बाल्यावस्था में होने वाली निमोनिया बीमारी को रोकने में माँ के दूध का बहुत महत्वपूर्ण योगदान है। विश्व भर में प्रति 20 सेकेंड में 1 बच्चे की मृत्यु निमोनिया से हो रही है। प्रतिवर्ष 1.6 करोड़ बच्चों की मृत्यु निमोनिया रोग से होती है। मृत्यु का यह आंकड़ा विश्व भर में होने वाली शिशुओं की मृत्यु का लगभग 20 प्रतिशत है। इनमें से लगभग 98 प्रतिशत बच्चे जिनकी मृत्यु निमोनिया से होती है विकासशील देशों के हैं। भारत वर्ष में प्रति वर्ष 40,000 से अधिक 5 वर्ष की आयु से कम के बच्चों की मृत्यु निमोनिया रोग से पीड़ित होकर होती है। केवल स्तन-पान ही बच्चों को अनेक प्रकार के रोगों, विशेषकर निमोनिया, से लड़ने की क्षमता प्रदान करता है। माँ का दूध ही शिशु को अनेक पोषक तत्व देता है साथ ही इम्यूनोग्लोबिन, प्रतिरोधक तत्व भी प्रदान करता है। इन तत्वों से शिशुओं को "वसननली" संबंधित रोगों से लड़ने की क्षमता मिलती है। तथा इनके द्वारा बच्चों की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है।
स्तन-पान न करने वाले बच्चे स्तन-पान करने वाले बच्चों की अपेक्षा पाँच गुना अधिक संख्या में निमोनिया रोग से पीड़ित होकर मृत्यु को प्राप्त करते हैं. हमें याद रखना चाहिये कि निमोनिया फेफड़ों के संक्रमित होने पर होता है। निमोनिया होने पर फेफड़ों में मवाद व द्रव भर जाता है जिसके कारण फेफड़ों में ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है एवं श्वास लेने में कष्ट होता है। इस सबका मूल कारण जीवाणु संबंधित संक्रमण होता है, यद्यपि विषाणु एवं फन्गस भी निमोनिया रोग के कारण हो सकते है। यह रोग बच्चों की विकसित होती हुई रोग प्रतिरोधक क्षमता के चलते कुपोषण के कारण, प्रदूषित वातावरण के कारण, एच. आई. वी. से संक्रमित होने के कारण, तपेदिक के कारण, इन्फ्लुयनजा एवं खसरा रोग के कारण एवं जन्म के समय दुर्बलता के कारण से होता है।
नेलसन अस्पताल लखनऊ के निदेशक डॉ. अजय मिश्रा ने पिछले 6 महीनों में गंभीर निमोनिया से पीड़ित 30 शिशुओं का इलाज किया है। जब मैं सितम्बर 2011 में उनके अस्पताल गई तो पाया कि 10 दिन से कम उम्र के अनेक नवजात शिशुओं को निमोनिया से उपचार के लिये भर्ती किया गया था। उन नवजात शिशुओं के अतिरिक्त कुछ बड़ी आयु के शिशु भी निमोनिया के उपचार के लिये भर्ती थे।
डॉ. अमिता पाण्डे (जो छत्रपति शाहूजी महाराज चिकित्सा विश्वविद्यालय में प्रसूति एवं स्त्री-रोग विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं) भी इस बात की पुष्टि करती हैं कि उनके अस्पताल में बाल निमोनिया से पीड़ित बड़ी संख्या में बच्चों का उपचार होता है। उनका कहना है कि "हम स्त्री-रोग विशेषज्ञों को मात्र 48 घंटे या 7 दिन के जन्मे एवं नियोनेटल निमोनिया से पीड़ित नवजात शिशुओं का उपचार करना पड़ता हैं। बाल्यवस्था में निमोनिया से पीड़ित बच्चें में 50 प्रतिशत की मृत्यु ‘नियोनेटल निमोनिया’ से पीड़ित नवजात शिशुओं की होती है। सर्वेक्षण करने पर पाया गया है कि मृत जन्मे शिशुओं में 30 प्रतिशत से 60 प्रतिशत तक एवं जन्म के 1 या 2 दिन बाद मर जाने वाले शिशुओं में 50 प्रतिशत से 60 प्रतिशत तक ‘बाल निमोनिया’ से पीड़ित थे। यह उन शिशुओं की 'अटोप्सी' (मृत्युप्रान्त चीर-फाड़) द्वारा मालूम पड़ा।"
स्तन-पान से लाभों की महत्व को बताते हुये डॉ. अमिता पाण्डे ने बताया कि, "मैं एक सरकारी अस्पताल में कार्यरत हूँ। यहाँ हम लोग केवल माँ के दुग्ध को ही नवजात शिशुओं का पूर्ण आहार मानते है और इसी बात का प्रचार करते हैं कि प्रथम 6 महीनों तक नवजात शिशुओं को केवल माँ का ही दूध ही दिया जाना चाहिये। इसके अतिरिक्त उन्हें शक्कर, ग्राइप वाटर, शहद, नारियल पानी इत्यादि कुछ भी नहीं देना चाहिये । हम डॉक्टर प्रसव कराने के 10 मिनिट बाद ही नवजात शिशु को स्तन-पान कराते हैं। हम शिशु को उसकी ‘नार’ समेत मां के पेट पर लिटा देते है। शिशु के इतनी जल्दी स्तन-पान करने से मां के पेट से प्लेसेंटा एवं झिल्ली बाहर निकल आने में भी सहायता मिलती है।"
