36गढ आत्महत्या के आंकडे झूठे? रोज़ करते हैं चार किसान खुदकुशी
मुझ जैसे शहरी लोगों को किसान और किसानी की समझ कम होती है । पर यदि आप किसी प्रदेश के बारे में सपना देखना चाहें तो उस काम को कैसे नज़रअंदाज़ किया जा सकता है जिस पर प्रदेश की 80% से अधिक जनता की रोज़ी रोटी निर्भर है ?
इसलिये छत्तीसगढ नेट की हर वार्षिक बैठक में हम पहला सत्र कृषि पर रखते हैं । इस बार हमने सोचा कि क्यों न विदर्भ से कुछ किसानों को बुलाया जाए और उनसे यह सीखा जाए कि छत्तीसगढ विदर्भ से क्या सीख सकता है।
हमें लगा छत्तीसगढ विदर्भ से लगा हुआ है जहां किसान हज़ारों की तादाद में आत्महत्या कर रहे हैं तो विदर्भ के किसानों से यह सीखा जाए कि हम वह क्या न करें जो गलती उन्होंने की है । किसी और की गलती से सीखना बुद्धिमानी ही है ।
हम लोगों ने विदर्भ आंदोलन के किशोर तिवारी और किसान नेता विजय जवांदिया से सम्पर्क किया । आपको पता होगा ये लोग विदर्भ में हो रही किसान आत्महत्याओं पर नज़र रखते हैं और रोज़ मुझ जैसे पत्रकारों को ई मेल करते हैं । विदर्भ की किसान आत्महत्याओं को दुनिया के सामने लाने में पत्रकार पी साईनाथ के अलावा इनका भी काफी योगदान रहा है ।
मैंने मद्रास इंस्टीट्यूट ऑफ डेवेलपमेंट स्टडीज़ के प्रोफेसर पी राधाकृष्णन से भी सम्पर्क किया । प्रोफेसर राधाकृष्णन छत्तीसगढ नेट के सदस्य हैं और उन्होंने किसान आत्महत्या पर काफी अध्ययन किया है ।
प्रोफेसर राधाकृष्णन ने मेरा परिचय प्रोफेसर के नागराज से कराया । प्रोफेसर नागराज ने बताया “यह बात तो सही है कि महाराष्ट्र किसान आत्महत्या के मामले में सबसे आगे है इसलिए आप विदर्भ के लोगों को बुलाइये । पर उससे भी अधिक ज़रूरी है कि आपको छत्तीसगढ में भी इस विषय पर अध्ययन करना चाहिए । छत्तीसगढ में भारी मात्रा में किसान आत्महत्याएं हो रही हैं” ।
दिसम्बर का आखिरी सप्ताह था । प्रोफेसर नागराज वार्षिक अवकाश में जाने की जल्दी में थे और मुझे उनकी बात पर कोई विश्वास नहीं हुआ । मुझे याद था कि मेरे एक मित्र ने इस विषय पर अध्ययन किया था और उस अध्ययन के अनुसार प्रदेश बनने के बाद से 2006 तक छत्तीसगढ में 5 या 6 किसानों ने ही आत्महत्या की है यानि हर साल एक आत्महत्या ।
विजय जवांदिया और किशोर तिवारी दोनों किसी कारणवश ड्रीम छत्तीसगढ बैठक में नहीं आ सके और उस बैठक में खेती से जुडे विभिन्न मुद्दों पर तो चर्चा तो हुई पर छत्तीसगढ विदर्भ से क्या सीख सकता है इस विषय पर चर्चा नहीं हो सकी ।
पिछले हफ्ते अखबारों में एक खबर छपी । उसमें लिखा था कि केन्द्रीय गृह मंत्रालय के राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो की सन 2006 की वार्षिक रिपोर्ट में लिखा है किसानों द्वारा आत्महत्या के मामले में महाराष्ट्र अब भी सबसे आगे है पर मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ का सम्मिलित आंकडा दूसरे नम्बर पर आता है । मैं चौंका ।
उस रिपोर्ट में आगे लिखा था सन 2006 में ( 2007 की रिपोर्ट अगले साल आएगी) देश में कुल 17,060 किसानों ने आत्महत्या की जिसमें सर्वाधिक 4453 महाराष्ट्र में हुए । उसके बाद सबसे अधिक किसान आत्महत्याएं मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ में हुए जहां के लिये यह आंकडा 2858 का है ।
इसके बाद आंध्रप्रदेश और कर्नाटक का स्थान आता है जहां 2006 में क्रमश: 2607 और 1720 किसानों ने आत्महत्याएं की हैं । उस रिपोर्ट के अनुसार आंध्र में यह आंकडा पिछले साल की तुलना में थोडा ऊपर गया है और कर्नाटक में यह आंकडा घटा है ।
मुझे आश्चर्य हुआ कि जैसा कि मुझे मालूम है कि छत्तीसगढ में पिछले 6-7 सालों में किसान आत्महत्या नहीं हुई तब मप्र का आंकडा तो बहुत ऊंचा होगा फिर किसान आत्महत्या से प्रभावित राज्य के रूप में मप्र की गिनती क्यों नहीं होती ?
दूसरा प्रश्न मेरे मन में यह था कि छत्तीसगढ प्रदेश को बने 7 साल हो गए अब भी छत्तीसगढ का आंकडा मप्र से जोडकर क्यों दिया जा रहा है ? और यदि छग में कोई किसान आत्महत्या नहीं होती तो छग को बदनाम करने की क्या ज़रूरत है ?
