डॉक्टर का डाक्टरी परीक्षण

डॉक्टर का डाक्टरी परीक्षण
डॉ संदीप पाण्डेय

[नोट: यह लेख मौलिक रूप से अंग्रेजी में लिखा गया है, जिसको पढ़ने के लिए यहाँ पर क्लिक कीजिये]

डॉ मनमोहन सिंह ने प्रधान मंत्री की तरह पूरे पांच साल का कार्यकाल समाप्त किया है, जो इंदिरा गाँधी के पश्चात् मिली-जुली सरकारों के दौर में एक उपलब्धि है. यह और बात है कि पिछले साल भारत-अमरीका परमाणु करार के मुद्दे पर बहुमत सिद्ध करने के लिए उन्होंने अधिक सम्मानजनक और सैधांतिक रूप से मजबूत वामपंथी दलों के समर्थन को दर-किनार कर समाजवादी पार्टी के अवसरवादी समर्थन को ले लिया था. उनके लिए भारत-अमरीका परमाणु करार एक निजी प्रतिष्ठा का मुद्दा था और इस परमाणु करार को बचाने के लिए जिस हद तक उन्होंने संघर्ष किया, यह मामूली बात नहीं थी. यहा तक कि उन्होंने बाबरी मस्जिद गिराने में एल.के.अडवाणी की निरीक्षक की भूमिका पर सीधा वार कर किया था.

डॉ मनमोहन सिंह को नए उदारवादी आर्थिक नीति के लिए याद किया जाएगा जिसने भारत में उदार नीति, निजीकरण और वैश्वीकरण को बढ़ावा दिया. यह योगदान डॉ सिंह ने पहले भारत के वित्त सचिव, फिर वित्त मंत्री, और आख़िर में प्रधानमंत्री के रूप में दिया. परन्तु यह अजीब विडंबना है कि अपने प्रधान मंत्री के कार्यकाल के अंत की ओर डॉ सिंह अपनी ही लागु की हुई नीतियों के नतीजे की जिम्मेदारी लेने से कतरा रहे हैं, हालाँकि उनकी पार्टी भरसक प्रयास कर रही है कि इन नीतियों का 'जय हो' अभियान के जरिये महिमामंडन हो. क्या 'जय हो', 'इंडिया शिनिंग' का ही दूसरा नाम नहीं है?

असल में डॉ सिंह ने इस मौजूदा विश्व-व्यापी आर्थिक मंदी से पहले आयोजित हुई सी.आई.आई की दो बैठकों में नई उदारवादी आर्थिक नीति पर अपने लड़खड़ाते भरोसे की पहचान करा दी थी. डॉ सिंह ने सुझाव दिया था कि निजी कंपनियों के अध्यक्षों की आय पर कोई तो उपरोक्त सीमा घोषित होनी चाहिए. उनका कहना था कि जैसे-जैसे गरीब-अमीर में दूरी बढ़ती जा रही है वैसे-वैसे सामाजिक अशांति भी बढ़ रही है. उनका कहना था कि एक बेरोजगार युवा के लिए ९ प्रतिशत विकास दर के कोई मायने नहीं हैं. उनका कहना था कि निजी कंपनियों के प्रमुखों को अपनी दौलत सिर्फ़ अपने ऊपर ही नहीं खर्च कर देनी चाहिए बल्कि समाज के उद्धार के लिए भी व्यय करना चाहिए. महात्मा गाँधी के 'न्यासिता के सिद्धांत' को डॉ सिंह ने पुन: याद दिला दिया जिसको स्वतंत्र भारत के किसी भी राजनीतिज्ञ ने याद नहीं रखा है. हकीक़त तो यही है कि न्यासिता का सिद्धांत ही भारत के मौजूदा हाल के लिए उपयुक्त नीति होगी जिससे कि एक मानवीय और साम्य समाज का निर्माण हो पायेगा. सामाजिक न्याय और मानवीय व्यवस्था 'विकास दर' बढ़ाने से नहीं हासिल हो सकती है.

हो सकता है डॉ मनमोहन सिंह ने भी इस बात को इतनी गंभीरता से कहते वक्त न लिया हो, और हो सकता है कि यह उनकी कुंठा रही हो कि विकास दर के बढ़ने के बावजूद भी किसानों की आत्महत्या के दर में गिरावट नहीं आ रही है.

उनके उपरोक्त वचन नि:संदेह उनकी अर्थशास्त्र के मूल प्रशिक्षण के विरोध में जाते हैं और सम्भावना है कि डॉ मनमोहन सिंह के सहकर्मी मोंटेक सिंह अहलुवालिया और पी.चिदम्बरम जो एल.पी.जी नीति को लागु करने में सक्रिय थे, उनसे सहमत न हो.

