वरुण गाँधी के भड़काऊ भाषणों का आख़िर मतलब क्या है?
(नोट: यह लेख मौलिक रूप से अंग्रेज़ी में डॉ संदीप पाण्डेय द्वारा लिखा गया है, जिसको पढ़ने के लिए यहाँ पर क्लिक कीजिये . नीचे इस लेख के भाग का हिन्दी अनुवाद करने का प्रयास किया गया है, त्रुटियों के लिए छमा कीजियेगा)
प्रसिद्ध होने के लिए वरुण गाँधी ने छोटा रास्ता अपनाया है. भड़काऊ भाषण के पहले तक वोह भारतीय जनता पार्टी का मात्र एक मामूली सदस्य था. आज वोह राष्ट्रीय स्तर पर महत्व रखने वाला एल.के अडवाणी और नरेन्द्र मोदी के श्रेणी का राजनेता है जो सांप्रदायिक हिंसा को बढ़ावा देते हैं. किसी भी बी.जे.पी के नेता का ऐसा भड़काऊ भाषण देना चौकाने वाली बात नहीं है. बी.जे.पी तो मुसलमानों के ख़िलाफ़ राजनीति करती ही है. यदि मुसलमानों के ख़िलाफ़ और पाकिस्तान के ख़िलाफ़ की राजनीति हटा दी जाए तो संघ परिवार के अस्तित्व पर बन आएगी. इस परिपेक्ष्य में हिंदुत्व संगठन मूलतः प्रतिक्रियावादी रहे हैं. उन्होंने हमेशा भड़काऊ भाषा का प्रयोग कर के ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया है और हिंसा के प्रयोग से अपने मौजूदगी का एहसास कराया है. गांधीजी की हत्या से ले कर, बाबरी मस्जिद के गिराने तक, परमाणु परीक्षण से ले कर गुजरात हत्याकांड तक, उड़ीसा और कर्नाटक में ईसाईयों के विरोध में हिंसा तक अनेकों ऐसे मामले इस बात की पुष्टि करने वाले उदाहरण मिल जायेंगे. पिछले लोक सभा चुनाव में तो बी.जे.पी ने 'इंडिया शाइनिंग' के स्लोगन के साथ चुनाव लड़ा जिसकी भारी कीमत चुनाव में उसको चुकानी पड़ी.
इस बात पर आश्चर्य होता है कि यह सांप्रदायिक भड़काऊ बातें वरुण गाँधी ने कहीं क्योंकि उसकी माँ एक सिख है और दादा पारसी, और वरुण के कट्टरपंथी हिंदुत्व वाली यह बातें नि:संदेह चौका देती हैं. उसने ऐसी भड़काऊ बातें क्यों कहीं? क्या उसको किसी ने पाठ पढ़ाया था? या बी.जे.पी के प्रति अपनी वफादारी दिखने के उत्साह में वोह ऐसा बोल गया? या फिर बी.जे.पी नए बारूद को पुरानी तोप में इस्तेमाल कर रही है?
बी.जे.पी, जो आगामी लोक सभा चुनाव से पहले अंदरूनी मतभेदों और निराशाजनक नेतृत्व के कारणवश दिशाहीन महसूस कर रही थी, एक दम से जी उठी है. एक लंबे अरसे से बी.जे.पी कोशिश कर रही थी कि कांग्रेस के विकल्प के रूप में वोह एक प्रगतिशील पार्टी के रूप में उभर कर आए, परन्तु वरुण गाँधी के भड़काऊ भाषण के बाद एक झटके में पार्टी वापस मुसलमान विरोधी राजनीति पर वापस आ गई है. नरेन्द्र मोदी ने भरसक प्रयास किया था कि गुजरात को विकास के मॉडल के रूप में पेश किया जाए और गुजरात में २००२ के नरसंघार को भुलाने की पूरी कोशिश की थी.
पिछले प्रदेश के चुनावों में बी.जे.पी के मुख्यमंत्रियों ने विकास के लिए अपने योगदान को आगे रखा, और मुंबई में आतंकवादी हमले को सँभालने में असफल रही कांग्रेस को मुद्दा बनाने का प्रयास नहीं किया था. परन्तु लगता है कि बी.जे.पी के कार्यकर्ताओं को नशेड़ी की तरह यदि कोई चीज़ प्रेरित करती है तो वोह मुस्लमान विरोधी जहर उगलना ही है.
आर.एस.एस को यह समझ में आ जाना चाहिए कि सांप्रदायिक हिंसा की राजनीति बार-बार नहीं उनको मनचाहे नतीजे दे सकती है. इंसान मूलतः समाज में शान्ति से मिलजुल कर रहना चाहता है. एक-आद बार वोह सांप्रदायिक जहर से बहकावे में आ सकता है पर जल्दी ही उसे समझ में आ जाता है कि सांप्रदायिक राजनीति से आख़िर में उसका नुक्सान ही है. उदाहरण के तौर पर एक बार बाबरी मस्जिद गिराने के लिए लोगों को एकजुट करना आसान है, परन्तु दुबारा उन्हें मन्दिर निर्माण के लिए अयोध्या लाना आसान नहीं है. अयोध्या के अधिकाँश साधू और महंत राम-मन्दिर निर्माण के विरोध में हैं क्योंकि इसकी वजह से उनकी शान्ति और आमदनी दोनों समाप्त हो गई है. नरेन्द्र मोदी अब दुबारा २००२ के नरसंघार को अंजाम नहीं दे सकते हैं. साध्वी रिथाम्भारा और ऊमा भारती के नफरत और वैमनस्य भरे जहरीले भाषण अब लोगों पर असर नहीं करते हैं. इसीलिए संभवत: बी.जे.पी एक नए नेता की तलाश कर रही है जो वही सांप्रदायिक भड़काऊ आग उगल सके. परन्तु बी.जे.पी को समझ में आ जाना चाहिए कि यदि वरुण गाँधी इसी तरह से बात करते रहेंगे तो अपने आप को राजनीति में अधिक अवधि तक नहीं रख पाएंगे और लोग उनकी सभाओं में जाना ही बंद कर देंगे.