डॉ. अजय मिश्रा का मानना है कि, "यद्यपि मातायें नवजात शिशुओं को केवल स्तन-पान कराने के लाभों को भली-भांति समझती है, किन्तु वे अपनी शारीरिक सुंदरता को इतना अधिक महत्त्व देती हैं कि वे स्तन-पान कराने में संकोच करती हैं। गाँवों में मातायें बार-बार गर्भवती होने के कारण शिशुओं को गाय का दूध पिलाती हैं।"
डॉ. अमिता पाण्डे के अनुसार "आर्थिक रूप से समर्थ उच्चवर्गीय समाज की माताओं की अपेक्षा गरीब मातायें स्तन-पान को अधिक प्राथमिकता देती है। आर्थिक रूप से सम्पन्न परिवार की लड़कियों को स्तन-पान उचित अवधि तक कराने में अनेक समस्यायें दिखायी पड़ती हैं। अनेक कार्यरत माताओं को प्रसव के कुछ ही सप्ताह बाद अपने नवजात शिशुओं को घर पर कई घंटों तक छोड़ कर काम पर जाना पड़ता है। अत: वे या तो बहुत ही शीघ्र अपने शिशु को स्तन-पान कराना बंद कर देती हैं, या शिशु को कम से कम एक बार ऊपर का दूध पिलाना आरम्भ कर देती हैं। उनका मानना है कि यदि शिशु को आरम्भ से ही ऊपर का दूध पीने की आदत नहीं डाली जायेगी तो वह बाद में ऊपर का दूध नहीं पीना चाहेगा- ऐसी दशा में माताओं को बड़ी समस्या हो जायेगी।"
प्रथम बार बनी माताओं का मानना है कि उनके स्तनों में प्रसव के कुछ दिनों बाद तक पर्याप्त मात्रा में दूध नहीं उतरता है। अत: उन्हें शिशुओं को ऊपर का दूध देना पड़ता है। परन्तु डॉ. अमिता पाण्डे इस बात को दृढ़ विश्वास से कहती है कि माता के स्तन से, प्रसव के बाद से कुछ दिनों तक जो भी द्रव पदार्थ (क्लोरोस्ट्रम) निकलते हैं वे नवजात शिशु के पोषण के लिये पर्याप्त होते हैं। गर्भ की पूर्ण अवधि पर जन्म लेने वाले शिशु में पर्याप्त मात्रा में 'ग्लाइकोजेन' पाया जाता है जो उसके लिये प्रारम्भ के 2 दिनों तक पर्याप्त आहार का काम करता है। इसके अतिरिक्त यदि शिशु को जन्म लेने कुछ समय के बाद माँ के स्तन पर लगा दिया जांता है तो माँ के स्तन से द्रव व दूध अपने आप निकलने लगता है। यह एक प्रकार की चक्रीय प्रक्रिया होती है - यदि शिशु को माँ के स्तन पर लगा दिया जाता है तो चक्रिय क्रिया से हारमोन्स निकलने लगते है व माँ के स्तन में दूध की मात्रा स्वयं बढ़ने लगती है। शिशु जितना अधिक माँ का स्तन-पान करता है उतना ही अधिक दूध माँ के स्तन में आता रहता है।
श्रीमती अनुराधा, जिन्होंने ने हाल ही में एक शिशु को आपरेशन द्वारा एक निजी नसिंग होम में जन्म दिया है, बताया कि प्रसव के बाद उनके स्तनों से दूध नहीं निकला। अत: डॉक्टर ने उन्हें अपने नवजात शिशु को ऊपर का दूध 2 दिनों के लिये स्वच्छ कप व चम्मच से पिलाने की आज्ञा दी। बाद में उन्होंने अपने शिशु को स्तन-पान कराना प्रारम्भ कर दिया। इसी प्रकार एक और युवती माँ, श्रीमती बीना ने बताया कि उन्होंने अपनी नवजन्मी पुत्री को जन्म देने के बाद स्तन पान के साथ पानी भी पिलाया क्योंकि उसे अतिसार रोग के लिये दवा खिलाने के लिए पानी पिलाना ज़रूरी था। वे शिशु को दूध के साथ पानी पिलाने के कारण होने वाले दुष्परिणामों से अनभिज्ञ थी।
अत: युवती लड़कियों को नवजात शिशु को केवल स्तन-पान कराने की आवश्यकता को समझने के लिये व जागरूक बनाने के लिये सामजिक एवं अस्पताल स्तर पर अधिक से अधिक इस विषय पर कार्यक्रम होने की नितांत आवश्यकता है। डॉक्टरों को उन्हें नवजात शिशुओं को स्तनपान कराने के लाभों से अवगत कराना चाहिये। विश्व स्वास्थ्य संगठन इस बात की पुष्टि करता है कि 6 महीने की उम्र तक शिशु का पूर्ण आहार केवल, और केवल, स्तनपान ही है, तथा 2 वर्ष की आयु तक माँ के दूध के साथ साथ अन्य सहायक पौष्टिक आहार भी बच्चे को देना चाहिये। गर्भवती माताओं को याद रखना चाहिये कि उनका दूध ही बच्चों के लिये निमोनिया व अन्य बीमारियों से लड़ने के लिये सबसे सशस्त्र हथियार के समान होता हैं। उन्हें समाज में स्तनपान से संबंधित फैले हुये भ्रामक प्रचारों के विपरीत इस बात को समझना चाहिये कि प्रथम 6 महीनों तक नवजात शिशुओं को केवल माँ के दूध की ही आवश्यकता होती है। प्रथम 6 महीनों तक माँ का दूध ही उनका पौष्टिक आहार होता है।
शोभा शुक्ला - सी.एन.एस.
(अनुवाद: श्रीमती विमला मिश्र)