घातक निमोनिया से बचाव के लिये जीवन रक्षक टीके

निमोनिया जैसी बीमारी से हर वर्ष लाखों बच्चे काल ग्रसित होते हैं जबकि इनको उपलब्ध टीकों द्वारा रोका जा सकता है। निमोनिया 5 वर्ष तक की आयु के बच्चों की मृत्यु का सबसे बड़ा कारण है, जिसके कारण लगभग 16 लाख बच्चों की प्रतिवर्ष मृत्यु हो जाती है। यद्यपि निमोनिया 5 वर्ष से कम आयु के २० प्रतिशत बच्चों की मृत्यु का कारण है, पर दुर्भाग्य से पूरे विश्व में स्वास्थ्य के कुल खर्च का मात्र 5 प्रतिशत ही निमोनिया के लिये व्यय किया जाता है।दो प्रमुख घातक प्रकार के निमोनिया -- 'स्ट्रैप्टोकोकस निमोनी और हीमोफीलस इन्फ्लूएंजी टाइप बी '-- की रोकथाम के लिये टीके उपलब्ध हैं, तथा कई देशों में उपयोग में  लाये जा रहे हैं, लेकिन तृतीय विश्व के भारत जैसे देश में (जो कि पूरे विश्व के बचपन में होने वाला निमोनिया के 40 प्रतिशत मामले के लिये जिम्मेदार हैं), उपर्यक्त टीकों का उपयोग बहुत कम हो रहा है। यदि ये टीके (वैक्सीन) उन्नतशील देशों में उपलब्ध हों और उपयोग में लाए जाएं तो एक अनुमान के अनुसार 5 वर्ष से कम आयु केलगभग 10 लाख बच्चों की जान प्रत्येक वर्ष बचाई जा सकती है।

टीकाकरण बच्चों को निमोनिया से बचाता है, जो दुर्बलता पैदा करने वाली बीमारी है जिसके चलते श्वास सम्बन्धी अनेक जटिल रोग तथा घातक परिणाम हो सकते हैं। सभी बच्चों को इससे बचने का अधिकार है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का नवजात शिशुओं का टीकाकरण कार्यक्रम शिशुओं की प्रथम 6 माह तक की अवधि तक हिब तथा निमोकोकल कन्जुगेट वैक्सीन (पी सी वी) की तीन खुराक दिये जाने की सिफारिश  करता है। इस समय पीसीवी कुछ ही देशों में उपलब्ध है जबकि हिब द्वारा टीकाकरण अनेक देशों के टीकाकरण कार्यक्रम का हिस्सा है।

निमोकोकल वैक्सीनस एक्सीलेरेट डेवलपमेंट एण्ड इंट्रोडक्शन प्लान, अनेक देशों  दाताओं, अंतरराष्ट्रीय संगठनों और उद्द्योगों की मिली जुली साझेदारी द्वारा अल्प आय वर्ग के देशों में निमोकोकल टीकाकरण को बढ़ावा देने के लिए ‘‘ग्लोबल एलांस फार वैक्सीन एण्ड इमूनाइजेशन (जीएवीआई)’’ द्वारा आर्थिक सहायता प्राप्त एक परियोजना है। इसको अभी कार्यान्वित किये जाने पर 2030 तक अनुमानित 54 लाख बच्चों के निधन को रोका जा सकता है।

हीमोफिलस इन्फ्लूंजी टाइप बी वैक्सीन खतरनाक निमोनिया के बचाव के लिये खोजी गई एक मिश्रित वैक्सीन है। यूनाइटेड स्टेट्स में 1980 से 1990 तक हिब वैक्सीन का नियमित इस्तेमाल किये जाने से, आक्रमक हिब बीमारी के मामलों की संख्या 40-100 प्रति 1,00,000 बच्चों से घटकर 1.3 प्रति 1,00,000 बच्चों तक हो गई। जीएवीआई द्वारा विकासशील देशों के लिए हिब टीके का कम दामों में दिये जाने का प्रस्ताव है। सीडीसी तथा डब्ल्यूएचओ द्वारा 6 सप्ताह की आयु से प्रारम्भ करते हुए, सभी शिशुओं का पोलिसचाराइड प्रोटीन कन्जूगेट द्वारा टीकाकरण करने की सिफारिश की गयी है।

डा. एस. के. सेहता, बाल रोग व नवजात रोग विशेषज्ञ उम्मीद करते हैं कि ‘‘यद्यपि ये टीके अभी काफी महंगे हैं, लेकिन भारत सरकार डब्ल्यूएचओ के साथ मिलकर हमारे जैसे विकासशील देशों में हिब वैक्सीन को उपलब्ध करवाने का प्रयास कर रही है। जो भी हो आम लोगों में इसकी उपलब्धता बहुत कम है। दूसरे टीके जैसे खसरा वैक्सीन, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन की सिफारिशों  का एक अंग है, भी काफी आवश्यक है क्योंकि खसरा, निमोनिया होने की सम्भावना को बढ़ाती है।"

इसी प्रकार, बाल रोग व स्त्री रोग विशेषज्ञ, डा. नीलम सिंह जो "वात्सल्य रिसोर्स सेंटर आन हेल्थ" की मुख्य कार्यकत्री भी हैं, का मत है, ‘‘तपेदिक (क्षय रोग) को रोकने के लिये प्रयोग में लायी जाने वाला बीसीजी टीका भी बहुत आवश्यक है। क्षय रोग के कारण बच्चों में बहुत से श्वसन सम्बंधी रोग और संक्रमण होते हैं। दूसरा टीका, डिपथीरिया और टिटनेस के लिये डीपीटी है, जिसमें प्रथम दो संक्रमण ऊपरी श्वसन नली से सम्बन्धित है। तीसरा नौ माह पर दिये जाने वाला, खसरा रोग का टीका भी आवश्यक है। यद्यपि यह टीका सीधे तौर पर निमोनिया को नही रोकता है किन्तु परोक्ष रूप से बचाव होता है। क्योंकि खसरा से पीडित बच्चा निमोनिया का संक्रमण पाने के नजदीक होता है। इसलिए पैदा होने से 12 वर्ष तक इस टीकाकरण कार्यक्रम का पालन करना चाहिये। हिब वैक्सीन का प्रयोग अभी हाल ही से प्रारम्भ किया गया है। यह हमारे देश में उपलब्ध है, परन्तु महंगी होने के कारण, शहर के लोग ही इसे ले सकते हैं और अपने बच्चों का टीकाकरण करवा सकते हैं।"

उक्त वर्णित टीके साधारण रोगों की तीव्र पकड़ द्वारा होने वाले घातक निमोनिया को रोकते हैं। हालांकि बच्चे का टीकाकरण निमोनिया से शत प्रतिशत बचाव नही करता है। अभिभावकों और देखभाल करने वालों को इस वास्तविकता को जानना आवश्यक है। टीकाकरण पूर्णरूपेण सफल नही होता है। अच्छे पोषण के साथ उचित स्वास्थ्य भी निमोनिया के बचाव कार्यक्रम का एक आवश्यक अंग है। इस संदर्भ में, बाल रोग एवं बाल हृदय रोग विशेषज्ञ  डा. एस.एन. रस्तोगी जिनका लखनऊ में अपना दवाखाना है, भी बताते हैं, ‘‘ स्ट्रैप्टोकोकस निमोनी या हीमोफिलस इन्फ्लूएन्जी अथवा माइकोप्लाज्मा जैसे अनेकों रोग कारकों द्वारा निमोनिया हो सकता है। अभिभावक सोचते हैं कि यदि उन्होंने एक बार बच्चे का टीकाकरण करवा दिया है तो वह कभी भी निमोनिया से प्रभावित नही होगा/होगी। परन्तु निमोनिया सेकेंडरी इन्फेक्शन द्वारा भी हो सकता है। ’’

लोगों में जागरूकता के अभाव तथा इन जीवन रक्षक टीकों के उच्च मूल्य के कारण, भारत में अनेकों बच्चे इसका लाभ नही उठा पाते हैं। अक्टूबर, 2011 के प्रथम सप्ताह में ‘छत्रपति शाहूजी महाराज चिकित्सा विश्वविद्यालय के बाल रोग विभाग के आई.सी.यू. में अपने जीवन से लड़ने वाले, तीन वर्ष के बच्चे अथर्व से मिलकर मैने देखा कि वह उनमें से एक बच्चा है जो हिब वैक्सीन का लाभ नही उठा सका था। उसकी मां श्रीमती रेनू बाला शर्मा ने  बताया, "हमने सुना था कि निमोनिया बच्चों में होने वाली साधारण बीमारी है और बच्चे कभी-कभी इससे संक्रमित हो जाते हैं, लेकिन हमने यह कभी नही सोचा था कि यह इतनी गम्भीर होगी। हमने बच्चे का प्रत्येक रोग के प्रति टीकाकरण करवाया था। टीकाकरण सम्बन्धी कार्ड के  हिसाब से सारे टीके लगवाये। हमें यह नहीं मालूम था कि  इसमें निमोनिया का टीका नहीं था। यदि हमें ज्ञात होता इसका भी टीकाकरण करवा लेते। धन, बच्चे से अधिक मूल्यवान नही  है। इसके उपचार हेतु हमने लाखों रूपये व्यय कर दिये है। हम एक नर्सिंगहोम से दूसरे में भागते रहे, जब तक इस चिकित्सालय में नही पहुंचे। अब हमें इसके ठीक होने की कुछ उम्मीद है।’’

भारत और कुछ अन्य विकासशील देशों में अभी भी निमोनिया का टीका, सरकारी टीकाकरण कार्यक्रम का हिस्सा नही है। वास्तव में इन्हीं देशों में निमोनिया होने की सम्भावना भी सबसे अधिक है। भारतीय समाज की सुशिक्षित माताएं ही सुनिश्चित  करती है कि प्रत्येक घातक बीमारी के प्रति उनके बच्चे का टीकाकरण किया गया है। लखनऊ के प्राइवेट सिटी हास्पिटल में एक अक्टूबर को अपने दूसरे बच्चे को जन्म देने वाली, श्रीमती अल्पना सिंह कहती हैं कि ‘‘मैने सुना है कि निमोनिया सबसे खतरनाक बीमारियों में से एक है। मैं टीके का नाम नही बता सकती, लेकिन मेरे डाक्टर ने मुझे इसके बारे में बताया और मैने अपने पहले बच्चे को, जो अब तीन वर्ष का है, यह टीका लगवाया। किन्तु यह टीका सरकार द्वारा प्रस्तावित टीकाकरण की सूची में नहीं दर्शाया गया है।’’

टीकाकरण क्यों आवश्यक है, संस्तुत टीकाकरण कार्यक्रम तथा बच्चों को टीका कहाँ लगवाया जा सकता है, इस सम्बन्ध में अभिभावकों तथा देखरेख करने वालों को जागरूक करने के लिये विश्व स्वास्थ्य संगठन सक्रिय भूमिका निभाता है। निमोनिया के टीकों के विकास के लिए अन्वेषण व विकास के प्रयासों की अतिआवश्यकता है। अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के प्रयासों और वित्तीय सहायता से विकासशील देशों में यह टीके उचित मूल्यों पर अविलम्ब उपलब्ध करवाने चाहिये।

सौम्या अरोरा - सी.एन.एस.
(अनुवाद: सुश्री माया जोशी, लखनऊ)

निमोनिया से बचाव और धूम्रपानरहित वातावरण

प्रत्येक 20 सेकण्ड में निमोनिया के कारण कहीं न कहीं किसी बच्चे की मुत्यु होती है। पांच वर्ष से कम आयु के 20 प्रतिशत बच्चों की मृत्यु का कारण निमोनिया ही है। यह प्रतिवर्ष 1.3 मिलियन बच्चों का काल है। ज़िन्दगी की यह हानि अधिक दुखदायी इसलिए है क्योंकि इस मृत्यु को पर्याप्त साधनों द्वारा रोका जा सकता है।

विश्व  स्वास्थ्य संगठन द्वारा बच्चों में निमोनिया होने के कारणों को बढ़ावा देने वाले विभिन्न वातावरण सम्बन्धी तथ्यों को सूचिबद्ध किया गया है। ये कारण है:
(1) खाना बनाने तथा गर्म करने हेतु बायोमास ईंधन(ठोस ईंधन) जैसे लकड़ी या गोबर के कारण घर में होने वाला वायूमंडल का प्रदूषण, 
(2) भीड़भरे घरों में निवास करना तथा 
(3) माता-पिता द्वारा धूम्रपान किया जाना। 

विश्व स्वास्थ्य संगठन भी यही सलाह देता है कि घर के अन्दर होने वाले वायुमंडल के प्रदूषण को उपलब्ध साफ स्टोव और भीड़भाड़ वाले घरों में अच्छे स्वास्थ्य विज्ञान को बढ़ावा देकर निमोनिया से बीमार होने वाले बच्चों की संख्या को कम किया जा सकता है।

निमोनिया कई प्रकार से फैलता है। साधारणतय: बच्चों की नाक या गले में पाये जाने वाले जीवाणु और विषाणु को सांस द्वारा लिये जाने पर फेफड़ों मे संक्रमण हो सकता है। खांसने या छींकने से दूषित हवा द्वारा भी यह फैल सकता है। अतः जीवाणु के फैलने को कम करने के लिए रहन सहन के वातावरण में सुधार, निमोनिया के नियंत्रण में एक अहम भूमिका निभाता है।

बच्चों में निमोनिया के नियंत्रण, बचाव और चिकित्सा (उपचार) हेतु, 2009 में विश्व स्वास्थ्य संगठन तथा यूनिसेफ द्वारा ‘‘ग्लोबल एक्शन प्लान फॉर दि प्रेवेंशन एण्ड कंट्रोल ऑफ निमोनिया’’ का आरम्भ किया गया।
विशेषत: स्तनपान और हाथों की स्वच्छता को बढ़ावा देकर तथा घरों के अन्दर वायु प्रदूषण कम करके बच्चों को निमोनिया से बचाया जा सकता है। नवीन तकनीकि जानकारियां घरों का प्रदूषण कम कर सकती हैं। परम्परागत खाना बनाने के लिये प्रयुक्त लकड़ी, कंडे और कोयले (जिनका प्रयोग अभी भी कुछ अविकसित/विकासशील  देशों में किया जाता है) के स्थान पर तरल ईंधन जैसे मिट्टी का तेल, प्राकृतिक गैस, एलपीजी इत्यादि का इस्तेमाल किया जा सकता है। तरल ईंधन के लिये प्रयुक्त होने वाले चूल्हों तथा ठोस ईंधन के उपयोग में प्रयुक्त होने वाले चूल्हों में सुधारोपरान्त प्रयोग करने पर जोखिम में कमी देखी गयी है।

दूसरों के द्वारा प्रयुक्त तम्बाकू के धुंए में सांस लेने की प्रक्रिया परोक्ष धूम्रपान होती है। इसे सेकण्ड हैण्ड स्मोक भी कहते हैं। निष्क्रीय धूम्रपान में सांस लेना बीमारी, अपंगता तथा मृत्यु का कारण है। यह श्वसन क्रिया को प्रभावित करता है और फेफड़ों की शक्ति को कम कर देता है। अमेरिका में, नवजात शिशुओं और 18 वर्ष से कम आयु के बच्चों में निचली श्वसन नली के संक्रमण के अनुमानित 150,000-300,000 मामले परोक्ष धूम्रपान से प्रभावी हैं, जिसके परिणाम स्वरूप हर वर्ष अस्पतालों में 7,500-15,000 मरीज़ भर्ती किये जाते हैं।

डा. एस.एन. रस्तोगी, प्रख्यात बाल-हृदय रोग विशेषज्ञ चेतावनी देते हैं कि ‘‘बच्चे के लिए घर में हुक्का, बीड़ी और सिगरेट का प्रयोग काफी नुकसानदायक होता है। यह परोक्ष धूम्रपान है क्योंकि इसमें बच्चा कमरे में विद्यमान निकोटीन में सांस लेता है जो निमोनिया का खतरा बढ़ा देता है। बच्चे के कक्ष में पिता/परिवार के अन्य सदस्यों को धूम्रपान नहीं करना चाहिये। नवजात शिशु को पृथक कमरे में रखना चाहिये तथा कम से कम संख्या में लोगों उसके पास जाना/स्पर्श करना चाहिये। लेकिन भारत में सामाजिक प्रथा के कारण इस आदत को बन्द करना काफी कठिन है। बच्चे के पैदा होने के प्रथम दिन से ही अनेकों लोग शिशु के साथ खेलते हैं। यह अच्छी आदत नहीं है। यह सामाजिक प्रथा जो कि अच्छे शिक्षित परिवारों में भी है, बन्द होनी चाहिये। कम से कम पहले छः माह तक बच्चे के पास केवल मां एवं उसकी देखरेख करने वाले को ही जाने देना चाहिये।’’

किसी बच्चे के चारों ओर का वातावरण और रहने वाला प्रदूषण बच्चे में अनेकों बीमारियों के होने की  सम्भावना का एक बड़ा कारण है। लखनऊ के बाल रोग विशेषज्ञ डा. एस. के. सेहता का कहना है कि ‘‘यदि घर में हवा और धूप के आने का उचित प्रबन्ध हो, और घर में रहने वालों की संख्या कम हो अर्थात अधिक भीड़भाड़ न हो, जिससे बच्चे के रहने के लिये पर्याप्त तथा पृथक स्थान रहे, तो बच्चे को संक्रमण के अवसर कम रहते हैं। लेकिन, यदि बच्चे के चारों ओर का वातावरण इस प्रकार का हो कि उसमें थोड़े स्थान में रहने वालों की संख्या अधिक हो तथा वातावरण खाना बनाने के ईंधन या तम्बाकू के धुंए से प्रदूषित हो, तो बच्चे में संक्रमण की सम्भावना अधिक हो जाती है। इस प्रकार के परिवारों में तीव्र दमा और क्षयरोग के होने की अधिक सम्भावना रहती है तथा ये रोग बच्चे को भी हो सकते हैं।’’

