पंचायत भारतीय लोकतंत्र की प्राथमिक बुनियाद
भारतीय लोकतंत्र में चुनाव पूर्व जनता से बड़े-बड़े वादे करना तथा चुनाव के पश्चात् विजयी होने पर जनता को भूल जाना एक सामान्य संस्कृति बन गई है, जो प्रत्येक स्तर के चुनाव में देखी गयी है। पंचायत चुनाव भी इससे अछूता नहीं रहा है जैसे की पिछले दो चुनावों में देखा गया है। यदि समस्या की जड़ पह्चान ली जाए तो हम पायेंगे की चुनाव में प्रत्याशियों तथा सामान्य जनता के मध्य प्रत्यक्ष संवाद की कमी के कारण ही जनता प्रत्याशियों पर अपना दबाव नहीं बना पाती तथा प्रत्याशी मात्र चुनाव के पूर्व जनता को ख्याली पुलाव परोसकर मुर्ख बनाने में सफल हो जाते हैं। इसके लिए जातिवाद छेत्रवाद, वर्गवाद के अलावां प्रलोभन भी दिया जाता है। लेकिन इसका एक दूसरा भी पहलू है और वह है प्रत्याशियों की स्वयं की दिक्कतें जिसको आज नजरअंदाज किया जा रहा है इसका सबसे अधिक प्रभाव लोकतंत्र के बुनियाद यानी पंचायतों में देखी जाती है।
इस व्यवस्था का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है, वह है जनता और प्रतिनिधियों का एक साथ रहना। जिससे उनकी जबाबदेही काफी अधिक होती है लेकिन इस व्यवस्था के सफल संचालन में सिर्फ़ पंचायतें प्रतिनिधि ही जिम्मेदार नहीं हैं इससे ज्यादा व्यावहारिक केन्द्र एवं राज्य सरकारें करती हैं। अगर उनकी तरफ़ से बेहतर माहौल हो तो तभी यह अपनी भूमिकाओं को बेहतर ढंग से निर्वहन कर सकते हैं। इसलिए सारे दोष चयनित प्रतिनिधियों को ही है यह कहना थोड़ा मुश्किल है खासकर पंचायत प्रतिनिधियों के स्तर पर।
७३ वें संविधान संसोधन के पश्चात् पंचायतें लोकतांत्रिक व्यवस्था की बुनियाद के साथ ग्रामीण विकास एवं वंचित वर्गों की विकास की मुख्या धारा में लाने का महत्वपूर्ण उपकरण भी बन गयी हैं। आज पंचायतों के पास संवैधानिक अधिकारों के साथ वे स्वयं निर्णय ले सकती हैं, अपने गाँव की योजना बना सकती हैं उसके क्रियान्वयन कर सकती हैं और कई तरह के कामों की निगरानी कर सकती हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल , सिचाई, युवा कल्याण, महिला एवं बाल कल्याण रोजगार जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर निर्णय के अलावां इस पर योजना बनाने की जिम्मेदारी भी इनके पास है।
ऐसे में पंचायत प्रतिनिधियों का सक्षम होना बहुत जरूरी हो गया है। इसके अतिरिक्त आम जनता के प्रति पंचायतों को जबाबदेह बनाने की आवश्यकता के साथ-साथ पंचायत चुनाव साफ़ एवं निष्पक्ष हो सकें, ग्रामीण जनता में लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति आस्था एवं विश्वास बढ़े, मतदाता एवं प्रतिनिधि के रूप में महिलाओं दलित एवं अन्य दलित वर्गों की भागीदारी बढ़े यह अत्यन्त ही महत्वपूर्ण है।
इस सम्बन्ध में कई सालों से प्रदेश में पंचायात व्यवस्था के ऊपर कार्यरत श्री अवनेश कुमार का कहना है कि ' वर्ष २००७ में उत्तर प्रदेश के लगभग सभी जिलों में स्वैक्षिक संस्थाओं द्वारा पंचायत मतदाता जागरूकता अभियान चलाया गया था। इस अभियान के अर्न्तगत जो सबसे मुख्य प्रक्रिया अपनाई गई थी वह थी जनता प्रतिनिधि संवाद जिससे चुनाव के बाद जनता चयनित प्रतिनिधियों से उन वादों को पूरा करने हेतु दबाव बना सके। निश्चित रूप से यह प्रक्रिया काफी उत्साह जनक रही। पहली बार लोकतंत्र के सबसे निचले स्तर पर प्रतिनिधियों नें अपनी कार्ययोजना एवं प्राथमिकतायें बताई और उसे अमल करने का वायदा किया.’ उनका आगे कहना था कि ' इस प्रक्रिया से उन जन प्रतिनिधियों का काफ़ी नुक्सान हुआ जो परदे के पीछे से राजनीती करते थे क्योंकि जनता यह देखना चाहती थी की जो प्रतिनिधि हमारा है उसकी छमता क्या है और वह हमारे लिए क्या कर सकता है।'
अगर हम भारतीय लोकतंत्र में बुनियादी स्तर पर सुधार लाना चाहतें हैं और इस लोकतंत्र को मजबूत बनाना चाहते हैं तो हमे पंचायत स्तर पर सुधार की प्रक्रिया को सबसे पहले देखना होगा तब हम एक बुनियादी और व्यापक विकास की परिकल्पना कर सकतें हैं।
अमित द्विवेदी
लेखक सिटिज़न न्यूज़ सर्विस से जुड़े हैं।
यह लेख पंचायती राज व्यवस्था पर लखनऊ में आयोजित कार्यशाला के तहत लिखा गया है।