जी क्या फरमाया आपने? ? ?
अरे, इतनी देर से गला फाड़ फाड़ कर चिल्ला रहा हूँ और तुम हो कि जी, जी लगाए हुए हो। बहरे हो क्या?
शायद आप सच ही फरमाते हैं। इस युग में बढ़ते हुए शोरगुल और प्रदूषण ने हमें सच ही जीवन की रसमय माधुरी के प्रति अँधा और बहरा बना दिया है। कोयल की कूक और पपीहे का सुरीला गीत, डिस्को के उत्तेजनात्मक शोर में खो
आम बोलचाल की भाषा में ऐसी अभद्रता और अशलीलता का समावेश हो
लखनऊ ही क्यों , पूरा अवध प्रदेश ही जुबान की नफासत और नज़ाकत के लिए मशहूर था। पर अब तो ‘तू तड़ाक’ का माहौल है, भौंडे प्रदर्शन का ज़माना है।
आजकल अंग्रेजी और हिन्दी की जो मिली जुली खिचड़ी बोली जाती है उसमें भी ‘शिट ’ और ‘बास्टर्ड’ , इन दो शब्दों का प्रयोग सर्वाधिक होता है। ये शब्द जैसे हमारे युवा वर्ग और बच्चों की जुबान से चिपक गए हैं। एक बार
जब
इसीलिये बातचीत या गुफ्तगू करने के बजाये वे ‘गप्पें ठोंकना’ पसंद करती हैं( जैसे किसी के दिल में कीलें ठोंक रही हों)। मुहब्बत के ख़ूबसूरत एहसास को ‘इश्क कमीना’ कहने का फैशन हो
कुछ वर्ष पूर्व जब मैं पहली बार मेरठ गयी तो वहाँ की जाटवी बोली से घबरा गयी। सभी जैसे बात न करके पत्थर मार रहें हों। ‘ तुझे किधर जाना है’, ‘लेना है तो ले
पर अब तो यह हाल सभी जगह है। भाषा का माधुर्य ख़त्म हो चुका है और हमारे स्वभाव से विनम्रता लुप्त होती जा रही है। अगर आप किसी चौराहे पर लाल बत्ती होने पर अपना वाहन रोक दें और वहाँ यातायात पुलिस न हो तो पीछे वाले आपको कोसने लगेंगे और हार्न पर हार्न बजा कर आपको ही मुजरिम करार कर देंगें।
अभी हाल ही में
पर बच्चों को दोष देने से क्या फायदा। इसके लिए कहीं न कहीं हम और आप - अभिवावक और शिक्षक - ही दोषी हैं। बच्चे जन्म से ही कटु शब्द और दुर्व्यवहार सीख कर नहीं आते। यदि परिवार के सदस्य आपस में विनम्रता से पेश आयें तो बच्चे भी वही सीखेंगें। विनम्र निवेदन के बावजूद चलचित्र और नाटक के मध्य मोबाइल फोनों का लगातार बजना शायद आपने भी झेला होगा। या फिर मध्य रात्रि में रेलगाडी के अन्दर सहयात्रियों का आपस में बात करना कभी आपको भी खला होगा। जब हम इस प्रकार के असंयित व्यवहार का उदाहरण अपने बच्चों के सामने रखेंगें तो उनसे क्या उम्मीद करी जा सकती है? यदि उन्हें टी.वी. और इन्टरनेट के अश्लील और हिंसात्मक कार्यक्रमों से दूर रखा जाय और उनसे शालीनता से पेश आया जाय तो उनके जीवन और शब्दकोष में भी रसमय लालित्य का संचार हो सकता है। हाल ही में आरुषि मर्डर केस के वीभत्स दूरदर्शन प्रसारण ने बाल दर्शकों को मनोवैज्ञानिक रूप सेआतंकित कर दिया था। हम लोग अक्सर बिना सोचे समझे ‘बेफकूफ कहीं के’, ‘पागल हो क्या’, ‘अंधे हो, दिखाईनहीं देता?’, ‘गधे कहीं के’, शब्दों का प्रहार करते रहेंगें तो बाल मन पर बुरा प्रभाव तो पड़ेगा ही।
हमारी बोलचाल की भाषा अगर एक बार फिर से तहज़ीब और मिठास से भर जाए तो जीवन की अनेक कटुताओं और विद्रूपताओं में कमी ज़रूर आयेगी। तो आइये
‘दुनिया भर का ज़हर पिया है हमने, तुमने और सभी ने
जीवन की कटुता धुल जाए, ऐसी मीठी बात करें।’
शोभा शुक्ला
एडिटर
सिटिज़न न्यूज़ सर्विस