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यदि अस्थमा प्रबंधन सही हो तो सामान्य जीवन संभव है
यदि अस्थमा या दमा का सही चिकित्सकीय प्रबंधन, इलाज और देखभाल मिले तो सामान्य जीवनयापन संभव है. चूँकि ज़रूरतमंद लोगों को सही अस्थमा प्रबंधन, इलाज और देखभाल समय पर नहीं मिलती इसीलिए अस्थमा के कारणवश चिकित्सकीय आपात स्थिति होने का खतरा बढ़ जाता है और मृत्यु तक हो सकती है. अस्थमा या दमा से बच्चे और व्यसक सभी देशों में प्रभावित होते हैं परन्तु अस्थमा से अधिकाँश मृत्यु विकाशसील देशों में ही होती हैं. दुनिया में कुल अस्थमा-मृत्यु में से 50% तो भारत में ही होती हैं. विश्व अस्थमा दिवस पर ऑस्ट्रेलिया के न्यू साउथ वेल्स यूनिवर्सिटी के श्वास रोग विशेषज्ञ और इंटरनेशनल यूनियन अगेंस्ट ट्यूबरक्लोसिस एंड लंग डिजीज के अंतर्राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रोफेसर (डॉ) गाए मार्क्स और किंग जार्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय के श्वास रोग विशेषज्ञ और भारतीय अस्थमा एलर्जी और एप्लाइड इमयूनोलाजी कॉलेज के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रोफेसर (डॉ) सूर्य कान्त ने अस्थमा के कुशल प्रबंधन और सही देखभाल पर जोर दिया.
बिना स्वस्थ पर्यावरण के जन-स्वास्थ्य मुमकिन नहीं
[English] पर्यावरण के निरंतर पतन से जन स्वास्थ्य को भी चिंताजनक क्षति पहुँच रही है। डॉ ईश्वर गिलाडा जो पर्यावरण और श्वास-सम्बंधी रोगों पर हो रहे 24वें राष्ट्रीय अधिवेशन (नेसकॉन 2018) के सह-अध्यक्ष हैं ने कहा कि यदि राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 के लक्ष्य पूरे करने हैं तो पर्यावरण और श्वास सम्बंधी रोगों में अंतर-सम्बंध को समझना ज़रूरी है.
अस्थमा (दमा) नियंत्रण में सहायक है योग
सिटिज़न न्यूज सर्विस - सीएनएस
लखनऊ विश्वविद्यालय के सहयोग से तथा किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी (केजीएमयू) के रेस्पिरेटरी मेडिसिन विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर सूर्यकांत के मार्गदर्शन में किए गए एक शोध अध्ययन में पाया गया कि प्रमाणित चिकित्सीय उपचार के साथ प्रतिदिन तीस मिनट के योगाभ्यास के द्वारा अस्थमा रोगियों के एंटीऑक्सीडेंट के स्तर में बढ़ोत्तरी होती है, फेफड़ों की कार्यक्षमता में सुधार आता है, तथा दवा की खुराक कम हो जाती है, जिसके चलते उनके दैनिक जीवन की गुणवत्ता में सुधार होता है । प्रत्येक वर्ष एक मई को विश्व अस्थमा दिवस मनाया जाता है। अस्थमा श्वास नली या फेफड़ों के वायुमार्ग की एक दीर्घकालिक बीमारी है। श्वास नली के द्वारा हवा फेफड़ों के अंदर और बाहर आती-जाती है।
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प्रोफेसर सूर्यकांत |
[पॉडकास्ट] जन-स्वास्थ्य इस सप्ताह: टीबी और हार्ट अटैक पर नयी मार्गदर्शिकाएं, अस्थमा और तम्बाकू निषेध दिवस, और मेक्सिको में ट्रेकोमा उन्मूलन
[पॉडकास्ट सुने या डाउनलोड करें] जन स्वास्थ्य इस सप्ताह, सीएनएस की साप्ताहिक पॉडकास्ट सीरीज है जो पिछले सप्ताह से 5 मुख्य जन स्वास्थ्य सम्बन्धी न्यूज़ प्रस्तुत करती है. इस सप्ताह 5 मुख्य जन-स्वास्थ्य सम्बन्धी समाचार इस प्रकार हैं: मेक्सिको में trachoma उन्मूलन का सपना पूरा; हार्ट अटैक पर भारत की पहली राष्ट्रीय मार्गदर्शिका जारी; विश्व स्वास्थ्य संगठन की टीबी मार्गदर्शिका जारी; विश्व अस्थमा दिवस 2017; विश्व तम्बाकू निषेध दिवस 2017. [पॉडकास्ट सुने या डाउनलोड करें]
हर जरूरतमंद को जब तक दमा (अस्थमा) इलाज नहीं मिलेगा, तब तक कैसे पूरे होंगे राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 के लक्ष्य?

गंभीर जन स्वास्थ्य चुनौती हैं फेफड़े सम्बंधित रोग
भारत में फेफड़े सम्बंधित रोगों के बढ़ते हुए दर ने जन-स्वास्थ्य के समक्ष एक गंभीर चुनौती उत्पन्न कर दी है. यदि मजबूत, पर्याप्त और समोचित कदम नहीं उठाये गए तो स्वच्छ हवा और स्वस्थ फेफड़े हम लोगों के लिए दुर्लभ हो जायेंगे. 18वें फेफड़े रोगों पर राष्ट्रीय अधिवेशन (नेपकॉन 2016) के आयोजक अध्यक्ष, डायरेक्टर प्रोफेसर (डॉ) केसी मोहंती ने बताया, कि “हाल ही में उत्तर-केन्द्रीय भारत में, ‘स्मोग’ ने आम जन-जीवन कुंठित कर दिया था और उसका अत्याधिक आर्थिक व्यय भी सबको उठाना पड़ा था. यह जन स्वास्थ्य के लिए अत्यंत जरुरी है कि आकस्मिक ठोस कदम लिए जाएँ जिससे कि सभी जन मानस स्वच्छ हवा में स्वस्थ फेफड़े से सांस ले और पूर्ण रूप से देश निर्माण में सहयोग कर सके.”
७०वें नैटकान में टीबी और श्वास रोगों के नियंत्रण का आह्वान
सिटीजन न्यूज सर्विस - सीएनएस [English]
२१ फरवरी २०१६ को ७०वें टीबी और अन्य श्वास सम्बन्धी रोगों के राष्ट्रीय अधिवेशन का समापन दिवस था.
किंग जार्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय के रेस्पिरेटरी मेडिसिन विभाग, राष्ट्रीय टीबी संगठन, और उत्तर प्रदेश टीबी संगठन के संयुक्त तत्वाधान में लखनऊ में २०-२१ फरवरी २०१६ के दौरान आयोजित हो रहा है ७०वां टीबी और अन्य श्वास सम्बन्धी रोगों पर राष्ट्रीय अधिवेशन (नैटकान).
२१ फरवरी २०१६ को ७०वें टीबी और अन्य श्वास सम्बन्धी रोगों के राष्ट्रीय अधिवेशन का समापन दिवस था.