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डॉ संदीप पाण्डेय
- लेखक, जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय के राष्ट्रीय समन्वयक हैं, लोक राजनीति मंच के राष्ट्रीय अध्यक्षीय मंडल के सदस्य हैं, और रामों मग्सय्सय पुरुस्कार से सम्मानित सामाजिक कार्यकर्ता हैं। ईमेल: ashaashram@yahoo.com
(नोट: यह लेख मौलिक रूप से अंग्रेज़ी में डॉ संदीप पाण्डेय द्वारा लिखा गया है, जिसको पढ़ने के लिए यहाँपर क्लिक कीजिये . नीचे इस लेख के भाग का हिन्दी अनुवाद करने का प्रयास किया गया है, त्रुटियों के लिए छमा कीजियेगा)
एस.आर दारापुरी क्या लखनऊ से लोक सभा चुनाव के प्रत्याशी हो सकते हैं?
प्रिय मित्रों,
२६ मार्च २००९ को गाँधी भवन में संपन्न हुई लोक राजनीति मंच की बैठक में आगामी लोक सभा चुनाव के प्रत्याशियों के नाम पर विचार हो रहा था, तब मैंने, लोक राजनीति मंच की ओर से श्री एस.आर दारापुरी का नाम प्रस्तावित किया था. उस समय उन्होंने कहा था कि उन्हें कुछ समय चाहिए सोचने के लिए.
सेवा-निवृत पुलिस महानिरीक्षक एस.आर दारापुरी एक सुप्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता हैं, जो न केवल लखनऊ में बल्कि उत्तर प्रदेश के कई छेत्रों में सामाजिक रूप से सक्रिय रहे हैं. उन्होंने लखनऊ लोक सभा चुनाव छेत्र से लोक राजनीति मंच का प्रत्याशी होने के लिए हामी भर दी है.
इसी सम्बन्ध में, बुधवार, १ अप्रैल २००९ को गाँधी भवन पुस्तकालय में (शहीद स्मारक के सामने) एक बैठक बुलाई गयी है जिससे सर्वसम्मति से यह विचार हो सके कि एस.आर दारापुरी क्या लखनऊ से लोक सभा चुनाव के प्रत्याशी हो सकते हैं? इस बैठक में निर्णय होने के बाद ही एस.आर दारापुरी का नाम आगामी लोक सभा चुनाव में लोक राजनीति मंच के प्रत्याशी के लिए घोषित किया जायेगा.
(डॉ संदीप पाण्डेय)
नोट: जो लोग एस.आर दारापुरी जी से बात करना चाहते हों, वोह उनको फ़ोन नंबर ९४१५१६४८४५ पर संपर्क कर सकते हैं या उनको ईमेल कर सकते हैं: srdarapuri@yahoo.co.in
जी क्या फरमाया आपने? ? ?
जी क्या फरमाया आपने? ? ?
अरे, इतनी देर से गला फाड़ फाड़ कर चिल्ला रहा हूँ और तुम हो कि जी, जी लगाए हुए हो। बहरे हो क्या?
शायद आप सच ही फरमाते हैं। इस युग में बढ़ते हुए शोरगुल और प्रदूषण ने हमें सच ही जीवन की रसमय माधुरी के प्रति अँधा और बहरा बना दिया है। कोयल की कूक और पपीहे का सुरीला गीत, डिस्को के उत्तेजनात्मक शोर में खो
आम बोलचाल की भाषा में ऐसी अभद्रता और अशलीलता का समावेश हो
लखनऊ ही क्यों , पूरा अवध प्रदेश ही जुबान की नफासत और नज़ाकत के लिए मशहूर था। पर अब तो ‘तू तड़ाक’ का माहौल है, भौंडे प्रदर्शन का ज़माना है।
आजकल अंग्रेजी और हिन्दी की जो मिली जुली खिचड़ी बोली जाती है उसमें भी ‘शिट ’ और ‘बास्टर्ड’ , इन दो शब्दों का प्रयोग सर्वाधिक होता है। ये शब्द जैसे हमारे युवा वर्ग और बच्चों की जुबान से चिपक गए हैं। एक बार
जब
इसीलिये बातचीत या गुफ्तगू करने के बजाये वे ‘गप्पें ठोंकना’ पसंद करती हैं( जैसे किसी के दिल में कीलें ठोंक रही हों)। मुहब्बत के ख़ूबसूरत एहसास को ‘इश्क कमीना’ कहने का फैशन हो
कुछ वर्ष पूर्व जब मैं पहली बार मेरठ गयी तो वहाँ की जाटवी बोली से घबरा गयी। सभी जैसे बात न करके पत्थर मार रहें हों। ‘ तुझे किधर जाना है’, ‘लेना है तो ले
पर अब तो यह हाल सभी जगह है। भाषा का माधुर्य ख़त्म हो चुका है और हमारे स्वभाव से विनम्रता लुप्त होती जा रही है। अगर आप किसी चौराहे पर लाल बत्ती होने पर अपना वाहन रोक दें और वहाँ यातायात पुलिस न हो तो पीछे वाले आपको कोसने लगेंगे और हार्न पर हार्न बजा कर आपको ही मुजरिम करार कर देंगें।
अभी हाल ही में
पर बच्चों को दोष देने से क्या फायदा। इसके लिए कहीं न कहीं हम और आप - अभिवावक और शिक्षक - ही दोषी हैं। बच्चे जन्म से ही कटु शब्द और दुर्व्यवहार सीख कर नहीं आते। यदि परिवार के सदस्य आपस में विनम्रता से पेश आयें तो बच्चे भी वही सीखेंगें। विनम्र निवेदन के बावजूद चलचित्र और नाटक के मध्य मोबाइल फोनों का लगातार बजना शायद आपने भी झेला होगा। या फिर मध्य रात्रि में रेलगाडी के अन्दर सहयात्रियों का आपस में बात करना कभी आपको भी खला होगा। जब हम इस प्रकार के असंयित व्यवहार का उदाहरण अपने बच्चों के सामने रखेंगें तो उनसे क्या उम्मीद करी जा सकती है? यदि उन्हें टी.वी. और इन्टरनेट के अश्लील और हिंसात्मक कार्यक्रमों से दूर रखा जाय और उनसे शालीनता से पेश आया जाय तो उनके जीवन और शब्दकोष में भी रसमय लालित्य का संचार हो सकता है। हाल ही में आरुषि मर्डर केस के वीभत्स दूरदर्शन प्रसारण ने बाल दर्शकों को मनोवैज्ञानिक रूप सेआतंकित कर दिया था। हम लोग अक्सर बिना सोचे समझे ‘बेफकूफ कहीं के’, ‘पागल हो क्या’, ‘अंधे हो, दिखाईनहीं देता?’, ‘गधे कहीं के’, शब्दों का प्रहार करते रहेंगें तो बाल मन पर बुरा प्रभाव तो पड़ेगा ही।
