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English] भारत के वित्त मंत्री प्रणब मुख़र्जी ने सामाजिक क्षेत्र के प्रतिनिधियों के साथ १७ जनवरी २०१२ को दिल्ली में बजट पूर्व संवाद आयोजित किया. इस समिति में डॉ0 संदीप पाण्डेय ने भी भाग लिया. डॉ संदीप पाण्डेय, मैगसेसे पुरूस्कार से सम्मानित वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता हैं और लोक राजनीति मंच, जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय और आशा परिवार से जुड़े हैं।
डॉ संदीप पाण्डेय ने वित्त मंत्री को बजट पूर्व यह सुझाव दिए:
कृषि क्षेत्र को सबसे अहम प्राथमिकता दी जानी चाहिए, सम्भव हो तो कृषि का अलग बजट ही होना चाहिए। फसली व गैर-फसली ऋण का अंतर समाप्त किया जाना चाहिए। ऋण ब्याज रहित होना चाहिए। ब्याज किसी भी परिस्थिति में 4 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए और यह साधारण ब्याज होना चाहिए। किसानों के ऊपर चक्रविधि ब्याज नहीं लगना चाहिए। यदि पुरुष ऋण हेतु आवेदन कर रहा है तो पत्नी की सहमति आवश्यक होनी चाहिए। बल्कि सरकार की सभी कल्याणकारी योजनाओं हेतु जिसमें कोई परिवार लाभार्थी है महिला को परिवार का प्रमुख माना जाना चाहिए जैसा कि खाद्य सुरक्षा कानून में प्रस्तावित है। न्यूनतम समर्थन मूल्य की जगह लाभकारी मूल्य लागू होना चाहिए जो किसान की लागत से अधिक होना चाहिए। खाद, बीज व डीजल के मूल्यों पर नियंत्रण होना चाहिए या सरकार की तरफ से छूट मिलनी चाहिए। किसानों को सजीव खेती की दिशा में प्रेरित किया जाना चाहिए ताकि उनकी बाजार पर निर्भरता कम हो सके। सम्भव हो तो ग्राम सभा स्तर पर गोदामों के निर्माण से भण्डारण क्षमता बढ़ाई जानी चाहिए ताकि अनाज को बरबाद होने से बचाया जा सके और किसान अपनी मर्जी से उसे बेच पाए। ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने हेतु कुटीर उद्योगों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना में मजदूरी 250 रु. प्रति दिन होनी चाहिए जो हरेक मूल्य वृद्धि और सरकारी कर्मचारियों के वेतन वृद्धि के साथ संशोधित होनी चाहिए। सारी कृषि मजदूरी ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना से दी जानी चाहिए। मजदूरी की गारण्टी प्रत्येक व्यक्ति न कि परिवार को होनी चाहिए तथा यह पूरे साल के लिए होनी चाहिए।
शहर और गांवों में क्रमशः 32 व 26 रुपए प्रति दिन के खर्च के गरीबी रेखा के मानक को वापस लिया जाना चाहिए। गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वालों की सूचियां या तो ग्राम सभाओं में बननी चाहिए अथवा गरीब को सरकारी विकास एवं कल्याणकारी योजनाओं से लाभ प्राप्त करने हेतु स्वयं को सूची में शामिल कराने की छूट होनी चाहिए।
सरकारी खाद्य सुरक्षा व्यवस्था के साथ-साथ गुरुद्वारों में लंगर की व्यवस्था की तर्ज पर प्रत्येक धार्मिक व सार्वजनिक स्थल पर लंगर की व्यवस्था को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए ताकि कुपोषण की समस्या से निजात पाया जा सके।