किंग जार्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय के रेस्पिरेटरी मेडिसिन विभाग, राष्ट्रीय टीबी संगठन, और उत्तर प्रदेश टीबी संगठन के संयुक्त तत्वाधान में लखनऊ में २०-२१ फरवरी २०१६ के दौरान आयोजित हो रहा है ७०वां टीबी और अन्य श्वास सम्बन्धी रोगों पर राष्ट्रीय अधिवेशन (नैटकान).
नैटकान से पूर्व ४ चिकित्सकीय कार्यशालाओं में १०० से अधिक विशेषज्ञों ने भाग लिया
सिटीजन न्यूज सर्विस, सीएनएस [English]
लखनऊ में होने वाले ७०वें टीबी और अन्य श्वास सम्बन्धी रोगों पर राष्ट्रीय अधिवेशन (नैटकान) से पूर्व, १०० से अधिक टीबी और अन्य श्वास सम्बन्धी विशेषज्ञों ने ४ चिकित्सकीय कार्यशालाओं में भाग लिया. यह ४ विशेष कार्यशालाएं इन मुद्दों पर केन्द्रित रहीं: टीबी (आधुनिक जांच, पुनरीक्षित राष्ट्रीय टीबी नियंत्रण कार्यक्रम, दवा प्रतिरोधक टीबी, नॉन-इनवेसिव वेंटिलेशन, स्लीप स्टडी, और पीऍफ़टी.
लखनऊ में होने वाले ७०वें टीबी और अन्य श्वास सम्बन्धी रोगों पर राष्ट्रीय अधिवेशन (नैटकान) से पूर्व, १०० से अधिक टीबी और अन्य श्वास सम्बन्धी विशेषज्ञों ने ४ चिकित्सकीय कार्यशालाओं में भाग लिया. यह ४ विशेष कार्यशालाएं इन मुद्दों पर केन्द्रित रहीं: टीबी (आधुनिक जांच, पुनरीक्षित राष्ट्रीय टीबी नियंत्रण कार्यक्रम, दवा प्रतिरोधक टीबी, नॉन-इनवेसिव वेंटिलेशन, स्लीप स्टडी, और पीऍफ़टी.
लखनऊ में होगा ७०वां टीबी और अन्य श्वास सम्बन्धी रोगों पर राष्ट्रीय अधिवेशन
सिटीजन न्यूज सर्विस, सीएनएस [English]
किंग जार्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय के रेस्पिरेटरी मेडिसिन विभाग, राष्ट्रीय टीबी संगठन, और उत्तर प्रदेश टीबी संगठन के संयुक्त तत्वाधान में लखनऊ में २०-२१ फरवरी २०१६ के दौरान आयोजित हो रहा है ७०वां टीबी और अन्य श्वास सम्बन्धी रोगों पर राष्ट्रीय अधिवेशन (नैटकान). १९ फरवरी २०१६ को एक-दिवसीय अधिवेशन से पूर्व ४ विशेष कार्यशालाएं आयोजित होंगी. १० साल के पश्चात् नैटकान लखनऊ में आयोजित हो रही है (६० वां नैटकान अधिवेशन २००६ में संपन्न हुआ था).
किंग जार्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय के रेस्पिरेटरी मेडिसिन विभाग, राष्ट्रीय टीबी संगठन, और उत्तर प्रदेश टीबी संगठन के संयुक्त तत्वाधान में लखनऊ में २०-२१ फरवरी २०१६ के दौरान आयोजित हो रहा है ७०वां टीबी और अन्य श्वास सम्बन्धी रोगों पर राष्ट्रीय अधिवेशन (नैटकान). १९ फरवरी २०१६ को एक-दिवसीय अधिवेशन से पूर्व ४ विशेष कार्यशालाएं आयोजित होंगी. १० साल के पश्चात् नैटकान लखनऊ में आयोजित हो रही है (६० वां नैटकान अधिवेशन २००६ में संपन्न हुआ था).
दमा नियंत्रित रख कर सामान्य जीवन जिया जा सकता है
अस्थमा प्रबंधन से सामान्य जीवन मुमकिन
शोभा शुक्ला - सीएनएस
[English] अस्थमा या दमा एक आम गैर-संक्रामक रोग है जिससे 30 करोड़ से अधिक लोग विश्व में जूझ रहे हैं। भारत में 3 करोड़ लोग अस्थमा के साथ जीवित हैं। बच्चों में अस्थमा सबसे प्रचलित गैर-संक्रामक रोग है। अनेक देशों में अस्थमा दर दोगुना तक हो गया है। यदि अस्थमा का प्रबंधन और नियंत्रण पर्याप्त रूप से हो तो उसके साथ सामान्य ज़िंदगी बिताई जा सकती है और व्यावसायिक रूप से भी सफलता पायी जा सकती है। यही केन्द्रीय विचार था इन्दिरा नगर में आयोजित मीडिया संवाद का जिसको विश्व अस्थमा दिवस के उपलक्ष्य में स्वास्थ्य को वोट अभियान, सीएनएस, आशा परिवार और जन आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय ने आयोजित किया था।
[English] अस्थमा या दमा एक आम गैर-संक्रामक रोग है जिससे 30 करोड़ से अधिक लोग विश्व में जूझ रहे हैं। भारत में 3 करोड़ लोग अस्थमा के साथ जीवित हैं। बच्चों में अस्थमा सबसे प्रचलित गैर-संक्रामक रोग है। अनेक देशों में अस्थमा दर दोगुना तक हो गया है। यदि अस्थमा का प्रबंधन और नियंत्रण पर्याप्त रूप से हो तो उसके साथ सामान्य ज़िंदगी बिताई जा सकती है और व्यावसायिक रूप से भी सफलता पायी जा सकती है। यही केन्द्रीय विचार था इन्दिरा नगर में आयोजित मीडिया संवाद का जिसको विश्व अस्थमा दिवस के उपलक्ष्य में स्वास्थ्य को वोट अभियान, सीएनएस, आशा परिवार और जन आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय ने आयोजित किया था।
प्रोफेसर राजेन्द्र प्रसाद, दिल्ली के पटेल चेस्ट इंस्टिट्यूट के निदेशक नियुक्त
[English] प्रोफेसर राजेन्द्र प्रसाद वल्लभ भाई पटेल चेस्ट इन्स्टीट्यूट, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली के निदेशक के पद पर नियुक्त किये गये हैं और उन्होने संस्थान के निदेशक पद का कार्यभार ग्रहण कर लिया है। इससे पूर्व वह उत्तर प्रदेश ग्रामीण आयुर्विज्ञान एवं अनुसंधान संस्थान, सैफई के निदेशक के पद पर तथा के॰ जी॰ चिकित्सा विश्वविद्यालय, लखनऊ के पल्मोनरी मेडीसिन विभाग के विभागाध्यक्ष पद पर भी कार्यरत रहें हैं। प्रोफेसर प्रसाद ने 1974 में एम. बी. बी. एस. और 1979 में एम. डी. की उपाधि केव्म् जीव्म् मेडीकल कॉलेज, लखनऊ से ग्रहण की। इसके अतिरिक्त इन्होंने जापान से पल्मोनरी मेडिसिन, फाइबर-ऑप्टिक ब्रोन्कोस्कोपी और फेफड़ें के कैंसर में उच्च प्रशिक्षण भी प्राप्त किया।
क्या आपके फेफड़े संक्रमण से सुरक्षित हैं ?