हमारी बोलचाल की भाषा अगर एक बार फिर से तहज़ीब और मिठास से भर जाए तो जीवन की अनेक कटुताओं और विद्रूपताओं में कमी ज़रूर आयेगी। तो आइये
‘दुनिया भर का ज़हर पिया है हमने, तुमने और सभी ने
जीवन की कटुता धुल जाए, ऐसी मीठी बात करें।’
शोभा शुक्ला
एडिटर
सिटिज़न न्यूज़ सर्विस
तपेदिक की रोकथाम में निजी क्षेत्र के चिकित्सकों का योगदान आवश्यक
तपेदिक की रोकथाम में निजी क्षेत्र के चिकित्सकों का योगदान आवश्यक
भारतीय चिकित्सक संघ (आई.एम.ए.) के अनुसार ‘भारत में तपेदिक उन्मूलन के लिए चलायी जा रही 'डॉट्स' योजना केवल सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं में उपलब्ध है। परन्तु तपेदिक के ७०% रोगी इस बीमारी के इलाज के लिए पहली बार किसी प्राइवेट डॉक्टर के पास ही जाते हैं। अत: डॉट्स प्रोग्राम को सफल बनाने के लिए इसमें निजी स्वास्थ्य सेवाओं को भी शामिल करना आवश्यक है। विशेषकर भारत जैसे देश में, जहाँ तपेदिक कि दवाओं की भारी मात्रा (लगभग ७५%), रोगियों को निजी क्षेत्र से ही मिल रहीं हैं।’
ब्राज़ील में ,हाल ही में समाप्त हुए तीसरे 'विश्व तपेदिक रोको' सम्मलेन ( स्टाप टी.बी. पार्टनर्स फॉरम) में, भारत के डॉक्टर बालासुब्रमनिअम मुथैया ने बताया कि सम्पूर्ण भारत में आई.एम.ए. की १६७६ शाखाएँ हैं तथा १८०,००० से अधिक चिकित्सक इसके सदस्य हैं। तपेदिक की रोकथाम के अलावा, यह संस्था जन स्वास्थ्य संबन्धी अनेक मुद्दों पर कार्य कर रही है, जैसे पोलियो एवं अन्य प्रतिरक्षण कार्यक्रम, एच .आई.वी./ऐड्स, परिवार नियोजन, कन्या भ्रूण हत्या, नेत्रहीनता इत्यादि।
सन् २००७ में आई.एम.ए. को ‘ग्लोबल फंड टू फाइट ऐड्स, टी.बी.,मलेरिया’ नामक अंतर्राष्ट्रीय संस्था से आर्थिक सहायता प्राप्त हुई, जिसके सहयोग से ‘तपेदिक रोकथाम का संशोधित राष्ट्रीय कार्यक्रम’ देश के १६७ जिलों में आरम्भ किया गया। अब तक इस कार्यक्रम में १५ प्रदेशों के ४०६ जिले शामिल किए जा चुके हैं।
आई.एम.ए. के द्बारा निजी क्षेत्र के चिकित्सकों को तपेदिक रोकथाम कार्यक्रम के लिए प्रशिक्षित किया जा रहा है, तथा उन्हें अपने प्राइवेट क्लीनिक में ‘डॉट्स’ केन्द्र स्थापित करने को प्रेरित किया जा रहा है। फरवरी २००९ तक २१,७८८ निजी चिकित्सकों को इस योजना में शामिल किया जा चुका है। १२० जिलों में ‘डिस्ट्रिक्ट टी बी प्रोग्राम’ शुरू किए गए हैं, ५५७ प्राइवेट क्लीनिकों में ‘डॉट्स’ केन्द्र खोले गए हैं, तथा निजी क्षेत्र के २५३२ चिकित्सक इसके तहत प्रशिक्षण पा चुके हैं।
तपेदिक उन्मूलन के लिए अपनी अमूल्य सेवाएँ प्रदान करना प्रत्येक डॉक्टर का कर्तव्य है, और इसके लिए उन्हें कोई आर्थिक प्रलोभन नहीं दिया जाना चाहिए। आवश्यकता इस बात की है कि राष्ट्रीय एवं जिला स्तर पर निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की भागीदारी के द्बारा आम जनता में इस रोग के प्रति जागरूकता फैलाई जाय ताकी समय रहते सही इलाज हो सके। चिकित्सकों के लिए भी शिक्षा एवं प्रशिक्षण कार्यक्रम निरंतर रूप से चलाये जाने होंगें, ताकि वे तपेदिक से बचाव एवं उसकी रोकथाम में अपना योगदान देने को प्रोत्साहित हों। तभी हम ‘तपेदिक मुक्त’ राष्ट्र की कल्पना को साकार कर पायेंगें।
तपेदिक के नियंत्रण के लिए एकीकृत प्रयास आवश्यक है
२४ मार्च, विश्व तपेदिक दिवस के सन्दर्भ में ‘हमें तपेदिक को रोकना ही होगा. और यह तभी सम्भव है जब सभी स्वास्थ्य कार्यकर्ता, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय भागीदार और सम्प्रदाय एक साथ मिल कर इसके लिए प्रयत्न करें।’
यह संदेश है डॉक्टर सामली प्लिआन्गबान्गचान्ग का, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन के दक्षिण- पूर्व एशिया के क्षेत्रीय निदेशक हैं। डॉक्टर सामली ब्राज़ील की राजधानी में हो रहे तीसरे ‘स्टाप टी.बी. पार्टनर्स फॉरम’ के तीन दिवसीय (२३ मार्च से२५ मार्च) सम्मलेन के अवसर पर बोल रहे थे।
