूज़ सर्विस की संपादिका हैं और लखनऊ के लोरेटो कॉन्वेंट में वरिष्ठ अध्यापिका भी)