जीवित रहने के लिए सांस लेना अहम है और सांस लेने के लिए स्वस्थ फेफड़े का होना बहुत आवश्यक है। परन्तु विश्व भर में सैकड़ों लाखों लोग प्रतिवर्ष फेफड़े संबंधी रोग जैसे टीबी, अस्थमा, निमोनिया, इन्फ़्लुएन्ज़ा, फेफड़े का कैंसर और फेफड़े सम्बन्धी अन्य दीर्घ प्रतिरोधी विकारों से पीड़ित होते हैं और लगभग 1 करोड़ व्यक्ति मृत्यु को प्राप्त होते हैं। फेफड़ों के रोग हर देश व सामाजिक समूह के लोगों को प्रभावित करते हैं, लेकिन गरीब, बूढ़े, युवा और कमजोर व्यक्ति पर जल्दी असर डालते हैं. फेफड़ों में फैलने वाले इन संक्रमणों के बारे में लोगों के बीच जानकारी का अभाव है। प्रदूषित वातावरण, घर के भीतर का प्रदूषण (जैसे: लकड़ी, कंडे या कोयले को जला कर खाना पकाना), धूम्रपान, तम्बाकू आदि कई कारणों से फेफड़े संबंधी रोगियों की संख्या दिन प्रति दिन बढ़ती जा रही है। परन्तु यदि उचित जीवन शैली और धूम्रपान मुक्त वातावरण बनाया जाये तो फेफड़े सम्बन्धी संक्रमणों को कम किया जा सकता है।
संक्रमण को बढ़ाता है घर के भीतर का वायु प्रदूषण
सम्पूर्ण विश्व में लगभग 3 अरब लोग, (जो अधिकांशत: कम आय वाले देशों में रहते हैं) खाना पकाने, रोशनी और तापने के लिए ठोस ईंधन पर निर्भर हैं। लकड़ी/कंडे/कोयला आदि जलाकर खाना पकाने वाले चूल्हे/अँगीठी के धुएँ में कार्बन मोनोऑक्साइड, और अन्य ऐसे हानिकारक तत्व होते हैं जो घर के अंदर की हवा के प्रदूषण स्तर को कई गुना अधिक बढ़ा देते है, जो विशेषकर बच्चों और महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए अत्यंत घातक है. अध्ययनों से पता चलता है कि घर के भीतर का वायु प्रदूषण सम्पूर्ण विश्व में कुल रोग के 2.7% भाग के लिए जिम्मेदार है तथा तीन तरह के फेफड़े संबंधी रोग के खतरों को बढ़ाता है (1) बच्चों में फेफड़े संबंधी श्वसन संक्रमण (2) महिलाओं में दीर्घ प्रतिरोधी फेफड़े का विकार (सी.ओ.पी.डी) तथा (3) कोयले के धुएं के संपर्क में आने से महिलाओं में फेफड़ों के कैंसर।
बढ़ रही है बाल दमा रोगीयों की संख्या
दमा रोग ब्रोन्कियल ट्यूबों (वायुमार्ग) की बीमारी है जिसमे आमतौर पर साँस लेने के दौरान घरघराहट या सीटी बजने की ध्वनि सुनाई देती है, खासकर जब साँस बाहर निकालते है. बच्चों में यह विशेषकर सांस की तकलीफ या खाँसी को जन्म देती है जिसके कई कारण हो सकते हैं। वास्तव में इसका कोई प्रमाणित कारण नहीं है कि क्यों अधिक से अधिक बच्चों में दमा रोग विकसित हो रहा है पर कुछ विशेषज्ञों का सुझाव है कि एलर्जी कारक जैसे धूल, वायु प्रदूषण, और परोक्ष धूम्रपान इसके प्रमुख कारण हैं। भारत में दमा रोग से 2.4 करोड़ लोग पीड़ित हैं।
राहुल कुमार द्विवेदी
लेखक ऑनलाइन पोर्टल www.hindi.citizen-news.org के लिए लिखता है।
प्रोफेसर नादिया जो इन्टर्नैशनल यूनियन अगेन्स्ट ट्युबरक्लोसिस एंड लंग डिज़ीज़ (द यूनियन) में अस्थमा पर सलहकार और ग्लोबल अस्थमा रिपोर्ट 2011 की सहलेखिका भी है का कहना है कि “अस्थमा का कारण अज्ञात है. केवल कुछ संभावित कारक ही हैं जो अस्थमा के विकास के लिए जिम्मेदार हैं: जेनटिक और एलर्जी। कुछ अन्य कारक अस्थमा के विकास में योगदान देते है जैसे घर के अंदर का प्रदूषण, बाहर का प्रदूषण, व्यायाम, मौसम में बदलाव, कुछ मामलों में विशिष्ट खाद्य और गैर-स्टेरायडल ऐंटी इन्फ्लैमटॉरी दवाएं”।
ज्यादातर लोग बच्चों में दमा के लक्षणों को जैसे खाँसी, घरघराहट, और सांस की तकलीफ की अनदेखी करते है जो बच्चे के स्वास्थ्य के लिए खतरनाक होता है, पर यदि उचित ध्यान रखा जाये तो 70 प्रतिशत दमा रोगी बच्चों में लक्षणों को नियंत्रित किया जा सकता है, और 12 साल की उम्र तक हो सकता है कि लक्षण गायब हो जाये। दमा रोग के नियंत्रण का सही उपाय इन्हेलर है जिसका कोई प्रतिकूल प्रभाव भी नहीं होता है। द यूनियन के फेफड़े-रोग विभाग के निदेशक डॉ चियांग चेन युआन के अनुसार “इन्हेलर के द्वारा कार्टिको-स्टीरोइड को श्वास द्वारा अंदर लेने से अधिकांश दमा रोगी दमे को नियंत्रित कर सकते है। पर यह दुर्भाग्य की बात है कि अधिकांस दमा रोगी कार्टिको-स्टीरोइड को इन्हेलर के द्वारा नहीं ले पाते हैं। एक शोध के अनुसार केवल 20% से कम दमा रोगी कार्टिको-स्टीरोइड इन्हेलर के द्वारा ले पाते हैं”। चूंकि दमा रोग को ठीक नहीं किया जा सकता है, इसके लक्षणों को नियंत्रित करना ही एक मात्र उचित उपाय है अतः बच्चों में जल्दी से जल्दी इस रोग के लक्षणों की पहचान और उसका परीक्षण दमा से बचाव के लिए अत्यंत आवश्यक हैं। दमा रोग के कारण प्रतिदिन लाखों बच्चे स्कूल, पढाई और खेलकूद आदि जैसे तमाम चीजों को छोडते हैं।
डॉ करेन बीस्सेल्ल जो अस्थमा ड्रग्स फेसिलिटी की डिप्टी डाइरेक्टर है, का कहना है कि “विशेष रूप से कम आय वाले देशों में अस्थमा पर पर्याप्त डेटा नहीं है, लेकिन हाल ही में जो डेटा कम आय वाले देशों से एकत्र किया गया है से पता चलता है कि समय के साथ वहाँ बच्चों में विशेष रूप से दमा रोग के प्रसार में वृद्धि हुई है. पर कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि इसका कारण शहरीकरण है, जैसा कि पिछले दो दशकों में शहरीकरण की प्रक्रिया में तेजी से विकास हुआ है जिसके फलस्वरूप वातावरण प्रदूषण बढ़ा है”। हालांकि बच्चों में यह समान रूप से लड़कियों और लड़कों को प्रभावित करता है, लेकिन लड़कियों की तुलना में थोड़ा अधिक लड़कों को प्रभावित करता है. प्रोफेसर नादिया का कहना है कि “बच्चों में दमा रोग की घटना वयस्कों की तुलना में अधिक है. बच्चों में दमा रोग लड़कियों की तुलना में लड़कों में अधिक और वयस्कों में महिलाओं में अधिक होता है”।
