यह कैसी आजादी है?
डॉ संदीप पाण्डेय
जाजूपुर उ.प्र. के हरदोई जिले के अतरौली थाना क्षेत्र व सण्डीला तहसील का एक गांव है। 1976 में 107 भूमिहीन दलित परिवारों को ग्राम सभा की ओर से जमीन के पट्टों का आवंटन हुआ था। बगल के गांव माझगांव का एक दबंग सामंती परिवार है जिसकी इलाके में तूती बोलती है। रामचन्द्र सिंह के भाई श्रीराम सिंह तोमर ब्लाक प्रमुख रह चुके हैं। तीसरे भाई रामेन्द्र सिंह हैं। चचरे भाई नागेश्वर सिंह जो वकील हैं की पत्नी जाजूपुर की ग्राम प्रधान भी हैं, हलांकि ये लोग रहते माझगांव में हैं। इस परिवार ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से दलितों को आज तक अपनी भूमि पर कब्जा नहीं करने दिया है।
जैसे ही दलितों के नाम पट्टा हुआ, दबंग जमींदार परिवार ने इन जमीनों पर अपना कब्जा कायम रखने के लिए पेड़ लगा दिए। आज तक इन पेड़ों के बहाने वे इन जमीनों को छोड़ने को तैयार नहीं हैं। बहुत दलित परिवार ऐसे भी हैं जिनके पूवर्जों में से किसी ने जमींदार परिवार के पूर्वजों से कभी कर्ज लिया होगा। उस कर्ज के बहाने भी कई दलितों को उनकी वाजिब जमीन पर काबिज नहीं होने दिया जा रहा।
जब भी प्रशासनिक अधिकारियों से शिकायत की जाती है, नए सिरे से भूमि नपनी शुरू हो जाती है। भूमि नापने के बाद दलितों को सौंप दी जाती है। किन्तु या तो वे अपनी जमीन पर बो ही नहीं पाते अथवा बोने के बाद काट नहीं पाते। जमीन वापस दबंग लोगों के पास चली जाती है। राजस्व विभाग के अधिकारी यह हिम्मत दिखाते नहीं कि दबंग परिवार के खिलाफ जमींदारी उन्मूलन अधिनियम के तहत मुकदमा लिखे जाने की सिफारिश करें और न ही पुलिस यह हिम्मत दिखाती है कि एक बार नाप कर दलितों की दी गई जमीन पर किसी और को कब्जा करने से रोके।
हाल ही में एक दलित युवा राजेश ने अपनी जमीन पर खड़े नीम के दो पेड़ काट लिए। घर में तीन वर्ष का बच्चा बीमार चल रहा था तथा इलाज के लिए पैसों की आवश्यकता थी। चार लोगों के खिलाफ पुलिस की अनुमति बिना हरे पेड़ काटने के जुर्म में मुकदमा दर्ज हो गया। जिस ट्रैक्टर से पेड़ कट के जाने थे उसके चालक व सहायक, जो दोनों दलित हैं, को रामचन्द्र सिंह, रामेन्द्र सिंह और सुखदेव सिंह ने घर ले जाकर उनके साथ मार-पीट कर उन्हें जेल भी भिजवा दिया। राजेश की गिरफ्तारी के लिए पुलिस ने उसके घर पर दबिश भी दी। दरोगा एम.पी. सिंह ने राजेश के घर जाकर तोड़-फोड़ की। जब उप जिलाधिकारी, सण्डीला, से पूछा गया कि क्या पेड़ काटना इतना बड़ा जुर्म है कि पुलिस घर जाकर ताण्डव करें तो उनका कहना था कि यही पुलिस बाग के बाग कटने के बावजूद उन्ही के आदेश की अवहेलना कर प्राथमिक सूचना रपट तक नहीं दर्ज करती। अंततः राजेश को जमानत मिलने के बाद ही राहत मिली। लेकिन इस पूरे घटनाक्रम में राजेश का बीमार बच्चा चल बसा क्योंकि इसका कोई इलाज कराने वाला ही नहीं था।