उसके बाद मैंने एक वेबसाइट पर सुष्मिता मालवीय का भोपाल से एक लेख पढा । सुष्मिता ने भी मप्र और छग का सम्मिलित आंकडा ही दिया । छत्तीसगढ के कृषि विभाग के अधिकारी को इस रिपोर्ट में यह कहकर उद्धृत किया गया है “हमारे पास छत्तीसगढ में किसी भी किसान आत्महत्या का कोई रिकॉर्ड नहीं है । हमारे पास यह अध्ययन नहीं पहुंचा है पर यह आंकडे बिल्कुल बेबुनियाद हैं” ।
मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा था । मैंने “छत्तीसगढ” के सम्पादक सुनील कुमार जी से सम्पर्क किया । उन्होंने बताया “पूरा छत्तीसगढ दंतेवाडा नहीं है कि यहां हज़ारो की तादाद में किसान आत्महत्या करेंगे और कोई इस बारे में कुछ नहीं लिखेगा” !
पर मुझे आश्चर्य होता रहा कि प्रधानमंत्री ने पिछले साल आत्महत्या कर रहे किसानों के लिए 17,000 करोड का पैकेज जारी किया और यदि मध्यप्रदेश में किसान आत्महत्या का आंकडा आंध्र, कर्नाटक और केरल से अधिक है तो फिर प्रधानमंत्री ने मध्यप्रदेश के किसानों के लिए राहत पैकेज क्यों नहीं दिया ?
मैंने मध्यप्रदेश में कई पत्रकारों को फोन किया । उन्होंने बताया किसान आत्महत्या की खबरें छपीं तो थी पर सरकार ने कहा ये आंकडे गलत हैं फिर मामला ठण्डा हो गया ।
मैंने “हिंदू” के ग्रामीण मामलों के संपादक पी साईनाथ को फोन किया । श्री साइनाथ ने कहा “मैं किसान आत्महत्या विषय पर सन 2000 से लिख रहा हूं । पहले सब मेरी खिल्ली उडाते थे । 2004 में चन्द्रबाबू नायडू की हार के बाद ही आंध्र में लोगों ने मुझे गंभीरता से लेना शुरु किया । पर 2004 में विदर्भ के लोग भी मुझसे कहते थे ये आंध्र में हो रहा होगा विदर्भ में ऐसा कुछ नहीं होता । पर सरकारी आंकडे ही बताते हैं कि 90 के दशक से ही विदर्भ में आंध्र से दुगुनी किसान आत्महत्याएं हो रही हैं” ।
अब के. नागराज भी अपने अवकाश से वापस आ गए थे । मेरे पहले प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा “मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ के आंकडे एक साथ नहीं हैं पर मेरा अध्ययन 1997 से है जब छत्तीसगढ बना नहीं था इसलिए मैं अपनी सुविधा के लिए मध्यप्रदेश के साथ छत्तीसगढ के आंकडे जोड देता हूं । सारे पत्रकार मुझे ही कोट करते रहते हैं जहां से मैं आंकडे लेता हूं वहां नहीं जाते । पर आपका यह सोचना गलत है कि सारी किसान आत्महत्याएं मध्यप्रदेश में हो रही है पिछले कई सालों में छत्तीसगढ में किसान आत्महत्याएं मध्यप्रदेश से भी अधिक हुई हैं । 2006 के आंकडे के अनुसार मध्यप्रदेश में 1375 किसानों ने आत्महत्या की तो छत्तीसगढ के लिए यह आंकडा 1483 का है” ।
श्री नागराज ने कहा “छत्तीसगढ के आंकडों को देखकर पहले मैं भी हैरान था । मुझे लगता था कि उत्तरप्रदेश और बिहार की तरह छत्तीसगढ से भी किसान पलायन करते हैं तो वहां किसान आत्महत्याएं कम होंगी । और यदि आप कह रहे हैं कि यह आंकडे गलत हैं तो फिर तो सारे प्रदेशों के आंकडे झूठे होंगे क्योंकि प्रत्येक प्रदेश के लिए आंकडों का स्रोत एक ही है । जहां तक मेरी समझ है ये आंकडे दर असल सच्चाई से कम हैं । उदाहरण के तौर पर यदि किसी किसान ने आत्महत्या की पर उसके नाम पर कोई खेत नहीं है तो उस आत्महत्या को किसान की आत्महत्या के रूप में दर्ज़ नहीं किया जाता । किसानों की आत्महत्या का वास्तविक आंकडा तो इससे भी कहीं अधिक होगा” ।
सन 2001 से छत्तीसगढ में हुई किसान आत्महत्या के आंकडों के लिए मैंने राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो से सम्पर्क किया तो उन्होंने मुझे आंकडे दे दिए ( बाक्स देखें) और वहां के अधिकारियों ने मुझसे कहा यदि आपको हमारे आंकडों पर विश्वास नहीं है तो अपने प्रदेश की पुलिस से पूछिए । सारे आंकडे हमें राज्यों की पुलिस ही देती है” ।
पी साईनाथ कहते हैं “छत्तीसगढ और मध्यप्रदेश की किसान आत्महत्याओं पर इस खामोशी के लिए न सिर्फ वहां के पत्रकार बल्कि एक्टिविस्ट भी दोषी है” ।
दोनों प्रदेशों के लिए यह चुनाव का साल है । क्या चुनाव के इस साल में यह खामोशी टूटेगी?