बच्चों का सुपोषण और निमोनया से बचाव

विशेषतः उन्नतशील देशों में कुपोषण तथा अल्प-पोषण एक बहुत बड़ी समस्या है। बच्चों में निमोनिया व अन्य बीमारियों के लिए, अपर्याप्त स्वच्छता के साथ साथ कुपोषण भी काफी जिम्मेदार है। पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्यु का प्रमुख कारण निमोनिया है, जिससे प्रतिवर्ष 15 लाख बच्चे मृत्यु को प्राप्त होते हैं। निमोनिया से मरने वाले 98 प्रतिशत बच्चे उन्नतशील देशों के होते हैं। स्वच्छ वातावरण में, बच्चों को  सही मात्रा तथा उचित समय में सही आहार देकर इनमें से अनुमानित दो तिहाई बच्चों की जान बचाई जा सकती है।

गरीबी के कारण अल्प पोषण तथा अत्याधिक पोषण के कारण बच्चों में मोटापे का होना, दोनो ही परिस्थितियां  कुपोषण के अन्तर्गत आती हैं। चिकित्सीय आधार से भोजन में प्रोटीन, ऊर्जा तथा  माइक्रो न्यूट्रिएन्ट, जैसे विटामिन आदि की कमी या अधिकता, कुपोषण ही होता है, और बच्चों में बारबार संक्रमण व अन्य बीमारियों को बढ़ाता है। कुपोषित बच्चों की कमज़ोर रोग प्रतिरोधक क्षमता के कारण, अनेकों संक्रमण हो सकते हैं जिसके कारण रोग होने व रोगों से मृत्यु की सम्भावना बढ़ जाती है। कुपोषण, जन्म के समय कम वजन का होना, खसरा, विटामिन ‘ए’ की कमी, क्षयरोग (टी.बी.) इत्यादि निमोनिया के होने को बढ़ावा देते हैं। तथा निमोनिया बच्चे में श्वसन सम्बन्धी रोगों जैसे अस्थमा (दमा) आदि के होने का एक बड़ा कारक होता है।
उचित पोषण बच्चे की प्रतिरक्षक क्षमता बढ़ाता है जिससे बच्चे में संक्रमण होने की सम्भावनाओं में कमी के साथ साथ बीमारी से लड़ने व उससे उबरने की क्षमता में वृद्धि होती है।

 प्रसूति एवं स्त्री रोग विषेषज्ञ डा. नीलम सिंह, जो ‘‘वात्सल्य रिसोर्स सेंटर ऑन हेल्थ’’ की मुख्य कार्यकत्री भी हैं, का कहना है, ‘‘शिशुओं के लिये अच्छा खानपान अति आवश्यक होता है क्योंकि इस अवधि में शरीर व मस्तिष्क के तेज विकास के कारण पोषक तत्वों की जरूरत काफी अधिक रहती है। इसलिये हमें यह जानना जरूरी है कि बढ़ते बच्चों के लिये ‘‘कौन सा और कितना’’ भोज्य पदार्थ आवश्यक है। क्योंकि अलग अलग उम्र के बच्चों के लिये पोषक तत्वों की भिन्न भिन्न मात्रा आवश्यक होती है। हमें यह भी याद रखना चाहिये कि अक्सर कुपोषित माताएं कम वजन के शिशुओं को जन्म देती हैं। इसलिये, माताओं का आहार गर्भावस्था से ही  अच्छा होना चाहिये, जिससे वे स्वस्थ बच्चों को जन्म दें सकें।

 लखनऊ के शिशु एवं बाल रोग विषेषज्ञ, डा. एस.के. सेहता का कथन है, ‘‘आजकल, महानगरों में बच्चे फास्ड फूड, रेडीमेड फूड तथा अधिक तैलीय व मसालेदार पदार्थों का सेवन कर रहे हैं। इस प्रकार का आहार उन्हें अधिक मोटा बनाता है। तथा भविष्य में डायबिटीज व हृदय रोगों की सम्भावना भी बढ़ाता है।’’

डा. नीलम सिंह के विचारानुसार, ‘‘हमारे देश में निमोनिया एवं अतिसार से होने वाली अधिकांश मृत्यु का कारण कुपोषण ही है। हमारे उत्तर प्रदेश में पांच वर्ष से कम आयु के लगभग 46 प्रतिशत बच्चे अल्प पोषण के शिकार हैं। हाल ही में किये गए एक सर्वे के अनुसार हमने कई नवजात शिशुओं को चाय तथा कोल्ड ड्रिंक तक पीते हुए देखा। शिशुओं को घुट्टी (ग्राइप वाटर) तक दी जाती है, और बच्चों को दिये जाने वाले बाहर के दूध को या तो मात्रा बढ़ाने के लिये अथवा यह सोचकर कि शिशु शुद्ध दूध को पचा नहीं सकेगा, अधिक पानी मिलाकर पतला किया जाता है। इसी प्रकार के कारणों से बच्चे को उच्च ऊर्जा का भोज्य पदार्थ नहीं मिल पाता है। कई बार, बच्चों की आवश्यकताओं को न देखकर अग्रजों (घर के बड़ों) की पसंद का भोजन बनाया जाता है।’’