शादी, सामाजिक, राजनीतिक आयोजनों के अवसर पर धन के भौंडे प्रदर्शन पर उसी तरह रोक लगनी चाहिए जिस तरह चुनाव खर्च पर लगी है।
80 प्रतिशत बिजली व अन्य संसाधन गांवों में जाने चाहिए।
शराब पर पूर्ण प्रतिबंध लगना चाहिए।
विद्यालयों व प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर पर्याप्त संख्या व विविधता में क्रमशः शिक्षक व चिकित्सक नियुक्त होने चाहिए। यह बड़ी विचित्र बात है कि एक ओर हमारे सामने बेरोजगारी की भीषण समस्या है तो दूसरी तरफ शिक्षकों, चिकित्सकों, ग्राम पंयायत विकास अधिकारियों या खण्ड विकास अधिकारियों, जिनकी विकास में अहम भूमिका है, जैसे कर्मचारियों की भारी कमी है।
समाज में विभिन्न वर्गों की आय में दस गुणा से ज्यादा का फर्क नहीं होना चाहिए। खर्च पर सीमा तय होनी चाहिए। गरीबी रेखा के बजाए अमीरी रेखा तय होनी चाहिए और सिर्फ अमीरों पर कर लगना चाहिए।
भ्रष्टाचार रोकने के लिए आय के ज्ञात स्रोतों से अधिक सम्पत्ति के मामले में नियमित जांच एवं दोषी व्यक्तियों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही होनी चाहिए। शहरी हदबंदी कानून दोबारा बनना चाहिए तथा ऐसी सारी सम्पत्तियां जिनका आंकलन सही कीमत से काफी कम किया गया है सरकार द्वारा अधिग्रहित कर ली जानी चाहिए ताकि काले धन का सम्पत्ति व भूमि में निवेश न हो सके। आवास हेतु प्रस्तावित सीमा है प्रति परिवार एक 300-500 वर्ग मीटर का प्लॉट या एक 3500-4000 वर्ग फीट का फ्लैट। काले धन पर अंकुश लगाने हेतु 500 व 1000 रु. के बड़े नोट अर्थव्यवस्था से वापस लिए जाने चाहिए।
भ्रष्टाचार सिर्फ पैसों का अवैध लेन-देन नहीं होता। निर्णय की प्रक्रिया में कोई अनियमितता भी भ्रष्टाचार की परिभाषा में आनी चाहिए। उदाहरण के लिए पुलिस ने किसी निर्दोष व्यक्ति के खिलाफ झूठा मुकदमा लिखा। वह व्यक्ति गिरफ्तार हो गया। पुलिस ने फर्जी सबूत जुटाए व चार्जशीट दाखिल कर दी। न्यायालय में लम्बी सुनवाई के बाद आरोपी बरी हो जाता है। किन्तु तब तक उसके जीवन की एक अवधि वह कारागार में बिता चुका होता है। झूठे मामले में फंसाने के लिए दोषी व्यक्तियों को भी सजा होनी चाहिए। इसी तरह गलत आख्या देना, निर्णय में देरी करना, या जानकारी छुपाना जिससे समय रहते कार्यवाही न हो सके, आदि, भी भ्रष्टाचार की श्रेणी में आने चाहिए।
विशिष्ट व्यक्ति या अति विशिष्ट व्यक्ति जैसी श्रेणी खत्म कर देनी चाहिए। यह अवधारणा लोकतंत्र के खिलाफ है। यदि संविधान में बराबरी का अधिकार दिया गया है तो कुछ लोग महत्वपूर्ण कैसे हो सकते हैं? नेताओं और नौकरशाहों को आम इंसानों की तरह रहना सीखना होगा। यह आपत्तिजनक बात है कि इन जन प्रतिनिधियों व जन सेवकों से यदि सचिवालय, विधान सभा या संसद में मिलना हो तो जब तक ये दरबान को सूचित नहीं कर देंगे तब तक इन परिसरों में प्रवेश हेतु ‘पास‘ भी नहीं मिल सकता। यानी कि यदि किसी आम इंसान की शासक वर्ग में कोई जान-पहचान नहीं हो तो उसका इनसे मिल पाना भी मुश्किल है। किसी नौकरशाह से उसके घर पर मिलना को कल्पना से बाहर की चीज है। हमारे जन प्रतिनिधियों व जन सेवकों ने अपने आप को जनता की पहुंच से बाहर रखने का पुख्ता इंतजाम किया हुआ है। क्या लोकतंत्र में इसकी इजाजत मिलनी चाहिए? वे जिस जनता के संसाधनों का उपभोग करते हैं उसी से मिलने से बचना चाहते हैं। उनकी ज्यादातर सुविधाएं वापस ले ली जानी चाहिए। या तो उन्हें बड़ी तनख्वाह मिले और वे अपनी सुविधाओं जैसे घर, वाहन, आदि, की व्यवस्था खुद करें, अथवा यदि वे सुविधाओं का उपभोग करना चाहते हैं तो उन्हें कम तनख्वाह स्वीकार करनी चाहिए। वे चाहते हैं कि राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना में काम करने वाला परिवार रु. 33 प्रति दिन (सौ दिन की मजदूरी का साल भर का औसत) तथा पेंशन पाने वाला परिवार रु. 400 प्रति माह में अपना गुजारा करे लेकिन वे अपनी तनख्वाह या सुविधाओं पर कोई सीमा नहीं तय करना चाहते। एम्बुलेंस को छोड़ किसी भी गाड़ी पर लाल-नीली बत्ती नहीं होनी चाहिए। सुरक्षा कर्मी या निजी सेवा के लिए रखे गए कर्मियों को हटा लिया जाना चाहिए। सरकारी खर्च पर कोई व्यक्ति किसी दूसरे बालिग व्यक्ति की सुरक्षा या सेवा करे यह सामंती व गैर-लोकतांत्रिक व्यवस्था है।
विधायक एवं सांसद निधि खत्म होनी चाहिए।
रेल व हवाई जहाज में विभिन्न श्रेणियां समाप्त होनी चाहिए। रेल में साधारण श्रेणी जिसमें अक्सर इंसान जानवर की भांति सफर करते हैं समाप्त होनी चाहिए। जो पहले आरक्षण करा ले उसे सीट मिलनी चाहिए। सिर्फ चिकित्सा हेतु या परीक्षा देने जा रहे व्यक्तियों के लिए कुछ सीटें सुरक्षित रखनी चाहिएं। इसी तरह विद्यालयों व चिकित्सालयों का फर्क भी समाप्त किया जाना चाहिए। शिक्षा का अधिकार अधिनियम तो लागू है किन्तु समान शिक्षा प्रणाली व पड़ोस के विद्याालय की अवधारणा को भारत का शासक वर्ग मानने को तैयार नहीं है। चिकित्सकों को कम्पनियों के दिए गए नाम से दवा लिखने के बजाए दवा की किस्म लिखनी चाहिए और दवाओं की दुकानें भी राशन की दुकानों की तरह लोगों की पहुंच, दोनों दूरी तथा मूल्य की दृष्टि से, में होनी चाहिएं। एक ही गुणवत्ता वाली सेवा सभी नागरिकों के लिए उपलब्ध होनी चाहिए। ज्यादा मूल्य चुका कर बेहतर सेवाएं हासिल करने की बात गैर-लोकतांत्रिक है। यह भ्रष्टाचार को कानूनी जामा पहनाना है। आखिर पैसा देकर अपने लिए सुविधा हासिल करने को ही भ्रष्टाचार कहते हैं।
किसी दस्तावेज की प्रति को अधिकृत अधिकारी द्वारा प्रमाणित कराने की अब जरूरत नहीं पड़नी चाहिए। इससे काफी समय व उर्जा की बचत होगी। पहले जब फोटोकॉपी की सुविधा उपलब्ध नहीं थी तो प्रमाणित किए जाने की जरूरत थी क्योंकि हस्तलिखित दस्तावेज को जांचने की जरूरत होती थी। किन्तु फोटोकॉपी की सुविधा आ जाने से अब प्रार्थी द्वारा स्वतः प्रमाणित प्रतिलिपि उसी तरह स्वीकार की जानी चाहिए जैसे प्राथमिक विद्यालय में दाखिले के समय माता-पिता द्वारा प्रमाणित जन्म प्रमाण पत्र स्वीकार किया जाता है।