एकजुट प्रयास का यह नारा वास्तव में सामयिक है। वर्तमान समय में जहाँ एक और तपेदिक के रोगियों की संख्या में वृद्धि हो रही है, वहीं दूसरी ओर सारा विश्व आर्थिक मंदी के दौर से गुज़र रहा है। दक्षिण पूर्व एशिया के २० लाख तपेदिक मरीजों में से ८७% का सफल इलाज प्रति वर्ष किया जा रहा है। परन्तु इसके साथ ही ‘बहु औषधि प्रतिरोधक टी.बी.( एम.डी.आर.टी.बी.) एवं टी.बी. – एच. आई. वी. सह संक्रमण का प्रकोप भी बढ़ रहा है। आर्थिक तंगी के कारण और भी मुसीबत है। उदहारण के लिए ‘ ग्लोबल फंड फॉर एड्स, टी बी एंड मलेरिया’ ( जी ऍफ़ ए टी एम) का २००९ -२०१० का बजट ८ अरब डॉलर से घटा कर ५ अरब डॉलर कर दिया गया है। अर्थात ३ अरब डॉलर की कटौती। जो देश इस कोष में धन देने को प्रतिज्ञा बद्ध हैं, वे भी अपने वायदे से मुकर रहे हैं। इसके बजाय यह पैसा बैंकों को दिया जा रहा है, जो अपने कर्मचारियों को इसे बोनस के रूप में दे रहे हैं। इससे यह तो स्पष्ट ही है कि तपेदिक का इलाज अधिकतर राष्ट्रों के लिए विकास- प्राथमिकता नहीं है। ऐसी स्थिति में सभी पणधारियों (स्टेक होल्डर्स ) को समान साझेदारी निभानी होगी।
दक्षिण पूर्व एशिया में, प्रति वर्ष ३६ लाख एच. आई. वी. के साथ जी रहे व्यक्तियों में से करीब एक प्रतिशत में तपेदिक होने की संभावना होती है। अत: यह आवश्यक है कि एच. आई.वी./ऐड्स और टी बी नियंत्रक कार्यक्रमों का लाभ सभी टी बी रोगियों को मिले। तपेदिक से सम्बंधित सारे उचित परामर्श, उपचार, परिचार एवं ए.आर.टी ( एंटी रेट्रो वायरल थेरेपी ) उन्हें उपलब्ध होने आवश्यक हैं।
दक्षिण पूर्व एशिया में डाट्स कार्यक्रम के सफल परिपालन के कारण ‘औषधि प्रतिरोधक टी बी' का प्रतिशत ३% मात्र है। परन्तु यह भी एक बड़ी संख्या है। बहु औषधि प्रतिरोधक टी बी के मरीजों की संख्या में प्रति वर्ष १५०,००० की बढ़ोतरी हो रही है। डॉक्टर सामली के अनुसार इसका एक मुख्य कारण है ‘राष्ट्रीय कार्यक्रमों के बाहर, टी बी की दवाओं का व्यापक अनियंत्रित सेवन।’ यह वास्तव में चिंता का विषय है।
टी.बी निवारण कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए सभी राष्ट्रों को अपनी स्वास्थ्य सेवाओं का बजट बढ़ाना होगा, ताकी सभी टी बी रोगियों को समान रूप से नि:शुल्क एवं उत्तम उपचार उपलब्ध हो सके। यह भी आवश्यक है कि सभी निजी एवं सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएँ तपेदिक उपचार के अंतर्राष्ट्रीय मानकों का पालन करें। टी बी औषधियों के अनियंत्रित इस्तेमाल को तत्काल बंद करने की दिशा में भी कदम उठाने होंगें। वरना औषधि प्रतिरोधक टी. बी. मरीजों की संख्या में वृद्धि तो होगी ही, उनके इलाज में बेशुमार पैसे खर्च होने के बाद भी उनका सफल उपचार होना कठिन हो जायेगा।
निमंत्रण: लोक राजनीति मंच की लखनऊ में बैठक - २६ मार्च २००९
हाल ही में लोक राजनीति मंच का गठन हुआ है जिससे कि लोगों के मुद्दे राजनीति में सामने आ सकें और बाहुबल और पैसे के बल पर जो राजनीति होती आई है उसके सामने एक विकल्प खड़ा हो सके.
वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नायर, राजिंदर सचर, मेधा पाटकर, अरुणा रॉय, प्रशांत भूषण, बनवारी लाल शर्मा, ब्रह्म देव शर्मा, स्वामी अग्निवेश, योगेन्द्र यादव, रवि किरण जैन, समशेर सिंह बिष्ट, आदि इस अभियान से जुड़े हैं. लोक राजनीति मंच का पहला राष्ट्रीय अधिवेशन ५-६ मार्च २००९ को लखनऊ में संपन्न हुआ था.
२६ मार्च २००९ को, लखनऊ में, गाँधी भवन के गाँधी स्वाध्याय कक्ष में (रेसीडेंसी के सामने से गेट नंबर ६ से प्रवेश करें) लोक राजनीति मंच की बैठक होगी.
समय: ४ बजे दोपहर
कार्यक्रम विवरण इस प्रकार है:
१) लोक राजनीति मंच की लखनऊ इकाई का गठन
२) आने वाले लोक सभा चुनाव में किस तरह से लोगों से जुड़े हुए मुद्दे उठाये जा सकते हैं, इस पर चर्चा
३) वोटर यानि कि जो लोग वोट डाल सकते हैं, उनको जागरूक करने के लिए अभियान पर चर्चा
४) किसी उपयुक्त चुनाव प्रतियाशी को कैसे सहयोग दिया जा सके, इस पर चर्चा
आप सबसे निवेदन है कि इस बैठक में हिस्सा लें और इस प्रक्रिया का हिस्सा बने,
डॉ संदीप पाण्डेय
फ़ोन: २३४७३६५
ईमेल: ashaashram@yahoo.com
तम्बाकू और शराब के ब्रांड का नाम अब विज्ञापन में दिखाया जा सकता है
भारत सरकार ने विज्ञापन कंपनियों के दबाव में आ के अब तम्बाकू और शराब के ब्रांड के नाम को टी.वी पर विज्ञापन में दिखाए जाने की अनुमति दे दी है, परन्तु तम्बाकू और शराब के उत्पादन टी.वी पर नहीं दिखाए जा सकते.
सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने केबल टेलिविज़न नेटवर्क अधिनियम में हुए परिवर्तन के बारे में जानकारी देते हुए यह कहा.
मंत्रालय के अधिकारियों ने मीडिया से कहा कि विज्ञापन में सिर्फ तम्बाकू और शराब ब्रांड के नाम को दिखाने की अनुमति मिली है, और किसी भी प्रकार का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तरीके से तम्बाकू या शराब के सेवन को बढ़ावा देने पर अभी भी सख्त प्रतिबन्ध लगा हुआ है.
सरकार ने यह भी निर्देश दिया है कि विज्ञापनकर्ताओं को प्रमाणित ऑडिट रपट पेश करनी होगी कि जिस ब्रांड के नाम को विज्ञापन में दिखाया जा रहा है वोह 'पर्याप्त मात्रा' में और 'अधिकाँश' दुकानों पर विक्रय के लिए उपलब्ध है.
सूचना एवं प्रसार मंत्रालय के संयुक्त सचिव जोहरा चैटर्जी का कहना है कि यदि किसी भी विज्ञापन द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से किसी अन्य उत्पाद को बढ़ावा देने की शंका होगी तो सेंट्रल बोर्ड ऑफ़ फ़िल्म सेर्तिफिकईशन द्वारा प्रमाणित होने के बाद ही वोह विज्ञापन दिखाया जा सकता है.
मंत्रालय का कहना है कि विज्ञापन उद्योग के दबाव में ही आके उसने यह कदम उठाया है.
डॉ मीरा आघी को अंतर्राष्ट्रीय तम्बाकू नियंत्रण पुरुस्कार
प्रख्यात तम्बाकू नियंत्रण कार्यकर्ता और संयुक्त राष्ट्र की परामर्शकर्ता डॉ मीरा आघी को महिलाओं में तम्बाकू नियंत्रण के कार्य हेतु अंतर्राष्ट्रीय पुरुस्कार से सम्मानित किया गया.
महिलाओं में तम्बाकू नियंत्रण कार्य हेतु समर्पित अंतर्राष्ट्रीय संगठन [International Network of Women AgainstTobacco (INWAT)] ने चौदहवें अंतर्राष्ट्रीय तम्बाकूनियंत्रण अधिवेशन के अवसर पर डॉ मीरा आघी को इस पुरुस्कार से सम्मानित किया.
तम्बाकू नियंत्रण पर कार्य कर रहे लोगों के लिए, विशेषकर कि महिलाओं के लिए, ६५ वर्षीया डॉ मीरा आघी नि:संदेह प्रेरणा स्त्रोत हैं. पिछले ३० सालों से तम्बाकू नियंत्रण पर कर्मठता से कार्यरत डॉ आघी ने महिलाओं में प्रभावकारी तम्बाकू नियंत्रण के लिए महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है.
प्रभावकारी तम्बाकू नियंत्रण के लिए आवश्यक है कि महिलाएं आगे आयें और तम्बाकू नियंत्रण और जन-स्वास्थ्य अभियान को नेतृत्व प्रदान करें. इसके लिए संस्थानों में विशेष प्रशिक्षण कार्यक्रमों की आवश्यकता है, कहना है डॉ मीरा आघी का.
"तम्बाकू नियंत्रण से जुड़े हुए विशेष पहलुओं पर महिलाओं में जागरूकता फैलाने की आवश्यकता है" कहना है डॉ मीरा आघी का. "महिलाओं को स्वास्थ्य मुद्दों पर सक्रिय होने के लिए जानकारी और प्रेरणा की जरुरत है" कहा डॉ आघी ने.
अमरीका में शिकागो स्थित लोयोला विश्वविद्यालय से पी.एच.डी प्राप्त डॉ मीरा आघी, ऐड्स, नशीली दवाओं और युवाओं से जुड़े हुए मुद्दों पर संयुक्त राष्ट्र की परामर्शकर्ता रही हैं.
"में बहुत चिंतित हूँ कि भांति-भांति प्रकार के तम्बाकू विज्ञापनों की वजह से और तम्बाकू सेवन को फैशन आदि से जुड़े होने के भ्रम की वजह से युवाओं में तम्बाकू सेवन बढ़ रहा है. इसको रोकना होगा" कहना है डॉ आघी का.
३० साल पहले डॉ मीरा आघी एक जागरूकता बढ़ाने के लिए चल-चित्र के निर्माण से सम्बंधित थीं. इस चल-चित्र बनाने के दौरान ही डॉ आघी को तम्बाकू के घातक स्वरुप से परिचय हुआ और विश्व स्तर पर हो रहे तम्बाकू नियंत्रण से जुड़े हुए कार्य के बारे में भी जानकारी मिली. भारत में बढ़ते हुए तम्बाकू सेवन के बारे में डॉ आघी चिंतित हुईं और ३० सालों में भरसक प्रयास करती रही कि प्रभावकारी तम्बाकू नियंत्रण का स्वप्न साकार हो सके.
चौदहवें अंतर्राष्ट्रीय तम्बाकू नियंत्रण अधिवेशन के दैनिक समाचार पत्र में छपे लेख के अनुसार १९८० के दशक में डॉ मीरा आघी ने एक भारतीय तम्बाकू कंपनी को ललकारा और उसके ख़िलाफ़ सक्रिय अभियान छेड़ दिया था क्योंकि वोह कंपनी महिलाओं में सिगरेट को बढ़ावा देने की योजना बना रही थी.
उद्योगों के जल फोरम का जबरदस्त विरोध
संयुक्त राष्ट्र से अनुरोध कि पानी के निजीकरण करने वालों को संगरक्षण देना बंद करे
पांचवां विश्व वाटर फॉरम या अंतर्राष्ट्रीय पानी अधिवेशन जो तुर्की में १६-२२ मार्च २००९ तक आयोजित किया जा रहा है, उसके विरोध में हजारों सामाजिक कार्यकर्ता इस अधिवेशन के अस्तित्व पर ही सवाल उठा रहे हैं.
