(अभी सन 84 के दंगों को लेकर काफी हंगामा बरपा था। जिस पार्टी को जो आसान और सुविधाजनक लगा, उसने 84 के दंगा और पीडि़तों का अपने तरीके से इस्तेमाल किया। लेकिन इस मुल्क ने सत्तर और अस्सी के दशक में कुछ और भयानक दंगे देखे हैं, उन्हें कोई याद नहीं रखना चाहता। उसके लिए कोई हो हल्ला भी नहीं मचता। ऐसा ही एक दंगा था, जमशेदपुर का। मैंने भी दंगा पीडि़तों को पहली बार इसी दंगे के जरिए जाना था। समाचार वेबसाइट टूसर्किल्स डॉट नेट के सम्पादक काशिफ उल हुदा उस वक्त पाँच साल के थे और दंगे में बाल-बाल बच गए थे। उस दंगे के तीस साल बाद यह बच्चा अपने बचपन के उन काली स्याह यादों को ताजा कर रहा है। इसलिए नहीं कि आप सियापा करें। इसलिए कि ऐसी यादें कितनी खौफनाक होती हैं और उनका असर ताउम्र होता है। तो क्या हम अपनी आने वाली पीढ़ी को भी ऐसी ही खौफनाक यादें देकर जाना चाहते हैं। यह टिप्पणी मूल रूप में अंग्रेजी में लिखी गई है। इसे हिन्दी में सिटिजन न्यूज सर्विस ने तैयार किया है। मैंने उस हिन्दी अनुवाद में थोड़ा संशोधन, थोड़ा सम्पादन किया है।-नासिरूद्दीन)
1979 के जमशेदपुर के दंगों की यादकाशिफ-उल-हुदा
1979 के इसी अप्रैल महीने में बिहार के जमशेदपुर में हिन्दू-मुस्लिम फसाद हुए थे। इस फसाद में 108 लोगों की जानें गयीं थीं. यह तादाद 114 भी हो सकती थी, लेकिन खुशकिस्मती से मेरा खानदान किसी तरह बच गया. शायद इसलिए हम आज 30 साल बाद उस दिल दहला देने वाली घटना को बयान करने के लिए जिंदा हैं.
मैं पाँच साल का था जब यह दर्दनाक हादसा हुआ। लेकिन इस हादसे की याद मेरे दिलो-दिमाग में गहरे पैठी है। मेरे बचपन की चंद यादों में एक अहम याद है. आज इस हादसे की डरवानी तसवीर मेरी आँख के सामने घूम रही है.
11 अप्रैल 1979 के दिन सुबह से ही फिजा में कुछ अनहोनी की बू आ रही थी. पता नहीं कैसे, लेकिन मेरी अम्मा ने इस खराब हवा को सूँघ लिया। रामनवमी की सुबह वह अपने भाई और मेरी दो छोटी बहनों के साथ पास के मुसलमान बहुल इलाके, गोलमुरी में चली गईं. लेकिन मेरे अब्बा के खयालात काफी अलग थे। उन्हें पूरा यकीन था कि कुछ नहीं होगा. उन्होंने कॉलोनी के हिन्दुओं और मुसलमानों को मिलाकर एक कमेटी बनाई थी। उन्हें भरोसा था कि बलवाई चाहे हिन्दू हों या मुसलमान, कमेटी ढाल का काम करेगी। हिन्दू-मुसलमान सब मिलकर रहेंगे।
अब्बा के साथ मैं और मेरे बड़े भाई रुक गए। अम्मा और बहनें सुबह ही गोलमुरी जा चुकी थीं. लेकिन जैसे-जैसे दिन गुजरने लगा, हमने देखा वैसे-वैसे बाहर लोगों की भीड़ बढ़ रही थी. भैया घबराने लगे, कहीं कुछ हो गया तो। दोपहर के खाने के वक्त तक हमने अब्बा को किसी तरह मना लिया कि वह हम दोनों को अम्मा के पास गोलमुरी छोड़ आएँ.