छत्रपति शाहुजी महाराज चिकित्सा विश्वविद्यालय के पलमोनरी मेडिसिन विभाग के विभागाअध्यक्ष प्रोफेसर (डॉ) सूर्य कान्त का कहना है कि दमे की शुरुआत मूल रूप से बचपन में होती है. वास्तव में तीन चौथाई से अधिक मामलों में बचपन से शुरू होती है, चूंकि यह एक आजीवन बीमारी है जो वयस्कता में भी जारी रहती है. प्रायः 50% दमा रोगी बच्चे या वें बच्चे जो, घरघराहट, नाक रुकावट, सीने में जकड़न, सांस लेने में तकलीफ़ आदि लक्षणों की शिकायत करते हैं, आमतौर पर 12 साल की उम्र से राहत पाने लगते हैं. अतः प्राथमिक रोकथाम की शुरुआत जब बच्चा गर्भ में हो तभी से कर देनी चाहिए है. यदि माँ को दमा है, तो एक तिहाई ऐसे मामलों में गर्भावस्था के दौरान रोग बढ़ाने की संभावना होती है. तो ऐसी स्थिति में माँ को और अधिक सतर्क हो जाना चाहिए, और डॉक्टर से सलाह लेनी चाहिए और नियमित तौर पर इनहेलर का प्रयोग करना चाहिए. अगर उसके फेफड़ों का कार्य बिगड़ा और उसके शरीर में ऑक्सीजन की कमी आयी तो शिशु में भी ऑक्सीजन की कमी होगी. ऐसी माँओ को फास्ट फूड से बचना चाहिए क्योंकि यह दमा रोग को बढ़ता है। फास्ट फूड भी बच्चों में दमा रोग वृद्धि का एक प्रमुख कारण है. हाल ही में दिल्ली में किये गये अध्ययन के अनुसार वहाँ 16% स्कूल जाने वाले बच्चे दमा रोग से पीड़ित हैं जबकि हम मानते है की भारत में 3-5% लोगों को दमा है. इस सब की वजह फास्ट फूड बर्गर, कोल्ड ड्रिंक, पेस्ट्री, चाउ मीन, पिज्जा, और डिब्बा बंद भोजन/ जूस आदि हैं.
हाल ही में किए गए एक अध्ययन के अनुसार सामान्य रूप पैदा हुए बच्चों की तुलना में सीज़ेरियन विधि से पैदा हुए बच्चों में दमा होने की संभावना अधिक होती है, चाहे माँ को दमा हो या न हो. यह कहा जाता है कि योनि का तरल पदार्थ शिशु के शरीर में प्रतिरोधक क्षमता का विकास करता है और उसे दमा सहित अन्य रोगों से बचाता है. ठंडा-गरम और ए.सी कार/कमरे में रहने के बाद गरम धूप में निकलना या गरम धूप से ए.सी कार/कमरे में जाना आदि भी अस्थमा रोग को बढ़ते हैं। अतः यदि किसी को नाक की एलर्जी है तो उसका सही तरीके से इलाज कराना चाहिये क्योंकि बाद में यह अस्थमा का रूप धारण कर सकता हैं
राहुल कुमार द्विवेदी
लेखक ऑनलाइन पोर्टल www.hindi.citizen-news.org के लिए लिखता है।
दमा को अपने दम से वश में कीजिये
42 वर्षीय राशिद अली, एक मध्यमवर्गीय परिवार से हैं और लखनऊ में जरदोज़ी के काम का बिजनेस करते हैं। 1990 में उन्हें टीबी हो गई थी जिसका 18 महीने तक इलाज चला था। पिछले 8 सालों से दमा (अस्थमा) से ग्रस्त होने के बावजूद वे एक सामान्य जीवन बिता रहे हैं। उन्होने बताया कि, ‘मैं अब बिलकुल ठीक हूँ, और रोज़मर्रा की ज़िंदगी में मुझे कोई परेशानी नहीं है। इसके लिए मैं अपने डाक्टर का शुक्रगुजार हूँ, जिनके सही इलाज और उम्दा देखरेख की वजह से ही मैं अपने दमे पर काबू पा सका हूँ। उन्होने मुझे एक इन्हेलर दिया है जिसका अब मुझे कभी कभार ही इस्तेमाल करना पड़ता है। शुरू शुरू में ज़्यादा इस्तेमाल करना पड़ता था। उन्होने मुझे कभी खाने की गोली नहीं दी। इन्हेलर के जरिये ही दवा मेरी साँस की नली में जाती है। इसमें तकरीबन हर महीने 150 रुपये का खर्च आता है। मैं और मेरे घरवाले खुदा के शुक्रगुजार हैं कि मुझे एक उम्दा डाक्टर से सही इलाज मिल सका”।
राशिद भाई दुनिया भर में अस्थमा (दमा) से जूझ रहे 23.5 करोड़ लोगों में से एक हैं। वैश्विक स्तर पर प्रत्येक 250 मौतों में एक का कारण अस्थमा ही है। भारत में दमा के लगभग 240 लाख रोगी हैं, जो विश्व भर के दमा रोगियों का 10% है। भारतीय बच्चों में 2% से लेकर 12% बच्चे इस श्वास रोग से प्रभावित हैं। अस्थमा एक यूनानी शब्द है, जिसका अर्थ होता है ‘साँस का फूलना’। दमा रोग के मुख्य लक्षण हैं खाँसी और साँस का फूलना जो ऐलर्जी पैदा करने वाले तत्वों के कारण भीषण रूप धारण कर लेते हैं। अनुवांशिक कारणों के अलावा अनेक ऐसे बाहरी तत्व हैं, जो फेफड़े के अंदर एलर्जी पैदा करके अस्थमा के लक्षणों को तीव्र कर देते हैं, जैसे फूल के पराग कण, धूल, सिगरेट का धुआँ, ट्रैफिक का धुआँ, आदि। इसके साथ ही मानसिक तनाव, कुछ खाड़ी पदार्थ, मोटापा, मौसम में बदलाव भी अस्थमा के कारण हो सकते हैं।
चूँकि अस्थमा के लक्षण अन्य श्वास रोगों, जैसे टीबी, से मिलते जुलते हैं, इसलिए इस रोग की सही पहचान करने में अक्सर बाधा आती है, (विशेषकर बच्चों में), जिसके कारण इस रोग का उपचार या तो हो ही नहीं पाता या विलंब से होता है। लखनऊ के वरिष्ठ चेस्ट रोग विशेषज्ञ डा बी बी सिंह जी के अनुसार, “यदि बच्चे को निरंतर खांसी और श्वासनली के ऊपरी भाग का संक्रमण हो तो अक्सर चिकित्सक उसे गलती से प्राइमरी कांप्लेक्स समझ कर टीबी का इलाज शुरू कर देते हैं। यह बेहद चिंता का विषय है, क्योंकि इस प्रकार न केवल रोग की गलत पहचान होती है, वरन दवा का दुरुपयोग भी होता है”।