तम्बाकू के प्रयोग और इससे निमोनिया के बढ़ते मामलों के मध्य सम्बन्ध को मानते हुए बाल रोग एवं स्त्री रोग विशेषज्ञ डा. नीलम सिंह, जो ‘‘वात्सल्य रिसोर्स सेंटर ऑफ हेल्थ’’ की मुख्य कार्यकारी भी हैं, कहती हैं कि ‘‘घरों के अन्दर की दूषित हवा वास्तव में निमोनिया को बढ़ावा देती है। ग्रामीण क्षेत्रों में चूल्हे मे भोजन बनाने के कारण काफी धुआं होता है। तम्बाकू का धुआं भी बच्चों में निमोनिया और अन्य श्वसन सम्बन्धी रोगों का कारण है। तम्बाकू पीने वाले अभिभावकों के कारण घरों के अन्दर अधिक प्रदूषण होता है, और ऐसे दूषित वातावरण में रहने वाले बच्चों में रोगों का अधिक खतरा होता है। जहां तक सम्भव हो, बच्चों को स्वच्छ तथा प्रदूषण रहित वातावरण में रखना चाहिये।’’

डा. रस्तोगी भी मानते हैं कि शहरों में अधिकतर लोग गैस के चूल्हों का प्रयोग करते हैं जिससे तुलनात्मक रूप से वातावरण कम प्रदूषित होता है। लेकिन अभी भी गांवों में लोग भोजन बनाने के लिये लकड़ी और कोयले का इस्तेमाल करते हैं जिससे घरों में हवा अधिक दूषित हो जाती है। ग्रामीण क्षेत्रों में सफाई और स्वास्थ्य विज्ञान सम्बन्धी ज्ञान की कमी है। लेकिन शहरों में लोग कुछ अधिक जागरूक हैं जिससे वे सतर्क रहते हैं।

डा. एस. के. सेहता का मत है कि ‘‘सरकार घरों के प्रदूषण को कम करने के लिये खाना बनाने के लिये गैस के प्रयोग को बढ़ावा दे रही है। यह घरों के अन्दर की हवा को कम दूषित करेगा। तम्बाकू के प्रयोग के विरोध में पहले से ही नियम है, जो सार्वजनिक स्थलों पर जहां लोग एकत्र होते हैं। तम्बाकू पीने का निषेध करता है। अभिभावकों को यह समझना चाहिये कि जब वे घरों में धूम्रपान करते हैं तो उनके बच्चे परोक्ष रूप से धूम्रपान के सम्पर्क में आ जाते हैं। इसलिये यदि वे धूम्रपान बिल्कुल न करें तो सर्वोत्तम होगा, लकिन कम से कम उन्हें बच्चों के समक्ष धूम्रपान नहीं करना चाहिये।

इस सम्बन्ध में सभी चिकित्सकों का एक मत है कि धुआंरहित वातावरण और बच्चे के समक्ष धूम्रपान न करने से काफी हद तक हवा को स्वच्छ बनाया जा सकता है। अन्य किसी भी प्रकार के प्रदूषण से बचाव भी जरुरी है क्योंकि संक्रमण के लिये यही किसी न किसी प्रकार से जिम्मेदार है। अतः घरों के भीतर के वातावरण की स्वच्छता के लिये उपाय किये जाने चाहिये, क्योंकि इसी के द्वारा निमोनिया से बचाव और इसे रोका भी जा सकता है।

सौम्या अरोरा - सी.एन.एस.
(अनुवाद: सुश्री माया जोशी)

बच्चों का सुपोषण और निमोनया से बचाव

विशेषतः उन्नतशील देशों में कुपोषण तथा अल्प-पोषण एक बहुत बड़ी समस्या है। बच्चों में निमोनिया व अन्य बीमारियों के लिए, अपर्याप्त स्वच्छता के साथ साथ कुपोषण भी काफी जिम्मेदार है। पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्यु का प्रमुख कारण निमोनिया है, जिससे प्रतिवर्ष 15 लाख बच्चे मृत्यु को प्राप्त होते हैं। निमोनिया से मरने वाले 98 प्रतिशत बच्चे उन्नतशील देशों के होते हैं। स्वच्छ वातावरण में, बच्चों को  सही मात्रा तथा उचित समय में सही आहार देकर इनमें से अनुमानित दो तिहाई बच्चों की जान बचाई जा सकती है।

गरीबी के कारण अल्प पोषण तथा अत्याधिक पोषण के कारण बच्चों में मोटापे का होना, दोनो ही परिस्थितियां  कुपोषण के अन्तर्गत आती हैं। चिकित्सीय आधार से भोजन में प्रोटीन, ऊर्जा तथा  माइक्रो न्यूट्रिएन्ट, जैसे विटामिन आदि की कमी या अधिकता, कुपोषण ही होता है, और बच्चों में बारबार संक्रमण व अन्य बीमारियों को बढ़ाता है। कुपोषित बच्चों की कमज़ोर रोग प्रतिरोधक क्षमता के कारण, अनेकों संक्रमण हो सकते हैं जिसके कारण रोग होने व रोगों से मृत्यु की सम्भावना बढ़ जाती है। कुपोषण, जन्म के समय कम वजन का होना, खसरा, विटामिन ‘ए’ की कमी, क्षयरोग (टी.बी.) इत्यादि निमोनिया के होने को बढ़ावा देते हैं। तथा निमोनिया बच्चे में श्वसन सम्बन्धी रोगों जैसे अस्थमा (दमा) आदि के होने का एक बड़ा कारक होता है।
उचित पोषण बच्चे की प्रतिरक्षक क्षमता बढ़ाता है जिससे बच्चे में संक्रमण होने की सम्भावनाओं में कमी के साथ साथ बीमारी से लड़ने व उससे उबरने की क्षमता में वृद्धि होती है।

 प्रसूति एवं स्त्री रोग विषेषज्ञ डा. नीलम सिंह, जो ‘‘वात्सल्य रिसोर्स सेंटर ऑन हेल्थ’’ की मुख्य कार्यकत्री भी हैं, का कहना है, ‘‘शिशुओं के लिये अच्छा खानपान अति आवश्यक होता है क्योंकि इस अवधि में शरीर व मस्तिष्क के तेज विकास के कारण पोषक तत्वों की जरूरत काफी अधिक रहती है। इसलिये हमें यह जानना जरूरी है कि बढ़ते बच्चों के लिये ‘‘कौन सा और कितना’’ भोज्य पदार्थ आवश्यक है। क्योंकि अलग अलग उम्र के बच्चों के लिये पोषक तत्वों की भिन्न भिन्न मात्रा आवश्यक होती है। हमें यह भी याद रखना चाहिये कि अक्सर कुपोषित माताएं कम वजन के शिशुओं को जन्म देती हैं। इसलिये, माताओं का आहार गर्भावस्था से ही  अच्छा होना चाहिये, जिससे वे स्वस्थ बच्चों को जन्म दें सकें।

 लखनऊ के शिशु एवं बाल रोग विषेषज्ञ, डा. एस.के. सेहता का कथन है, ‘‘आजकल, महानगरों में बच्चे फास्ड फूड, रेडीमेड फूड तथा अधिक तैलीय व मसालेदार पदार्थों का सेवन कर रहे हैं। इस प्रकार का आहार उन्हें अधिक मोटा बनाता है। तथा भविष्य में डायबिटीज व हृदय रोगों की सम्भावना भी बढ़ाता है।’’

डा. नीलम सिंह के विचारानुसार, ‘‘हमारे देश में निमोनिया एवं अतिसार से होने वाली अधिकांश मृत्यु का कारण कुपोषण ही है। हमारे उत्तर प्रदेश में पांच वर्ष से कम आयु के लगभग 46 प्रतिशत बच्चे अल्प पोषण के शिकार हैं। हाल ही में किये गए एक सर्वे के अनुसार हमने कई नवजात शिशुओं को चाय तथा कोल्ड ड्रिंक तक पीते हुए देखा। शिशुओं को घुट्टी (ग्राइप वाटर) तक दी जाती है, और बच्चों को दिये जाने वाले बाहर के दूध को या तो मात्रा बढ़ाने के लिये अथवा यह सोचकर कि शिशु शुद्ध दूध को पचा नहीं सकेगा, अधिक पानी मिलाकर पतला किया जाता है। इसी प्रकार के कारणों से बच्चे को उच्च ऊर्जा का भोज्य पदार्थ नहीं मिल पाता है। कई बार, बच्चों की आवश्यकताओं को न देखकर अग्रजों (घर के बड़ों) की पसंद का भोजन बनाया जाता है।’’

शहर के प्रख्यात बाल रोग विषेषज्ञ डा. एस.एन. रस्तोगी ने कुपोषण के सम्बन्ध में टिप्पणी करते हुए बताया कि, ‘‘यह एक प्रचलित भ्रांति है बच्चों को शुद्ध मां का दूध नहीं देने चाहिये, बल्कि इसमें बराबर मात्रा में पानी मिलाना चाहिये, नही तो यह अतिसार का कारण हो जायेगा। अधिकांश बच्चों के अल्प पोषण का कारण दूध को तरल करना है। कम वज़न के शिशुओं को उच्च प्रोटीन वाले सप्लीमेंट दिये जाने चाहिये।’’

डा. नीलम सिंह स्पष्ट करती हैं कि, ‘‘अच्छे पोषण का तात्पर्य महंगे भोज्य पदार्थ नहीं हैं। अधिकतर अधिक मूल्य की वस्तुओं में ही आवश्यक पोषक तत्व उपलब्ध नही होते हैं बल्कि सस्ते व स्थानीय उपलब्धता वाले घर में बनाये भोजन में भी वही पोषक पदार्थ उपलब्ध हो सकते हैं। इस संदर्भ में, मैं एक उदाहरण का उल्लेख करना चाहूंगी कि यद्यपि आजकल टीवी पर ऐसे ब्रांड शिशु-भोजन का विज्ञापन दिखाया नही जाता है, फिर भी यह एक अति प्रचलित फूड सप्लीमेंट है। यहां तक कि घरों में काम करने वाली परिचारिका अपने धनी मालिकों की नकल करके अपने बच्चों को यही खिलाती हैं। यह सप्लीमेंट फ़ूड बच्चे को रवा/सूजी की खीर, दलिया और दाल जितना ही पोषण देता है। गांवों की अशिक्षित माताओं के बच्चों के अलावा शहरों की शिक्षित माताओं के शिशु भी कुपोषण के शिकार होते है।’’

साफ और स्वच्छ पानी का अभाव व स्वास्थ्य के अपर्याप्त साधन निमोनिया के होने के कारण हैं। रोगों को नियंत्रित करने में स्वच्छता के साधनो पर अधिक जोर देने के लिये हम ‘वर्ल्ड हैण्ड वाशिंग डे’ मनाते हैं। डा. एस.के. सेहता के अनुसार, ‘‘स्वच्छता संबन्धी विज्ञान की जानकारी किसी बीमारी, विशेषकर गैस्ट्रिक संक्रमण के होने के कारकों के लिए आवश्यक है। निमोनिया के संदर्भ में भी बच्चे को छूने से पूर्व हाथ धोने से बच्चे को संक्रमण का खतरा कम हो जाता है।’’

डा. नीलम सिंह इस बात पर जोर देती हैं कि, ‘‘बच्चे की देखरेख करने वाले को सफाई व स्वच्छता के विषय में जागरूक रहना चाहिये। बच्चे के मल/मूत्र को साफ करने के पश्चात्  हर बार हाथ साबुन व पानी से भली भांति धोना चाहिये। इसी प्रकार बच्चे को दूध देने के पूर्व व बाद में भी हाथों को साफ करना चाहिये। बच्चे को पीने के लिये साफ पानी और खाने के लिये ताजा व स्वच्छ भोजन ही देना चाहिये। भोजन ढँक कर रखना चाहिये व प्रदूषित होने से रोकना चाहिये। बच्चे के आस-पास के वातावरण को स्वच्छ व साफ रखना चाहिये, पानी को इकठ्ठा नहीं होने देना चाहिये, तथा बच्चे को प्रतिदिन नहला कर साफ कपड़े पहनाने चाहिए। संक्रमण से होने वाले रोगों, जैसे निमोनिया व अतिसार से बचाव के लिये ये सरल व साधारण स्वच्छता के उपाय हैं।

डा. एस.एन. रस्तोगी, शिशु को दूध पिलाने से पूर्व स्तनों को साफ करने पर जोर देते हैं। उनकी सलाह है कि बच्चे को यदि बोतल से दूध देना अति आवश्यक हो, तो कम से कम 4 बोतल व 4-5 निप्पल जरूर होने चाहिये। बोतलों और निप्पलों को प्रयोग मे लाने से पूर्व भली भांति उबालना चाहिये। बच्चे को साफ कपड़े पहनाने चाहिये। एक प्रचलन के अनुसार बच्चे को प्रथम माह तक पुराने कपड़े पहनाये जाते हैं। यह उचित नही है।

गरीबी उन्मूलन, कुपोषण की समस्या को दूर करने में अन्तर्राष्ट्रीय प्रयासों के अलावा लोगों को अच्छे पोषण की महत्ता के सम्बन्ध में भी जागरूक करना चाहिये। डा. नीलम सिंह की सलाह है, ‘‘अलग-अलग उम्र के बच्चों की अलग-अलग पोषक तत्वों की जरूरत के सम्बन्ध में आम लोगों के साथ वार्ता करनी चाहिये। व्यवसायिक आधार पर केवल राष्ट्रीय व अन्तराष्ट्रीय अधिवेषनों में ही इन वार्तालापों को नहीं करना चाहिये, अपितु हर जनता तक इस संवाद को प्रसारित करने की आवश्यकता हैं."


सौम्या अरोरा - सी.एन.एस.
(अनुवाद: सुश्री माया जोशी, लखनऊ)

माँ का दूध - नवजात शिशु का प्रथम टीका

माँ का दूध नवजात-शिशुओं एवं बच्चों के लिये एक आदर्श पौष्टिक आहार है। यह शिशु के लिये ग्रास के समान है एवं इसे शिशु को दिये जाना वाला प्रथम टीका (वैक्सीन) भी कहा जा सकता है। माँ के दूध में बच्चों को पोषित करने की अद्वितीय क्षमता होती है। इसके अतिरिक्त माँ के दूध में अनेकों रोग प्रतिकारक (इम्यून ग्लोबिन) पाये जाते है जो शिशुओं को बचपन की आम बीमारियों से, जिनमें निमोनिया एक बीमारी है, रक्षा प्रदान करते है। निमोनिया से विश्व भर में प्रतिदिन 4,300 से अधिक शिशुओं की मृत्यु होती है। माँ का दूध पूर्णतया से सुरक्षित, पचने में आसानी से उपलब्ध होता है।

 स्तन-पान शिशु के स्वास्थ्य एवं जीवन के लिये सबसे सस्ता एवं प्रभावकारी उपाय है। जन्म के प्रथम छ: महीनों तक शिशुओं को स्तन-पान से वंचित रखने के कारण विश्व में लाखों शिशुओं की प्रतिवर्ष मृत्यु होती है जो रोकी जा सकती है। स्तन-पान शिशुओं को तात्कालिक लाभ देने के अतिरिक्त उन्हें जीवन भर शारीरिक एवं मानसिक रूप से स्वस्थ रहने की क्षमता भी देता है। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि विश्व स्वास्थय संगठन शिशु जन्म के प्रथम 6 महीनों तक केवल स्तन-पान को सक्रिय रूप से प्रोत्साहित करता है।

प्रसूति व स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ. नीलम सिंह, जो ‘वात्सल्य रिसोर्स सेन्टर फॉर हेल्थ' की मुख्य कार्यवाहक भी हैं, के अनुसार, "पूर्ण रूप से स्तन-पान का तात्पर्य है कि शिशु को मात्र केवल माँ का दूध ही देना चाहिये, माँ के दूध के अतिरिक्त कोई भी और चीज जैसे पानी, ग्राइप वाटर अथवा शहद आदि नहीं देना चाहिये। माँ के दूध में रोग प्रतिरोधक तत्व पाये जाते है जो शिशुओं को अनेक प्रकार की बीमारियों, विशेष कर निमोनिया व अतिसार की प्रतिरोधकता प्रदान करते हैं।"

इसके अतिरिक्त माँ का दूध, शिशुओं की मानसिक क्षमता का विकास करने में भी सहायता प्रदान करता है। यह पाया गया है कि स्तन-पान करने वाले बच्चों का बौद्धिक स्तर ऊपर का दूध पीने वाले बच्चों की अपेक्षा 10 गुना अधिक होता है। स्तन-पान करने वाले बच्चों में जीवन में आगे चलकर चर्म रोग, अस्थमा एवं ह्रदय सम्बन्धित रोग  भी कम होते हैं।

अपना एक निजी क्लीनिक चलाने वाले प्रसिद्ध बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. एस.एन. रस्तोगी के अनुसार केवल माँ का दूध ही नवजात शिशुओं का सबसे उत्तम भोजन है।

