भारत दुनिया के कई अन्य देशों की तुलना में, जो न तो अपने लोकतंत्र के लिए जाने जाते हैं और न ही भारत की तरह आर्थिक या सैन्य शक्ति हैं, अपने गरीबों की स्थिति सुधारने में क्यों नाकाम रहा है ? वैश्वीकरण, निजीकरण व उदारीकरण की नई आर्थिक नीति ने पैसे वालों के लिए तो कमाल किया है किन्तु बड़ी संख्या में गरीबों के लिए, जिनके लिए महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना लागू की गई है, तो निराशा ही हाथ लगी है। मनरेगा की गारण्टी उस अर्थ में तो गारण्टी नहीं है जिस अर्थ में सेवा क्षेत्र के किसी व्यक्ति को माह के अंत में अपनी तनख्वाह मिल जाती है अथवा किसी निजी कम्पनी को सार्वजनिक-निजी भागीदारी में निश्चित मुनाफा पहले से ही तय होता है। गरीब कुपोषण व भुखमरी से, ऊँचे मातृ व बाल मृत्यु दर से, कर्ज के बोझ में आत्महत्या से या फिर नक्सल विरोधी कार्यवाइयों में मारा जा रहा है। क्या हमने गरीबी के बजाए अपने गरीबों को खत्म करने के यही रास्ते चुने हैं ? अभी जनवरी, 2011 में कलिंगनगर, उड़ीसा, में 12 वर्षीय जो लड़की पुलिस की गोली का शिकार हुई वह नक्सली कैसे हो सकती है।
हमें अपने बजट व नियोजन का इस दृष्टि से भी मूल्यांकन करने की आवश्यकता है कि उनसे गैर-बराबरी बढ़ेगी या घटेगी, समाज में असंतोष बढ़ेगा या घटेगा ? भोजन, चिकित्सा, शिक्षा, काम व सामाजिक सुरक्षा जैसी मूलभूत सुविधाएं सभी के लिए सार्वभौमिक रूप से उपलब्ध होनी चाहिए। समाज के वंचित तबकों के लिए तो विशेष अवसर उपलब्ध कराने की जरूरत है।
न्यूनतम मजदूरी की दरों को संशोधित किए जाने की जरूरत है। हाल ही में ग्रामीण विकास विभाग द्वारा मनरेगा के तहत दी जाने वाली मजदूरी की दरों में मुद्रा स्फीति व उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के आधार पर संशोधन किया गया है। मजदूरी दर पर मुद्रा स्फीति के प्रभाव से असल मजदूरी में गिरावट तो समझ में आती है किन्तु मुख्य मुद्दें का समाधान रह जाता है। 1957 में भारतीय मजदूर कांफ्रेंस द्वारा प्रस्तावित तथा सर्वोच्च न्यायालय द्वारा समर्थित न्यूनतम आवश्यकता आधारित मानकों पर न्यूनतम मजदूरी को तय किया जाना चाहिए। मनरेगा मजदूरों की अलग श्रेणी बनाना चिंताजनक है तथा भेदभाव को संस्थागत रूप देना है। कायदे से तो जो लोग रोटी, कपड़ा व मकान जैसी जरूरतों को पूरा करने के लिए उत्पादन के काम में लगे हैं उनका श्रम मूल्य सबसे अधिक होना चाहिए। सेवा क्षेत्र में काम करने वाले तो दैनिक मजदूरी पर काम कर सकते हैं। यह बात शायद अभी एक जमीन पर न उतारा जा सकने वाला आदर्श ही प्रतीत हो। इसलिए कुछ जन संगठनों व आंदोलनों की व्यवहारिक मांग की न्यूनतम मजदूरी की दर 250 रुपए प्रति दिन कर दी जाए, तो स्वीकार की ही जानी चाहिए।
अपनी खरीद क्षमता की सीमाएं बताते हुए प्रधानमंत्री द्वारा सी. रंगराजन के नेतृत्व में नियुक्त एक विशेषज्ञ समिति ने राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के 75 प्रतिशत आबादी को कम कीमत पर अनाज दिए जाने के प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दिया है। इस देश में गरीब की तादाद जितना सरकार मानने को तैयार है उससे बहुत ज्यादा है। सरकार द्वारा मान्य तेंदुलकर समिति का आंकड़ा ३७.२ प्रतिशत है जबकि सरकार की ही एक दूसरी एन.सी.सक्सेना समिति के अनुसार यह आंकड़ा 48 प्रतिशत है। लेकिन सच्चाई शायद राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के आंकड़े के ज्यादा नजदीक है। वर्तमान में अनाज की खरीद 500-550 लाख टन होती है। 2009-10 में खाद्यान्न उत्पादन 2182 लाख टन हुआ। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सुझाव को मानने के लिए खरीद 650 लाख टन होनी चाहिए। यदि सरकार अपनी खरीद नीति में सुधार लाती है तो इस देश के सभी गरीबों को खाद्य सुरक्षा की गारण्टी दी जा सकती है। अभी किसान सरकारी खरीद केन्द्रों पर दिक्कतों का सामना करने के कारण अपना अनाज निजी खरीदारों को न्यूनतम समर्थन मूल्य से भी कम दाम में बेच देता है। पिछले रबी सत्र में खरीद ही देर से शुरू हुई। खरीद का विकेन्द्रीयकरण, समय से भुगतान सुनिश्चित करना, किसान से सीधे खरीद, सार्वजनिक वितरण प्रणाली में अन्य मोटे अनाज शामिल किया जाना, आदि, खरीद की प्रक्रिया में और सुधार लाएंगे। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के विस्तार से उत्पादन बढ़ सकता है व कृषि की अर्थव्यवस्था को पुर्नजीवित किया जा सकता है। बिना उत्पादन बढ़ाए खाद्य सुरक्षा की बात नहीं सोची जा सकती है। असल में उत्पादन, खरीद व वितरण को जोड़ कर ही देखा जाना चाहिए। खरीद व वितरण विकेन्द्रित होना चाहिए।