अस्थमा का इलाज तो मुमकिन नहीं है, परंतु इसका नियंत्रण सहजता से संभव है। अत: अस्थमा के बारे में लोगों को उचित जानकारी दे कर जागरूक करने की आवश्यकता है, ताकि वे एक स्वस्थ और सामान्य जीवन जी सकें। डा सिंह का कहना है कि, “समस्या यह है कि जन साधारण में अस्थमा संबधित पर्याप्त जागरूकता का अभाव है और अधिकांश अस्थमा रोगियों को उच्च कोटी की उचित चिकित्सीय सुविधाएं उपलब्ध नहीं हो पाती हैं। मुंबई में हुए एक शोध के अनुसार अनेक चिकित्सकों में भी अस्थमा संबंधी इलाज एवं नियंत्रण के बारे में पर्याप्त ज्ञान नहीं था। अस्थमा का सही नियंत्रण इन्हेलर के द्वारा ही संभव है। इन्हेलर प्रणाली द्वारा कोर्टिकोस्टीरोयड दवा को श्वास में अंदर लेने से दमा पूर्ण रूप से नियंत्रित रहता है और इन्हेलर के दीर्घकालीन सेवन से भी न तो कोई विपरीत लक्षण (साइड इफेक्ट) होते हैं न ही इसका नशा होता है। द यूनियन के फेफड़े विभाग के निदेशक डा चियांग सेन युआन के अनुसार, “इन्हेलर के जरिये कोर्टिकोस्टीरोयड को श्वास में अंदर लेने से अधिकांश रोगी अस्थमा को नियंत्रित कर एक सामान्य जीवन व्यतीत कर सकते हैं। परंतु दुर्भाग्य की बात है कि अधिकांश अस्थमा रोगियों को इन्हेलर कोर्टिकोस्टीरोयड उपलब्ध नहीं है। एक शोध के अनुसार विश्व भर के 20% से भी कम अस्थमा के रोगी इस सर्वोत्तम अस्थमा नियंत्रक प्रणाली का लाभ उठा पाते हैं। अनेक विकासशील देशों में या तो ये इन्हेलर बहुत महँगे हैं या फिर जनसाधारण एवं चिकित्सकों को इनके बारे में उचित जानकारी नहीं है”।
भारत में भी 70% से अधिक रोगी खाने वाली गोली के रूप में अस्थमा की दवा का प्रयोग करते हैं, जो इन्हेलर के समान असरदार नहीं होती है और जिसके खतरनाक साइड इफेक्ट होते हैं। डा सिंह के अनुसार इसका मुख्य कारण है रोगियों और चिकित्सकों में समुचित जानकारी का अभाव, तथा जन साधारण में अस्थमा को लेकर प्रचलित भ्रांतियाँ जैसे इन्हेलर की लत पड़ जाती है, इसके विपरीत प्रभाव होते हैं, इसका नियमित इस्तेमाल मुश्किल है, आदि। वास्तविकता तो यह है कि इन्हेलेशन थेरेपी में दवा की मात्रा बहुत कम (माइक्रो ग्राम) होती है तथा इन्हेलर के द्वारा यह सारी की सारी औषधि सीधे फेफड़ों में पहुँचती है जहाँ उसकी आवश्यकता होती है। शरीर के बाकी अंग उसके प्रभाव से अछूते रहते हैं। फिर साइड इफेक्ट का तो प्रश्न ही नहीं उठता। इसके विपरीत गोली के रूप में मुँह से दवा खाने पर, उसमें औषधि की मात्रा तो 10 गुना अधिक (मिलीग्राम में) होती है, परंतु केवल 1% दवा ही फेफड़ों में पहुँच पाती है और बाकी रक्त में मिल कर शरीर के अन्य हिस्सों में पहुँच कर उन्हें नुकसान पहुंचाती है। इससे खाने वाली दवा का असर भी कम होता है और साइड इफेक्ट भी कहीं ज़्यादा होते हैं। यह बात दमा के रोगियों को समझना बहुत ज़रूरी है।
छत्रपती शाहूजी महाराज चिकित्सा विश्वविद्यालय के पलमोनरी मेडिसिन विभाग के प्रमुख प्रोफेसर (डा) सूर्यकांत के अनुसार, “इन्हेलर द्वारा की जाने वाली चिकित्सा प्रणाली पर प्रति दिन मात्र 4-5 रुपये का खर्च आता है, इसलिए अस्थमा का इन्हेलर द्वारा उपचार बहुत ही सस्ता है। इन्हेलर हमारे चश्मे की तरह हैं। जिस प्रकार आँखें कमजोर हो जाने पर हम बेझिझक चश्मा पहनते हैं, उसी प्रकार श्वासनली कमजोर हो जाने पर हमें इन्हेलर का नियमित इस्तेमाल करने में कोई झिझक नहीं होनी चाहिए। जैसे हम रोज़ अपने दाँतों को टूथपेस्ट से साफ करते हैं, उसी प्रकार अस्थमा के रोगी को सुबह शाम इन्हेलर का प्रयोग करके एक सामान्य जीवन जीना चाहिए। इसके साथ साथ जल नेति (पानी से नाक के अंदर की सफाई) करने से अस्थमा को बढ़ावा देने वाले एलर्जी तत्व साफ हो जाते हैं।”
उचित उपचार करने के साथ साथ अस्थमा के रोगी को ऐसे कारणों से बचना चाहिए जिनसे अस्थमा तीव्र हो सकता है, जैसे तंबाकू/सिगरेट का धुआँ, धूल, पराग कण, मानसिक तनाव, अधिक परिश्रम, आदि। यदि अस्थमा नियंत्रण प्रभावकारी और व्यवस्थित ढंग से अविलम्ब नहीं किया गया तो इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। न केवल अस्थमा रोगी को एक स्वस्थ और सामनी जीवन-यापन करने का अधिकार है, वरन अस्थमा नियंत्रण सरल भी है, यदि इसे सुचारु रूप से लागू किया जाय। यूनियन की सलाहकार प्रोफेसर नादिया के शब्दों में, “समय रहते अस्थमा का निदान तथा दीर्घ कालिक प्रबंधन करके हम न केवल अस्थमा रोगियों को एक आम और स्वस्थ सामाजिक एवं व्यावसायिक जीवन प्रदान कर सकते हैं, वरन अस्पताल और दवा पर हो रहे उनके निजी और सरकारी अनावश्यक आर्थिक खर्चों को भी कम कर सकते हैं”।
शोभा शुक्ला -सी.एन.एस
अस्थमा/ दमा कार्यक्रम की अब और न उपेक्षा हो
