सार्थक लोकतंत्र का सपना
डॉ संदीप पांडेय
[प्रकाशित रविवार]
फरवरी में एक नागरिक प्रतिनिधिमंडल के साथ मुझे पाकिस्तान जाने का मौका मिला. भारत और पाकिस्तान की राजनीति के बीच में एक बहुत बड़ा फर्क जो साफ नजर आया, वह था राजनेताओं की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि. पाकिस्तान में सभी बड़े नेता सामंती-अभिजात्य वर्ग से हैं, जबकि भारत के संविधान व लोकतंत्र ने पिछड़े, दलित, महिला, अल्पसंख्यक वर्ग के नेताओं को राजनीति में सशक्त हस्तक्षेप का मौका दिया है. भारत में लोकतात्रिक ढंग से चुनी हुई सरकार का स्थान सर्वोच्च है, जबकि पाकिस्तान में सेना व खुफिया एजेंसी सरकार पर हावी हो सकते हैं.
ये महत्वपूर्ण अंतर हैं, जिन्हें भारत में साठ साल के लोकतंत्र की उपलब्धि माना जाएगा. फिर भी आम चुनाव के अवसर पर इस बात का मूल्याकन कर लेना अच्छा रहेगा कि सही मायने में लोकतंत्र स्थापित होने के रास्ते में क्या-क्या बाधाएं हैं, क्योंकि जनता तो अभी पूर्ण रूप से संतुष्ट नहीं है.
भारतीय लोकतंत्र में सबसे बड़ी चुनौती है राजनीतिक दलों के अंदर लोकतांत्रिक संस्कृति का पूरी तरह से अभाव. जो दल खुद लोकतंत्र के मूल्यों का सम्मान नहीं करते, उनसे हम कैसे अपेक्षा कर सकते हैं कि वे लोकतंत्र को मजबूत करने का काम करेंगे?
ज्यादातर दल किसी व्यक्ति, परिवार या समूह द्वारा नियंत्रित हैं. जो दल किसी व्यक्ति विशेष अथवा उसके परिवार द्वारा चलाए जा रहे हैं, वे तो निजी कंपनियों की तरह से ही हैं. इन दलों का अस्तित्व चूंकि एक व्यक्ति या परिवार पर निर्भर है इसलिए उस व्यक्ति या परिवार के हटते ही उनका बिखरना रोका नहीं जा सकता.
भाजपा आरएसएस द्वारा संचालित है, जिसकी शायद संविधान या लोकतंत्र में ही आस्था नहीं है. हिंदुत्ववादी संगठनों ने देश के ऊपर एक प्रतिक्रियावादी राजनीति थोपी है. जहां तक वामपंथी दलों का सवाल है तो वे लोकतात्रिक मूल्यों के प्रति सबसे अधिक संवेदनशील हैं, लेकिन उनकी आंतरिक निर्णय लेने की प्रक्रिया भी काफी हद तक केंद्रीयकृत है. इसका खामियाजा उनको नंदीग्राम व सिंगूर में उठाना पड़ा. केरल में अपने ही मुख्यमंत्री की तर्कसंगत बातों को अभिव्यक्ति की गुंजाइश नहीं दी गई.
भारतीय राजनीतिक दलों के अलोकतांत्रिक तरीके से संचालन की वजह से उनकी कार्यशैली व जनता की भावनाओं के बीच एक बड़ा अंतर मौजूद रहता है. आज जब कोई मतदाता अपना मत देने जाता है तो वह अपनी सोच-समझ से मत नहीं देता. उसके ऊपर या तो जातिगत-मजहबी सोच हावी होती है या फिर वह यह देखता है कि कौन सा उम्मीदवार जीतने की स्थिति में है. कभी-कभी भय, प्रलोभन या आकर्षण भी किसी को मत देने के कारण हो सकते हैं.
आमतौर पर उम्मीदवार की काबिलियत गौण हो जाती है. प्राय: जो सबसे काबिल या ईमानदार प्रत्याशी होगा, वह इतना आदर्शवादी होगा कि वह अपने पक्ष में जनमत जुटा ही नहीं पाएगा. उसके बारे में लोग भी यह कहते पाए जाते हैं कि उम्मीदवार तो बहुत अच्छा है, लेकिन जीत नहीं पाएगा. यह हमारे लोकतंत्र की एक बड़ी विडंबना कही जाएगी.