३३ देशों से ११८ संगठनों ने एक पत्र संयुक्त राष्ट्र के महा-सचिव बन-की मून को प्रेषित किया है जिसमें उनसे आग्रह है कि सी.ई.ओ वाटर मैनडेट से संयुक्त राष्ट्र अपना समर्थन वापस ले.
सी.ई.ओ वाटर मैनडेट, उद्योगों द्वारा संचालित कार्यक्रम है, जो संयुक्त राष्ट्र के ग्लोबल कंपाक्ट के मंच से कार्यशील हो रहा है. जन-संगठनों का मानना है कि सी.ई.ओ वाटर मैनडेट और इसको संचालित करने वाले उद्योग ही पानी के निजीकरण के लिए जिम्मेदार हैं, और यदि पानी के निजीकरण को रोकने के लिए कोई भी प्रभावकारी कार्यक्रम हो सकता है, तो वोह इन उद्योगों द्वारा नियंत्रित नहीं होना चाहिए.
जो लोग सही मायनों में पानी के अधिकार से वंचित हैं, उनकी ही इस फोरम में आवाज़ नहीं है. यही वोह लोग हैं जिनकी आवाज़ इस फोरम के केन्द्र में होनी चाहिए, और न कि उन उद्योगों की आवाज़ जो पानी के निजीकरण के लिए जिम्मेदार हैं.
इसीलिए इस विश्व पानी अधिवेशन के बाहर ही जन-संगठनों ने लोगों-का-पानी-अधिवेशन आयोजित किया हुआ है - जो सरकारी फोरम के साथ-साथ ही लोगों की जिंदगियों को प्रभावित करने वाले पानी से जुड़े हुए मुद्दों को उजागर करता है.
यही बहुत संगीन बात है कि पानी का अनियंत्रित दोहन करने वाले उद्योगों ने ही इस अंतर्राष्ट्रीय जल अधिवेशन को अपने काबू में किया हुआ है और पानी के अधिकार से वंचित लोगों की प्रतिभागिता शुन्य की हुई है।
हम होंगें कामयाब
हम होंगें कामयाब
हाल ही में , मुंबई में सम्पन्न हुए ‘तम्बाकू अथवा स्वास्थ्य’ के चौदहवें अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन में तम्बाकू के ख़िलाफ़ लड़ने की प्रतिज्ञा को दोहराया
सन २००९ के लूथर टेरी पुरुस्कार से सम्मानित डॉक्टर श्रीनाथ रेड्डी के अनुसार, भारत में तम्बाकू का प्रवेश ४०० वर्ष पूर्व, पुर्तगालियों के द्बारा, इसके पश्चिमी तट से हुआ था। और कतिपय, मुंबई में आयोजित इस सम्मलेन के द्बारा तम्बाकू के निकास का बिगुल भी इसी स्थान से बजा है।
तम्बाकू नियंत्रण सामाजिक विकास और सामाजिक न्याय का विषय है न कि केवल स्वास्थ्य का। तम्बाकू प्रकोप का सीधा सम्बन्ध अनेक वैश्विक आपदाओं से है। जब सम्पूर्ण विश्व खाद्यान आपूर्ति की विकट समस्या से जूझ रहा है, तब क्या ५३ लाख हेक्टेयर भूमि पर तम्बाकू सरीखे विष का उत्पादन करना उचित है?
जब हमारा पर्यावरण बुरी तरह से दूषित है, तब सारे वातावरण को सिगरेट के धुँए से भर देना कहाँ की समझदारी है?
जब विश्व के सभी देश विकट आर्थिक मंदी के दौर से गुज़र रहे हैं, तब क्या कोई भी देश तम्बाकू जनित जानलेवा व्याधिओं के कारण अपने स्वास्थ्य कार्यक्रमों का आर्थिक भार बढ़ाने की स्थिति में है?
अत: तम्बाकू नियंत्रण आन्दोलन को अन्य जागरूकता अभियानों के साथ मिल कर काम करना होगा।
तम्बाकू/सिगरेट सेवन करने वाले प्राय: यह कहते हैं कि उन्हें अपना जीवन अपनी मर्जी से जीने का अधिकार होना चाहिए। परन्तु वे यह भूल जाते हैं कि परोक्ष धूम्रपान द्बारा उन्हें अन्य व्यक्तियों के जीवन और स्वास्थ्य को खतरे में डालने का कोई अधिकार नहीं है, न ही उन्हें अपने परिवार को आर्थिक तंगी में डालने का अधिकार है।
सम्मलेन में तम्बाकू उपभोग संबन्धी अनेक तथ्य उजागर हुए तथा कई सबक सीखने को मिले। तम्बाकू रहित भविष्य के लिए हम सभी को एकजुट होकर प्रयास करने होंगें जिससे अवैध तम्बाकू व्यापार को रोका जाए; तम्बाकू पदार्थों पर अधिक कर लगाया जाए तथा उनके विज्ञापनों पर पूर्ण रोक लगाई जाए; तम्बाकू उद्दोग द्बारा किसी भी खेल स्पर्धा / सामाजिक कार्यक्रम को प्रायोजित न कराया जाए; और निजी-सार्वजनिक संयोजन के द्बारा तम्बाकू निषेध आन्दोलन को और मजबूत किया जाय।
प्रत्येक समझदार नागरिक को तम्बाकू रहित समाज की संरचना में अपना योगदान देना होगा ताकी तम्बाकू विष बेल को पनपने से पहले ही उखाड़ फेंका जा सके।
यही हमारी, आपकी और सबकी विजय होगी।
शोभा शुक्ला
संपादक
सिटिज़न न्यूज़ सर्विस (सी.एन.एस)
भारत में तम्बाकू नशा उन्मूलन सेवाओं को बढ़ाना होगा
भारत में २ अक्टूबर २००८ से सार्वजनिक स्थान पर धूम्रपान प्रतिबंधित हो गया है, और विभिन्न प्रदेश इस कानून को अलग-अलग स्तर पर लागू कर रहे हैं।
'दी इकॉनोमिस्ट' (७-१३ मार्च २००९ अंक) में छपे एक मुख्य लेख के अनुसार: "अवैध नशीली दवाओं से भी अधिक नशीली है तम्बाकू"।