परन्तु कोई भी अर्थशास्त्री इस बात से असहमत नहीं हो सकता है कि नई उदार अर्थ नीतियों की वजह से गरीबों और अमीरों के बीच दूरियां बढ़ीं हैं. मुंबई पर हमले से पहले मनमोहन सिंह ने एक बार से अधिक यह कहा था कि भारत के सामने आतंकवाद से भी बड़ी चुनौती नाक्सालवाद की है.

आतंकवाद और नाक्सालवाद दोनों को ही फैलने से रोकने में डॉ मनमोहन सिंह असफल रहे हैं. उनकी सरकार की नीति कि बाहुबल से आतंकवाद और नाक्सालवाद ताकतों को चूर किया जा सकता है, का उल्टा ही परिणाम हुआ है. 'आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट' (AFSPA) के ख़िलाफ़ इम्फाल के जवाहर लाल नेहरू अस्पताल में इरोम शर्मीला पिछले ९ साल से उपवास पर है. इरोम २००६ में दिल्ली आई थीं पर सरकार से कोई भी समर्थन नहीं मिला था. सरकार को यह भी नहीं पता है कि उन लोगों से कैसे निबटा जाए जो शस्त्रों का सहारा लेते हैं और यह भी नहीं पता है कि उन लोगों से कैसे निबटा जाए जो अहिंसा और शान्ति का सहारा लेते हैं. सरकार ने डॉ बिनायक सेन को बिना किसी भी ठोस सबूत के नाक्साल्वादियों के लिए सहानुभूति जताने के लिए जेल में कैद रखा हुआ है और उनकी 'बेल' भी नहीं होने दी जा रही है. वहीँ उसी सरकार के कार्यकाल में कोर्ट द्वारा दोषी पाये जाने वाले जैसे कि नवजोत सिंह सिधु, शिबू सोरेन और संजय दत्त को उनके राजनितिक लक्ष्यों को पूरा करने दिया जा रहा है.

अमरीका के आतंकवाद के ख़िलाफ़ जंग को अंधाधुंध समर्थन देने से और एल.पी.जी नीतियों की वकालत करने से अब कांग्रेस पार्टी और भारतीय जनता पार्टी (बी.जे.पी) के बीच अन्तर खत्म-सा हो गया है.

इस आगामी लोक सभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को आतंकवाद का मुद्दा न मिल जाए, डॉ मनमोहन सिंह ने मुंबई पर हमले से निबटने के लिए कोई सख्ती में कसर नहीं छोड़ी है. यहाँ तक कि भारत-पाकिस्तान के बींच दोस्ती और शान्ति स्थापित करने के लिए मुशर्रफ़ और मनमोहन सिंह के कार्यकाल में सराहनीय कार्य हुए हैं, और डॉ मनमोहन सिंह की सरकार की यह एक बड़ी उपलब्धि है जिसको तिलांजलि देने में डॉ सिंह कतराए नहीं हैं क्योंकि मुंबई पर हमले के बाद प्रारंभिक दौर में पाकिस्तानी राजनीतिज्ञों ने सहयोग की बात आरंभ ही की थी कि मनमोहन सिंह सरकार के रवैये की वजह से पाकिस्तान सरकार के दबाव में आके भारत-पाकिस्तान शान्ति प्रक्रिया भी ठंडी पड़ गई.

२००५ में श्रीनगर - मुज़फ्फराबाद बस सेवा को पुन: आरंभ करने से और अनेकों व्यापार के लिए रास्तों को खोलने से दोनों देशों के बीच रिश्तों में कड़वाहट कम ही हुई थी. हमें यह भी ज्ञात हुआ है कि दोनों देशों की सरकारें, हुर्रियत के साथ मिलकर लगभग कश्मीर की समस्या के समाधान को ले कर नतीजे पर पहुचने वाली ही थीं. मनमोहन सिंह ने अपने कार्यकाल में भारत-पाकिस्तान शान्ति प्रक्रिया में जितनी उपलब्धि हासिल कर ली है वोह भारत के इतिहास में कोई प्रधान मंत्री नहीं कर पाया है, संभवत: इसलिए कि मनमोहन सिंह दिल से अधिक सोचते हैं और प्रसाशनिक-राजनितिक-सैनिक तरीकों से कम. यह संभवता: एकमात्र छेत्र है जहाँ डॉ मनमोहन सिंह ने एक आम आदमी की तरह से निर्णय लिए थे, चूँकि उनकी और मुशर्रफ़ दोनों के ही परिवार भारत-पाकिस्तान बंटवारे से प्रभावित हुए थे.