डॉ. एस. के. सेहता, जो लखनऊ की एक प्रसिद्ध बाल एवं नवजात शिशु विशेषज्ञ है, के अनुसार स्तनपान माँ एवं बच्चे के बीच एक भावनात्मक संबंध स्थापित करता है जिससे माँ व बच्चे के संबंध और मजबूत हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त माँ के दूध में कुछ विशेष हारमोन्स पाये जाते हैं जो गाय या भैंस के दूध में नहीं होते है। ये हारमोन्स बच्चें में अनेक बीमारियों के प्रति प्रतिरोधकता प्रदान करते हैं, जिनमें से निमोनिया एक है।

चिकित्सकों द्वारा माँ के दूध की गुणवत्ता को प्रमाणित करने के बाद भी 40 प्रतिशत से कम नवजात शिशुओं को केवल माँ का दूध पिलाया जाता है। डॉ. नीलम सिंह की क्लीनिक में आने वाली माताओं में से केवल 15 प्रतिशत या 20 प्रतिशत मातायें ही इस नियम का पालन करती पायी गयी। इस विषय में माताओं को प्रोत्साहित करने की अत्यन्त आवश्यकता है क्योंकि स्तन-पान कराने के संबंध में उन्हें अनेक प्रकार के भ्रम हैं, जैसे स्तन के 'निपुल' में दर्द होना, या पर्याप्त मात्रा में बच्चें के लिये दूध का न होना, स्तन-पान संबंधी उचित जानकारी न होना या कुछ सामाजिक एवं सांस्कृतिक भ्रांतियां इत्यादि।

डॉ. नीलम सिंह के कथनानुसार नवजात शिशु की माँ को स्तन-पान प्रोत्साहित करने के लिये न केवल डॉक्टर वरन नर्स, परिचारिका तथा अन्य लोगों का भी सहयोग आवश्यक है। डॉक्टर को माँ को इस बात का विश्वास दिलाना चाहिये कि केवल स्तन-पान द्वारा ही नवजात शिशु को उचित आहार प्राप्त होता है। डॉक्टर को माँ को शिशु के जन्म के बाद ही स्तन-पान आरम्भ करने की सलाह देनी चाहिये। चिकित्सीय कर्मचारियों (पैरामेडिकल स्टाफ) का कर्तव्य है कि वे भी माँ को नवजात शिशु को केवल स्तन-पान करने के लिये प्रोत्साहित करें। परिवार के सदस्यों का भी कर्तव्य है कि वे माँ को स्तन-पान की महत्ता बतायें व माँ के खानपान व पोषण का भी ध्यान रखें।

कार्यरत माताओं के लिये उनके काम करने के स्थान का वातावरण, एवं कार्य करने की सुविधायें नवजात शिशुओं के अनुकूल होनी चाहिये। कार्यरत माताओं को अपने नवजात शिशुओं को स्तन-पान कराने की सुविधा मिलनी चाहिये - दफ्तर में उन्हें एक एकान्त स्थान मिलना चाहिये जहाँ वे स्तन-पान करा सकें।  कार्यरत महिलाओं को 6 महीनों का मातृ अवकाश मिलना चाहिये। संसार के अनेक राष्ट्रों ने इस प्रकार के ठोस कदम उठाये हैं किन्तु हमारे देश भारत में अभी इस विषय पर बहुत काम होना बाकी है।

डॉ. एस. एन. रस्तोगी का कहना है कि ‘‘कुछ महिलायें अपने शारीरिक सौंदर्य पर अत्यधिक ध्यान देती हैं। वे सोचती हैं कि स्तन-पान कराने से उनकी शारीरिक सुन्दरता कम हो जायेगी । परन्तु ऐसा सोचना बिल्कुल गलत है। इसके अतिरिक्त कुछ गर्भवती महिलायें स्वयं इतनी अल्प पोषित होती है कि उन्हें इस बात का डर बना रहता है कि वे अपने नवजात शिशुओं को उचित मात्रा में अपना दूध नहीं पिला पायेंगी।"

डॉ. एस. के. सेहता का कहना है कि ‘‘भारतवर्ष में अधिकतर गर्भवती महिलायें अल्प-पोषित है और उन्हें इस बात का डर बना रहता है कि वे उचित मात्रा में नवजात शिशुओं को अपना दूध नहीं दे पायेगी। अत: वे डिब्बे का व अन्य प्रकार का ऊपर का दूध शिशुओं को पिलाना आरम्भ कर देती है। माँ के दूध के अतिरिक्त अन्य सभी प्रकार के दूध नवजात शिशु के लिये अत्यन्त हानिकारक होते हैं। यदि नवजात शिशु को प्रथम 6 महीनों तक केवल और केवल स्तन-पान कराया जाये तो उसे अनेक प्रकार के संक्रामक रोगों के होने की संभावना कम हो जाती है। केवल लगभग 1 प्रतिशत उदाहरणों में  पाया गया है कि माँ का दूध उचित मात्रा में नहीं होता है, या गर्भवती महिला किसी गंभीर रोग से पीड़ित है। इन्हीं दशाओं में डाक्टर शिशु को केवल उसके उपयोग के लिये बनाया गया डिब्बे का दूध जो बाजार में उपलब्ध होता है व जिसे माँ-बाप खरीद सकते है, नवजात शिशु को पिलाने की सलाह देते हैं।
परन्तु डिब्बे के दूध व बोतल से दूध पिलाने में अनेक खराबियाँ है। बोतल से दूध पिलाने में स्वच्छता का अत्यधिक ध्यान रखना चाहिये, अन्यथा शिशु को अनेक प्रकार के संक्रमण होने की संभावना रहती है। इसके अतिरिक्त बोतल से दूध पिलाते समय मातायें बहुधा उसमें पानी मिला देती हैं। ऐसा दूध पीने वाला शिशु कुपोषित रहता है।

डॉ. नीलम सिंह का यह भी कहना है कि शिशु के लिये बनाया गया डिब्बें का दूध शिशु को पोषक तत्व तो दे सकता है परन्तु डिब्बे के  दूध में ‘इम्यून ग्लोबिन' नहीं पाये जाते हैं। साथ ही बोतल से दूध पिलाने में अत्यधिक स्वच्छता का ध्यान रखना आवश्यक है जो हमारे देश में संभव नहीं है। भारत एक उष्ण  कटिबन्ध देश है। यहाँ का उच्च तापमान अनेक प्रकार के संक्रामक रोगों को फैलाने में सहायक होता है। डिब्बे का दूध शिशुओं को बीमारियों से लड़ने की क्षमता नहीं प्रदान करता है।

स्तन पान के लाभों के प्रति घोर अज्ञानता के वातावरण में भी, श्रीमती अल्पना सिंह ऐसी कुछ माताओं के विचार उदाहरणीय हैं। श्रीमती अल्पना ने अपने दूसरे शिशु को शहर के प्राइवेट नर्सिग होम (सिटी अस्पताल) में आपरेशन द्वारा जन्म दिया। वे कहती है, ‘‘मैंने आपरेशन द्वारा जन्मे शिशु को जन्म के तुरंत बाद से ही स्तन-पान कराना प्रारम्भ कर दिया तथा 6 महीनों तक मैंने अपने शिशु को पानी या ऊपर का दूध नहीं दिया। मुझे 3 महीनों के मातृत्व अवकाश के बाद अपना कार्यभार संभालना पड़ा। मैं स्तन-पंप की सहायता से अपना दूध 3,4 घंटे तक के लिए संग्रहित कर लेती थी। इस प्रकार मैंने अपने शिशु को कम से कम एक वर्ष तक अपना दुग्ध ही पिलाया।"

स्तन-पान को प्रोत्साहित करने के लिये स्वास्थ्य संबंधी सुविधायें उपलब्ध होनी चाहिये-उदाहरण के लिये नवजात शिशुओं की माताओं को स्तन-पान के विषय के सलाहकार उपलब्ध होने चाहिये। स्तन-पान को अधिक से अधिक प्रोत्साहित करना चाहिये। माताओं एवं शिशुओं को इस प्रकार की सुविधायें उपलब्ध कराने के लिये 150 देशों में 20,000 से अधिक शिशु कल्याणकारी सुविधायें उपलब्ध हैं। इसके लिये हम विश्व स्वास्थ्य संगठन-यूनीसेफ (WHO-UNICEF)  के बहुत आभारी है. स्तनपान संबंधी अनेक प्रकार की अफवाहों एवं सामाजिक सांस्कृतिक अवधारणाओं को दूर करने के लिये जन स्वास्थ्य कल्याण के कार्यकर्ताओं की अत्यन्त आवश्यकता है। हमें केवल माताओं को नहीं अपितु उनके पारिवारिक सदस्यों को भी स्तन-पान के गुणवत्ताओं के प्रति जागरूक करने की आवश्यकता है। स्तन-पान को प्रोत्साहित करने के लिये सम्पूर्ण समाज के सहयोग की आवश्यकता है।


सौम्या अरोरा - सी.एन.एस.
(अनुवाद: श्रीमती विमला मिश्र, लखनऊ)

केवल स्तन-पान है नवजात शिशु का सर्वोत्तम आहार: ऊपर का दूध नहीं

बाल्यावस्था में  होने वाली निमोनिया बीमारी को रोकने में माँ के दूध का बहुत महत्वपूर्ण योगदान है। विश्व भर में प्रति 20 सेकेंड में 1 बच्चे की मृत्यु निमोनिया से हो रही है। प्रतिवर्ष 1.6 करोड़ बच्चों की मृत्यु निमोनिया रोग से होती है। मृत्यु का यह आंकड़ा विश्व भर में होने वाली शिशुओं की मृत्यु का लगभग 20 प्रतिशत है। इनमें से लगभग 98 प्रतिशत बच्चे जिनकी मृत्यु निमोनिया से होती है विकासशील देशों के हैं। भारत वर्ष में प्रति वर्ष 40,000 से अधिक 5 वर्ष की आयु से कम के बच्चों की मृत्यु निमोनिया रोग से पीड़ित होकर होती है। केवल स्तन-पान ही बच्चों को अनेक प्रकार के रोगों, विशेषकर निमोनिया, से लड़ने की क्षमता प्रदान करता है। माँ का दूध ही शिशु को अनेक पोषक तत्व देता है साथ ही इम्यूनोग्लोबिन, प्रतिरोधक तत्व भी प्रदान करता है। इन तत्वों से शिशुओं को "वसननली" संबंधित रोगों से लड़ने की क्षमता मिलती है। तथा इनके द्वारा बच्चों की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है।

स्तन-पान न करने वाले बच्चे स्तन-पान करने वाले बच्चों की अपेक्षा पाँच गुना अधिक संख्या में निमोनिया रोग से पीड़ित होकर मृत्यु को प्राप्त करते हैं. हमें याद रखना चाहिये कि निमोनिया फेफड़ों के संक्रमित होने पर होता है। निमोनिया होने पर फेफड़ों में मवाद व द्रव भर जाता है जिसके कारण फेफड़ों में ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है एवं श्वास लेने में कष्ट होता है। इस सबका मूल कारण जीवाणु संबंधित संक्रमण होता है, यद्यपि विषाणु एवं फन्गस भी निमोनिया रोग के कारण हो सकते है। यह रोग बच्चों की विकसित होती हुई रोग प्रतिरोधक क्षमता के चलते कुपोषण के कारण, प्रदूषित वातावरण के कारण, एच. आई. वी. से संक्रमित होने के कारण, तपेदिक के कारण, इन्फ्लुयनजा एवं खसरा रोग के कारण एवं जन्म के समय दुर्बलता के कारण से होता है।

वर्तमान समय में संसार में केवल 38 प्रतिशत बच्चे ही स्तन-पान करते हैं. स्तन-पान कराने में अनेक बाधायें हैं जैसे माता के पास समय की कमी, सामाजिक व सांस्कृतिक रूढ़िवादितायें, जल्दी जल्दी प्रसव होना, ऊपर का डिब्बे का दूध आसानी से उपलब्ध होना तथा स्तन-पान संबंधी ज्ञान की कमी होना। नेल्सन अस्पताल के बाल-रोग विशेषज्ञ डॉ. दिनेश पांडे का कहना है कि "आजकल की माताओ में 'काकटेल फीडिंग' अर्थात बच्चे को  बोतल का दूध पिलाना बहुत प्रचलित हैं, विशेषकर कार्यरत महिलाओं में। अत: उनके बच्चे ऊपर का दूध अथवा डिब्बे का दूध पीते हैं।"

नेलसन अस्पताल लखनऊ के निदेशक डॉ. अजय मिश्रा ने पिछले 6 महीनों में गंभीर निमोनिया से पीड़ित 30 शिशुओं का इलाज किया है। जब मैं सितम्बर 2011 में उनके अस्पताल गई तो पाया कि 10 दिन से कम उम्र के अनेक नवजात शिशुओं को निमोनिया से उपचार के लिये भर्ती किया गया था। उन नवजात शिशुओं के अतिरिक्त कुछ बड़ी आयु के शिशु भी निमोनिया के उपचार के लिये भर्ती थे।

डॉ. अमिता पाण्डे (जो छत्रपति शाहूजी महाराज चिकित्सा विश्वविद्यालय में प्रसूति एवं स्त्री-रोग विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं) भी इस बात की पुष्टि करती हैं कि उनके अस्पताल में बाल निमोनिया से पीड़ित बड़ी संख्या में बच्चों का उपचार होता है। उनका कहना है कि "हम स्त्री-रोग विशेषज्ञों को मात्र 48 घंटे या 7 दिन के जन्मे एवं नियोनेटल निमोनिया से पीड़ित नवजात शिशुओं का उपचार करना पड़ता हैं। बाल्यवस्था में निमोनिया से पीड़ित बच्चें में 50 प्रतिशत की मृत्यु ‘नियोनेटल निमोनिया’ से पीड़ित नवजात शिशुओं की होती है। सर्वेक्षण करने पर पाया गया है कि मृत जन्मे शिशुओं में 30 प्रतिशत से 60 प्रतिशत तक एवं जन्म के 1 या 2 दिन बाद मर जाने वाले शिशुओं में 50 प्रतिशत से 60 प्रतिशत तक ‘बाल निमोनिया’ से पीड़ित थे। यह उन शिशुओं की 'अटोप्सी'  (मृत्युप्रान्त चीर-फाड़) द्वारा मालूम पड़ा।"

स्तन-पान से लाभों की महत्व को बताते हुये डॉ. अमिता पाण्डे ने बताया कि, "मैं एक सरकारी अस्पताल में कार्यरत हूँ। यहाँ हम लोग केवल माँ के दुग्ध को ही नवजात शिशुओं का पूर्ण आहार मानते है और इसी बात का प्रचार करते हैं कि प्रथम 6 महीनों तक नवजात शिशुओं को केवल माँ का ही दूध ही दिया जाना चाहिये। इसके अतिरिक्त उन्हें शक्कर, ग्राइप वाटर, शहद, नारियल पानी इत्यादि कुछ भी नहीं देना चाहिये । हम डॉक्टर प्रसव कराने के 10 मिनिट बाद ही नवजात शिशु को स्तन-पान कराते हैं। हम शिशु को उसकी ‘नार’ समेत मां के पेट पर लिटा देते है। शिशु के इतनी जल्दी स्तन-पान करने से मां के पेट से प्लेसेंटा एवं झिल्ली बाहर निकल आने में भी सहायता मिलती है।"

डॉ. अजय मिश्रा का मानना है कि, "यद्यपि मातायें नवजात शिशुओं को केवल स्तन-पान कराने के लाभों को भली-भांति समझती है, किन्तु वे अपनी शारीरिक सुंदरता को इतना अधिक महत्त्व देती हैं कि वे स्तन-पान कराने में संकोच करती हैं। गाँवों में मातायें बार-बार गर्भवती होने के कारण शिशुओं को गाय का दूध पिलाती हैं।"

डॉ. अमिता पाण्डे के अनुसार "आर्थिक रूप से समर्थ उच्चवर्गीय समाज की माताओं की अपेक्षा गरीब मातायें स्तन-पान को अधिक प्राथमिकता देती है। आर्थिक रूप से सम्पन्न परिवार की लड़कियों को स्तन-पान उचित अवधि तक कराने में अनेक समस्यायें दिखायी पड़ती हैं। अनेक कार्यरत माताओं को प्रसव के कुछ ही सप्ताह बाद अपने नवजात शिशुओं को घर पर कई घंटों तक छोड़ कर काम पर जाना पड़ता है। अत: वे या तो बहुत ही शीघ्र अपने शिशु को स्तन-पान कराना बंद कर देती हैं,  या शिशु को कम से कम एक बार ऊपर का दूध पिलाना आरम्भ कर देती हैं। उनका मानना है कि यदि शिशु को आरम्भ से ही ऊपर का दूध पीने की आदत नहीं डाली जायेगी तो वह बाद में ऊपर का दूध नहीं पीना चाहेगा- ऐसी दशा में माताओं को बड़ी समस्या हो जायेगी।"

प्रथम बार बनी माताओं का मानना है कि उनके स्तनों में प्रसव के कुछ दिनों बाद तक पर्याप्त मात्रा में दूध नहीं उतरता है। अत: उन्हें शिशुओं को ऊपर का दूध देना पड़ता है। परन्तु डॉ. अमिता पाण्डे इस बात को दृढ़ विश्वास से कहती है कि माता के स्तन से, प्रसव के बाद से कुछ दिनों तक जो भी द्रव पदार्थ (क्लोरोस्ट्रम) निकलते हैं वे नवजात शिशु के पोषण के लिये पर्याप्त होते हैं। गर्भ की पूर्ण अवधि पर जन्म लेने वाले शिशु में पर्याप्त मात्रा में 'ग्लाइकोजेन' पाया जाता है जो उसके लिये प्रारम्भ के 2 दिनों तक पर्याप्त आहार का काम करता है। इसके अतिरिक्त यदि शिशु को जन्म लेने कुछ समय के बाद माँ के स्तन पर लगा दिया जांता है तो माँ के स्तन से द्रव व दूध अपने आप निकलने लगता है। यह एक प्रकार की चक्रीय  प्रक्रिया होती है - यदि शिशु को माँ के स्तन पर लगा दिया जाता है तो चक्रिय क्रिया से हारमोन्स निकलने लगते है व माँ के स्तन में दूध की मात्रा स्वयं बढ़ने लगती है। शिशु जितना अधिक  माँ का स्तन-पान करता है उतना ही अधिक दूध माँ के  स्तन में आता रहता है।