जब हम लोग गोलमुरी में अपने रिश्तेदार कमाल साहब के घर खाना खा रहे थे, तब ही यकायक लोगों के चिल्लाने की आवाजें आयीं... यानी बलवा शुरू हो गया.
यह देखने के लिए की क्या हो रहा है, हम लोग भाग कर बाहर तरफ आए. देखा कि कुछ ही दूरी पर जबरदस्त धुआँ उठ रहा था. इसके बाद की मेरी यादें, टुकड़ों- टुकड़ों में ही है. मुझे याद है कि हम जिस घर में रह रहे थे, वहाँ पर सिर्फ़ औरतें और बच्चे थे. मुझे यह याद है कि मैं वहाँ खाना नहीं खाना चाहता था क्योंकि वह कच्चा ही रह जाता था. मैं इतनी छोटी सी उम्र में रिफ्यूजी बन गया था. कच्ची उम्र में ही रिफ्यूजी होने का तजुर्बा. मुझे आज भी याद है कि रात के अंधेरे में जब मैं छत पर जाता, तो मुझे चारों ओर आग की लपटें दिखाई देतीं मानो पूरा शहर ही जल रहा हो. मुझे यह भी याद है कि कोई मुझे छत पर जाने के लिए डाँट रहा था. क्योंकि छत पर मैं आसानी से किसी बलवाई की गोली का निशाना बन सकता था. मुझे यह भी याद है कि मैं अपने अब्बा से बहुत दिनों तक कम ही मिल पाया था. मैं बहुत सहमा-सहमा रहता था.
कई साल बाद मुझे पता चला जब हिन्दू-मुसलमानों की संयुक्त कमेटी में शामिल ज्यादातर हिन्दू इलाका छोड़ कर जा रहे थे तो जमशेदपुर के टिनप्लेट इलाके में हमारा घर ही आस पड़ोस के मुसलमानों का शरण गाह बना हुआ था।
उस दिन मेरे अब्बा कुछ जरूरी सामान देने के लिए गोलमुरी आए। जब तक वापस जाते तब तक कर्फ्यू लग गया था. वह वापस नहीं जा सके. इस बीच टिनप्लेट इलाके में रह रहे मुसलमानों ने देखा कि वह हर ओर से घिर रहे हैं. वे टिनप्लेट फैक्ट्री में मदद माँगने पहुँचे. लेकिन यह क्या... वहाँ पर रोज साथ काम करने वाले उनके साथियों ने ही उन्हें बर्बरतापूर्वक मार डाला. मेरे अब्बा सिर्फ़ इसलिए आज हमारे बीच हैं क्योंकि कर्फ्यू लग जाने की वजह से वह गोलमुरी से टिनप्लेट वापस नहीं जा सके थे.
हालाँकि हमारी जान बच गई थी लेकिन हमारे घर का सारा सामान लुट गया था. बाकि लोगों का सब सामान जला कर राख कर दिया गया था. महीनों बाद हम सब एक नए इलाके में रहने के लिए गए. इसका नाम था अग्रिको कॉलोनी. यह कॉलोनी जो मुसलमानों की एक और बस्ती भालूबासा के सामने थी. कमरों में नई नई पुताई हुई थी पर यह पुताई भी उस वहशियाना आग और लूट के दाग नहीं छुपा पा रही थी. हमें यह तो नहीं पता था कि इन घरों में किसी की हत्या हुई थी या नहीं पर तबाह के निशाँ साफ़ दिख रहे थे.
अगले कई सालों तक मुझे कई लोगों से इस दंगे की दिल-दहला देने वाली आप बीती सुनने को मिली. मुझे एक महिला की याद है जिसके शरीर पर जलने के निशाँ थे. यह महिला उस एम्बुलेंस में सवार थी, जिसे दंगाइयों ने आग के हवाले कर दिया था. दंगाई यह सोच कर आगे बढ़ गए थे कि इसमें सवार सभी लोग मारे गए हैं. हर रोज स्कूल जाते वक्त हम पुलिस स्टेशन के बाहर खड़ी इस जली एम्बुलेंस को देखते थे.