परन्तु डॉ मनमोहन सिंह ने भारत-अमरीका परमाणु करार पर हस्ताक्षर कर के भारत की संप्रभुता को ही खतरे में डाल दिया है. उनके अपने ही योजना आयोग के अनुसार परमाणु ऊर्जा का कोई भविष्य नही है. जब तक २००५ में अमरीका में हुई एक बैठक में डॉ मनमोहन सिंह नहीं गए थे, तब तक वोह वैकल्पिक उर्जा सोत्रों के समर्थक थे. अमरीका में जॉर्ज बुश से प्रोत्साहन पाकर और इस समझौते से भारत के एक विश्व शक्ति के रूप में उभर कर आने की सम्भावना देख कर, डॉ मनमोहन सिंह संभवत: महत्वकंशी हो गए थे. अमरीका और इस्राइल का, भारत को छोटे सैनिक साथी बनाने से डॉ मनमोहन सिंह ने सदियों पुरानी नीति को पलट दिया - अमरीका से एक सम्मानजनक दूरी बना कर रखने की और गुट-निरपेक्षता के अभियान का नेतृत्व करने की भारतीय नीति जो नेहरू-शास्त्री-इंदिरा और राजीव - ने निर्वाह की थी, वोह पलट गई. भारत-अमरीका परमाणु करार पर हस्ताक्षर करने की हड़बड़ी में न केवल इरान को डॉ सिंह ने खो दिया बल्कि बर्मा को भी खोया. भारत को लगा कि औंग सन सुई कुई की आज़ादी की बात को दर-किनार करने से यदि बर्मा सरकार भारत का पक्ष लेगी, तो इरान के प्रस्ताव को अस्वीकार करने में मदद मिलेगी, और अमरीका की चापलूसी करने में भी सहायता होगी. परन्तु अंत में बर्मा में समर्थन चीन को दिया और भारत को छोटा मुंह कर के लौटना पड़ा और बर्मा में लोकतंत्र स्थापित करने के संघर्ष से समर्थन हटाने के अपमान को भारत भी झेलना पड़ा. मनमोहन सिंह ने भारत की शान्ति-प्रिय संप्रभु देश की छवि को खो दिया है और इस्लामिक शक्तियों के निशाने पर ला खड़ा किया है. डॉ मनमोहन सिंह की सरकार ने न केवल आतंकवादी ताकतों पर काबू पाने में असफलता पायी है, बल्कि उनकी पुलिस ने बेगुनाह मुस्लमान युवाओं को फर्जी इल्जामों में फसा कर मुसलमानों में अलगाव को बढ़ावा दिया है. बटला हाउस एन्कोउन्टर उनकी सरकार पर एक कलंक है, जिसकी न्यायिक जांच अब तक नहीं हो पायी है. यह उनकी बदनसीबी थी कि जब महाराष्ट्र आतंकवाद विरोधी दल ने हिंदू आतंकवाद के नेटवर्क का खुलासा करना आरंभ किया ही था, कि मुंबई पर हमला हो गया और मामला अधिक जटिल हो गया.

आने वाली पीढियाँ डॉ मनमोहन सिंह की सरकार को सूचना के अधिकार अधिनियम और राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम के लिए याद करेंगी - यह दो सबसे महत्त्वपूर्ण जन-हितैषी अधिनियम हैं जो स्वतंत्र भारत में क्रियान्वित हुए हैं. इन दोनों अधिनियमों को लागु करने के लिए संभवत: श्री मनमोहन सिंह की तुलना में सोनिया गाँधी को कहीं ज्यादा श्रेय जाना चाहिए. मनमोहन सिंह तो सूचना अधिकार अधिनियम को परिवर्तित करने के लिए आतुर थे और सोनिया गाँधी के हस्तछेप से ही यह अधिनियम बच पाया है. इन दोनों अधिनियमों का शासन पर असर उसी तरह से होगा जैसा कि मंडल आयोग का हुआ था, परन्तु अधिकारीतंत्र, न्यायपालिका और अन्य लोग जिनके हित छति-ग्रस्त हो रहे हैं, इन दोनों अधिनियमों को असफल करने का प्रयास कर रहे हैं.

सूचना के अधिकार अधिनियम और राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम के तहत जनता जांच के प्रावधान से आम नागरिक को लोकतान्त्रिक व्यवस्था में भाग लेने के अवसर मिले हैं, और अब आम आदमी हर पांच साल में मात्र वोट डालने के लिए ही नही है.

डॉ संदीप पाण्डेय

(लेखक लोक राजनीति मंच के राष्ट्रीय अध्यक्षीय मंडल के सदस्य हैं, जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय का नेतृत्व कर रहे हैं, और रैमन मग्सय्सय पुरुस्कार से सम्मानित सामाजिक कार्यकर्ता हैं)