जब एक गांव ने एक सामाजिक संगठन को खड़ा किया कठघरे में

जब एक गांव ने एक सामाजिक संगठन को खड़ा किया कठघरे में

हरदोई जिले की सण्डीला तहसील की ग्राम पंचायत सिकरोरिहा का गांव है नटपुरवा। यहां नट बिरादरी के लोग रहते हैं जिनमें से कुछ परिवार वेष्यावृत्ति में लिप्त हैं। बताते हैं यह परम्परा है यहां करीब तीन सौ सालों से है। कुछ परिवारों में लड़कियों या बहनों को इस धंधे में धकेल दिया जाता है। परिवार के पुरुषों के लिए यह अत्यंत सुविधाजनक है क्योंकि इससे आसान कमाई हो जाती है।

इन्हीं परिवारों में से एक के एक नवजवान जो एक सामाजिक संस्था के क्षेत्रीय आश्रम से जुड़े थे ने यह फैसला किया कि वह अपने गांव की उपर्युक्त समस्या से लड़ने के लिए अपने गांव में ही काम करेगा। यह माना गया कि यदि गांव की लड़कियों को वेष्यावृत्ति के व्यवसाय में जाने से रोकना है तो एक रास्ता हो सकता है शिक्षा का। नटपुरवा में कोई प्राथमिक विद्यालय नहीं था। अगल-बगल के गांवों में नटपुरवा के बच्चों के लिए जाने में उन्हें अपमान झेलना पड़ता था क्योंकि नट बिरादरी के लोगों को उनके व्यवसाय के कारण हेय दृष्टि से देखा जाता था।

अतः नीलकमल ने 2001 में अपने गांव में एक विद्यालय की नींव डाली। गांव के ही लोगों को शिक्षण कार्य में लगाया। धीरे-धीरे विद्यालय में बच्चे बढ़ने लगे। एक पुस्तकालय भी शुरू किया गया।

गांव के लोग ग्राम प्रधान के द्वारा कराए गए विकास कार्यों से असंतुष्ट थे। एक अन्य नवजवान श्रीनिवास ने पंचायती राज अधिनियम का इस्तेमाल कर ग्राम पंचायत के आय-व्यय का ब्यौरा मांगा। यहां के निर्वाचित प्रधान थे रुदान लेकिन असल में ग्राम प्रधानी चला रहे थे भूतपूर्व प्रधान हरिकरण नाथ द्विवेदी। रुदान हरिकरण नाथ द्विवेदी के खेत में काम करते थे। असल में आजादी के बाद से हमेशा ग्राम प्रधान द्विवेदी के परिवार का ही कोई व्यक्ति रहा। किन्तु यहां आरक्षण लागू हो जाने की वजह से उन्हें अपने दलित नौकर को ग्राम प्रधान बनवाना पड़ा।

गांव का आय-व्यय का ब्यौरा निकलने के बाद गांव की जनता जांच हुई। यानी जनता ने आय-व्यय के ब्यौरे के आधार पर कार्यों का भौतिक सत्यापन किया। १,६९,१०२रु0 रुपयों का घपला निकला। रपट जिलाधिकारी को सौंपी गई। जिलाधिकारी ने अपने स्तर से जांच कराई। उन्होंने यह कहते हुए कि इस ग्राम का प्रधान रबर स्टैंम्प प्रधान है उसे निलंबित कर दिया। किन्तु जिले के ही तत्कालीन कृषि मंत्री अशोक वाजपेयी की सिफारिश पर प्रधान बहाल हो गए। इस घटना की उपलब्धि यह रही कि द्विवेदी परिवार की दबंगई पर कुछ अंकुष लगा। अपने मौलिक अधिकार को लेकर लोग मुखरित हुए।

सामाजिक संगठन आशा परिवार से एक भूतपूर्व वेष्या चंद्रलेखा भी जुड़ीं। वे भी गांव में बदलाव चाहती थीं। एक बार उनके बारे में एक राष्ट्रीय स्तर की पत्रिका में छपा। जिलाधिकारी ने उन्हें मिलने के लिए बुलाया। जब जिलाधिकारी ने उनसे पूछा कि वे अपने गांव के लिए क्या चाहती हैं तो उन्होंने एक प्राथमिक विद्यालय की मांग की। इस तरह से गांव में एक प्राथमिक विद्यालय बन गया। यह एक बड़ी उपलब्धि मानी जाएगी।