श्रीमती अनुराधा, जिन्होंने ने हाल ही में एक शिशु को आपरेशन द्वारा एक निजी नसिंग होम में जन्म दिया है, बताया कि प्रसव के बाद उनके स्तनों से दूध नहीं निकला। अत: डॉक्टर ने उन्हें अपने नवजात शिशु को ऊपर का दूध 2 दिनों के लिये स्वच्छ कप व चम्मच से पिलाने की आज्ञा दी। बाद में उन्होंने अपने शिशु को स्तन-पान कराना प्रारम्भ कर दिया। इसी प्रकार एक और युवती माँ, श्रीमती बीना ने बताया कि उन्होंने अपनी नवजन्मी पुत्री को जन्म देने के बाद स्तन पान के साथ पानी भी पिलाया क्योंकि उसे अतिसार रोग के लिये दवा खिलाने के लिए पानी पिलाना ज़रूरी था। वे शिशु को दूध के साथ पानी पिलाने के कारण होने वाले दुष्परिणामों से अनभिज्ञ थी।

अत: युवती लड़कियों को नवजात शिशु को केवल स्तन-पान कराने की आवश्यकता को समझने के लिये व जागरूक बनाने के लिये सामजिक एवं अस्पताल स्तर पर अधिक से अधिक इस विषय पर कार्यक्रम होने की नितांत आवश्यकता है। डॉक्टरों को उन्हें नवजात शिशुओं को स्तनपान कराने के लाभों से अवगत कराना चाहिये। विश्व स्वास्थ्य संगठन इस बात की पुष्टि करता है कि 6 महीने की उम्र तक शिशु का पूर्ण आहार केवल, और केवल, स्तनपान ही है, तथा 2 वर्ष की आयु तक माँ के दूध के साथ साथ अन्य सहायक पौष्टिक आहार भी बच्चे को देना चाहिये। गर्भवती माताओं को याद रखना चाहिये कि उनका दूध ही बच्चों के लिये निमोनिया व अन्य बीमारियों से लड़ने के लिये सबसे सशस्त्र हथियार के समान होता हैं। उन्हें समाज में स्तनपान से संबंधित फैले हुये भ्रामक प्रचारों के विपरीत इस बात को समझना चाहिये कि प्रथम 6 महीनों तक नवजात शिशुओं को केवल माँ के दूध की ही आवश्यकता होती है। प्रथम 6 महीनों तक माँ का दूध ही उनका पौष्टिक आहार होता है।


शोभा शुक्ला - सी.एन.एस.
(अनुवाद: श्रीमती विमला मिश्र)

स्तनपान से निमोनिया से बचाव मुमकिन

5 वर्ष की आयु से कम बच्चों के लिये विश्व भर में निमोनिया नामक रोग प्राण घातक हो सकता  है। प्रतिवर्ष लगभग 1.6 लाख बच्चों की मृत्यु इस रोग से होती है। यह आंकड़ा विश्वभर में होने वाली शिशु-मृत्यु का लगभग १/५  भाग है। अन्य घातक श्वास संबंधी संक्रमण के समान निमोनिया संसार के उन बच्चों को, जो गरीब व कुपोषित, अल्पपोषित है, अपना घातक शिकार बनाता है। विकसित देशों की अपेक्षा विकासशील देशों के बच्चे 10 गुना अधिक संख्या में इस रोग के शिकार होते हैं। गरीब देशों में निमोनिया रोग 100,000 बच्चों में से 7,320 बच्चों के लिये प्राण लेवा पाया गया है। दक्षिणी एशिया एवं सब-सहारा अफ्रीका क्षेत्र में 21 प्रतिशत बच्चों की मृत्यु निमोनिया से होती है। 'घातक श्वसन संबंधी संक्रमण 2010 एटलस' के अनुसार पोषक तत्वों की कमी के कारण विश्व भर में 44 प्रतिशत बाल - मृत्यु निमोनिया से होती है।

भारत में बाल्यावस्था निमोनिया का रोग बहुत अधिक संख्या में पाया जाता है। शरीर की रोग-प्रतिरोधक क्षमता के लिये एक बार बीमारी होने पर उसके दुष्प्रभाव को कम करने के लिये उचित पौष्टिक आहार बच्चों के लिये अति आवश्यक है। सभी डॉक्टर इस बात से सहमत हैं कि कुपोषण बच्चों की रोगों से लड़ने की क्षमताओं को कम करता है, जिसके कारण बच्चे अनेक रोगों, जिनमें से निमोनिया भी एक है, के शिकार बन जाते हैं।

यद्यपि अल्पपोषण का एक कारण निर्धनता भी है, परन्तु प्राय:  सस्ता परन्तु पोषक भोज्य पदार्थों के विषय की अनभिज्ञता ही गरीब परिवारों को अपने बच्चों को उचित आहार मिलने से वंचित रखता है। यह बात विशेषकर सत्य है कि शहरों में रहने वाले परिवारों के बच्चों का दैनिक भोजन 'प्रोसेस्ड' एवं 'फास्ट फूड' ही होता जाता है। शहर की झोपड़पट्टी में रहने वाले लोग भी साधारण एवं  पौष्टिक खाना जैसे की दाल-रोटी के बजाय चिकनाई एवं चर्बीयुक्त खाना अधिक पसंद करते हैं।

लखनऊ के प्रसिद्ध अस्पताल संजय गाँधी स्नातकोत्तर आयुर्विज्ञान संस्थान के गैस्ट्रोएन्टरालजी विभाग के प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष डॉ. गौड़दास चौधरी भी इस बात से सहमत हैं कि अल्पपोषित बच्चे आसानी से निमोनिया रोग से पीड़ित हो जाते हैं। डॉ. चौधरी बच्चों के स्वास्थ्य के बहुत बड़े समर्थक हैं। उनका कहना है कि, "निमोनिया जैसी अनेक बीमारियों का एक महत्वपूर्ण कारण है अव्यवस्थित जीवन शैली। गरीब परिवारों के भूक से पीड़ित बच्चे एवं धनी परिवारों के स्थूल काय बच्चें--दोनों ही कुपोषित होते है। अत: उनमें रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है। अत: इस बात को सुनिश्चित करना अति आवश्यक है कि बच्चों का शरीर भार आदर्श  भार होना चाहिये, तथा उन्हें खेलों में पर्याप्त रूचि रखनी चाहिये। उन्हें शारीरिक व्यायाम पर्याप्त मात्रा में करना चाहियें ताकि उनके फेफड़े, और सम्पूर्ण शरीर स्वस्थ रहें। जिससे वे निमोनिया तथा अन्य श्वास संबंधी रोगों से न पीड़ित हों।’’

नेलसन अस्पताल के बाल-रोग विशेषज्ञ डॉ. दिनेश पांडे ने बताया कि कुछ वर्षों पहले गरीब परिवारों की अपेक्षा सम्पन्न परिवारों के बच्चों को निमोनिया रोग कम होता था। परन्तु प्रोटीन तत्व संबंधी कुपोषित आहार,  अत्यधिक भीड़-भाड़, घर के भीतर व बाहर का दूषित वातावरण एवं जीवन शैली में अनेकों परिवर्तन के कारण समाज के उच्च वर्गीय परिवारों में भी इस रोग का प्रभाव देखा जाता है, तथा निमोनिया एवं अतिसार रोगों से पीड़ित बच्चों की संख्या बढ़ रही है। उन्होंने दु:ख प्रकट करते हुये कहा कि फास्ट-फूड (जो कदापि पौष्टिक नहीं होता है) की बढ़ती हुई लोकप्रियता के कारण, बच्चें कुपोषित रहते हैं तथा उनकी रोगों से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता भी कम हो जाती है। अत: निमोनिया रोग केवल निर्धन परिवारों तक ही सीमित नहीं रह गया है। यद्यपि विकासशील देशों, जैसे भारत, में निमोनिया का रोग अल्प आय वाले परिवारों में अधिक पाया जाता है।

डॉ. दिनेश पांडे के विचार से "अच्छा पौष्टिक आहार मंहगा नहीं होता है। कुछ गाँवों में बच्चों को अच्छा पौष्टिक भोजन जैसे नदी से निकाली गयी ताजी मछली एवं शुद्ध गाय या भैंस का दूध आसानी से प्राप्त हो जाता है। गाँवों के बच्चों को हरी सब्जियाँ एवं दाल सस्ते व आसानी से मिल जाते हैं। शहरों में रहने वाले परिवार आहार पर बहुत अधिक धन व्यय करते हैं किन्तु वे आहार की पौष्टिकता को अधिक महत्व नहीं देते हैं। मैं इस बात को अधिक महत्व देता हूँ कि आहार की पौष्टिकता, मात्रा एवं गुण के अनुसार संतुलित होनी चाहिये। आहार बच्चों की आवश्यकता अनुसार होना चाहिये। व्यवसायिक आधार पर प्राप्त भोज्य पदार्थ जैसे ‘फास्ट फूड’ जिनका लुभावने विज्ञापनों के ज़रिये से अत्याधिक प्रचार किया जाता है, नहीं खाने चाहिये।  घर का सादा बना हुआ आहार ही बच्चों के लिये लाभदायक होता है।"

नेलसन अस्पताल के निदेशक डॉ. अजय मिश्रा इस बात पर विशेष जोर देते हैं कि सर्वसाधारण जनता को इस बात के लिये शिक्षित करना आवश्यक है कि अच्छा आहार निमोनिया एवं अन्य बीमारियों से बच्चों की रक्षा करता है। उनके विचार से, "माँ-बाप को अपने बच्चों की कैलोरी की आवश्यकताएँ जाननी चाहिये। उन्हें अपने बच्चों के लिये एक संतुलित भोजन सुरक्षित करना चाहिये जिसमें प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, लौह व कैल्शियम उचित मात्रा में पाये जाते हैं। मैं रेशेदार भोज्य पदार्थ को-- जैसे हरी सब्जियाँ, दालें, साधारण रोटी या चपाती जो सस्ती व स्वास्थ्य के लिये गुणकारी है -- बच्चों को दिये जाने का आग्रह करूंगा। माँ-बाप को चाहिये कि वे अपने बच्चों को ‘फास्ट-फूड’ जैसे पीजा, बर्गरस, पेस्ट्रीज और कोल्ड-ड्रिंक्स लेने के लिये उत्साहित न करें क्योंकि ये सब पदार्थ बहुत हानिकारक होते हैं तथा कभी कभी ही लिये जाने चाहिये। मैं फलों को अधिक महत्व दूँगा, उनके रसों को नहीं, क्योंकि फलों  में रेशों के साथ-साथ खनिज तत्व भी पाये जाते हैं।"

गर्भाशय जीवन की प्रारम्भिक अवस्था से, वाल्यवस्था तक दिए गए अपर्याप्त पौष्टिक आहार, शिशुओं की सदा के लिये अपर्याप्त रोग निरोधक क्षमता एवं भयानक श्वसन संबंधी संक्रमण जैसे निमोनिया से संबंधित है। माता से प्राय: पाये जाने वाले पौष्टिक आहार की अनुचित मात्रा बाद में बच्चों की निमोनिया का एक बड़ा कारण होता हैं, क्योंकि यह जन्म के समय शिशु के अल्प भार के कारण होता है। स्तनपान की गुणवत्ता को कम समझने के कारण शिशु में कुपोषण एवं विटामिन की कमी की आशंका बढ़ जाती है।

डॉ. अमिता पाण्डे, जो छत्रपति शाहूजी महाराज चिकित्सा विश्वविद्यालय के प्रसूति एवं स्त्री-रोग विभाग में  सहायक प्रोफेसर हैं, कहती है कि, "यद्यपि निमोनिया रोग धनी एवं गरीब सभी बच्चों को होता है पर अध्ययन  करने से पता चला है कि कुपोषित बच्चों को निमोनिया अधिक होता है। जो संक्रमण पौष्टिक आहार पाने वाले  बच्चों में केवल श्वसननली के ऊपरी भाग को संक्रमित करके समाप्त हो जाता है, वही संक्रमण कुपोषित बच्चों में अत्यन्त दुर्बलता प्रदान करने वाले निमोनिया रोग का कारण बन जाता है। मैं यह भी कहना चाहूँगी कि सम्पन्न परिवारों के बच्चे, जिन्हें पर्याप्त मात्रा में भोजन मिलता है, भी कुपोषित होते हैं। इसके कई कारण हैं-उन्हें स्तनपान नहीं कराया गया होता है, उन्हें ऊपर का दूध दिया जाता है जिसमें पर्याप्त मात्रा में प्रोटीन नहीं पाये जाते है, या ऊपर के दूध में पानी मिलाकर पिलाया जाता है। माताओं में यह गलत धारणा होती है कि पानी मिला दूध आसानी से पच जाता है। जैसे जैसे बच्चा बढ़ता है उसे दूध के अतिरिक्त और भी भोज्य पदार्थ जैसे चाकलेट फ्राईज, वरगर, पीजा, इत्यादि दिये जाने लगते है, जो उचित नहीं है । जब बच्चा बड़ा होने लगता है तो उसे माँ के दूध के साथ साथ प्रोटीन युक्त आहार जिसमें फल आदि सम्मिलित हैं, उसकी रोग प्रतिरोधक क्षमता  बढ़ाने के लिये दिए जाने चाहिए।"

उचित स्वास्थ्य एवं पौष्टिक आहार निमोनिया रोग को कम करने में सहायक होते हैं। 'अक्यूट रिसपेरेटरी इन्फेक्शन एटलस २०१०' के अनुसार इस रोग की सही रोकथाम के लिए अंतर्राष्ट्रीय समुदाय सम्मिलित रूप से प्रतिबद्ध हैं। निमोनिया तथा अन्य बीमारियों से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने के लिये विश्व स्वास्थ्य संगठन 6 महीनों तक शिशु को केवल स्तनपान कराने को महत्व देता है, तथा 2 वर्ष तक स्तनपान एवं अन्य पौष्टिक आहार देने पर जोर देता है। इसके बाद बच्चे को अन्य पौष्टिक एवं स्वस्थ आहार देना चाहिये। गत कुछ वर्षों में भोज्य पदार्थों की बढ़ती हुयी कीमतों के कारण कुपोषणता की आशंकाए और बढ़ गयी हैं। हालाँकि हमारी सरकारें कुपोषण को सामुदायिक स्तर पर रोकने के लिये वचनबद्ध हैं, फिर भी इस लेख को लिखते समय ‘भोज्य पदार्थों’ की कीमतों में 9.13 प्रतिशत वृद्धि हुयी है।


शोभा शुक्ला - सी.एन.एस.
(अनुवाद: श्रीमती विमला मिश्र, लखनऊ)

बच्चों में निमोनिया के खतरे को बढ़ाता है घर के भीतर का प्रदूषण

बच्चों में निमोनिया के खतरे को बढ़ाने में घर के भीतर का प्रदूषण जैसे धूम्रपान,घर में लकड़ी जलाकर या गाय के गोबर को गरम करके खाना पकाना आदि अहम भूमिका निभाते है. एक अध्ययन के अनुसार प्रतिवर्ष ८७१५०० बच्चे घर के अन्दर के प्रदूषण से होने वाले निमोनिया के कारण मरते हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार “वातावरण सम्बन्धी प्रदूषण, जैसे कि लकड़ी व गोबर के कंडे पर खाना पकाना, अथवा अन्य जैविक ईंधन का प्रयोग करना, घर में धूम्रपान करना और भीड़ भरे स्थान पर रहना भी बच्चों में निमोनिया के खतरे को बढ़ाता है”. अतः बच्चों को साफ़-सुथरे और अच्छे वातावरण में रखना चाहिए ताकि उनमें निमोनिया तथा अन्य बीमारियाँ होने का जोखिम कम से कम हो.

बहराइच जिला अस्पताल के वरिष्ठ बाल रोग विशेषज्ञ डॉ.  के. के. वर्मा के अनुसार "घर के भीतर का प्रदूषण, जैसे बीड़ी पीना, चूल्हे पर खाना पकाना आदि, बाल निमोनिया के खतरे को बढ़ा देता है. ग्रामीण क्षेत्र में संक्रमण फैलने  के और भी बहुत से कारण हैं, जैसे गाँव में मलखाना घर के अन्दर ही कच्ची दीवारों का बना होता है जिसके कारण संक्रमण फैलने का खतरा बढ़ जाता है. अतः मलखाना घर के बाहर बनना चाहिए और पक्की दीवारों का बनना चाहिए. भारत सरकार द्वारा मलखाना बनाने का जो कार्यक्रम चलाया गया है उसे लोगों को अपनाना चाहिए. ग्रामीण घरों के बच्चे प्रायः जमीन पर बैठकर खाना खाते हैं. ऐसा नहीं करना चाहिए. घर की लिपाई-पुताई होनी चाहिए. घर पक्के ईंट का बना  होना चाहिए. जो शहरी  क्षेत्र के लोग हैं उनमें संक्रमण फैलने का खतरा कम होता है क्योंकि उन्हें शुद्ध पानी मिलता है जबकि ग्रामीण क्षेत्र में शुद्ध पानी उपलब्ध नहीं होता जिसके कारण उनमें संक्रमण फैलने का खतरा और भी ज्यादा बढ़ जाता है".