थाने पर रामचन्द्र सिंह, रामेन्द्र स्रिह व सुखदेव सिंह के खिलाफ अनुसूचित जाति व जनजाति उत्पीड़न निरोधक अधिनियम तथा जमींदारी उन्मूलन अधिनियम के तहत प्राथमिकी दर्ज कराने की मांग की गई। किन्तु जमींदार परिवार का इतना दबदबा है कि कानूनों का उल्लंघन करने के बावजूद उनके खिलाफ कोई रपट तक दर्ज नहीं की जाती और दलितों पर अपने ही खेतों में खड़े अपने ही पेड़ों को काटने पर उनके खिलाफ मुकदमा दर्ज हो जाता है। ऐसा तब है जब उ.प्र. में दलित हितैषी सरकार है तथा पुलिस महानिदेशक का स्पष्ट आदेश है कि किसी भी दलित की जमीन पर यदि किसी अन्य ने कब्जा किया हुआ है तो दोषी व्यक्ति के खिलाफ तुरंत मुकदमा दर्ज हो।
करीब दो वर्ष पहले राजस्व विभाग ने रामचन्द्र सिंह, चंद्रप्रकाश सिंह, नागेश्वर सिंह व अन्य कुछ लोगों पर ग्राम सभा की पट्टे की हुई जमीन पर कब्जा करने के जुर्म में रुपए 14 लाख से ऊपर का जुर्माना किया था। किन्तु इन प्रभावशाली लोगों ने न्यायालय से अपने पक्ष में स्थगनादेश प्राप्त कर अपने खिलाफ होने वाली कार्यवाही को रुकवा लिया।
जब दलितों ने देखा कि इस व्यवस्था से न्याय की उम्मीद नहीं की जा सकती तो अंततः हार मान कर वे इस बात के लिए तैयार हुए हैं कि जमींदारों ने जो पेड़ उनकी जमीनों पर लगाए हैं वे काट कर ले जाएं भले ही पेड़ों पर कानून अधिकार दलितों का ही बनता है और जमींदार दलितों को उनकी जमीनों पर खेती करने दें। जमींनदारों ने इस बात की गारण्टी मांगी हैं कि पेड़ काटने में उनके खिलाफ कोई कार्यवाही न की जाए भले ही यह गैर कानूनी है कि हरे पेड़ों को काटा जाए।
सभी अधिकारियों-कर्मचारियों का कहना है कि इससे बेहतर व्यवहारिक फैसला फिलहाल कोई नहीं हो सकता। दलित भी यही मानने पर विवश हैं कि यही फैसला उनके हित में हैं क्योंकि पेड़ों के साथ उनको जमीनें मिल जाएं इसकी सम्भावना वर्तमान परिस्थितियों में तो दिखाई पड़ती नहीं। 35 वर्षों बाद वे जमीन के मालिक बनेंगे यही उनके लिए बहुत बड़ी बात है। किन्तु यह जमींनदारों की गुण्डागर्दी की जीत कही जाएगी और भारतीय संविधान व कानून व व्यवस्था की हार। पुलिस-प्रशासन ने सामंती ताकतों के आगे समर्पण कर दिया है तथा एक दलित हितैषी सरकार में दलितों के हित सुरक्षित नहीं हैं।
आजादी के 62 साल बाद यह कैसी आजादी है?
डॉ संदीप पाण्डेय
(लेखक, मग्सय्सय पुरुस्कार से सम्मानित वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता हैं, जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (एन.ए.पी.एम्) के राष्ट्रीय समन्वयक हैं, लोक राजनीति मंच के राष्ट्रीय अध्यक्षीय मंडल के सदस्य हैं। संपर्क: ईमेल: asha@ashram@yahoo.com, website: www.citizen-news.org )