यह साफ़ ज़ाहिर है कि जब तक तम्बाकू नशा उन्मूलन सेवाएँ नहीं उपलब्ध करायी जाएँगी, सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान पर प्रतिबन्ध को लागू करने में अड़चनें आती रहेंगी।
जो लोग तम्बाकू को त्यागना चाहते हैं और इसके लिए विशेषज्ञों से मदद चाहते हैं, उनको यह सेवा मिलनी ही चाहिए।
"केंद्रीय और उत्तरी-पूरब भारत के प्रदेशों में ६५ प्रतिशत से अधिक लोग तम्बाकू का सेवन करते हैं" कहना है डॉ प्रतिमा मूर्ति का, जो नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेंटल हैल्थ एंड न्यूरो-साइंसेस, बंगलूर, के साईंकिअट्री विभाग में आचार्य हैं और नशा उन्मूलन केन्द्र की अध्यक्ष भी। डॉ मूर्ति चौदहवें अंतर्राष्ट्रीय तम्बाकू नियंत्रण अधिवेशन के प्रतिभागियों को संबोधित कर रही थीं।
ग्रामीण छेत्रों में ५७ प्रतिशत पुरूष और १९ प्रतिशत महिलाएं तम्बाकू का सेवन करती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में तम्बाकू सेवन का अनुपात शहरी क्षेत्रों से कहीं अधिक है, परन्तु तम्बाकू नशा उन्मूलन की अधिकाँश सेवाएँ शहरों में ही उपलब्ध हैं, ग्रामीण क्षेत्रों में नहीं। लाज़मी है कि ग्रामीण छेत्रों में भी तम्बाकू नशा उन्मूलन सेवाओं को उपलब्ध करना होगा।
विश्व स्वास्थ्य संगठन और स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के सहयोग से सन २००२ में भारत में १३ तम्बाकू नशा उन्मूलन केन्द्र खोले गए । ये मुख्यत: कैंसर, सैकिअट्री, सर्जिकल, कार्डियोलोजी के अस्पतालों में और कुछ संस्थाओं में खोले गए । इनमें छत्रपति शाहूजी महाराज चिकित्सा विश्वविद्यालय (लखनऊ) और टाटा स्मारक अस्पताल शामिल हैं। सन २००५ में भारत के पाँच क्षेत्रीय कैंसर केन्द्रों में भी तम्बाकू नशा उन्मूलन क्लीनिक खोली गयीं और कुल क्लीनिकों की संख्या १३ + ५ = १८ हो गई।
इन १८ तम्बाकू नशा उन्मूलन क्लीनिकों में अधिक गुणात्मकता के साथ तम्बाकू नशा उन्मूलन सेवाएँ उपलब्ध करायीं गयीं और यह भी जिम्मेदारी दी गई कि इस विधि को मॉडल के रूप में तैयार किया जाए जिससे कि अन्य केन्द्रों में ये सुविधाएँ उपलब्ध कराने के लिए इन पुरानी क्लीनिकों को प्रशिक्षण केन्द्रों की तरह कार्य करना चाहिए।
भारत की इन १८ तम्बाकू नशा उन्मूलन क्लीनिकों में सन २००२ से अब तक ३४,७४१ लोगों ने पंजीकरण करवाया है, इनमें ९२ प्रतिशत लोग पुरूष हैं और ८ प्रतिशत महिलाएं। इन पंजीकृत लोगों की औसतन उम्र ३७ साल है और इनमें से लगभग ५० प्रतिशत की औसतन मासिक आए ३००० रुपया प्रति माह है।
गौर करने की बात है कि इन पंजीकृत लोगों में से अधिकाँश ने बिना किसी भी दवा के ही तम्बाकू से सफलतापूर्वक निजात पायी है (६९ प्रतिशत)।
३१.१० प्रतिशत लोगों ने सफलतापूर्वक तम्बाकू छोड़ दी, और ४९.५ प्रतिशत लोगों ने काफी प्रभावकारी तरीके से तम्बाकू नशे को ५० प्रतिशत से भी अधिक कम किया। सिर्फ़ ८.७ प्रतिशत लोग तम्बाकू नशा छोड़ने में असफल रहे।
यह ज़ाहिर सी बात है कि तम्बाकू नशा उन्मूलन सेवाएँ भारत में मौजूदा स्वास्थ्य सेवाओं का भाग होनी चाहिए। स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को तम्बाकू नशा उन्मूलन का प्रशिक्षण मिलना चाहिए। मेडिकल की पढाई में तम्बाकू नशा उन्मूलन को शामिल करना चाहिए, कहना है डॉ मूर्ति का।
तम्बाकू नशा उन्मूलन सेवाओं को क्लीनिक-केंद्रित के बजाय समुदाय-केंद्रित बनाना होगा।
बाबी रमाकांत
(तम्बाकू) से आजादी की ओर
‘ तम्बाकू अथवा स्वास्थ्य ' का चौदहवाँ अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन ८ मार्च को मुंबई के ‘नेशनल स्कूल ऑफ़ परफोर्मिंग आर्ट्स ’ में प्रारंभ हुआ। इस ६ दिवसीय सम्मलेन का उदघाटन करते हुए, मुंबई के राज्यपाल, श्री जामीर ने बच्चों को तम्बाकू के जानलेवा खतरों से बचाने का आहवाहन किया। उन्होंने बताया कि दक्षिण पूर्व एशिया में ९०% मुंह के कैंसर तम्बाकू के सेवन के कारण ही होते हैं।
भारत में तम्बाकू प्रकोप की समस्या और भी जटिल है। हमारे देश में तम्बाकू का प्रयोग केवल सिगरेट के रूप में ही नहीं वरन गुटखा, पान मसाला, खैनी आदि के रूप में भी प्रचलित है। कुछ लोगों की भ्रामक धारणा है कि तम्बाकू उद्दोग हजारों लोगों को रोज़गार देता है, अत: इसको समाप्त नहीं होना चाहिए। परन्तु सच तो यह है कि तम्बाकू उद्दोग में काम करने वाले पुरूष, महिलायें एवं बच्चे, सदैव गरीब ही रहते हैं तथा तम्बाकू जनित अनेक बीमारियों के शिकार भी होते हैं। पनपते हैं तो केवल तम्बाकू उद्योगपति । तम्बाकू कंपनियाँ नित नए, लुभावने तरीकों से विशेषकर युवा वर्ग को धूम्रपान की ओर आकर्षित करतीं हैं ताकि वो अधिक से अधिक सिगरेट पी कर जल्द से जल्द मृत्यु को प्राप्त हों, या फिर असाध्य रोगों से ग्रसित हों। राज्यपाल महोदय ने खेलकूद संस्थाओं से अपील करी की वे तम्बाकू कंपनियों से खेल स्पर्धाएं प्रायोजित न कराएँ।