इंटरनेशनल यूनियन अगेन्स्ट टूबेर्कुलोसिस अँड लंग डीसीज़ (द यूनियन) की ‘ग्लोबल अस्थमा रिपोर्ट 2011’ के अनुसार बच्चों की दीर्घकालिक बीमारियों में से सबसे अधिक अनुपात अस्थमा/ दमा का है। विश्व में 23.5 करोड़ लोग अस्थमा से प्रभावित हैं। 'द यूनियन' के निदेशक डॉ निल्स बिल्लो के अनुसार “अस्थमा नियंत्रण न करने के कारण जो संसाधन व्यर्थ जाते हैं और जितनी पीड़ा लोगों को झेलनी पड़ती है उसकी कीमत प्रभावकारी अस्थमा नियंत्रण से कहीं ज्यादा है”।
अधिकांश अस्थमा के रोगी आकस्मिक चिकित्सा सेवा में ही आते हैं जब तीव्र अस्थमा अटैक पड़ता है। यदि अस्थमा के रोगियों के पास गुणात्मक दृष्टि से उत्तम और आर्थिक रूप से वहन करने योग्य कीमत पर ‘इन्हेलर’ उपलब्ध हों तो अस्थमा नियंत्रित रह सकता है। परंतु अधिकांश अस्थमा से जूझ रहे लोगों तक गुणात्मक दृष्टि से उत्तम, प्रभावकारी और सस्ते ‘इन्हेलर’ नहीं पहुँचते। स्वास्थ्य प्रणाली में अस्थमा नियंत्रण से संबन्धित प्रशिक्षण और एक प्रभावकारी अस्थमा नियंत्रण कार्यक्रम का भी अभाव है।
भारत में अस्थमा: भारत में 2.4 करोड़ लोग अस्थमा से जूझ रहे हैं जिनमें से 11.8% तक बच्चे हैं। अस्थमा के सबसे समान लक्षण ख़ासी, सांस फूलना है जो एलर्जी पैदा करने वाले तत्वों से अधिक भीषण होता है। आनुवांशिक कारणों के अलावा अनेक बाहरी ऐसे तत्व हैं जो ऐलर्जी पैदा करने से अस्थमा को तीव्र करते हैं जैसे कि फूल का पोलन, धूल, तंबाकू धुआँ, लकड़ी के चूल्हे का धुआँ, ट्रेफिक धुआँ, और अन्य कारण जैसे कि मानसिक तनाव, विशेष भोजन सामग्री, ऐसिडिटी, मोटापा, मौसम बदलाव, आदि।
चूंकि अस्थमा के लक्षण अन्य रोग जैसे कि टीबी आदि से मिलते-जुलते हैं इसलिए अस्थमा की सही पहचान करने में अकसर बाधा आती है (विशेषकर बच्चों में) और अस्थमा की चिकित्सकीय पहचान, उपचार नहीं होता या विलंब से होता है। लखनऊ के वरिष्ठ चेस्ट रोग विशेषज्ञ डॉ बी.पी.सिंह के अनुसार “यदि बच्चे को निरंतर खांसी और श्वासनली के ऊपरी भाग का संक्रमण हो तो अकसर चिकित्सक उसे गलती से ‘प्राइमरी कॉम्प्लेक्स’ समझ कर टीबी का इलाज आरंभ कर देते हैं। यह बेहद चिंता का विषय है क्योंकि ऐसे केस में न केवल रोग की गलत पहचान हो जाती है बल्कि दवा का भी दुरुपयोग हो जाता है”।
अस्थमा का इलाज मुमकिन नहीं है परंतु इसका नियंत्रण सहजता से संभव है। इसीलिए अस्थमा के साथ जीवित लोगों की जागरूकता आवश्यक है जिससे कि वें स्वस्थ और सामान्य ज़िंदगी जी सकें। डॉ बी.पी.सिंह का कहना है कि “समस्या यह है कि आम लोगों में अस्थमा संबन्धित जागरूकता पर्याप्त नहीं है और अधिकांश अस्थमा रोगी ऐसे उपयुक्त अस्पताल जहां अस्थमा संबन्धित चिकित्सकीय सेवा सही से मिल पाये, तक नहीं पहुँच पाते। मुंबई में हुए शोध के अनुसार अनेक चिकित्सकों तक को अस्थमा का चिकित्सकीय इलाज/ नियंत्रण संबन्धित पर्याप्त ज्ञान नहीं था”।
‘इन्हेलर’: अस्थमा नियंत्रण का सही तरीका ‘इन्हेलर’ के जरिये है। कोर्टिको-स्टीरोइड को ‘इन्हेलर’ द्वारा श्वास में अंदर लेने से अस्थमा नियंत्रित रहता है, और यह ‘इन्हेलर’ का उपयोग नशा नहीं होता और कोई अन्य विपरीत लक्षण (साइड इफैक्ट) भी नहीं होता। द यूनियन के फेफड़े-रोग विभाग के निदेशक डॉ चियांग चेन युआन के अनुसार “‘इन्हेलर’ के जरिये कोर्टिको-स्टीरोइड को श्वास द्वारा अंदर लेने से अधिकांश अस्थमा रोगी अस्थमा नियंत्रित कर सकते हैं। दुर्भाग्य की बात है कि अधिकांश अस्थमा रोगी कोर्टिको-स्टीरोइड को ‘इन्हेलर’ द्वारा नहीं ले पाते। शोध के अनुसार 20% से कम अस्थमा रोगी कोर्टिको-स्टीरोइड को ‘इन्हेलर’ द्वारा ले पाते हैं”।
भारत में 70% से अधिक अस्थमा रोगी ओरल या मुख से दवा लेते है (और न कि ‘इन्हेलर’ से)। डॉ बी.पी.सिंह के अनुसार “भारत में अस्थमा रोगी अकसर कोर्टिको-स्टीरोइड को ‘इन्हेलर’ द्वारा श्वास में नहीं ले पाते हैं क्योंकि चिकित्सकीय परामर्श का अभाव है, लोग दवा नियमित नहीं लेते, या इस दवा से संबन्धित अनेक भ्रांतियाँ है जैसे कि इससे विपरीत लक्षण या साइड इफैक्ट होंगे आदि”।
अस्थमा देखभाल और नियंत्रण मुमकिन है: छत्रपति शाहूजी महाराज चिकित्सा विश्वविद्यालय के पलमोनरी मेडिसिन विभाग के प्रमुख प्रोफेसर (डॉ0) सूर्य कान्त के अनुसार “‘इन्हेलर’ द्वारा दी गयी दवा की कीमत रुपया 4-5 प्रति दिन आती है और अस्थमा इलाज इसीलिए सबसे सस्ते इलाजों में से एक है। ‘इन्हेलर’ चश्मे की तरह हैं, जैसे कि जिस व्यक्ति की आँख कमजोर हो वो चश्मा लगाता है उसी तरह जिस व्यक्ति की ‘ब्रोंकीयल नली’ कमजोर है वो ‘इन्हेलर’ का उपयोग करता है। जिस तरह हम लोग रोजाना दंत मंजन करते हैं उसी तरह अस्थमा रोगी को सुबह और शाम ‘इन्हेलर’ से दवा लेनी चाहिए। इससे अस्थमा नियंत्रण प्रभावकारी ढंग से हो पाएगा। जल-नेति करने से भी ऐलर्जी पैदा करने वाले तत्व साफ हो जाते हैं। अस्थमा रोगी को अन्य ऐसे कारण जिनसे अस्थमा तीव्र हो सकता है जैसे कि तंबाकू धुआँ, मानसिक तनाव, आदि से भी बचना चाहिए”।
हमारा मानना है कि यदि अस्थमा नियंत्रण प्रभावकारी और व्यवस्थित ढंग से बिना विलंब नहीं किया गया तो इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। न केवल अस्थमा रोगी को स्वस्थ और सामान्य जीवन-यापन करने का अधिकार है बल्कि अस्थमा नियंत्रण सरल भी है बशर्ते कार्यक्रम समुचित ढंग से लागू किया जाये।
बाबी रमाकांत - सी.एन.एस.