किन्तु धीरे-धीरे सामाजिक संगठन का काम शिथिल पड़ता गया। कार्यकर्ताओं के व्यवहार में भी कुछ गड़बड़ियों की शिकायत आने लगी। गांव वालों का भरोसा संगठन से उठ गया तो उन्होंने गांव में विकास न होने के मुद्दे पर आम चुनाव का बहिष्कार किया। फिर चुनाव के बाद जिला मुख्यालय पर धरना देकर गांव में एक पक्की नाली तथा राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना के तहत एक तालाब खुदाई का कार्य कराया।

27 अगस्त, 2009, को गांव वालों ने एक सार्वजनिक बैठक कर सामाजिक संगठन आशा परिवार के कार्यकर्ताओं को कठघरे में खड़ा किया। सवाल किए गए कि इस संगठन के लोगों ने गांव में ठीक से विकास कार्य कराने में दिलचस्पी क्यों नहीं ली? आखिर ऐसी नौबत क्यों आई कि गांव वालों का संगठन से विश्वास उठ गया तथा उन्हें अपना काम कराने के लिए खुद पहल करनी पड़ी?

आशा परिवार के कार्यकर्ताओं ने यह माना कि उनके कामों में कमी रही है। हलांकि उनके खिलाफ लगाए गए भ्रष्टाचार के कोई आरोप साबित नहीं हो पाए। संगठन ने किसी को भी अपना हिसाब-किताब देखने की खुली छूट दी। लेकिन अपने गलत व्यवहार के लिए उन्होंने गांव वालों से माफी मांगी।

गांव वालों ने निर्णय लिया कि चूंकि लोगों का विश्वास सामाजिक संगठन में खत्म हो गया है अतः वह अब इस गांव में काम न करे। संगठन की तरफ से दो कार्यकत्रियाँ जो प्राथमिक विद्यालय में पढ़ाने जाती थीं उनको भी जाने से मना किया गया। चूंकि एक खुली बैठक में यह गांव वालों का सामूहिक निर्णय था इसलिए सामाजिक संगठन ने इस फैसले का सम्मान करते हुए नटपुरवा गांव में अपना काम स्थगित करने का निर्णय लिया।

हलांकि बैठक के दौरान काफी तनाव रहा और तीखी बहस भी हुई, ऐसी आशंका होने के बावजूद कि लड़ाई-झगड़े के साथ बैठक समाप्त होगी, दोनों पक्षों ने सयम बरता। एक स्वस्थ्य लोकतांत्रिक तरीके से बातचीत सम्पन्न हुई। यह भी महसूस किया गया कि जैसे एक सामाजिक संगठन को कठघरे में खड़ा किया गया उसी तरह शासन-प्रशासन की व्यवस्था में जो लोग जनता के विकास कार्यों के लिए जिम्मेदार हैं उन्हें भी जवाबदेह बनाया जाना चाहिए।

असल में यही लोगतंत्र का मौलिक स्वरूप होना चाहिए। जहां बहस के जरिए चीजें तय हों। जहां जो जिम्मेदार लोग हैं, जैसे जन-प्रतिनिधि, प्रशासनिक अधिकारी, सार्वजनिक उपक्रम, जनता के संसाधनों का इस्तेमाल करने वाली निजी कम्पनियां और विभिन्न सामाजिक, धार्मिक संगठन व राजनीतिक दल जो जनता से चंदा लेकर अपना काम करते हैं, उन्हें जनता के प्रति अपनी जवाबदेही सुनिश्चित करनी चाहिए। सूचना के अधिकार के कानून आने के बाद भी अभी हमारे समाज में जवाबदेही व पारदर्शिता की संस्कृति जड़ नहीं पकड़ पा रही है। उसके बिना लोगतंत्र सही मायनों में कभी साकार नहीं हो पाएगा।

लेखक :डॉ.संदीप पाण्डेय


(लेखक, मग्सय्सय पुरुस्कार से सम्मानित वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता हैं, जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (एन।ए।पी.एम्) के राष्ट्रीय समन्वयक हैं, लोक राजनीति मंच के राष्ट्रीय अध्यक्षीय मंडल के सदस्य हैं। सम्पर्क:ईमेल:(asha@ashram@yahoo-com, website: www-citizen&news-org )