जैसा कि कुछ लोगों द्वारा सुझाव दिया जा रहा है, सार्वजनिक वितरण प्रणाली के बदले सीधे नकद हतांतरण के विषय में नहीं सोचा जाना चाहिए, क्योंकि परिवारों के स्तर पर खाद्य सुरक्षा मुहैया कराने में सार्वजनिक वितरण प्रणाली की बहुआयामी भूमिका है। इससे खाद्यान्न उत्पादन को बढ़ावा मिलता है तथा खाद्यान्न के अभाव वाले इलाकों में अनाज उपलब्धता सुनिश्चित होती है। यह भी देखा गया है कि जब अनाज मिलता है तो परिवार के अंदर उसका वितरण ज्यादा ठीक से होता है जबकि नकद पर पुरुष का नियंत्रण रहता है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली को खत्म करने के बजाए उसमें सुधार की आवश्यकता है जैसे खाद्यान्न को उचित कीमत की दुकान तक पहुँचाना, शुरू से अंत तक वितरण की प्रक्रिया का कम्प्यूटरीकरण, पारदर्शिता एवं शिकायत निवारण की व्यवस्थाएं स्थापित करना। तमिलनाडू एवं छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों के अनुभव से यह स्पष्ट है कि उपर्युक्त किस्म के कदमों से सार्वजनिक वितरण प्रणाली में होने वाली चोरी को रोका जा सकता है।
यह दुर्भाग्य का विषय है कि कृषि में उद्योग एवं सेवा क्षेत्र से कम वृद्धि दर दर्ज दिखाई जाती है। ऐसा नहीं है कि कृषि में उत्पादन कम है। उत्पादों की जो कीमतें तय की जाती हैं तथा जो मजदूरी दरें व तनख्वाहें तय होती हैं, जो सिर्फ खुले बाजार पर ही निर्भर नहीं हैं, एक विकृत तस्वीर पेश करती हैं। बिना सरकार द्वारा विभिन्न किस्म की छूटों को हासिल किए उद्योग जगत एक ऊँची वृद्धि दर नहीं दर्ज कर सकता। 2009-10 में केंद्र सरकार द्वारा विभिन्न किस्म के आय कर, इत्यादि, पर रुपए 5,02,299 की छूट दी गई जो कुल एकत्रित कर का ७९.५४ प्रतिशत थी। इसी प्रकार सेवा क्षेत्र बिना बड़ी-बड़ी तनख्वाहों के, जो किए जाने वाले कार्य के समतुल्य नहीं हैं, ऊँची वृद्धि दर नहीं दर्ज करा सकता। हमें लोगों को कृषि क्षेत्र से उद्योग व सेवा क्षेत्र में ले जाने की कोशिश, जो नई आर्थिक नीति का आधार है, छोड़ देनी चाहिए। हमें अपनी ताकत को पहचान कर उसे मजबूत करना चाहिए। कृषि क्षेत्र में अच्छा समर्थन मूल्य व प्राथमिक उत्पादन क्षेत्र में सम्मानजनक आजीविका का अवसर मिलना चाहिए। रेलवे की तरह कृषि का अलग बजट होना चाहिए।
नई आर्थिक नीति मंहगाई व मुद्रा स्फीति की तरह गरीबी को भी नियंत्रित कर पाने में नाकाम है। रु. 500 व रु. 1000 के बड़े नोट 2-3 माह का समय देकर वापस ले लिए जाने चाहिए। इससे सरकार अधिक कर संग्रहित कर पाएगी जो उसे अर्थव्यवस्था में निवेश हेतु चाहिए। भारत में काले धन की अर्थव्यवस्था सफेद धन की अर्थव्यवस्था से तीन गुणा है। बड़े नोटों पर पाबंदी से भ्रष्टाचार पर भी कुछ हद तक रोक लगेगी। वैसे भी इस कदम से 90 प्रतिशत भारतीय प्रभावित नहीं होंगे जो बड़े नोटों का इस्तेमाल ही नहीं करते।
सरकार को अपना काम गैर-सरकारी संस्थाओं को आवंटित नहीं करना चाहिए। राजनेताओं व नौकरशाहों के नजदीक लोग गैर-सरकारी संस्थाएं बना कर बड़े धन वाले काम हड़प लेते हैं तथा भ्रष्ट सरकारी तंत्र का ही विस्तार बन जाते हैं। कायदे से गैर-सरकारी संस्थाओं को तो सरकार का धन मिलना ही नहीं चाहिए क्योंकि वे जनता के प्रति जवाबदेह नहीं हो सकतीं। यदि वे सही अर्थों में गैर-सरकारी संस्थाएं हैं तो उन्हें अपने संसाधन समाज से खड़े करने चाहिए। समाज में ऐसे सम्पन्न लोगों की कमी नहीं है जो अच्छे काम को सहयोग देने को इच्छुक हों।
(ये विचार वित्त मंत्री द्वारा बजट पूर्व सुझाव आमंत्रित करने के लिए गैर-सरकारी संस्थाओं की एक बैठक में 13 जनवरी, 2011, को रखे गए।)
संदीप