हम आपको कर्ज देना चाहते हैं

जान पर्किन्स की पुस्तक ‘कन्फ्रेंस ऑफ़ ऐन इकोनोमिक हिट मैन’ प्रकाशित होते ही सारी दुनिया में चर्चित हो गयी। यह पहला अवसर था जब विश्व बैंक तथा अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं से जुड़े किसी वरिष्ट अधिकारी ने बताया था कि किस तरह उसने साम्राज्यवाद के मुनाफे के लिए तमाम देशों की अर्थव्यवस्था को तहस नहस कर दिया। इसने तीसरी दुनिया के समुदाह को एक दृष्टि दी ताकि वे अपने दे के उन ‘गणमान्य योजनाकारों’ की शिनाख्त कर सके जो विदेशी एजेंटों के रूप में काम कर रहे हैं ...प्रस्तुत है इस पुस्तक पर विष्णु र्मा की टिप्पणी...

किसी देश को गुलाम बनाने का आसान उपाय। वल्र्ड बैंक या एशिया विकास बैंक से उसे कर्ज दिलायें। कर्ज बड़ा होना चाहिए। इतना बड़ा कि प्राप्तकर्ता देश इसे कभी चुका ही न सके। फिर कर्ज के साथ यह शर्त भी रख दीजिए कि इसका 90 प्रतिशत हिस्सा विकसित देश की बड़ी कंपनियों को देश के आर्थिक ढांचे का निर्माण करने को दिया जाय। बस फिर देखते ही देखते देश आपकी मुट्ठी में आ जाएगा। जो चाहे कीजिए।

यहां बताया गया प्रयोग भविष्य के लिये नहीं हैं बल्कि इसका इस्तेमाल तो लगातार होता रहा है। बहुत पुरानी बात नहीं है जब अंग्रेजों ने ठीक इसी तरह भारत के रजवाड़ों को कर्ज देकर उन्हें अपना गुलाम बना लिया था। इसलिए जान पर्किन्स की किताब ‘कन्फ्रेंन ऑफ़ ऐन इकोनोमिक हिटमैन’ हमें चौंकाती नहीं हैं। हां, यह पुस्तक कर्ज देने और गुलाम बनाने की नवऔपनिवेशक तकनीक को सरल ढंग से प्रस्तुत जरूर करती है। यह भी बताती है कि उत्तर औपनिवेशिक काल एक बेतुका मजाक है जहां साम्राज्यवादी शराब नये लेबल के साथ तीसरी दुनिया की संसदीय दुकानों को धड़ल्ले से बेची जाती है। अब कर्ज के बदले आपको सिर्फ बाजार नहीं देना है बल्कि एक पूरी की पूरी ‘लोकतांत्रिक’ व्यवस्था को भी अपने यहां लागू करना है जिसका मतलब है बड़ी कंपनियों को देश की लूट की आजादी। फिर चाहे इससे देश की बहु संख्यक जनता गरीबी और भुखमरी से मर ही क्यों न जाय।

उपन्यास की शैली में लिखी अपनी पुस्तक में जान पर्किन्स बताते हैं कि अमरीका और उसकी निजी कंपनियां दो अलग संस्थाएं न होकर एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। जो काम वहां की सरकार ‘राजनयिक’ कारणों से नहीं कर सकती उसे वहां की कंपनियां करती हैं। दोनों का मकसद है साम्राज्य का निर्माण करना। इसलिये तो जान पर्किन्स अमरीकी राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी के लिए काम करते हैं लेकिन वेतन एक निजी कंपनी से पाते हैं।

कंपनी में वे अर्थशास्त्री हैं और उनका काम है तीसरी दुनिया के देशों के विकास की संभावनाओं वाली रिपोर्ट तैयार करना और वर्ल्ड बैंक या एशिया विकास बैंक को कर्ज देने के लिए मनाना। उनका काम यहां खत्म नहीं होता बल्कि यहां से तो शुरू होता है। उनका अहम मकसद यह सुनिश्चित करना है कि प्राप्तकर्ता देश दिवालिया हो जाय ताकि वह हमेशा के लिए वर्ल्ड बैंक की मुट्ठी में आ जाय।

1971 में ट्रेनिंग के बाद पार्किन्स इंडोनेशिया पहुँचते है। देश अभी सभी भीषण रक्तपात के दौर से गुजरा है। सेना ने सत्ता पर कब्जा कर लिया है और लगभग 10 लाख लोगों की जानें गई हैं जिसमें से अधिकतर कम्युनिस्ट या समाजवादी हैं। सैनिक तानाशाह जनरल सुहार्तो सत्ता में बने रहने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है और अमरीका को यह पसंद हैं। पहुँचते ही पर्किन्स को समझा दिया जाता है कि किसी भी हालत में इंडोनेशिया चीन या वियतनाम के रास्ते नहीं जाना चाहिए। उनका बोस कहता है ‘हम यहां एक देश को समाजवाद से बचाने के लिए आए है। हमारी जिम्मेदारी है कि हम इंडोनेशिया को वियतनाम, कंबोडिया और लाओस नहीं बनने दें। हम यहां के बच्चों का खून अपने हाथों में नहीं लेंगे। हमारी जिम्मेदारी है कि यहां के मासूम बच्चे हंसिया-हथौड़ा वाले लाल झंडे के नीचे जीने को मजबूर न हों।’

