समय रहते उपचार, बचा सकता है निमोनिया से बच्चे की जान

एंटीबायोटिक्स निमोनिया के इलाज के लिए एक प्रकार की राम बाण औषधि है जिसके समय रहते प्रयोग से निमोनिया से छुटकारा पाया जा सकता है. पूरे भारत वर्ष में प्रति वर्ष लगभग ४३ मिलियन लोग  निमोनिया से ग्रसित होते हैं  और १० लाख मौते तीव्र श्वास सम्बन्धी संक्रमण से होती हैं, जो  पूरे विश्व में तीव्र श्वास सम्बन्धी संक्रमण से होने वाली मौतों का २५% है. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी निमोनिया के इलाज के लिए एंटीबायोटिक्स के प्रयोग को निर्धारित किया है. ये एंटीबायोटिक्स सरकारी तथा गैर-सरकारी स्वास्थ्य केन्द्रों पर आसानी से उपलब्ध हैं, फिर भी सम्पूर्ण विश्व में प्रति वर्ष पांच वर्ष से कम उम्र के १६ लाख बच्चे निमोनिया से मरते हैं जो बच्चों में अन्य किसी भी बीमारी से होने वाली मृत्यु से कहीं अधिक है.   

उत्तर प्रदेश के अनेक सरकारी तथा गैर-सरकारी चिकित्सकों का यह मानना है कि  समाज में शिक्षा और जागरूकता की कमी है. यदि सही तरीके से लोगों को किसी भी बीमारी के प्रति सचेत किया जाए और समय-समय पर बच्चों का मेडिकल चेकअप कराने के लिए प्रेरित किया जाए तो सम्पूर्ण विश्व में होने वाली बाल मृत्यु दर को काफी हद तक कम किया जा सकता है.  निमोनिया जैसे घातक बीमारी से निजात पाने के लिए समय रहते एंटीबायोटिक्स का प्रयोग बहुत ही आवश्यक है. अतः माताओं को  बच्चे के स्वास्थ्य के बारे में बहुत ही सचेत रहने की ज़रुरत है, और थोड़ी सी तबियत ख़राब होने पर भी शीघ्र अति शीघ्र किसी चिकित्सक से परामर्श लेना चाहिए. 

निमोनिया जैसी घातक बीमारी से निजात पाने के लिए आरंभिक लक्षणों को पहचान कर  एंटीबायोटिक्स दवाओं के इस्तेमाल की जरूरत होती है. परन्तु एक शोध के अनुसार विकाशील देशों में २०% बच्चों के केयरगिवर (देख-रेख करने वाले) ही निमोनिया के लक्षणों को पहचान पाते हैं, जिनमे से  केवल ५४% ही बच्चों को समय से चिकित्सकों तक ले जा पाते हैं.

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी निमोनिया के इलाज के लिए मानक सुझाये हैं. बहराइच जिला अस्पताल के वरिष्ठ बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. के के वर्मा ने बताया कि विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निमोनिया के उपचार के लिए मानक तय किया गया है. सेपट्रोंन सीरप तथा सेपट्रोंन टेबलेट आती है जो सारे सरकारी अस्पतालों में मुफ्त में उपलब्ध करायी जाती है. डॉ. के के वर्मा का यह  भी मानना है कि "सरकारी अस्पताल कि तुलना में गैर-सरकारी अस्पतालों में उपलब्ध उपचार में बहुत अंतर होता है. सरकारी अस्पतालों में सीमित दवाएं आती हैं और वही सबको दी जाती है. परन्तु गैर-सरकारी अस्पतालों में कई तरह की दवाएं दी जाती हैं. कौन सी दवा ज़रूरी है तथा कौन सी नहीं ज़रूरी है यह सब जाँच परख कर दवाएं दी जाती हैं". डॉ. वर्मा का कहना है कि  "विश्व स्वास्थ्य संगठन को अपनी गाइड लाइन बदलनी चाहिए. अभी पुराना सिस्टम चला आ रहा है उसे बदलकर नया लागू  करना चाहिए. नयी दवाओं को तथा नये टीके को अपनाना चाहिए." 

लखनऊ में एक निजी क्लिनिक को चलाने वाली बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. कुमुद कहती हैं कि "निमोनिया से बचने के लिए समय रहते निदान बहुत ही आवश्यक है. अतः जितनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी बच्चे को अस्पताल में दिखाना चाहिए. गाँव में अक्स़र लोग ७ से १० दिनों तक इंतज़ार करते रहते हैं और  जब बच्चे की हालत नाजुक हो जाती है तब अस्पताल में  दिखाने आते हैं. अतः समाज में एक बड़ी जागरूकता की आवश्यकता है”.

स्पष्ट है कि निमोनिया जैसी संक्रामक बीमारी से बचाव के लिए एंटीबायोटिक्स जीवन अमृत की तरह कारगर होती हैं, परन्तु समय रहते निमोनिया जैसी प्राण घातक बीमारी के लक्षणों को पहचान पाना और उचित एंटीबायोटिक्स का प्रयोग करते हुए उपचार कर पाना आज भी एक कड़ी चुनौती के रूप में व्याप्त है जिसे अस्वीकार नहीं जा सकता. अतः सरकार को भी इस दिशा में सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाते हुए  जन हितैषी कार्यक्रमों की व्यवस्था करनी होगी.  

राहुल कुमार द्विवेदी - सी.एन.एस.
(लेखक, ऑनलाइन पोर्टल सी.एन.एस. www.citizen-news.org के लिये लिखते हैं)