अपने युवा दिनों के तम्बाकू विरोधी अभियानों को याद करते हुए, श्री जामीर ने स्कूल कॉलेज में ‘टेम्पेरेंस कमेटी ’ बनाने का सुझाव दिया। ये संगठन, युवाओं में, न केवल धूम्रपान के विरुद्ध प्रचार करें, वरन अन्य विवेकहीन व्यसनों के ख़िलाफ़ भी आवाज़ उठाएं। सिगरेट पीना, शराब पीना, अपशब्द बोलना, आवश्यकता से अधिक खाना अथवा सोना--- ये सभी बुराइयाँ हमें शारीरिक और मानसिक रूप से निर्बल बनाती हैं। उन्होंने कहा कि युवाओंको ‘ यह मत करो’ के स्थान पर ‘ इस प्रलोभन से बचो’ की शिक्षा देनी चाहिए। निषेध आज्ञा का उल्लंघन करना युवा स्वभाव होता है। अत: उन्हें प्रेम से समझाना होगा।
स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री डॉक्टर अंबुमणी रामादोस ने इस अवसर पर yyyबोलते हुए बताया कि भारत उनगिने चुने देशों में से एक हैं जिन्होनें सर्वप्रथम विमान यात्रा में धूम्रपान पर निषेध लगाया था। उन्होंने कहा कि भारत ‘तम्बाकू रहित समाज’ की स्थापना के लिए कटिबद्ध है। यहाँ सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान निषेध है एवं तम्बाकू पदार्थों के बेचने पर भी कुछ प्रतिबन्ध हैं। परन्तु उनके अनुसार लोगों को केवल क़ानून के भय से नहीं वरन जनहित में स्वेच्छापूर्वक तम्बाकू सेवन का त्याग करना चाहिए. तम्बाकू उद्दोग की भर्त्सना करते हुए उन्होंने कहा कि एक ओर तो यह उद्दोग युवा वर्ग को आकर्षक विज्ञापनो द्बारा तम्बाकू की और आकर्षित कर रहा है, और दूसरी ओर अन्य तम्बाकू निषेध क़ानून पारित करने में अड़चनें पैदा कर रहा है ।
यह अत्यन्त खेद का विषय है कि ४०% स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों का कारण तम्बाकू सेवन होने के बावजूद हमारा युवा वर्ग तेज़ी से धूम्रपान एवं गुटखा/पान मसाला की ओर आकर्षित हो रहा है। अत: साम, दाम, दंड, भेद की नीति अपना कर युवाओं को तम्बाकू एवं शराब के चंगुल से छुडाना ही होगा।
डॉक्टर रामदौस ने भारतीय फ़िल्म उद्दोग को भी आड़े हाथों लिया। फिल्मों में धूम्रपान
के दृश्य, युवा वर्ग को अत्यधिक प्रभावित करते हैं। पिछले दशक तक बनी भारतीय फिल्मों में अधिकतर खलनायक को ही धूम्रपान करते हुए दिखाया जाता था। परन्तु अब तो ७६% फिल्मी हीरो ही सिनेमा के परदे पर सिगरेट पीते हुए दिखाए जाते हैं। इसका सीधा प्रभाव बाल मन पर पड़ता है। एक सर्वेक्षण के अनुसार, ५२% बच्चे सिगरेट का पहला कश अपने मनपसंद हीरो के फिल्मी परदे पर धूम्रपान से प्रेरित होकर लेते हैं, १८% माता पिता को देख कर , और १५% अपने साथियों से प्रभावित होकर। भारतीय फिल्मों में धूम्रपान दिखाने के विरुद्ध, सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की जा चुकी है। आशा है की परिणाम जन स्वास्थ्य के हित में ही होगा।
प्रसिद्द रचनाकार मार्क ट्वैन ने कहा था कि , ‘भारत ऐसा देश है जिसे सभी देखने की इच्छा रखते हैं।’ इसी भारत देश में, विश्व के १८ वर्ष से कम आयु वाले बच्चे सबसे अधिक संख्या में रहते हैं। इनमें से अधिकतर निम्न वर्ग के हैं तथा तम्बाकू खरीदने और बेचने के व्यापार में लगे हैं। इन्हें अक्सर शुरू में पान मसाला और गुटखा के मुफ्त पैकेट देकर इस बुरी लत के जाल में फंसाया जाता है। पद्मिमी सोमानी के कुशल निर्देशन में, ‘सलाम बॉम्बे ' नामक संस्था ऐसे ही बच्चों के सुधार के लिए कार्य कर रही है तथा समाज के निर्धन वर्ग के लगभग १८० लाख बच्चों के जीवन को खुशहाल बना चुकी है।
इस सम्मलेन में १३० देशों से आए हुए २००० से अधिक भाग ले रहे डेलीगेटों का मुख्य उद्देश्य है तम्बाकू यानी मौत के सौदागरों के चंगुल से हमारे समाज को छुडाना। तम्बाकू सेवन को बढ़ावा देने वाली बहु राष्ट्रीय कंपनियों के नापाक इरादों को रोकना ही होगा। सभी समझदार व्यक्तियों को एकजुट होकर ऐसे निर्णय लेने होंगें एवं ऐसे सार्थक कदम उठाने होंगें जिससे हमारे बच्चों के भविष्य को सिगरेट का स्याह धुंआ निगल न सके।
शोभा शुक्ला
एडिटर
सिटिज़न न्यूज़ सर्विस