आई.एम्.ऍफ़ की नीतियों में बदलाव की मांग

आई.एम्.ऍफ़ की नीतियों में बदलाव की मांग
बाबी रमाकांत

इस महीने (अप्रैल २००९) के शुरू में २० देशों का समूह (जी-२०) के प्रतिनिधियों ने विश्व की अर्थ-व्यवस्था में, अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक निधि (इंटरनेशनल मोनिटोरी फंड या आई.एम्.ऍफ़) जैसी संस्थाओं के जरिये अमरीकी डालर १.१ ट्रिलियन बढ़ाने का फैसला लिया था. स्वास्थ्य पर कार्य कर रहे लोगों का मानना है कि यदि आई.एम्.ऍफ़ की नीतियाँ नहीं बदली गयीं, तो पिछले अनुभव के अनुसार जिन देशों में आई.एम्.ऍफ़ का पैसा जायेगा, वहाँ पर तपेदिक या टीबी बढ़ने जैसे खतरे मंडराते रहेंगे.

जुलाई २००८ की कैम्ब्रिज एवं येल विश्वविद्यालयों की रपट से यह साफ़ ज़ाहिर है कि जिन देशों ने आई.एम्.ऍफ़ से ऋण लिया था, उनमें तपेदिक या टीबी का दर काफी अधिक बढ़ गया था. इन शोधकर्ताओं का कहना है कि आई.एम्.ऍफ़ के ऋण जिन शर्तों पर दिया जाता है उनकी वजह से हजारों लोग बेवजह तपेदिक या टीबी से मरे थे. परन्तु आई.एम्.ऍफ़ ने इस रपट के निष्कर्षों से साफ़ मना कर दिया है.

इन शोधकर्ताओं में से एक डेविड स्तुक्लेर जो कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से हैं, उन्होंने एक मीडिया से यह कहा कि "यदि हम स्थायी आर्थिक विकास चाहते हैं, तो हमें सबसे पहले लोगों के स्वास्थ्य की मूल जरूरतों पर ध्यान देना होगा."

बी.बी.सी की एक रपट में यह कहा गया था कि पिछले सालों में आई.एम्.ऍफ़ ने २१ देशों को, अत्यन्त कड़े आर्थिक लक्ष्यों को पूरा करने की शर्त पर ही, आर्थिक सहायता प्रदान की थी. इन शोधकर्ताओं का मानना है कि इन अत्यन्त कड़ी शर्तों की वजह से ही सरकारें जो पैसा तपेदिक या टीबी नियंत्रण या अन्य स्वास्थ्य कार्यक्रमों में व्यय कर रही थीं या अन्य सम्बंधित विकास कार्यों में खर्च कर रहीं थीं, उसके बजाय इन आई.एम्.ऍफ़ की आर्थिक शर्तों के अनुसार ऋण वापस करने में निवेश करने लगीं, और इसके फलस्वरूप तपेदिक या टीबी का दर बढ़ने लगा.

सबसे चौंकाने वाली बात इस बी.बी.सी रपट में यह है कि यदि इन देशों ने आई.एम्.ऍफ़ ऋण न लिया होता, तो तपेदिक या टीबी का दर १० प्रतिशत कम हो गया होता, यानि कि १००,००० मृत्यु कम हुई होती. जिन देशों ने आई.एम्.ऍफ़ ऋण लिया था उनकी सरकारों ने स्वास्थ्य पर बजट ८ प्रतिशत कम कर दिया था और डॉक्टर प्रति नागरिक की संख्या भी ७ प्रतिशत कम हो गई थी.

'ट्रीटमेंट एक्शन ग्रुप' नामक संस्थान ने दुनिया भर की गैर-सरकारी संगठनों को एकजुट कर के एक अपील तैयार की है कि आई.एम्.ऍफ़ को अपनी नीतियाँ बदलनी होगी जिससे कि स्वास्थ्य एवं शिक्षा पर सरकारी व्यय बढ़ सके.

२ अप्रैल २००९ को लन्दन में हुई जी-२० की बैठक में जो घोषणापत्र जारी हुआ था उसके अनुसार आई.एम्.ऍफ़ को "विश्व बैंक एवं आई.एम्.ऍफ़ की 'स्प्रिंग' बैठक" जो २५-२६ अप्रैल २००९ को वॉशिंगटन डीसी में हो रही है, उसमें 'ठोस प्रस्ताव' के साथ आना है कि वोह कैसे जी-२० द्वारा प्रदान की हुई राशि को विश्व की अर्थ-व्यवस्था में लगायेगा।

इस गैर-सरकारी संगठनों की अपील के अनुसार मुख्य रूप से दो बदलाव की मांग है:

- आई.एम्.ऍफ़ को उन गतिविधियों को धीरे-धीरे ख़त्म कर देना चाहिए जिसमें उसकी खास योग्यता नहीं है जैसे कि गरीबी कम करने एवं विकास के लिए कार्यक्रम आदि. आई.एम्.ऍफ़ के पास न तो ऐसा कोई मत है न ही योग्यता कि वो विकासशील देशों का समय के लंबे अंतराल में विकास कर सके. आई.एम्.ऍफ़ जो पैसा सोना बेच कर लाता है उससे या तो देशों को ऋण मुक्ति मिले, या अन्य उपयुक्त एजेन्सी को मिलना चाहिए कि उसका सही मायने में उपयोग हो. आई.एम्.ऍफ़ का 'नीति सहायक प्रणाली' जो दाताओं को यह बताता है कि कोई विकासशील देश किसी अनुदान के लिए उपयुक्त है कि नहीं, को भी ख़त्म कर देना चाहिए क्योंकि इससे आई.एम्.ऍफ़ का एकराज हो जाता है.

- आई.एम्.ऍफ़ को अपने ऋण से नुकसानदायक शर्तों को हटा देना चाहिए. आई.एम्.ऍफ़ को अपनी पारंपरिक शर्त कि देशों को आर्थिक मंदी के दौर में 'सिकुड़ने' वाली नीतियाँ अपनानी चाहिए, को भी विराम देना चाहिए.

उम्मीद है कि आई.एम्.ऍफ़ अपनी नीतियाँ बदल कर सही मायने में विकास का भागीदार बनेगा.

बाबी रमाकांत