पर्किन्स रिपोर्ट बनाते हैं, वर्ल्ड बैंक कर्ज देता है, और सुहार्तो अमरीका का वफादार बन जाता है। आज इस देश पर 132 बिलियन डॉलर का कर्ज है और अर्थतंत्र पूरी तरह अमरीका के नियंत्रण में है। लेकिन तब क्या होता है कोई देश कर्ज लेना चाहता। अजी, अव्वल तो कर्ज लेना आपका चुनाव नहीं बल्कि विवशता है। दूसरे यदि आप नहीं मानते तो आपकी हत्या भी हो सकती है। पनामा के टोरीजोस का किस्सा याद आया ? 1972 में पर्किन्स को पनामा भेजा जाता हैं। वहाँ के हालात ‘खराब’ हैं क्योंकि वहाँ राष्ट्रप्रमुख, ओमर टोरीजोस, संप्रभुता की बात करता है। उसका मानना है कि देश के संसाधनों पर देश का ही अधिकार होना चाहिए। पर्किन्स अपनी पहली मुलाकात में अमरीका के साथ सहयोग करने के फायदे गिनाते हैं। टोरीजोस का सीधा जवाब है ‘मैं अंतर्राष्ट्रीय ऋण कारोबार को अच्छी तरह समझता हूँ। आप यहां वह नहीं कर सकते जो अभी-अभी इंडोनेशिया में करके आये हैं। मैं समझता हूं कि आपका साथ देने से मैं बहुत मालामाल हो सकता हूँ लेकिन मेरे लिए पनामा की जनता का हित खुद के हित से ज्यादा अहम हैं।’

1977 में टोरीजोस ने अमरीका को टोरीजोस-कार्टर संधि पर हस्ताक्षर करने को मजबूर कर दिया। इसके बाद पनामा ने पनामा नहर पर 1999 तक क्रमश: अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया। पर्किन्स बताते हैं कि अमरीका ने इस ‘अपमान’ का बदला 1981 में उनकी हत्या करवा कर लिया।

आगे अपनी पुस्तक में वे उस गुप्त समझौते का ‘खुलासा’ करते हैं ‘जिसने दुनिया की दिशा बदल दी’। यह समझौता सऊदी अरब के सऊद परिवार के साथ था। इस समझौते के तहत यह तय हुआ कि सऊद परिवार अपने पेट्रो-डॉलर (पेट्रोल व्यवसाय से प्राप्त धन) को अमरीकी बांड में निवेश करेगा। बांड पर लगातार फायदा होता रहे इसलिए वह यह भी सुनिश्चित करेगा कि अमरीका को तेल की सप्लाई कभी न रूके। बदले में अमरीका इस बदनाम परिवार को सऊदी अरब की सत्ता पर बनाये रखेगा।

पर्किन्स बताते हैं कि पुस्तक लिखने की योजना उन्होंने बहुत पहले बना ली थी लेकिन जैसे ही उनके बोस को पता चला उसने उन्हें पैसे देकर चुप करा दिया। ‘पैसा’ वह स्वीकारते हैं ‘उनकी कमजोरी रही है।’ लेकिन जब ९/११ का हादसा हुआ तो उसके मलबे के पास खड़े होकर उन्होंने प्रण लिया कि वे सच कह कर रहेंगे।

यहीं आकर हम भी पर्किन्स के उद्देश्यों पर शक किये बगैर नहीं रह सकते। हमें सोचना पड़ता है कि ‘सच’ के खुलासे के लिए क्या इतने लोगों की बलि जरूरी थी। या यह भी हो सकता है कि उनकी ‘कमजोरी’ उनकी प्रेरणा बन गयी हो ? ९/११ ने दुनिया को बदल डाला। अतिरेक में अमरीका ने अफगानिस्तान और इराक के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया। लेकिन कुछ समय बाद ही उसे अपनी गलती का एहसास होने लगा। उसके लगातार कमजोर होते अर्थतंत्र को 2006 से शुरू हुई मंदी ने बुरी तरह हिलाकर रख दिया। इसके बाद यह तय था कि अमरीका का साम्राज्यवादी एजेंडा नियोजित प्रतिफल नहीं ला सकता। यह एजेंडा पुराना हो चुका है। पुराने एजेंडे पर कुछ भी लिखने के लिए आप स्वतंत्र थे। और कुछ ‘रहस्योदघाटन’ कर आप बाजार में बिक भी सकते थे।

विष्णु
र्मा