लखनऊ में अपना निजी क्लीनिक चलाने वाली बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. कुमुद अनूप प्रदूषण के लिए धूम्रपान को दोषी मानती हैं. उनका कहना है कि "शहरी परिपेक्ष में धूम्रपान घर के भीतर के प्रदूषण का एक बड़ा कारण है. बच्चे जो परोक्ष रूप से धूम्रपान के शिकार हो जाते हैं वह उनके लिए बहुत ही हानिकारक होता है और उनमें निमोनिया होने का खतरा बढ़ जाता है. धूम्रपान न केवल निमोनिया बल्कि अस्थमा तथा अन्य कई प्रकार के संक्रमणों को दावत देता है. अतः बच्चों को परोक्ष धूम्रपान के कुप्रभावों से बचाने के लिए घर के भीतर धूम्रपान वर्चित होना चाहिए. तभी हम बच्चों में निमोनिया तथा अन्य स्वास्थ सम्बन्धी बीमारियों के खतरे को कम कर पायेंगे". 

डॉक्टर में भी घर के भीतर होने वाले प्रदूषण से जन्मे संक्रमण के बारे में जानकारी का अभाव है. जिसका अन्दाजा हम इस बात से ही लगा सकते हैं कि बहराइच जिला अस्पताल के स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ. पी. के मिश्र घर के भीतर के प्रदूषण को निमोनिया का कारण नहीं मानते हैं. उनके अनुसार "धूम्रपान, तम्बाकू के प्रयोग से या फिर घर में खाना पकाने के लिए अंगीठी के उपयोग से सीधे तौर पर निमोनिया के होने का खतरा नहीं होता है. पर बच्चे को धुएं में रखने से घुटन हो सकती है पर इससे सीधे तौर पर कोई बीमारी होने का खतरा नहीं होता है".

धूम्रपान से निमोनिया के होने का खतरा बढ़ जाता है. जिसका अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि बहराइच जिला अस्पताल में दिखाने आयी निमोनिया से पीड़ित ढाई साल के एक बच्चे की माता ने बताया कि उसके घर में कई लोग धूम्रपान और तम्बाकू का सेवन करते हैं और घर में खाना भी चूल्हे पर पकाया जाता है. एक और माता, जिसका तीन दिनों का बच्चा जो निमोनिया से पीड़ित था, ने बताया कि उसके घर में भी चूल्हे पर खाना पकाया जाता है और बच्चे के पिता बीड़ी, सिगरेट और गुटके का सेवन करते हैं .

बेहतर स्वास्थ्य देखभाल, उचित पोषण और पर्यावरण में सुधार स्वतंत्र कारक हैं जो बाल निमोनिया के घटनाओं को कम कर सकते हैं. अतः  समाज में लोगों के जीवन स्तर में परिवर्तन लाने के लिए इन कारकों की भूमिका प्रमुख है. सरकार को भी इन कारकों को ध्यान में रख कर ही स्वास्थ्य कार्यक्रमों को क्रियान्वित करना चाहिए. जब लोगों का जीवन स्तर बेहतर होगा तथा लोग अच्छे जीवन स्तर की विधि अपनायेंगें तभी निमोनिया तथा अन्य संक्रमणों से बचाव सम्भव हो पायेगा.

राहुल कुमार द्विवेदी - सी.एन.एस.
(लेखक सी.एन.एस. www.citizen-news.org ऑनलाइन पोर्टल के लिये लिखते हैं)

अच्छा पोषण बच्चों को निमोनिया से बचाता है

बच्चे जो कुपोषित या अल्पपोषित और जन्म से शुरूआती छः माह तक सिर्फ माँ का दूध नहीं पीते हैं, उनमें रोगप्रतिरोधक क्षमता कम होती है जिससे कारण उनमें निमोनिया के होने का खतरा बढ़ जाता है. अतः बच्चों को निमोनिया से बचाने में उचित पोषण और माँ के दूध का महत्वपूर्ण योगदान है. सम्पूर्ण विश्व में बच्चों में निमोनिया से होने वाली कुल मौतों में से ४४% मौतें कुपोषण के कारण होती हैं.  

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार पूरे विश्व में  प्रतिवर्ष पांच वर्ष से कम आयु के १८ लाख बच्चों की मृत्यु निमोनिया  से होती हैं.  यह संख्या बच्चों में अन्य बीमारियों से होने वाली मृत्यु से कहीं अधिक है.   निमोनिया एक प्रकार का तीव्र श्वास सम्बन्धी संक्रमण है जो फेफड़ों की वायुकोष्टिकाओं को प्रभावित करता है. जब कोई स्वस्थ मनुष्य साँस लेता है तो यें वायुकोष्टिकाएं हवा से भर जाती  हैं. परन्तु निमोनिया से पीड़ित व्यक्ति  में ये  कोष्टिकाएं मवाद और तरल पदार्थ से भर जाती हैं जिसके कारण श्वास लेने की प्रक्रिया  कठिन और दुःखदायी हो जाती है तथा शरीर में ऑक्सीजन सीमित मात्रा में पहुँच पाती है.

बहराइच जिला अस्पताल के वरिष्ठ बाल रोग विशेषज्ञ डॉ के. के. वर्मा के अनुसार "बच्चों को निमोनिया से बचाने के लिए सम्पूर्ण पोषण बहुत आवश्यक है. इससे बच्चों  के शरीर को पूर्ण रूप से सभी प्रकार के विटामिन मिलते रहते हैं फलस्वरूप बच्चों का निमोनिया से बचाव होता रहता है. पूर्ण पोषण के लिए बच्चों को दाल, चावल और रोटी दें, बाहर का 'रेडीमेड बेबी फ़ूड' जहां तक संभव हो नहीं देना चाहिए. बाहरी ' रेडीमेड बेबी फ़ूड' बच्चे के स्वास्थ्य के लिए एक ख़राब पोषण है" 

बहराइच जिला अस्पताल के स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ. पी. के मिश्र का मानना है कि "शिशु के लिए जीवन के पहले छः माह तक माँ का दूध सबसे उचित पोषण है और जब बच्चा  छः माह से अधिक का हो जाए तो दलिया वगैरा दिया जा सकता है. बोतल का दूध बिल्कुल ही नहीं पिलायें यह बच्चों के लिए सही पोषण नहीं है. महिलाओं में जानकारी की कमी है अतः आवश्यक है कि उन्हें जानकारी दी जाए यदि वे जानकार होंगी तो अच्छे पोषण कि विधि अपने-आप अपना लेंगी".

लखनऊ में एक निजी चिकित्सालय चलाने वाली बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. कुमुद अनूप जी के अनुसार "हाथ कि स्वच्छता बहुत महत्वपूर्ण है, जिससे निमोनिया तथा अन्य अनेक बीमारियों से बच्चों को बचाया जा सकता है. अतः,  उचित पोषण और स्वच्छता न केवल बच्चे को निमोनिया तथा अन्य रोगों से बचाने में सहायक है बल्कि बच्चे के शारीरिक विकास और रोगप्रतिरोधक क्षमता को भी बढ़ाने में कारगर  है. दाल, चावल, रोटी  और सब्जी सबसे अच्छा और सस्ता पौष्टिक आहार है जो किसी भी प्रकार से हानिकारक नहीं है".

डॉ वर्मा के अनुसार भी बच्चों को निमोनिया से बचाने के लिए सफाई बहुत महत्वपूर्ण है. अतः बच्चे को ठीक प्रकार से हाथ को धोने के बाद ही स्पर्श करना चाहिए. बच्चों को कपड़े धुले व साफ़-सुथरे पहनाने चाहिए. बेहतर होगा कि कई कपड़ों का प्रयोग पहनाने के लिए करें यदि एक-दो  कपड़े ही हैं तो हर बार कपड़े धुल कर ही पहनायें.

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार बच्चों को निमोनिया से बचाने में पर्याप्त मात्रा में पोषण बहुत ही अहम भूमिका निभाता है. बच्चों को आरम्भ के छः महीने तक समुचित मात्रा में पोषण देने के लिए माँ का दूध पर्याप्त है. यह बच्चों के लिए एक प्राकृतिक सुरक्षा है जो कि बच्चों को न केवल पूर्ण पोषण प्रदान करता है बल्कि उनमे रोगप्रतिरोधक क्षमता का विकास भी करता है. 

अतः बच्चों को समुचित पोषण और उचित वातावरण प्रदान करके हम उसे न केवल निमोनिया वरन  अन्य कई प्रकार के भ्रामक बीमारियों से बचा सकते हैं. बच्चों को उचित पोषण देने के लिए उसके जीवन के पहले छः माह तक केवल माँ का दूध पर्याप्त है तथा ६ से २४ माह तक के लिए माँ के दूध के साथ-२ दाल, चावल, रोटी, सब्जी, दलिया और अन्य पूरक आहार दिया जा सकता है. लोगों में जानकारी का अभाव है. समाज में बहुत बड़ी जागरूकता की जरूरत है. तभी समाज में लोग विभिन्न प्रकार के स्वास्थवर्धक विधियों को अपनाकर, बच्चों को निमोनिया तथा अन्य बीमारियों से बचाने में सफल हो पायेंगें.

राहुल कुमार द्विवेदी - सी.एन.एस.
(लेखक सी.एन.एस. www.citizen-news.org ऑनलाइन पोर्टल के लिये लिखते हैं)

बच्चे को निमोनिया से बचाने में सबसे कारगर "माँ का दूध"

उत्तर प्रदेश के विभिन्न स्वास्थ्य चिकित्सकों का मानना है कि शिशु के जीवन के पहले छः महीने तक केवल माँ का दूध अति आवश्यक है. यह शिशु को न केवल निमोनिया बल्कि अन्य बहुत सारे शारीरिक संक्रमण जैसे अतिसार दस्त, कुपोषण आदि से भी बचाता है. और बच्चे को स्वस्थ रखने में सबसे कारगर है. बच्चे को, जीवन के शुरुआती छ: महीने में, ऊपर से किसी भी प्रकार का दूध 'सप्लीमेंट' या फिर बोतल का दूध नहीं देना चाहिए. एक अध्ययन के अनुसार जीवन के शुरुआती छः महीने तक केवल माँ का दूध पीने वाले बच्चों की तुलना में बच्चे, जो अपने जीवन के पहले छः महीने तक केवल माँ का दूध नहीं पीते हैं, उनमें निमोनिया से मरने का ५ गुना अधिक खतरा होता है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी बताया है कि शिशु जीवन के पहले छः माह तक केवल स्तनपान ही उसके आहार का एकमात्र स्रोत है. एक माह से कम आयु के बच्चों में, श्वास सम्बन्धी बीमारियों से होने वाली कुल मौत में से, ४४% मौतें कम स्तनपान के कारण होती हैं. बहराइच जिला अस्पताल के वरिष्ठ बाल रोग विशेषज्ञ डॉ.  के. के. वर्मा  के अनुसार "माँ के दूध में विटामिन तथा कोलेस्ट्रम (नवदुग्ध) होता है. जो बच्चे को स्वस्थ रखने में और निमोनिया तथा अन्य शारीरिक संक्रमण से बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. अतः यह बहुत आवश्यक होता है कि हर माता शिशु के जीवन के पहले छः माह तक बच्चे को केवल अपना ही दूध पिलाये. बच्चे को ऊपर से बोतल का दूध नहीं देना चाहिए क्योकिं जो गुण माँ के दूध में है वह और किसी भी चीज़ में नहीं है".
     
बहराइच जिला अस्पताल के स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ. पी. के मिश्र का भी मानना है कि  "माँ का दूध बहुत सारी बीमारियों और संक्रमणों से बचाता है. इसीलिए माँ का दूध बच्चे के लिए सबसे अच्छा पोषण है. और इससे अच्छा पोषण और कुछ  नहीं हो सकता है. अतः जो भी गर्भवती महिलाएं यहाँ पर आती हैं. हम उन्हें अच्छी तरह से बताते हैं कि वे शिशु के जीवन के पहले छः महीने तक उसे केवल माँ का दूध पिलायें और ऊपर से कोई भी अन्य दूध या फिर बोतल का दूध न पिलायें".

लखनऊ शहर के बाल रोग विशेषज्ञ डॉ कुमुद अनूप के अनुसार "माँ का दूध सबसे सर्वोतम है. यह न केवल  बच्चे को संक्रमित बीमारी जैसे दस्त और गैस्ट्रोएन्टराइटिस (आँत या पेट में जलन) से बचाता है वरन बच्चे के शारीरिक विकास में भी सहायक होता है, तथा उसके शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाकर उसे अन्य बीमारियों से लड़ने की शक्ति प्रदान करता है. अतः माँ का दूध बच्चे के जीवन के पहले छः महीने तक के लिए अपने आप में एक सम्पूर्ण पोषण है. इसके अतिरिक्त बच्चे को ऊपर से कोई अन्य दूध सप्लीमेंट देने की आवश्यकता नहीं होती है".

बहराइच जिला अस्पताल के डॉ. मिश्र तथा डॉ.वर्मा का मानना है कि उनके अस्पताल में आने वाली महिलाओं में से लगभग ९० प्रतिशत महिलाएं बच्चों को स्तनपान कराती हैं.  और डॉ. मिश्र का यह भी कहना है कि "शहरी महिलाएं बच्चों को स्तनपान कम करा पाती हैं जिसके कई कारण हैं. कुछ महिलायें हैं जो कहीं पर कार्यरत हैं उनके लिए बच्चे को समय से स्तनपान करा पाना बहुत कठिन हो जाता है. कुछ महिलाएं बच्चों को या तो कम स्तनपान कराती हैं या फिर स्तनपान कराना ही नहीं चाहती हैं. अतः इस विषय पर जन साधारण को शिक्षा और जागरूकता की आवश्यकता है. प्रायः देखा गया है कि जब डॉक्टर गर्भवती महिलायें को उचित परामर्श देते हैं तो वे अपने बच्चे को अपना स्तनपान कराती हैं".

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नवजात शिशुओं के लिये सर्वश्रेस्थ माँ-का-दूध, परन्तु समाज में व्याप्त मान्यताओं के कारण जन्म के पश्चात् उन्हें मिलता है बकरी का दूध, शहद, पानी आदि
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जहाँ एक तरफ सरकारी जिला अस्पताल के डाक्टरों का यह मानना है कि अधिकतर महिलाएं बच्चों को स्तनपान कराती है वहीं दूसरी तरफ समाज में कुछ ऐसी मान्यताएं हैं जिनके अनुसार नवजात शिशु के जन्म के पश्चात् बकरी का दूध, शहद, पानी या फिर अन्य कोई चीज माँ के दूध से पहले पिलाई जाती है. जिसका आंकलन इससे लगाया जा सकता है कि बहराइच जिला अस्पताल में निमोनिया से पीड़ित अपने तीन दिनों के बच्चे को दिखाने आयीं माता का कहना है कि "हम बच्चे को बकरी का दूध पिला रहें है क्योकिं यह हमारे घर कि पुरानी परंपरा है कि नवजात शिशु को सबसे पहले बकरी का दूध पिलाया जाता है". निमोनिया से ही पीड़ित एक और ढाई साल के बच्चे की माता जी का कहना है कि वह भी बच्चे को अपना दूध नहीं पिला पायी थीं क्योकिं उस वक्त उनका दूध नहीं आ रहा था.
 
