जिला पंचायत राज अधिकारी मऊ, को नहीं मालूम सूचना का अधिकार अधिनियम

जिला पंचायत राज अधिकारी मऊ, को नहीं मालूम सूचना का अधिकार अधिनियम

पढ़े फारसी बेंचें तेल, वाली कहावत सूचना अधिकार अधिनियम के साथ जन सूचना अधिकारी चरितार्थ कर रहे हैं | यों तो सब अपनी काबिलियत के गुमान में रहते हैं और उसका बखान करते अघाते नहीं हैं लेकिन जिला पंचायत राज अधिकारी मऊ, जन सूचना अधिकारी ने आवेदक द्वारा मांगी गई सूचना को शुल्क के रूप में दस रूपये का पोस्टलआर्डर संलग्न किये जाने को लेकर वापस कर दिया है | आवेदक अरबिंद मूर्ति ने पंचायत राज अधिनियम से जुडी सूचना जिला पंचायत राज अधिकारी मऊ, से मांगी थी | जिसके लिखित में डी.पी.आर.ओ. ने लिखा है कि उक्त अधिनियम में प्राविधान है कि सूचना प्राप्त करने के लिए लेखा शीर्षक में १० रु. का ट्रेजरी चालान, ड्राफ्ट,अथवा बैंकर चेक जमा कर सूचना की मांग की जाए | चूँकि आपने पोस्टल आर्डर संलग्न किया है, इसलिए आप का मूल आवेदन अस्वीकार करते हुए मूल रूप में वापस किया जा रहा है | जबकि उ.प्र. शासन के प्रशासनिक सुधार विभाग ने इस आशय का शासनादेश संख्या-१९००/४३-२-०६-१५/२(२)/०३ टी.सी.२७ नवम्बर ०६ को ही विधिवत जारी करते हुए सूचना मांगने हेतु पोस्टल आर्डर स्वीकार किये जाने का स्पष्ट आदेश है और शासनादेश में ही उल्लेखित है कि यह शासनादेश सभी मंडलाआयुक्त, जिलाधिकारी व विभागाध्यक्षों को भेज दिया गया है | लेकिन इस आवेदन की वापसी से प्रशासनिक सुधार विभाग के दावों की पोल खुलती नजर आ रही है |

जिला पंचायत राज अधिकारी मऊ, की इस अज्ञानता का फायदा उठाते हुए खण्ड विकास अधिकारी रतनपुरा, ने भी आवेदक का एक सूचना मांगने का आवेदन पत्र वापस करते हुए जिला पंचायत राज अधिकारी के पत्र को संलग्न कर दिया है |

सूचना अधिकारी अधिनियम में यह स्पष्ट प्राविधान है कि अगर जन सूचना अधिकारी किसी सूचना के आवेदन को नामंजूर करता है तो भी उसका विधिक दायित्व है कि वह आवेदक को अधिनियम की धारा ७(८) के अंतर्गत यह जानकारी दें कि आवेदन किस कारण से अस्वीकृत किया गया, वह अवधि बताएं जिसमें अस्वीकृत के विरुद्ध अपील दायर की जा सके और उस अपीलीय प्राधिकारी का पता बताएगा जहाँ अपील की जा सकेगी परन्तु यह कुछ भी डी.पी.आर.ओ. को मालूम नहीं है और न ही इस आशय के जारी शासनादेश संख्या १११६/४३-२-०८-१५/२(७)/०७ भी १६ अक्टूबर २००८ को जारी किया जा चुका है |

क्या यह अज्ञानता वास्तविक है, या नौकरशाही की एक सोची समझी साजिश है | जिससे इस अधिकार के प्रति आम भारतीयों में जगी उम्मीद की किरण को धुँधुला करते हुए इसे भी अन्य कानूनों और अधिकारों की तरह किताबों की शोभा बढाने और आदर्श के रूप में बखान करने के लिए बताया जायेगा कि हमारे यहाँ पारदर्शी स्वच्छ, व्यवस्था के संचालन के लिए सूचना अधिकार कानून भी लागू है | अब सवाल सिर्फ यह बचता है कि देश की शासक पार्टियों और उनके नेताओं में क्या यह इच्छाशक्ति है कि इस अधिकार को सख्ती से लागू करा सकें वर्ना दिनकर की यह पंक्ति "सिंहासन खाली करो कि जनता आती है" न दुहराई जाए !


अरविन्द मूर्ति
(लेखक: जनांदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय, सूचना अधिकार अभियान से जुड़े हैं, सद्भाव और लोकतंत्र की मजबूती के लिए जमीनी संघर्षों में हिस्से दरी के साथ "सच्चीमुच्ची" मासिक पत्रिका के संपादक हैं )
arvind@citizen-news.org