दमा नियंत्रण संभव है, पर अधिकांश लोगों की पहुँच के बाहर

बच्चों में दमा का अनुपात नि:संदेह चिंताजनक है. बच्चों में होने वाली दीर्घकालिक बीमारियों में दमा का अनुपात सबसे अधिक है. इंटरनैशनल यूनियन अगेंस्ट टुबेरकुलोसिस एंड लंग डिसीज़ (द यूनियन) के निदेशक डॉ नील्स बिल्लो का कहना है कि "जब दमा नियंत्रण के लिए उपचार और विधियाँ उपलब्ध हैं तो जरूरतमंद लोगों तक पहुँचने में विलम्ब क्यों हो रही है? यदि दमा का सही विधिवत उपचार न हो या दमा उपचार लोगों की पहुँच के बाहर हो, तो आम लोग कार्यस्थल या विद्यालय आदि नहीं पहुँच पाते हैं, अपने परिवार, समुदाय और समाज के विकास के लिए अपना सहयोग नहीं दे पाते हैं और अक्सर उनको आकस्मक चिकित्सकीय सहायता की जरुरत पड़ती है जो कहीं अधिक महंगी पड़ती है. हर जरूरतमंद दमा ग्रस्त व्यक्ति तक दमा की सेवाएँ पहुंचनी चाहिए."
विश्व में २३५ मिलियन लोगों को दमा है. इन लोगों को जब दमा का दौरा पड़ता है तो सामान्य सांस लेने के लिए अत्यंत संघर्ष करना पड़ता है जिसकी वजह से उनके जीवन की गुणात्मकता कम हो जाती है, विकृत हो जाती है और मृत्यु तक हो सकती है. यदपि दमा उपचार उपलब्ध है परन्तु अधिकाँश लोगों के पहुँच के बाहर है.
विश्व अस्थमा या दमा दिवस: अस्थमा या दमा नियंत्रण ज्यादातर देशों में असफल
दमा नियंत्रण ज्यादातर देशों में असफल है। विश्व के लगभग ३० करोड़ लोग अस्थमा या दमा की समस्या से ग्रसित हैं! अस्थमा या दमा की बीमारी व्यक्तिगत, पारिवारिक, तथा सामुदायिक तीनो स्तरों पर लोगों को प्रभावित करती है।
विश्व स्तर पर अस्थमा या दमा की समस्या पर प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक तमाम बाधाओं और चुनौतियों के बावजूद, अस्थमा या दमा नियंत्रण के विभिन्न कार्यक्रम तेज़ी से फ़ैल रहें हैं।
अस्थमा या दमा को यदि काबू में रखा जाए, और चंद बातों पर विशेष ध्यान दिया जाए, तो नि: संदेह इसका नियंत्रण सम्भव है।
अपर्याप्त और अध-कचरे अस्थमा या दमा नियंत्रण कार्यक्रमों की वजह से लोगों की जीवन शैली भी कुंठित होती दिखाई देती है।
उदाहरण के लिए विश्व में कई छेत्रों में हर चार में से एक अस्थमा या दमा से ग्रसित बच्चा स्कूल नही जा पाता है।
इस बार के विश्व अस्थमा या दमा दिवस का विषय है "आप अस्थमा या दमा पर नियंत्रण पा सकते हैं"।
इस विचार द्वारा यह बात साफ तौर पर जाहिर होती है कि अस्थमा या दमा की सही जांच, इलाज, और नियंत्रण की विधियाँ मौजूद हैं, परन्तु आवश्यकता है जागरूकता जिससे कि प्रभावकारी अस्थमा या दमा नियंत्रण के कार्यक्रम सफल हो सके।
अस्थमा नियंत्रण और प्रबंधन की विश्व स्तर पर निति २००७ के मुताबिक अस्थमा या दमा नियंत्रण का मतलब है कि:
- अस्थमा या दमा का कोई लक्षण न हो और व्यक्ति को अस्थमा या दमा के कारण रात में न टहलना पड़े
- अस्थमा राहत दवा या 'इन्हैलर' का उपयोग न करना पड़े (या न्यूनतम आवश्यकता हो)
- व्यक्ति सामान्य शारीरिक काम कर सकता हो।
- व्यक्ति को अस्थमा या दमा के दौरे बिल्कुल न पड़े या बहुत ही कम पड़े
कुछ लोग जो की अस्थमा से ग्रसित हैं उन लोगों ने कभी भी पर्याप्त अस्थमा की जांच नही करवाई है, इस वजह से उनमें अस्थमा के उपचार और उचित नियंत्रण होने की सम्भावना कम हो जाती है। अस्थमा या दमा के पर्याप्त और सही समय पर जांच न हो पाने की कई सारी वजह हैं। जैसे कि मरीजों में इसके बारे में पर्याप्त जानकारी न होना, स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं द्वारा सही समय पर इसकी पहचान न कर पाना और चिकित्सा व्यवस्था तक लोगों की व्यापक पहुँच न हो पाना इत्यादि।
विश्व के कई सारे देशों जैसे कि मध्य पूर्वी एशिया (गल्फ देशों में), मध्य अमरीका, दक्षिण एशिया, उत्तर पश्चिम और पूर्वी अफ्रीका इत्यादि में दमा के लिए आवश्यक दवाओं की उपलब्धता न होने के कारण स्थिति और भी अधिक गंभीर बन जाती है।
विश्व के कई देशों में जो लोग अस्थमा या दमा से ग्रसित है, उनमें वातावरण में व्याप्त प्रदुषण के कारण अस्थमा या दमा अधिक बिगड़ सकता है।
यदि हम अस्थमा नियंत्रण को प्रभावी बनाना चाहतें हैं तो हम सभी को इसकी प्रभावकारी नियंत्रण के लिए व्यापक नीतियाँ बनानी होगी और उस पर अमल भी करना होगा।
सी.एन.एस.