समाज में फैले इस प्रकार के प्रचलन न केवल बच्चों के विकास में बाधक है बल्कि समाज में एक अभिशाप के रूप में व्याप्त हैं जिसको इन चिकित्सकों को भी समझना होगा और माताओं को  ऐसा न करने का परामर्श देना होगा. क्योंकि अक्सर ऐसा देखा गया है कि जब चिकित्सक गर्भवती महिलायों को पूरी तरीके से समझाते हैं तो वें उनकी बातों का अनुसरण करती हैं और अपने बच्चे को स्तनपान कराती हैं. समाज में जागरूकता की कमी है अतः महिलायों को जानकार और जागरूक बनाना आवश्यक है तभी समाज में पूर्ण रूप से बदलाव आयेगा"

राहुल कुमार द्विवेदी - सी.एन.एस.
(लेखक, ऑनलाइन पोर्टल सी.एन.एस. www.citizen-news.org के लिये लिखते हैं)

बालश्रमिक और 'पीतल नगरी' मुरादाबाद के स्लम

एक स्लम है शिवनगर, आत्मसंतुष्टि के लिए निवासी जिसे मोहल्ला कहते हैं!
’अंकल, अंकल....सर’ की आवाज।
’सर...सर’ एक और आवाज।
मुड़कर देखा तो गीता, दीपाली अपनी 2-3 सहेलियों के साथ लगभग दौड़ते हुए आ रही थी और रुकने का इशारा कर रहीं थी। मैं रुका। पास आकर उन्होंने कहा-'सर, हैप्पी दीवाली, अंकल दीवाली की बधाई।’ मैं अवाक-गद्गद हो गया। तुरन्त उन्हें भी बधाई, शुभकामनाएं दीं व ढेरों आशीर्वाद कहा। कुछ भावुक भी हो उठा इन बच्चों के उत्साह से!
स्थान-शिवनगर मलिन बस्ती (स्लम) 
वार्ड-शिवनगर वार्ड
जनपद-मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश 
तिथि-18 अक्टूबर 2011 
विश्वप्रसिद्ध 'पीतल नगरी’ के कारीगरों के कौशल ने न केवल मुरादाबाद को गौरवपूर्ण नाम दिया है बल्कि वित्तीय लाभ से भी नवाजा है जिसमें विदेशी मुद्रा अर्जन शामिल है। इन कारीगरों की वजह से अनेक व्यवसायी करोड़पति बन चुके हैं और भारत सरकार को भी विशाल विदेशी मुद्रा लाभ मिलता है परन्तु इन कुशल कारीगरों व उनके परिवाजनों को क्या मिला? स्थिति वही बदहाली की है आज भी। परिवार  जैसे-तैसे रोटी-कपड़ा की व्यवस्था कर पाता है। मकान? मलिन बस्तियों में जैसे मकान हो सकते हैं उसी तरह के यहां भी हैं। संकरी गलियों में दोनों ओर मकान बने हैं जिनमें परिवार के रहने का स्थान कम और धातुकर्म के लिए फैक्ट्री की जगह ज्यादा है। लगभग पूरा परिवार अथक परिश्रम करके पीतल को वर्तन या आकर्षक सजावटी वस्तुओं का रूप देने में जुटा रहता है। स्वाभाविक है इसमें ऐसे बच्चें भी शामिल होते हैं जिन्हें ’बालश्रमिक’ की संज्ञा दी जाती है। यानि, 06-14 आयुवर्ग के लड़के-लड़कियां।

सन् 2011 की जनगणना के अनुसार मुरादाबाद जनपद की जनसंख्या पौने अड़तालीस लाख (4.78 मिलियन) है। शिवनगर सौ में शहर स्थित एक स्लम है जिसे राज्य सरकार द्वारा अधिकृत माना गया है। यहां के निवासी इसे स्लम नहीं ’मोहल्ला’ कहकर आत्मसंतुष्टि पाते हैं। इसकी कुल आवादी 3532 है जिसमें 1900 पुरूष तथा 1632 महिलाएं शामिल हैं। 06-14 आयु के बच्चों की संख्या 729 है जिनमें 163 बालश्रमिक की श्रेणी में आते हैं। ये बच्चे स्कूल नहीं जाते और घरों में चल रही ’धातुकर्म फैक्ट्री’ में भट्टी को यंत्र द्वारा हवा देना, पानी-मिट्टी की व्यवस्था करना ताकि मोल्ड बनाये जा सकें जैसे कामों को अंजाम देते हैं। पहले अनेक बच्चे विधिवत चलने वाली फैक्ट्रियों में काम करते थे। कुछ सरकारी व गैर सरकारी प्रयासों के फलस्वरूप वहां से हटाये गये परन्तु कुटीर उद्योग के रूप में चलने वाली घरेलू फैक्ट्रियों में अभी भी कार्यरत है। जाहिर है कि ये सभी अवैध रूप से चल रही हैं परन्तु श्रम विभाग शायद अनजान है।

शिवनगर की ऐसी ही एक ’फैक्ट्री’ में मुहम्मद सुहेल भी काम करता है। बड़ी चतुरायी से अपनी उम्र 14 वर्ष बताता है परन्तु काम क्या करता है नहीं बताता है। स्कूल क्यों नहीं गये पूछने पर कहता है अभी समय नहीं हुआ है। शायद उसे यही कहने को कहा गया होगा! मोहल्ले में सरकारी स्कूल होता तो शायद जाता। ऐसी ही स्थिति अन्य बाल श्रमिकों की भी है। प्राइवेट स्कूल 12 हैं परन्तु 0-6 आयुवर्ग के 103 में 98 बच्चों के पास जन्म प्रमाण-पत्र नहीं हैं जिससे स्कूलों में दाखिला मिलना भी मुश्किल होगा।

बच्चों में स्कूल जाने वाले भी हैं जिनमें गीता, दीपाली, रितू, शिखा, नीराज, आसमा तो कक्षा 12 की छात्राएं हैं और मोहल्ले से दूर फूलवती कन्या इन्टर कालेज में जाती हैं। वह भी खुशी-खुशी। छटी में पढ़ने वाली नाजिय, आठवीं की सादिया भी खुश हैं पढ़ाई से। कुछ बनेंगी आगे चलकर ऐसा बताती है। परन्तु गुलक्शा चौथी के आगे नहीं पढ़ सकी है। आर्थिक समस्या उसके सामने रही हैं। दो-तीन साल से स्कूल नहीं जा सकी है। आगे क्या होगा यह भी नहीं बता पा रही है।

एनीमेटर हिना गुप्ता तथा भारती सक्सेना स्कूल न जाने वाली बच्चों की पढ़ाई के लिए  अभिभावकों से सम्पर्क सादे हैं। इनकी लगन काम भी आ रही है तभी तो नटखट शबाब आलम, अनस, सीमा, माहजबीं, आदिल, नाजनीन, आफरीन, सहनूर बालश्रम केन्द्र-71 में पहली कक्षा में भरती हुए हैं और नियमित रूप से स्कूल जा रहे हैं यह पूछने पर कि आज (18 अक्टूबर) क्यों नहीं गये स्कूल सबाब बताता है कि यहां इकठ्ठा होना था ना! स्कूल में उसे मजा आता है। कैसे? नहीं बता पाता।

सीमा के हाथ काले दिखे तो पूछने पर बताती है कि पहले वह चूड़ी बनाने का काम करती थी जिससे ऐसा हुआ। अभी साफ नहीं हो सके हैं बच्ची के हाथ। हिना व भारती बताती हैं कि 7 अक्टबर से 17 अक्टूबर के बीच ही इन बच्चों को स्कूल में भरती कराया गया है और वे रोज जाते हैं। शिक्षा निःशुल्क है।

शिवनगर की कुछ महिलाओं की जागरूकता देख आशा की किरण जागी। उन्होंने ’आशा समूह’ बनाया है जिसमें ’मोहल्ले’ की अनेक महिलाएं (10 से अधिक) शामिल हैं। 15 दिन एक मीटिंग होती है जिसमें काम की समीक्षा और आगे का कार्यक्रम बनता है। इसमें 10-सूत्रीय कार्यक्रम के अन्तर्गत बच्चों व उनकी माताओं के स्वास्थ्य संबंधी विषयों के अलावा शिक्षा, गलियों की सफाई, कूड़े का निस्तारण आदि समस्याओं के निराकरण पर चर्चा होती है। आवश्यकता पढ़ने पर अधिकारियों से मिलकर सफाई आदि करायी जाती है। आरती अग्रवाल अभी 6-7 महीने से ही समूह से जुड़ी हैं परन्तु सक्रिय हैं। बीना भटनागर समूह की सचिव तथा ममता ठाकुर कोषाध्यक्ष हैं। फख्र से बताती हैं कि इने फंड में लगभग दो हजार रुपये हैं जो मात्र 10 महीने के अन्दर ही जमा किए गये हैं। अप्सा का योगदान भी सराहनीय हेै। गली आदि की सफाई में बच्चें भी उत्साहपूर्वक भाग लेते हैं।

मुरादाबाद में जुलाई 2009 से 'धातु उद्योग नगरी मुरादाबाद में बाल अधिकार संरक्षण’ परियोजना कार्यशील है। इस वर्ष जनवरी माह तक 9753 बालश्रमिक यहां चिन्ह्ति किये जा चुके हैं जिन्हें काम से मुक्ति दिलाकर शिक्षा दिलाने के प्रयास जारी हैं। शिक्षित बेरोजगार युवकों को भी संस्थान से  शिक्षण-ज्ञान अर्जन सामग्री देकर समाजोपयोगी बनाने का कार्यक्रम चल रहा हैं

ऐसा लगता है कि यूनीसेफ, राज्य श्रम विभाग और जिला प्रशासन के साथ-साथ गैर सरकार संगठनों के समन्वय से बच्चों-महिलाओं से संबंधित अनेक हितकारी योजनाओं की पूर्ति में सफलता शीघ्र मिलेगी और गीता, दीपाली आदि के साथ अन्य सभी बच्चे, महिलाएं व अन्य नागरकि गरीबी, अज्ञानता के अंधकार को शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छता, बाल एवं मानवाधिकार आदि के जरिये मिटाकर सुखद दीपावली मनाने का सुअवसर प्राप्त कर सकेंगें

दुर्गेश नारायण शुक्ल

गरीब-हितैषी नीतियों की मॉंग के समर्थन में उपवास का तीसरा दिन

- देश के कई क्षेत्रों में काली दीवाली -
   योजना आयोग द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल याचिका में गरीबी रेखा की हास्यास्पद परिभाषा दी गई है। सरकार ने ऐसी नीतियां अपनाई हैं कि गरीब की कीमत पर पहले से ही सम्पन्न लोगों को ज्यादा लाभ मिला है। गरीबी या महंगाई पर कैसे काबू पाया जाए इसका उसे कोई अंदाजा नहीं है जिसकी वजह से गरीब का जीना बहुत ही मुश्किल हो गया है। सरकार किसानों की आत्महत्या, भुखमरी से मौतें, बच्चों का कुपोषण या प्रसव के दौरान मां की मृत्यु दर पर काबू पाने में नाकाम रही है। जबकि मंत्रियों ने भ्रष्टाचार में करोड़ों कमाए हैं सरकार गरीबों के प्रति संवेदनहीन रही है।

इन्हीं मॉंगों के समर्थन में मैगसेसे पुरूस्कार से सम्मानित वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता डॉ0 संदीप पाण्डेय एवं सैकड़ों अन्य नागरिक पांच दिवसीय उपवास पर हैं जिसका आज तीसरा दिन है - 22 अक्टूबर से 26 अक्टूबर, 2011 तक यह उपवास रहेगा। डॉ0 संदीप पाण्डेय उपवास पर आशा आश्रम, ग्राम लालपुर, पोस्ट अतरौली, जिला हरदोई, उ.प्र. में बैठे हैं। हरदोई के अलावा लखनऊ, अहमदाबाद, मुरादाबाद, आदि में भी लोग भारी मात्रा में उपवास पर हैं।

नर्मदा बचाव आंदोलन का नेतृत्व कर रहे आलोक अग्रवाल ने भी आशा आश्रम में उपवास में भाग लिया। तीन ग्राम प्रधानों ने भी इसका समर्थन किया कि गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालों की सूचियां ग्राम सभाओं व वार्ड सभाओं में तैयार हों।

हमारी मांगें हैं किः
(1) योजना आयोग अपना गरीबी का मानक - शहर में प्रति दिन 32 रु. व गांवों में 26 रु. खर्च करने वाला - वापस ले, (2) गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालों की सूचियां ग्राम सभाओं व वार्ड सभाओं में तैयार हों, (3) सार्वजनिक वितरण प्रणाली का लोक व्यापीकरण हो यानी हर गरीब को कम कीमत पर अनाज मिले जैसे उसे रोजगार गारण्टी योजना में काम मिल सकता है, (4) अनाज के बदले जो नकद देने की योजना बनी है उसे वापस लिया जाए, (5) राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना में न्यूनतम मजदूरी 250 रु. प्रति दिन हो जो हरेक मूल्य वृद्धि व सरकारी कर्मचारियों के वेतन वृद्धि के साथ संशोधित हो तथा सारी कृषि मजदूरी रोजगार गारण्टी योजना से दी जाए और (6) समान शिक्षा प्रणाली को शिक्षा के अधिकार अधिनियम का हिस्सा बनाया जाए।

यह बहुत जरूरी हो गया है कि गरीब के मुद्दे उठाए जाएं क्योंकि अभिजात्य शासक वर्ग लगातार उसके साथ खिलवाड़ करता जा रहा है और मध्य वर्ग इस पर चुुप रहता है। अमीर व गरीब के बीच बढ़ते अंतर के साथ अब पहले से ज्यादा विभिन्न वर्गों के लिए मुहैया कराई जाने वाली सेवाओं, जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, आदि, की गुणवत्ता में अंतर दिखाई पड़ने लगा है जो किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में जायज नहीं ठहराया जा सकता।

इस बार हम काली दीवाली मनाएंगे। जो हालात सरकार की आर्थिक नीतियों ने पैदा किए हैं उसमें गरीब के लिए दीवाली मनाने की बहुत गुंजाइश नहीं रही है। यह उपवास गरीबों व ग्रमीण इलाकों के साथ होने वाले भेदभाव के विरुद्ध है।

आशा परिवार, जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय, लोक राजनीति मंच

दीवाली काली मनाएं

[English] [हस्ताक्षर अभियान] योजना आयोग द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल याचिका में गरीबी रेखा की हास्यास्पद परिभाषा दी गई है। सरकार ने ऐसी नीतियां अपनाई हैं कि गरीब की कीमत पर पहले से ही सम्पन्न लोगों को ज्यादा लाभ मिला है। गरीबी या महंगाई पर कैसे काबू पाया जाए इसका उसे कोई अंदाजा नहीं है जिसकी वजह से गरीब का जीना बहुत ही मुश्किल हो गया है। सरकार किसानों की आत्महत्या, भुखमरी से मौतें, बच्चों का कुपोषण या प्रसव के दौरान मां की मृत्यु दर पर काबू पाने में नाकाम रही है। जबकि मंत्रियों ने भ्रष्टाचार में करोड़ों कमाए हैं सरकार गरीबों के प्रति संवेदनहीन रही है।

हमारी मांगें हैं कि 
(1) योजना आयोग अपना गरीबी का मानक - शहर में प्रति दिन 32 रु. व गांवों में 26 रु. खर्च करने वाला - वापस ले,
(2) गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालों की सूचियां ग्राम सभाओं व वार्ड सभाओं में तैयार हों,
(3) सार्वजनिक वितरण प्रणाली का लोक व्यापीकरण हो यानी हर गरीब को कम कीमत पर अनाज मिले जैसे उसे रोजगार गारण्टी योजना में काम मिल सकता है,
(4) अनाज के बदले जो नकद देने की योजना बनी है उसे वापस लिया जाए,
 (5) राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना में न्यूनतम मजदूरी 250 रु. प्रति दिन हो जो हरेक मूल्य वृद्धि व सरकारी कर्मचारियों के वेतन वृद्धि के साथ संशोधित हो तथा सारी कृषि मजदूरी रोजगार गारण्टी योजना से दी जाए और
(6) समान शिक्षा प्रणाली को शिक्षा के अधिकार अधिनियम का हिस्सा बनाया जाए।

यह बहुत जरूरी हो गया है कि गरीब के मुद्दे उठाए जाएं क्योंकि अभिजात्य शासक वर्ग लगातार उसके साथ खिलवाड़ करता जा रहा है और मध्य वर्ग इस पर चुप रहता है। अमीर व गरीब के बीच बढ़ते अंतर के साथ अब पहले से ज्यादा विभिन्न वर्गों के लिए मुहैया कराई जाने वाली सेवाओं, जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, आदि, की गुणवत्ता में अंतर दिखाई पड़ने लगा है जो किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में जायज नहीं ठहराया जा सकता।

इस बार हम काली दीवाली मनाएंगे। जो हालात सरकार की आर्थिक नीतियों ने पैदा किए हैं उसमें गरीब के लिए दीवाली मनाने की बहुत गुंजाइश नहीं रही है।

यह कार्यक्रम गरीबों व ग्रमीण इलाकों के साथ होने वाले भेदभाव के विरुद्ध है इसलिए एक गरीब गांव में पांच दिवसीय उपवास का कार्यक्रम भी किया जा रहा है जो 22 अक्टूबर, 2011 से प्रारम्भ होगा व दीवाली की अगली सुबह अर्थात 26 अक्टूबर, 2011 तक चलेगा। कार्यक्रम "आशा आश्रम, ग्राम जलालपुर, पोस्ट अतरौली, जिला हरदोई, उत्तर प्रदेश" में किया जायेगा |

कृपया उपवास स्थल पर पधार कर इस अभियान को अपना समर्थन दें व इस तरह के प्रतिरोध के कार्यक्रम अन्य जगहों पर भी करें।

डॉ संदीप पाण्डेय
(लेखक मग्सय्सय पुरुस्कार से सम्मानित वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता हैं और वर्तमान में भारतीय प्रोद्योगिकी संस्थान गांधीनगर (गुजरात) में प्रोफेसर हैं)

धर्म और आस्था से धो डालिए एड्स के कलंक को

                                              
अपने ३० वर्ष के कार्यकाल में एड्स नामक घातक बीमारी ने अब तक ३ करोड़ व्यक्तियों को मौत की नींद सुला दिया  है तथा अन्य ३ करोड़ को अपने कीटाणु से संक्रमित कर दिया है. इस बीमारी से जूझने का नया संकल्प है--शून्य नए संक्रमण, शून्य एड्स संबधित मृत्यु, एवं शून्य भेदभाव और कलंक. पहले दो लक्ष्यों को पाने के लिए तीसरे संकल्प को पूरा करना आवश्यक है. ये सभी बातें हाल ही में कोरिया में संपन्न हुए एड्स सम्बन्धी विश्व सम्मलेन में खुल कर सामने आयीं.

एड्स से पीड़ित लोगों को अपनी समस्याओं से जूझने के लिए प्रेम और आस्था की ज़रुरत है न कि हिंसा और घृणा की. उपचार के साथ साथ उन्हें प्रेम और सहानुभूति का मलहम भी चाहिए. उचित जानकारी के अभाव में जन साधारण में एड्स कि बीमारी को लेकर अनेक प्रकार की भ्रांतियां फैली हैं, जिनके कारण प्रायः एड्स के रोगियों को  उत्पीड़न एवं घृणा का पात्र बनते हुए समाज से निष्कासित जीवन जीना पड़ता है. दैनिक जीवन में उन्हें हर कदम पर भेदभाव झेलने पड़ते हैं, जो उनकी बीमारी से भी अधिक घातक सिद्ध हो सकते हैं. सामाजिक उत्पीड़न के कारण अक्सर वे सामायिक एवं उचित उपचार से भी वंचित रह कर एक गुमनामी भरा जीवन व्यतीत करने को विवश हो जाते हैं.

