भारत जैसे विशाल और विविधताओं वाले देश में बहुत ही पुराने समय से ग्राम सभाओं का अस्तित्व रहा है। भारत के वेद ऋग्वेद में "सभाओं" के रूप में एक स्वायत्ताशाली लोकतांत्रिक संस्थाओं का उल्लेख मिलता है। वैसे बौद्ध काल में इसकी व्यापकता और स्वीकार्यता सबसे अधिक रही है। उस समय प्रधान/मुखिया/सरपंच को ग्राम भोजक कहा जाता था ग्राम भोजक ग्राम सभा के तय फैसलों का अनुपालन करवाता था वह तालाब, घाट, कुंए, आंतरिक सुरक्षा, न्याय, शिक्षा आदि कार्यों की देख रेख करता था, ग्राम सभा को अधिकार होने से सामूहिक निर्णय लेने से ग्राम समुदाय स्वावलंबी और सुदृढ़ था।
कार्लमार्क्स ने अपनी महानतम रचना "पूंजी" में लिखा है कि "प्राचीन काल से चले आ रहे ये छोटे-छोटे भारतीय ग्राम समुदाय-सामुदायिक ढ़ग से संयुक्त स्वामित्व तथा किसान और मजदूरों के श्रम विभाजन के सिद्धांत पर आधारित है। ये ग्राम समुदाय अपने आप में परिपूर्ण तथा आत्मनिर्भर है। एशियाई समाज में जो सुदृढ़ता, संगठन तथा स्थायितत्व पाया जाता है, उसका मुख्य श्रेय इन स्वावलंबी ग्राम समुदायों की उत्पादन प्रणाली को ही जाता है।
अरविन्द मूर्ति