विश्व दमा दिवस पर विशेष: ४ मई २०१०
अस्थमा या दमा नियंत्रण ज्यादातर देशों में असफल
दमा नियंत्रण ज्यादातर देशों में असफल है।
विश्व के लगभग ३० करोड़ लोग अस्थमा या दमा की समस्या से ग्रसित हैं! अस्थमा या दमा की बीमारी व्यक्तिगत, पारिवारिक, तथा सामुदायिक तीनो स्तरों पर लोगों को प्रभावित करती है।
विश्व स्तर पर अस्थमा या दमा की समस्या पर प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक तमाम बाधाओं और चुनौतियों के बावजूद, अस्थमा या दमा नियंत्रण के विभिन्न कार्यक्रम तेज़ी से फ़ैल रहें हैं।
अस्थमा या दमा को यदि काबू में रखा जाए, और चंद बातों पर विशेष ध्यान दिया जाए, तो नि: संदेह इसका नियंत्रण सम्भव है।
अपर्याप्त और अध-कचरे अस्थमा या दमा नियंत्रण कार्यक्रमों की वजह से लोगों की जीवन शैली भी कुंठित होती दिखाई देती है।
उदाहरण के लिए विश्व में कई छेत्रों में हर चार में से एक अस्थमा या दमा से ग्रसित बच्चा स्कूल नही जा पाता है।
इस बार के विश्व अस्थमा या दमा दिवस का विषय है "आप अस्थमा या दमा पर नियंत्रण पा सकते हैं"।
इस विचार द्वारा यह बात साफ तौर पर जाहिर होती है कि अस्थमा या दमा की सही जांच, इलाज, और नियंत्रण की विधियाँ मौजूद हैं, परन्तु आवश्यकता है जागरूकता जिससे कि प्रभावकारी अस्थमा या दमा नियंत्रण के कार्यक्रम सफल हो सके।
अस्थमा नियंत्रण और प्रबंधन की विश्व स्तर पर निति २००७ के मुताबिक अस्थमा या दमा नियंत्रण का मतलब है कि:
- अस्थमा या दमा का कोई लक्षण न हो और व्यक्ति को अस्थमा या दमा के कारण रात में न टहलना पड़े
- अस्थमा राहत दवा या 'इन्हैलर' का उपयोग न करना पड़े (या न्यूनतम आवश्यकता हो)
- व्यक्ति सामान्य शारीरिक काम कर सकता हो।
- व्यक्ति को अस्थमा या दमा के दौरे बिल्कुल न पड़े या बहुत ही कम पड़े
कुछ लोग जो की अस्थमा से ग्रसित हैं उन लोगों ने कभी भी पर्याप्त अस्थमा की जांच नही करवाई है, इस वजह से उनमें अस्थमा के उपचार और उचित नियंत्रण होने की सम्भावना कम हो जाती है। अस्थमा या दमा के पर्याप्त और सही समय पर जांच न हो पाने की कई सारी वजह हैं। जैसे कि मरीजों में इसके बारे में पर्याप्त जानकारी न होना, स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं द्वारा सही समय पर इसकी पहचान न कर पाना और चिकित्सा व्यवस्था तक लोगों की व्यापक पहुँच न हो पाना इत्यादि।
विश्व के कई सारे देशों जैसे कि मध्य पूर्वी एशिया (गल्फ देशों में), मध्य अमरीका, दक्षिण एशिया, उत्तर पश्चिम और पूर्वी अफ्रीका इत्यादि में दमा के लिए आवश्यक दवाओं की उपलब्धता न होने के कारण स्थिति और भी अधिक गंभीर बन जाती है।
विश्व के कई देशों में जो लोग अस्थमा या दमा से ग्रसित है, उनमें वातावरण में व्याप्त प्रदुषण के कारण अस्थमा या दमा अधिक बिगड़ सकता है।
यदि हम अस्थमा नियंत्रण को प्रभावी बनाना चाहतें हैं तो हम सभी को इसकी प्रभावकारी नियंत्रण के लिए व्यापक नीतियाँ बनानी होगी और उस पर अमल भी करना होगा।
दमा नियंत्रण ज्यादातर देशों में असफल है।
विश्व के लगभग ३० करोड़ लोग अस्थमा या दमा की समस्या से ग्रसित हैं! अस्थमा या दमा की बीमारी व्यक्तिगत, पारिवारिक, तथा सामुदायिक तीनो स्तरों पर लोगों को प्रभावित करती है।
विश्व स्तर पर अस्थमा या दमा की समस्या पर प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक तमाम बाधाओं और चुनौतियों के बावजूद, अस्थमा या दमा नियंत्रण के विभिन्न कार्यक्रम तेज़ी से फ़ैल रहें हैं।
अस्थमा या दमा को यदि काबू में रखा जाए, और चंद बातों पर विशेष ध्यान दिया जाए, तो नि: संदेह इसका नियंत्रण सम्भव है।
अपर्याप्त और अध-कचरे अस्थमा या दमा नियंत्रण कार्यक्रमों की वजह से लोगों की जीवन शैली भी कुंठित होती दिखाई देती है।
उदाहरण के लिए विश्व में कई छेत्रों में हर चार में से एक अस्थमा या दमा से ग्रसित बच्चा स्कूल नही जा पाता है।
इस बार के विश्व अस्थमा या दमा दिवस का विषय है "आप अस्थमा या दमा पर नियंत्रण पा सकते हैं"।
इस विचार द्वारा यह बात साफ तौर पर जाहिर होती है कि अस्थमा या दमा की सही जांच, इलाज, और नियंत्रण की विधियाँ मौजूद हैं, परन्तु आवश्यकता है जागरूकता जिससे कि प्रभावकारी अस्थमा या दमा नियंत्रण के कार्यक्रम सफल हो सके।
अस्थमा नियंत्रण और प्रबंधन की विश्व स्तर पर निति २००७ के मुताबिक अस्थमा या दमा नियंत्रण का मतलब है कि:
- अस्थमा या दमा का कोई लक्षण न हो और व्यक्ति को अस्थमा या दमा के कारण रात में न टहलना पड़े
- अस्थमा राहत दवा या 'इन्हैलर' का उपयोग न करना पड़े (या न्यूनतम आवश्यकता हो)
- व्यक्ति सामान्य शारीरिक काम कर सकता हो।
- व्यक्ति को अस्थमा या दमा के दौरे बिल्कुल न पड़े या बहुत ही कम पड़े
कुछ लोग जो की अस्थमा से ग्रसित हैं उन लोगों ने कभी भी पर्याप्त अस्थमा की जांच नही करवाई है, इस वजह से उनमें अस्थमा के उपचार और उचित नियंत्रण होने की सम्भावना कम हो जाती है। अस्थमा या दमा के पर्याप्त और सही समय पर जांच न हो पाने की कई सारी वजह हैं। जैसे कि मरीजों में इसके बारे में पर्याप्त जानकारी न होना, स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं द्वारा सही समय पर इसकी पहचान न कर पाना और चिकित्सा व्यवस्था तक लोगों की व्यापक पहुँच न हो पाना इत्यादि।
विश्व के कई सारे देशों जैसे कि मध्य पूर्वी एशिया (गल्फ देशों में), मध्य अमरीका, दक्षिण एशिया, उत्तर पश्चिम और पूर्वी अफ्रीका इत्यादि में दमा के लिए आवश्यक दवाओं की उपलब्धता न होने के कारण स्थिति और भी अधिक गंभीर बन जाती है।
विश्व के कई देशों में जो लोग अस्थमा या दमा से ग्रसित है, उनमें वातावरण में व्याप्त प्रदुषण के कारण अस्थमा या दमा अधिक बिगड़ सकता है।
यदि हम अस्थमा नियंत्रण को प्रभावी बनाना चाहतें हैं तो हम सभी को इसकी प्रभावकारी नियंत्रण के लिए व्यापक नीतियाँ बनानी होगी और उस पर अमल भी करना होगा।
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