ऐसे में धर्म गुरु एवं धार्मिक प्रवचनकर्ता अपना अमूल्य योगदान दे सकते हैं. धर्म पर आधारित समर्थन और सहायता इस रोग से मुख्य रूप से प्रभावित जन समुदाय (जैसे एड्स के रोगी, समलैंगिक, हिजड़े, इंजेक्शन के द्वारा नशीले द्रव्य लेने वाले, वेश्या वृत्ति करने वाले, महिलाएं एवं बच्चे) को समाज से बहिष्कृत जीवन जीने से बचा सकता है. प्रायः देखा गया है कि धर्म गुरुओं में लिंग और लैंगिकता को लेकर तरह तरह की भ्रांतियां फैली हैं. और धर्म के ज़रिये ये हमारी संस्कृति में भी प्रवेश कर चुकी हैं, क्योंकि संस्कृति अधिकतर उसी विचारधारा का अनुमोदन करती है जिसे धर्म का समर्थन प्राप्त हो. धर्म और लैंगिकता के बीच चल रहे संघर्ष का कुप्रभाव एड्स/एच.आई.वी. से प्रभावित समुदायों, विशेषकर समलैंगिक और हिजड़ों, को ही झेलना पड़ता है. धार्मिक विवादों में उलझ कर समाज भी अन्य लैंगिक रुझानों को स्वीकार नहीं करता. मुस्लिम विद्वान हिजड़ों के प्रति तो कुछ संवेदनशील हैं, पर समलैंगिकता को मान्यता नहीं देते. अन्य धर्मों में भी लैंगिकता को लेकर काफी संकीर्णता है. यहाँ तक कि एड्स से पीड़ित कुछ धर्म प्रचारक इस संकीर्ण मानसिकता के चलते अपना उपचार कराने से डरते हुए एक खौफनाक मौत की ओर बढ़ रहे हैं, जबकि वास्तव में इस रोग का पूर्ण उपचार संभव है.

इस सबके बावजूद असमान लैंगिक रुझान वाले व्यक्तियों के जीवन में धर्म का महत्तव कम नहीं होता. वे भी उतनी ही पूजा अर्चना करते हैं जितना कोई अन्य. अतः यह आवश्यक है कि धार्मिक ग्रंथों की उन वैकल्पिक व्याख्याओं को समझा जाय जो लिंग भेद के प्रति सजग और संवेदनशील हैं. सभी चुनौतियों का सामना करते हुए हमें एड्स रूपी दानव को ख़त्म करना ही होगा, और इस महान कार्य के लिए धर्म गुरुओं का समर्थन और प्रोत्साहन अपेक्षित है. धर्म गुरु अपने मंदिरों, गुरुद्वारों, मस्जिदों, और चर्चों में प्रवचनों के माध्यम से भय के स्थान पर आशा का संचार कर सकते हैं. वे आम जनता को बता सकते हैं कि एड्स के वाइरस का इलाज पूर्ण रूप से संभव है, कि एड्स के रोगियों का निरादर न करके उन्हें सम्मान और प्रेम की दृष्टि से देखना चाहिए, कि हम सबको नैतिक संकीर्णता के स्थान पर मानवीय स्वीकृति  का परिचय देना चाहिए. धर्म गुरुओं को यह याद रखने की ज़रुरत है कि सभी मनुष्य ईश्वर के प्रतिरूप हैं. अतः, लैंगिकता के आधार पर उनका बहिष्कार करना सर्वथा अनुचित है. एक प्रेम भरा सहारा दवा से बढ़कर कारगर होता है.

थाईलैंड के बौद्ध भिक्षु इस दिशा में सराहनीय कार्य करके अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं. इस देश कि ९५% जनता बौद्ध धर्म का पालन करती है. वहां के ३०,००० से भी अधिक बौद्ध मंदिर केवल आराधना स्थल न होकर सामुदायिक कार्यकलापों का मिलन स्थल भी हैं. बौद्ध भिक्षु थाई सामाजिक और आर्थिक विकास का अभिन्न अंग हैं, और ग्रामीण विकास, पर्यावरण संरंक्षण तथा एच.आई.वी./एड्स के क्षेत्र में धनात्मक कार्य कर रहे हैं. उन्होंने मंदिरों के अन्दर ही एड्स सम्बंधित उपचार सेवाएँ उपलब्ध कराई हैं, और वे सतत इस रोग से जुड़ी हुई विभिन्न भ्रांतियां दूर करके उसकी रोकथाम/प्रबंधन के बारे में जागरूकता फैला कर एड्स के रोगियों समाज से बहिष्कृत होने से बचा रहे हैं.

हम सभी को यह समझना होगा कि एड्स केवल स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्या नहीं हैं, वरन एक धार्मिक समस्या भी है. उन्हें कलंकित जीवन जीने को मजबूर करने के बजाय उचित परामर्श और चिकत्सीय सुविधा उपलब्ध कराने में परिवार एवम् समाज का योगदान आवश्यक है. जब संत साधु धार्मिक प्रवचन देते हैं तो जन मानस उनका पालन करता है. अतः धर्म के रखवालों का यह कर्तव्य बनता है कि वे अपनी कूप मंडूकता से बाहर निकल कर समझदारी, उदारता का परिचय देते हुए एक सम्मिलित समाज की रचना में अपना योगदान दें, जहाँ ईश्वर की सभी संतानों को सम्मानपूर्ण जीवन व्यतीत करने का अवसर प्राप्त हो. 

शोभा शुक्ला
सिटिज़न न्यूज़ सर्विस 









दमा नियंत्रण संभव है, पर अधिकांश लोगों की पहुँच के बाहर

[English] संयुक्त राष्ट्र की गैर-संक्रामक रोगों पर अंतर्राष्ट्रीय उच्च-स्तरीय संगोष्ठी से यह साफ़ ज़ाहिर है कि विश्व के तमाम देश गैर संक्रामक रोगों से होने वाली २/३ मृत्यु के प्रति चिंतित हैं और गैर-संक्रामक रोगों के नियंत्रण के लिए ठोस कदम उठाने को हैं. दमा या अस्थमा भी इनमें शामिल है. विश्व में २३५ मिलियन लोगों को दमा है. ग्लोबल अस्थमा रिपोर्ट २०११ से यह स्पष्ट है कि दमा नियंत्रण संभव है पर इसके रोकधाम और नियंत्रण के लिए उपचार विधियाँ अधिकाँश दमा-ग्रस्त लोगों की पहुँच के बाहर हैं.

बच्चों में दमा का अनुपात नि:संदेह चिंताजनक है. बच्चों में होने वाली दीर्घकालिक बीमारियों में दमा का अनुपात सबसे अधिक है. इंटरनैशनल यूनियन अगेंस्ट टुबेरकुलोसिस एंड लंग डिसीज़ (द यूनियन) के निदेशक डॉ नील्स बिल्लो का कहना है कि "जब दमा नियंत्रण के लिए उपचार और विधियाँ उपलब्ध हैं तो जरूरतमंद लोगों तक पहुँचने में विलम्ब क्यों हो रही है? यदि दमा का सही विधिवत उपचार न हो या दमा उपचार लोगों की पहुँच के बाहर हो, तो आम लोग कार्यस्थल या विद्यालय आदि नहीं पहुँच पाते हैं, अपने परिवार, समुदाय और समाज के विकास के लिए अपना सहयोग नहीं दे पाते हैं और अक्सर उनको आकस्मक चिकित्सकीय सहायता की जरुरत पड़ती है जो कहीं अधिक महंगी पड़ती है. हर जरूरतमंद दमा ग्रस्त व्यक्ति तक दमा की सेवाएँ पहुंचनी चाहिए."

विश्व में २३५ मिलियन लोगों को दमा है. इन लोगों को जब दमा का दौरा पड़ता है तो सामान्य सांस लेने के लिए अत्यंत संघर्ष करना पड़ता है जिसकी वजह से उनके जीवन की गुणात्मकता कम हो जाती है, विकृत हो जाती है और मृत्यु तक हो सकती है. यदपि दमा उपचार उपलब्ध है परन्तु अधिकाँश लोगों के पहुँच के बाहर है.

बाबी रमाकांत - सी.एन.एस.

कार्पोरेट समाजवाद का 2जी महोत्सव

केन्द्रीय बजट औसतन 240 करोड़ रूपये प्रतिदिन के हिसाब से कार्पोरेट आयकर को माफ कर देता है। यह उस राशि के बराबर है जो प्रतिदिन भारत से गैर कानूनी ढंग से विदेशी बैंकों में चली जाती है।

2005-06 से 6 सालों के दौरान भारत सरकार ने सभी बजटों में मिलाकर कार्पोरेट आयकर में 3,74,937 करोड़ रूपये माफ कर दिए जो कि 2जी घोटाले के दोगुने से भी अधिक है। जो आंकड़ा उपलब्ध है उसके अनुसार यह राशि साल-दर-साल बढ़ रही है। 2005-06 में 34,618 करोड़ रूपये का कार्पोरेट आयकर का घाटा दिखाया गया। मौजूदा बजट में यह 88,263 करोड़ रूपये है, जो कि 155 प्रतिशत की वृद्धि है। इस तरह देश  को औसतन 240 करोड़ रूपये प्रतिदिन के हिसाब से कार्पोरेट आयकर का घाटा सहना पड़ता है। अजीब बात है, गैर कानूनी रूप से विदेशी बैंकों में जा रहे काले धन का भी यही रोजाना औसत है, वाशिंगटन आधारित थिंक टैंक, ग्लोबल फाइनेंशियल इंटीग्रीटी की रिपोर्ट के अनुसार।

यह 88,263 करोड़ रूपया सिर्फ कार्पोरेट आयकर घाटे का विवरण है, जनता के व्यापक हिस्से के लिए ऊँची छूट सीमा की वजह से होने वाली आयकर राजस्व माफी इस आंकड़े में शामिल नहीं है, न ही वरिष्ठ नागरिकों (पिछले बजटों में) या महिलाओं को मिलने वाली छूट में वृद्धि। यह सिर्फ कार्पोरेट संसार के बड़े खिलाड़ियों के आयकर की बात है।

प्रणव मुखर्जी ने अपने मौजूदा बजट में जहाँ कार्पोरेट घरानों को इतनी विशाल धनराशि की छूट दी, वहीं कृषि क्षेत्र में हजारों करोड़ की कटौती की। जैसा कि टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज के. आर. राजकुमार ने रेखांकित किया है कि इस क्षेत्र में राजस्व खर्च के मद में ‘‘5,568 करोड़ रूपये की निरपेक्ष गिरावट है। कृषि क्षेत्र में सबसे बड़ी गिरावट फसल संसाधनों के प्रबंधन के क्षेत्र में है, 4,477 करोड़ रूपये निरपेक्ष कटौती के साथ।’’ यह इस क्षेत्र में अन्य चीजों के अलावा विस्तार सेवाओं के मौत का सूचक है। दरअसल, ‘‘आर्थिक सेवाओं में, सर्वाधिक कटौती कृषि तथा संबद्ध सेवाओं में हुई है’’। कार्पोरेट घरानों की भारी छूट के कारण होने वाले राजस्व नुकसान को कपिल सिब्बल भी काल्पनिक कहकर उसका बचाव नहीं कर सकते है, क्योंकि हर बजट में ये गणनाएँ साफ तौर पर एक सेक्शन की तालिका में मौजूद रहती है, जिसे ‘राजस्व माफी पर वक्तव्य’ कहा जाता है। यदि हम इसमें कार्पोरेट कर्जमाफी, सीमा शुल्क एवं उत्पाद शुल्क में राजस्व माफी-जोकि भारी पैमाने पर कार्पोरेट संसार तथा समाज के खुशहाल हिस्सों को फायदा पहुँचा रही है, को जोड़ दे तो यह रकम चौकाने वाली है। उदाहरण के लिए कौन सी प्रमुख वस्तुएँ है जिन पर सीमा शुल्क के रूप में राजस्व माफी की गयी है ? हीरा और सोना। जहिर है ये आम आदमी या औरत की वस्तुएँ नहीं है। मौजूदा बजट के अन्दर सीमा शुल्क की राजस्व माफी का सबसे बड़ा अंश यही है, 48,798 करोड़ रूपये। यह हर साल सार्वभौमिक पी.डी.एस. व्यवस्था चलने पर होने वाले अनुमानित खर्च के आधे से भी अधिक है। पिछले तीन सालों में सोना, हीरा और ज्वैलरी में कुल 95,765 करोड़ रूपये का सीमा शुल्क माफ किया गया है।

यह भारत है, यहाँ निजी मुनाफे के लिए सार्वजनिक धन की हर लूट गरीबों के नाम पर होती है। आप पहले से ही इसके लिए तर्क सुन सकते सोना और हीरे की खातिर यह जबरदस्त छूट वैश्विक आर्थिक संकट के दौर में गरीब कामगारों के रोजगार को बचाने के लिए है। क्या खूब ! लेकिन इसने सूरत या और भी कहीं शायद ही एक भी नौकरी बचाई हो। तमाम उड़िया मजदूर उद्योग बंद हो जाने से बेरोजगार होकर सूरत से गंजाम अपने घरों को लौट गए। कई अन्य मजदूरों ने हताश में अपनी जान दे दी। दरअसल उद्योग के लिए यह सरकारी कृपा 2008 के संकट के पहले से ही है। महाराष्ट्र के उद्योगों ने केंद्र के कार्पोरेट समाजवाद का भरपूर लाभ उठाया। फिर भी 2008 से पहले के तीन वर्षों में राज्य में औसतन योजना 1,800 मजदूरों ने अपना रोजगार खोया।

बजट पर लौटे यहाँ ‘‘मशीनरी’’ की एक अलग श्रेणी भी है, इसमें भी सीमा शुल्क में भारी छूट है। इसमें शामिल हैं करोड़ों रूपये के आधुनिक चिकित्सकीय उपकरण जो बड़े कार्पोरेट अस्पतालों द्वारा आयातित हुए, जिन पर करीब-करीब कोई भी कर नहीं लगाया गया। यह दावा कि वे 30 प्रतिशत नि:शुल्क बिस्तर गरीबों को देंगे-जो कि कभी नही होता है- अरबों रू0 वाले इस उद्योग द्वारा इन ‘फायदों’ (दूसरे अन्य फायदों के साथ) को हासिल करने का बहाना भर है। मौजूदा बजट में सीमा शुल्क के रूप में कुल राजस्व माफी 1,74,418 करोड़ रू0 हैं। (इसमें निर्यात क्रेडिट संबंधी रकम शामिल नहीं है)

वास्तव में उत्पाद शुल्क के बारे में हमेशा ही यह दावा किया जाता है कि उत्पाद शुल्क की राजस्व माफी कीमतों में कमी के रूप में ग्राहकों को फायदा पहुँचाती है। इसका कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है कि सचमुच ऐसा है। न तो बजट में न ही कहीं और (इसी तरह के तर्क आज कल तमिलनाडु के कुछ गाँवों में सुनाई देते है, कि 2जी घोटाले में कोई लूट नहीं हुई, यह तो वह धन है जो जनता को सस्ती कालों के रूप में मिल रहा है) जो साफ तौर पर दिख रहा है वह यह है कि उत्पाद शुल्क पर माफी सीधे तौर पर उद्योग और व्यापार को फायदा पहुँचाती है। इसके परोक्ष रूप से उपभोक्ताओं को लाभ पहुँचाने की बात स्पष्टत: अटकलबाजी है, न कि कोई प्रमाणिक बात।

इस बजट में उत्पाद शुल्क के तौर पर कुल राजस्व हानि है 1,98,291 करोड़ रूपये, जो 2जी घोटाले के अधिकतम अनुमान से अधिक है। (पिछले वर्ष 1,69,121 करोड़ रूपये)

यह भी मजेदार है कि इन तीनों राजस्व माफियों से वही वर्ग तमाम तरीकों से फायदा उठाते है। लेकिन आयकर, सीमा एवं उत्पाद शुल्क के रूप में कुल कितनी राजस्व हानि हुई। हमारे पास 2005-06 से 6 साल के बजट  आंकड़े  है, तब यह 2,29,108 करोड़ रूपये थी। मौजूदा बजट में यह 4,60,972 करोड़ रूपये है, यानि दो गुना से भी अधिक। 2005-06 के बाद सारी रकम जोड़ी जाए तो यह कुल 21,25,023 करोड़ रूपये है। यह 2जी नुकसान से सिर्फ 12 गुना नहीं है, यह 21 लाख करोड़ रूपये के बराबर या उससे अधिक की रकम है और ग्लोबल फाइनेशियल इंटीग्रिटी की रिपोर्ट के अनुसार 1948 के बाद से अब तक इतनी ही रकम इस देश से गैर कानूनी तरीके से बाहर ले जायी गयी और विदेशी बैंकों में जमा की गयी। यह लूट 2005-06 से 6 साल में घटित हुई है। मौजूदा बजट आंकड़े में इन तीनों मदों में कुल वृद्धि 2005-06 की तुलना में 101 प्रतिशत है। गैर कानूनी धन आव्रजन के विपरीत इस लूट को कानूनी जामा दिया गया है। उन आव्रजनों के उलट यह कोई निजी अपराध का मामला नहीं है। यह सरकार की नीति का मामला है। यह केंद्रीय बजट का अंग है। यह संसाधनों और संपदा का दौलत मंदों और कार्पोरेट संसार के लिए सबसे बड़ा धन हस्तांतरण है, जिसकी तरफ मीडिया कभी भी रूख नहीं करती है। अजीब बात है कि बजट खुद इस बात की तस्दीक करता है कि यह बेहत प्रतिगामी प्रवृत्ति है। पिछले साल के बजट में नोट है : ‘‘राजस्व माफी की रकम साल-दर-साल बढ़ती जा रही है। कुल कर संग्रह के प्रतिशत के लिहाज से कार्पोरेट आयकर में राजस्व माफी काफी अधिक है और वित्तीय वर्ष 2008-09 में कार्पोरेट आयकर माफी में बढ़ोत्तरी का ट्रेंड हैं। 2009-10 में सीमा एवं उत्पाद शुल्क में कटौती के कारण अप्रत्यक्ष कर में माफी में उल्लेखनीय वृद्धि का ट्रेंड है। इस प्रवृत्ति को उलटने के लिए कर आधार को व्यापक बनाने की जरूरत है।’’

एक साल पीछे चलें। 2009-10 का बजट इसी बात को करीब-करीब इन्हीं शब्दों में कहता है। केवल अंतिम लाइन ही भिन्न है ‘‘इसलिए उच्चकर संग्रह बनाए रखने के लिए इस प्रवृत्ति को उलटने की जरूरत है।’’ मौजूदा बजट में यह पैराग्राफ गायब है।

इस सरकार के पास सार्वभौमिक पी.डी.एस. चलाने या उसे व्यापक बनाने के लिए धन नहीं है।  यह दुनिया की सबसे भूखी आबादी को मिलने वाली बहुत ही कम खाद्य सब्सिडी में भी कटौती करती है, वह भी उस समय जब जबरदस्त महंगाई और भारी खाद्य संकट है, एक ऐसे समय में जब कि इसका खुद का आर्थिक सर्वे बताता है कि 2005-06 के 5 साल की अवधि के दौरान रोजाना प्रति व्यक्ति औसत खाद्यान्न उपलब्धता आधी सदी पूर्व 1955-59 के 5 साल के औसत से भी कम है।

-पी. साईनाथ

निर्णायक मोड़ ?