शहर के प्रख्यात बाल रोग विषेषज्ञ डा. एस.एन. रस्तोगी ने कुपोषण के सम्बन्ध में टिप्पणी करते हुए बताया कि, ‘‘यह एक प्रचलित भ्रांति है बच्चों को शुद्ध मां का दूध नहीं देने चाहिये, बल्कि इसमें बराबर मात्रा में पानी मिलाना चाहिये, नही तो यह अतिसार का कारण हो जायेगा। अधिकांश बच्चों के अल्प पोषण का कारण दूध को तरल करना है। कम वज़न के शिशुओं को उच्च प्रोटीन वाले सप्लीमेंट दिये जाने चाहिये।’’

डा. नीलम सिंह स्पष्ट करती हैं कि, ‘‘अच्छे पोषण का तात्पर्य महंगे भोज्य पदार्थ नहीं हैं। अधिकतर अधिक मूल्य की वस्तुओं में ही आवश्यक पोषक तत्व उपलब्ध नही होते हैं बल्कि सस्ते व स्थानीय उपलब्धता वाले घर में बनाये भोजन में भी वही पोषक पदार्थ उपलब्ध हो सकते हैं। इस संदर्भ में, मैं एक उदाहरण का उल्लेख करना चाहूंगी कि यद्यपि आजकल टीवी पर ऐसे ब्रांड शिशु-भोजन का विज्ञापन दिखाया नही जाता है, फिर भी यह एक अति प्रचलित फूड सप्लीमेंट है। यहां तक कि घरों में काम करने वाली परिचारिका अपने धनी मालिकों की नकल करके अपने बच्चों को यही खिलाती हैं। यह सप्लीमेंट फ़ूड बच्चे को रवा/सूजी की खीर, दलिया और दाल जितना ही पोषण देता है। गांवों की अशिक्षित माताओं के बच्चों के अलावा शहरों की शिक्षित माताओं के शिशु भी कुपोषण के शिकार होते है।’’

साफ और स्वच्छ पानी का अभाव व स्वास्थ्य के अपर्याप्त साधन निमोनिया के होने के कारण हैं। रोगों को नियंत्रित करने में स्वच्छता के साधनो पर अधिक जोर देने के लिये हम ‘वर्ल्ड हैण्ड वाशिंग डे’ मनाते हैं। डा. एस.के. सेहता के अनुसार, ‘‘स्वच्छता संबन्धी विज्ञान की जानकारी किसी बीमारी, विशेषकर गैस्ट्रिक संक्रमण के होने के कारकों के लिए आवश्यक है। निमोनिया के संदर्भ में भी बच्चे को छूने से पूर्व हाथ धोने से बच्चे को संक्रमण का खतरा कम हो जाता है।’’

डा. नीलम सिंह इस बात पर जोर देती हैं कि, ‘‘बच्चे की देखरेख करने वाले को सफाई व स्वच्छता के विषय में जागरूक रहना चाहिये। बच्चे के मल/मूत्र को साफ करने के पश्चात्  हर बार हाथ साबुन व पानी से भली भांति धोना चाहिये। इसी प्रकार बच्चे को दूध देने के पूर्व व बाद में भी हाथों को साफ करना चाहिये। बच्चे को पीने के लिये साफ पानी और खाने के लिये ताजा व स्वच्छ भोजन ही देना चाहिये। भोजन ढँक कर रखना चाहिये व प्रदूषित होने से रोकना चाहिये। बच्चे के आस-पास के वातावरण को स्वच्छ व साफ रखना चाहिये, पानी को इकठ्ठा नहीं होने देना चाहिये, तथा बच्चे को प्रतिदिन नहला कर साफ कपड़े पहनाने चाहिए। संक्रमण से होने वाले रोगों, जैसे निमोनिया व अतिसार से बचाव के लिये ये सरल व साधारण स्वच्छता के उपाय हैं।

डा. एस.एन. रस्तोगी, शिशु को दूध पिलाने से पूर्व स्तनों को साफ करने पर जोर देते हैं। उनकी सलाह है कि बच्चे को यदि बोतल से दूध देना अति आवश्यक हो, तो कम से कम 4 बोतल व 4-5 निप्पल जरूर होने चाहिये। बोतलों और निप्पलों को प्रयोग मे लाने से पूर्व भली भांति उबालना चाहिये। बच्चे को साफ कपड़े पहनाने चाहिये। एक प्रचलन के अनुसार बच्चे को प्रथम माह तक पुराने कपड़े पहनाये जाते हैं। यह उचित नही है।

गरीबी उन्मूलन, कुपोषण की समस्या को दूर करने में अन्तर्राष्ट्रीय प्रयासों के अलावा लोगों को अच्छे पोषण की महत्ता के सम्बन्ध में भी जागरूक करना चाहिये। डा. नीलम सिंह की सलाह है, ‘‘अलग-अलग उम्र के बच्चों की अलग-अलग पोषक तत्वों की जरूरत के सम्बन्ध में आम लोगों के साथ वार्ता करनी चाहिये। व्यवसायिक आधार पर केवल राष्ट्रीय व अन्तराष्ट्रीय अधिवेषनों में ही इन वार्तालापों को नहीं करना चाहिये, अपितु हर जनता तक इस संवाद को प्रसारित करने की आवश्यकता हैं."


सौम्या अरोरा - सी.एन.एस.
(अनुवाद: सुश्री माया जोशी, लखनऊ)