इधर एक प्रचलन चल पड़ा है प्रसिद्ध व्यक्तियों के आकर्षण या ग्लैमर को राजनीति में भुनाने का. इन व्यक्तियों का सार्वजनिक जीवन या जन-सेवा का कोई अनुभव नहीं रहता, न ही उनकी कोई सामाजिक समझ होती है. इनके राजनीति में आने से काफी नुकसान होता है. कई फिल्मी हस्तियां हैं, जिन्हें विभिन्न राजनीतिक दल चुनाव में खड़ा कर देते हैं, लेकिन ये जीतने के बाद वह भूमिका अदा नहीं करते जिसकी उनसे अपेक्षा की जाती है.
चुनाव लड़ने की यह एक अनिवार्य शर्त होनी चाहिए कि उस व्यक्ति के सार्वजनिक जीवन की पृष्ठभूमि हो और समाज निर्माण में उसका एक सकारात्मक योगदान हो. यदि राजनेताओं की कोई सामाजिक सोच ही नहीं होगी तो वे देश की आम जनता, जिसके वे प्रतिनिधि हैं; के हित में कैसे नीतियां बनाएंगे?
यह मान लिया गया है कि जो ज्यादा पैसा खर्च करेगा वही जीत पाएगा. ज्यादा पैसा तो वही खर्च कर पाएगा, जिसने उसे गलत तरीके से कमाया हो. जिसकी राजनीति भ्रष्टाचार की नींव पर खड़ी होगी, उससे हम ईमानदारी की उम्मीद कैसे कर सकते हैं?
पहले अधिकांश काले धन से राजनीति का पोषण होता था. उद्योगपति-पूंजीपति चंदे के सबसे बड़े स्त्रोत होते थे, किंतु इधर दो दशकों में राजनीति को पोषित करने वाले धन के चरित्र में परिवर्तन आया है. अब राजनीति के पोषण का बड़ा हिस्सा विभिन्न विकास एवं कल्याणकारी योजनाओं के सरकारी धन की चोरी व परियोजनाओं में कमीशन से आ रहा है. अब यह चोरी धड़ल्ले से हो रही है. भ्रष्टाचार से जुड़ा है अपराधीकरण. ईमानदार-सरल व्यक्ति के लिए भ्रष्टाचार करना मुश्किल होता है.
यदि राजनीति का पोषण ही भ्रष्टाचार के पैसे से होना है तो यह काम आपराधिक मानसिकता के लोगों के लिए आसान होता है. आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि राजनीति में अपराधियों को संरक्षण मिल रहा है. अपराधियों ने भी इसका खूब फायदा उठाया है. उनके लिए तो राजनीति में प्रवेश करना अपने अपराधों पर पर्दा डालने का सबसे सरल उपाय है.
राजनीति के चरित्र में मौलिक परिवर्तन आए बिना राजनीति में अपराध को वर्चस्व को भी खत्म करना नामुमकिन है. हमारी राजनीति से विचारधारा का लोप हो रहा है. जब एक नेता या उसके परिवार के प्रति समर्पण ही राजनीति में सफल होने का सबसे बड़ा मंत्र हो तो विचारधारा को समझने की जहमत उठाने की क्या जरूरत है?
जहां सरलता, ईमानदारी, वैचारिक निष्ठा जैसे गुण राजनीति के लिए अनुपयुक्त माने जाने लगें वहां तो दिखावे वाली संस्कृति का ही बोल-बाला होगा। साफ है कि हम आदर्श राजनीति की कल्पना से कोसों दूर हैं. देश की राजनीतिक संस्कृति को बदलने के लिए लंबे समय की तैयारी के साथ कड़ी मेहनत करने की जरूरत है. बिना इसके साफ-सुथरा जन-पक्षीय राजनीतिक विकल्प खड़ा भी नहीं किया जा सकता.
डॉ संदीप पाण्डेय
(लेखक मग्सय्सय पुरुस्कार से सम्मानित सामाजिक कार्यकर्ता हैं, लोक राजनीति मंच के राष्ट्रीय अध्यक्षीय मंडल के सदस्य हैं, जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय के संयोजक हैं, और आशा परिवार का नेतृत्व कर रहे हैं। ईमेल: ashaashram@yahoo.com)
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