श्रम - शक्ति के धनी गाँव में बसने वाले भारत के  लिए मेहनत की न्यायपूर्ण हकदारी की स्थापना एक निर्णायक मोड़  साबित हो सकती हैं. परन्तु उसके लिए एक अनिवार्य शर्त होगी- न्यायपूर्ण हकदारी के नये परिवेश का सही उपयोग और नई चेतना का स्वयं गाँव के अंतरिक जीवन और व्यवहार में सम्मान और अनुपालन.

श्रम की पुनप्रतिष्ठा :
मेहनत की न्यायपूर्ण हकदारी का हमारा अभियान कुछ अधिक मजदूरी के लिए सामान्य ‘मजदूरी बढ़ाओ’ आन्दोलन नहीं है। इसमें हमने खेती-किसानी और हाथ-मेहनत को नीचा और हेय मानने, मशीनों के काम के लिये मझोला दर्जा और तथाकथित बौद्धिक या कागज कलम के कामों को ऊँचा और श्रेष्ठ होने की मान्यता को ललकारा है। उत्तम खेती, मध्यम वनिज, निकृष्ट चाकरी, भीख निदान सी पुनर्स्थापना हमारा लक्ष्य है। हमारे देश की अर्थव्यवस्था का केंद्र बिन्दु ‘छोटा’ किसान होगा। उसी के काम को हकदारी सभी क्षेत्रों में काम करने वालों को हकदारियों का प्रामाणिक मापदण्ड होगी। किसानों के मेहनत का मोल कुशल कारीगर से कम नहीं। उसी क्षेत्रों में काम करने वालों की हकरियों में न्यायपूर्ण संतुलन होगा। राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक संघर्ष से धीरे-धीरे गाँव के भीतर भी नये समीकरण बनेंगे। न्यायपूर्ण हकदारी उसकी बुनियाद होगी।

हमने नरेगा के 60 रूपये रोज की न्यूनतम मजदूरी के प्रावधान पर खुला हमला किया है। इसका अर्थ यह नहीं है कि हम नरेगा की जनवादी संभावनाओं का आदर नहीं करते हैं। जैसा हम पहले कह चुके हैं कि रोजगार के बावत संविधान के दिशा -निर्देशक सिद्धान्त को कानूनी आधार देना सही दिशा में महत्वपूर्ण कदम है। हम अपने गाँव में ऐसी भावना पैदा करें जिसमें कम से कम श्रम के मामले में गाँव के छोटे बड़े सभी परिवार एक लाइन में खड़े होकर गाँव की अर्थव्यवस्था की पूर्ण प्रतिष्ठा में सहभागी हों। गाँव के विकास के लिये सहभागिता की भावना का संचार भविष्य के लिए हमारी सबसे मूल्यवान पूंजी हो सकती है।

फूटे घड़े की पूरी दुरूस्ती:
फूटे घड़े में चाहे कितना भी पानी उड़ेलते जाओ, अन्त में वह खाली का खाली रह जाएगा। मेहनत की सही हकदारी के अभियान से गाँव की अर्थ-व्यवस्था रूपी घड़े का सबसे बड़ा छेद बन्द हो जाने की उम्मीद की जा सकती है। परन्तु गाँव की अर्थव्यवस्था में उसके अलावा भी अनेक छेद हैं। अगर हमें गाँव का विकास और देश में सम्मानपूर्ण स्थान बनाना है तो उन सभी छेदों की पहचान करनी होगी और उनको बन्द करना होगा। गाँव में जहाँ कहीं नया काम खुलता है, उसके आस-पास छोटी-मोटी दुकान खुल जाना आम बात है। यहीं नहीं, उससे थोड़ा हट कर देशी - विदेशी शराब का ठेका भी खुल जाता है। समय पर मजदूरी का बँटवारा न होना एक अटल नियम है। सो हर काम उधारी पर होता है। क्या दिया क्या लिया सब भगवान के भरोसे ! क्या ग्राम सभा के रूप में गाँव समाज नया काम शुरू होने पर इस नये छेद का मुकम्मिल इन्तजाम कर सकती हैं ? क्या हमारी मेहनत के ऊँचे मूल्य की कमाई शराबखोरी व अन्य चमक दमक वाली शहरी वस्तुओं की खरीद में खुर्द-बुर्द होने से रोकी जा सकती है ?

यहीं पर एक बुनियादी सवाल यह है कि आखिर नरेगा के तहत कौन से काम लिये जायेगे ? अभी तक कामों का चयन इस आधार पर होता है कि कौन ठेकेदार किस काम से अधिक से अधिक मुनाफा कमा सकता है और ये काम ऊपर से आते है, उनमें कोई विकल्प नहीं होता है। लोग भी किसी तरह ‘मेरी मजदूरी मिल जाये’ इसी पर ध्यान रखते है, काम कैसा है इससे उन्हें कोई मतलब नहीं है। सोचने की बात यही है कि यह परसेंटेज की प्रथा भी तो हमारे गाँव रूपी घड़े में एक बड़ा सूराख है। अगर उसे बन्द कर दिया जाये तो गाँव की खुशहाली बढ़ेगी। ग्राम सभा इस मामले में कानून के तहत कार्यवाही करने के लिए सक्षम है।

ये दो बातें तो घड़े में होने वाले नये छेदों से संबधित है। क्या आपने अपने गाँव की अर्थ-व्यवस्था में बाहर से क्या आता है और उसमें से बाहर क्या जाता है इस पर भी कभी विचार किया है ? इस पर अगर गाँव के सब लोग मिल कर सोचें तो बड़ी अचरज वाली बातें सामने आयेगी। शराब और नशीले पदार्थों का सेवन व्यवस्था में भारी छेद है। हमने फैशन की चीजों का व्यवहार करना शुरू कर दिया है, जिनकी कोई जरूरत नहीं है। उनमें से कई तो नकली और नुकसानदेह होती है। कई गाँवों में धान की घर में कुटाई बन्द हो गई है। हम अपना धान मंडी में बेच आते है, चावल बाहर से खरीद कर खाते हैं। जरा लगाइये हिसाब यह अकेली बात कितनी बड़े छेद का कारण है। उदाहरण अनगिनत है। आत्म निर्भर गाँव गणराज्य की स्थापना करनी है तो उन सब मुद्दों पर विचार कर निर्णय करना होगा।

आत्म निर्भरता की ओर

नरेगा में अभी हर परिवार के एक सदस्य के लिए सौ दिन के रोजगार की गारंटी का प्रावधान है। इसके दायरे को और भी व्यापक करने की माँग की जा रही है। हमारा मानना है कि मेहनत की न्यायपूर्ण हकदारी के लिए प्रेरक शक्ति के रूप में अगर नरेगा को ईमानदारी से लागू किया जाता है तो उससे ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था में गुणात्मक परिवर्तन आ सकता है। अकुशल काम के लिए न्यायपूर्ण हकदारी स्थापित हो जाने के बाद से खेती-किसानी के काम का कुशल काम के रूप में पुनर्मूल्यांक समय की ही बात रह जाएगी। मेहनत की हकदारी के नये समीकरण बन जाने के बाद राष्ट्रीय विकास में दो अंक की बढ़त पर ध्यान केन्द्रित होने की बजाय सकल राष्ट्रीय आय में सभी की न्यायपूर्ण हिस्सेदारी यानी उसके वितरण पर ध्यान देना होगा। उस हालत में ‘65 से 17 बस, 51 की कमर कस’ के अभियान को कोई ताकत नहीं रोक पायेगी। ‘गाँव में रहने वाले भारत’ के लोगों के हाथ में अधिक आमदनी आयेगी। शहरों की ओर जाने वालों का रेला रूकेगा। गाँव की ओर लौटने की बात भी होगी। इस नई हालत में देश में क्या उत्पादन होगा उसमें गुणात्मक परिवर्तन होगा। यदि हमारा अभियान बड़े छेदों को बन्द करने में सफल होता है तो गाँव के ही उत्पादों की माँग बढ़ेगी और ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था आत्म निर्भरता की ओर आगे बढ़ेगी।

आत्म-निर्भर ग्राम-व्यवस्था के निर्माण के बीज नरेगा में भी हैं रोजगार के अवसर पैदा करने के लिए अब तक सड़क और निर्माण कामों पर ही जोर रहता आया है। मगर आखिर इस तरह के काम कितने गाँवों में कितने दिन चल सकते हैं ? इसके लिए नरेगा में भूमि सुधार, सिंचाई, वृक्षारोपण इत्यादि को केन्द्रीय माना है। मशीनों का प्रयोग वर्जित है। अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, गरीबी रेखा के नीचे के लोगों की निजी जमीन के काम भी नरेगा में लिये जा सकते हैं। उम्मीद यह की जाती है कि इन कामों में सफलता मिलने पर गाँव की अपनी अर्थ-व्यवस्था इतनी मजबूत हो जाएगी जिससे रोजगार के लिये सरकारी योजनाओं का मुँह नहीं देखना होगा।

यहीं पर नरेगा में सीमित प्रावधानों के बावजूद गाँव गणराज्यों की अर्थ-व्यवस्था को पूरी तरह सम्पूर्ण रोजगार वाली आत्म निर्भर व्यवस्था के रूप में स्थापित करने के लिए सघन प्रयोग की अच्छी संभावना हैं।

अपना गाँव, अपना श्रम, अपनी मुद्रा  ?
युगों से हमारा गाँव अपने विकास के मामले में आत्म-निर्भर रहा है। वहाँ जो कुछ है- खेती की जमीन, सिंचाई के तालाब, कुएँ, बाग-बगीचे, अपने मकान, सब कुछ गाँव के ही लोगों ने अपने श्रम से मिलजुल कर बनाये है, परन्तु आज स्थिति बदल गई है। एक ओर जमीनें कट रही है, तालाब पट रहे हैं, जंगल उजड़ रहे हैं और दूसरी ओर बिना काम के लोग बेहाल हैं, हाथ पर हाथ रखे बैठे हैं। विकास के काम और श्रम के बीच का आपसदारी का रिस्ता टूट गया है, उनके बीच पैसे के रूप में बिचौलिया आ गया है। सरकार गाँव के लिये तालाब मंजूर कर दे और उसका पैसा आ जाय तो हाथ-पर-हाथ रखे लोगों के हाथ चलने लगते हैं, काम होने लगता है। पैसे की आमद खत्म हो गई तो काम और श्रम के बीच का रिश्ता टूट जाता है। काम बंद हो जाता है, आदमी बेकाम हो जाता है।

गाँव का विकास पूरी तरह से पैसे पर निर्भर हो जाने के बावजूद गाँव की अर्थ व्यवस्था में बहुत सारे काम बिना पैसे के आपसी सहयोग और वस्तु-विनियम के आधार पर आज भी चल रहे हैं। इसलिये यह नहीं कहा जा सकता है कि गाँव के विकास के लिये पैसा अनिवार्य शर्त है। गाँव के लोग आज भी सामूहिक निर्णय से बिना पैसे का सहारा लिये बड़े-बड़े काम कर डालते हैं। गाँव से सामूहिकता वाली इस आदर्श स्थिति की पुर्नस्थापना संभव है, परन्तु आज की स्थिति को देखते हुए इस दिशा में कई छोटे-बड़े समुदायों में प्रयोग हुए हैं, जिनका लाभ लेकर हम चुने हुए क्षेत्रों में पूर्ण रोजगार और सघन विकास की योजना बना सकते हैं।

ये प्रयोग बड़े सीधे-सादे है, परन्तु सामुदायिक भावना उनकी असली ताकत है। मान लीजिये हम अपने गाँव या गाँव समूह में यह तय करते हैं कि आपसी व्यवहार में हम सरकारी मुद्रा की बजाय अपने गाँव की एक विशेष मुद्रा का प्रयोग करेंगे। तालाब बनाने के लिये गाँव की मुद्रा स्वीकार करेंगे।

उस मुद्रा से किसान उन्हें अनाज निर्धारित रेट पर देगा। किसान को जब मजदूर की जरूरत होगी तो उसी गाँव की मुद्रा देकर वह अपना काम करवा लेगा। एक तरह से गाँव की मुद्रा से पुरानी वस्तु विनिमय की परम्परा फिर से चल निकलेगी। इस व्यवस्था में गाँव का बाहरी व्यवस्था से विनिमय सरकारी मुद्रा में होगा और गाँव का अंदरूनी विनिमय गाँव की मुद्रा में होगा। इस व्यवस्था में सीमित आर्थिक संसाधनों से गाँव में पूर्ण रोजगार और सघन विकास किया जा सकता है।

मान लीजिये एक गाँव में 100 परिवार है। उन 100 परिवारों के 100 लोगों के लिये 100-100 दिन का काम नरेगा के तहत अनिवार्य रूप से मिलेगा। इस तरह साल में 10,000 मजदूर - दिवस के काम के लिये सरकार भुगतान करेगी। हाल फिलहाल हमें 120 रूपये रोज का नकदी भुगतान मिलेगा। 120 रूपये रोज की मजदूरी के हिसाब से साल में 12 लाख रूपये की राशि गाँव में आयेगी। अब मान लीजिये गाँव के सब लोग यह तय कर लें कि गाँव में गणराज्य - बैंक खोल लें। लोगों की पूरी मजदूरी उस बैंक में जमा हो जाय। वह बैंक सरकारी नोटों के साथ-साथ दस-दस रूपये के ‘गणराज्य - टोकन’ चलाये जिन्हें गाँव में व्यवहार के लिये सब लोग स्वीकार करें। मान लीजिये गाँव के सब लोग यह मान लेते है कि वे जहाँ तक होगा गाँव के अंदर अपने काम बैंक से ‘गणराज्य - टोकन’ निकाल कर ही चलायेंगे और जब बाहरी जरूरत होगी सरकारी नोट तभी माँगेगें। इस व्यवस्था में मान लीजिये औसतन हर कामगर 60 रूपये के सरकारी नोट और 60 रूपये के ‘गणराज्य टोकन’ से अपना कामकाज चलाता है। ऐसी हालत में उस गाँव में सरकार से आने वाली 12 लाख रूपये की राशि से 100 लोगों  की बजाय 200 लोगों के लिये काम उपलब्ध करवाया जा सकेगा और विकास की गति दूनी हो जायेगी।

गैर-बराबरी उन्मूलन के अभियान से गाँव की आमदनी में लगातार बढ़त होगी। यदि उस बढ़ी आमदनी का उपयोग सूझ-बूझ के साथ हो और गणराज्य-बैंक का प्रयोग गाँव में आम हो जाय तो गाँव में बेरोजगारी को पूरी तरह खत्म किया जा सकेगा। गाँव की पूरी श्रम-शक्ति गाँव के विकास में लगेगी। गाँव की अर्थ-व्यवस्था का बहुमुखी विकास होगा। इस तरह स्वाभिमानी आत्म-निर्भर गाँव-गणराज्यों की आधार-शिला पर स्वाभिमानी आत्म-निर्भर भारत का निर्माण होगा।

इस प्रयोग के लिये एक गाँव या अच्छा रहे एक छोटा गाँव समूह या गाँव गणराज्य परिषद को चुना जाय। गैर-बराबरी उन्मूलन अभियान लोगों के सर्वांगीण जन विकास के लिये प्रयोग का एक सशक्त माध्यम साबित होगा। 

बी.डी. शर्मा