निर्माण मजदूर एक जगह काम पूरा होने पर दूसरी जगह काम तलाशते हैं। यदि किसी निर्माण मजदूर ने किसी भवन को बनाया है तो उसके योगदान के सम्मान में उसी परिसर में उसे स्थाई आवास का विकल्प दिया जाना चाहिए। इसी तरह अन्य कारीगरों एवं मजदूरों को भी सम्मान मिलना चाहिए। घरेलू काम करने वालों को भी जिन घरों में वे काम करती हैं वहीं आवास का विकल्प होना चाहिए। इसी तरह कृषि मजदूर जिस खेत में काम करती हैं उसमें उनकी एक स्थाई हिस्सेदारी होनी चाहिए। सामाजिक सुरक्षा की योजनाएं सिर्फ सरकारी कर्मचारियों या सेवा क्षेत्र के लोगों के लिए न होकर सभी के लिए होनी चाहिए। हरेक नागरिक को पेंशन की गारण्टी होनी चाहिए ताकि वह बुढ़ापा सम्मानजनक तरीके से बिता सके।
खुदरा व्यापार के क्षेत्र में विदेशी पूंजी निवेश नहीं होना चाहिए।
कोई भी सरकारी सम्मेलन या बैठकें होटलों में नहीं होनी चाहिएं जबकि सरकार के पास पर्याप्त सुविधा है। जनता के धन के दुरुपयोग को हर हाल में रोका जाना चाहिए। गणतंत्र दिवस के अवसर पर हथियारांे के प्रदर्शन तथा रोजाना शाम वाघा सीमा पर आक्रामक तेवर वाले आयोंजन की पराम्परा समाप्त की जानी चाहिए। इनकी जगह दोस्ती व शांति को बढ़ाने वाले कार्यक्रम होने चाहिए।
विशाल खुली जगह वालें भवनों, जैसे आधुनिक हवाई अड्डों, में रात को बेघर लोगों को शरण दी जानी चाहिए।
सरकारी कार्यालयों में कई स्तरीय व्यवस्था, जैसे कनिष्ठ लिपिक, वरिष्ठ लिपिक, अधीक्षक, आदि, समाप्त की जानी चाहिए क्योंकि निर्णय की प्रक्रिया में काफी समय लगता है और किसी की जवाबदेही भी सुनिश्चित नहीं होती। इसलिए क्षमता देखते हुए कोई काम किसी अधिकारी/कर्मचारी को दिया जाना चाहिए और समयबद्ध तरीके से पूरा करने की जवाबदेही होनी चाहिए। इसी तरह गरीबी निवारण की सिर्फ योजनाएं नहीं चलानी चाहिए बल्कि उनके क्रियान्वयन की जिम्मेदारी लिए अधिकारियों की तनख्वाह काम संतोषजनक तरीके से होन पर ही मिलनी चाहिए। यदि सरकारी अधिकारी निजी क्षेत्र के समतुल्य तनख्वाहें चाहते हैं तो उन्हें काम के प्रति अपनी जवाबदेही भी सुनिश्चित करनी पड़ेगी। गरीबी, भुखमरी, कुपोषण, किसानों की आत्महत्या, बाल एवं मातृत्व मृत्यु दर, स्वास्थ्य सेवाओं की खस्ता हालत, शिक्षा का निम्न दर, इन सब के लिए आखिर कौन जिम्मेदार है?
(ये सुझाव 17 जनवरी, 2012, को वित्त मंत्री द्वारा सामाजिक क्षेत्र के साथ बजट पूर्व चर्चा हेतु डॉ0 संदीप पाण्डेय द्वारा तैयार किए गए। डॉ0 संदीप पाण्डेय, मैगसेसे पुरूस्कार से सम्मानित वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता हैं और लोक राजनीति मंच, जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय और आशा परिवार से जुड़े हैं।)
सी.एन.एस.