मारे गए 108 लोगों में से 79 मुस्लमान और 25 हिन्दू थे. बड़ी तादाद में लोग जख्मी हुए थे और अनेकों ऐसे थे जिनका सब कुछ खत्म गया था.
जमशेदपुर, उद्योगों की नगरी है. यहाँ हर ओर टाटा की फैक्ट्री है. इस शहर में रहने वाले ज्यादातर लोग इन फैक्ट्रियों में ही काम करते हैं. पूरे शहर का जिम्मा कम्पनी पर है. कम्पनी के क्वार्टर में हर मजहब के लोग रहते आए हैं.
यह समझ से परे है कि ऐसा दुर्भाग्यपूर्ण और बर्बर बलवा उस शहर में हुआ जहाँ हर जाति-धर्म- भाषा के लोग मिल्लत के साथ रहते थे. यहाँ रह रहे ज्यादातर लोग या तो अविभाजित बिहार के रहने वाले थे या देश के किसी और कोने से. सभी कंपनी में काम करने वाले मध्यवर्ग के लोग थे और अपने परिवार के लालन पालन में लगे थे. ऐसा भी नहीं है कि जमशेदपुर के दंगों में सिर्फ़ मुसलमान ही मरे थे, बल्कि हिन्दू भी मारे गए थे. तब आख़िर इन दंगों का फायदा किसको मिला था?
तीस साल पहले जिस आदमी ने उस दिन पूरे जमशेदपुर को अपने कब्जे में ले लिया था, वह था स्थानीय विधायक दीनानाथ पाण्डेय. इस दंगे के बाद पाण्डेय दो बार भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर भी बिहार विधानसभा पहुँचा. भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशी के रूप में वह 1990 तक चुनाव जीतता रहा. उसकी सीट भारतीय जनता पार्टी के लिए 'सुरक्षित' सीट बन गई. विधानसभा के पिछले दो चुनाव में, भारतीय जनता पार्टी इस सीट से 50 प्रतिशत से भी अधिक वोट से जीती है.
अब लोकसभा चुनाव हो रहे हैं. जब हम यह टिप्पणी करते हैं कि राजनीति में गुंडे या अपराधी पृष्ठभूमि के लोग आ गए हैं, तो हम यह भूल जाते हैं कि इसके लिए भी हम लोग ही जिम्मेदार हैं. दीनानाथ पाण्डेय जैसे लोग का, जिनपर सामूहिक हत्या का आरोप है, राजनीति में कोई स्थान नहीं होना चाहिए. जगदीश टाइटलर और सज्जन कुमार को चुनाव लड़ने से रोक कर कांग्रेस ने सराहनीय काम किया है। लेकिन यह वही पार्टी है जिसके शासन में आंध्र प्रदेश में आतंकी होने के आरोप में मुसलमान युवाओं को गैर कानूनी तरीकों से गिरफ्तार किया गया। यही नहीं पुलिस ने उनसे जुर्म कबूलवाने के लिए टार्चर किया। महीनों बाद भी जब पुलिस अपना आरोप साबित न कर सकी तो हाल ही में ये बेगुनाह नौजवान रिहा कर दिए गए हैं। सत्ताधारी तब तक कोई भी बेहतर कदम नहीं उठाते हैं, जब तक लोग अपना आक्रोश जाहिर न करें और जन दबाव न बनाएँ. इसलिए नाइंसाफी के खिलाफ लोकतांत्रिक तरीके जन दबाव बनाना जरूरी है।
अगर पार्टियों ने वक्त रहे सख्त कदम नहीं उठाए और अपराधियों को टिकट देना जारी रखा तो हम लोगों को कदम उठाना चाहिए। हम लोगों को ऐसे उम्मीदवारों को वोट नहीं देने का फैसला करना चाहिए जो नफरत फैलाते हैं और अपराधिक पृष्ठभूमि के हैं।
(लेखक समाचार वेबसाइट www.twocircles.net के संपादक हैं)
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मशहूर पत्रकार एमजे अकबर ने अपनी पुस्तक Riot After Riot में जमशेदपुर दंगे के बारे में क्या लिखा है। यह पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें।