आतंकवाद के खिलाफ यह हमारी साझा लड़ाई है
डॉ संदीप पाण्डेय (दैनिक भास्कर में २१ अप्रैल २००९ को प्रकाशित)
हाल ही में हमारा पाकिस्तान दौरा उत्साहवर्धक और डरावना रहा। पाकिस्तान के नागरिक समाज तथा राजनीतिक दलों के लोग तालिबान के बढ़ते खतरे से आतंकित हैं। फिर भी लोकतंत्र को बचाए रखने के प्रयासों में एक उम्मीद की किरण भी है।
लोगों को नहीं मालूम कि मलाकंद व स्वात में तालिबान के साथ हुआ समझौता पाकिस्तान को किस ओर ले जाएगा। लाहौर में श्रीलंकाई क्रिकेट टीम पर हमले से पहले कुलदीप नैयर, जो पाकिस्तान में भी उतने ही लोकप्रिय हैं, के नेतृत्व में एक १३ सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल के साथ मुझे वहां जाने का मौका मिला। हालांकि छह वर्षो में यह मेरी पाकिस्तान की छठी यात्रा थी।
मुझे पहली बार यह एहसास हुआ कि पाकिस्तान के सभी प्रमुख राजनीतिक दल पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी, पाकिस्तान मुस्लिम लीग-एन, पाकिस्तान मुस्लिम लीग-क्यू, अवामी नेशनल पार्टी इत्यादि असल में भारत के साथ मैत्री व शांति चाहते हैं।
पाकिस्तान के लोगों में तालिबान को लेकर बहुत चिंता है। वहां के राजनेताओं को डर है कि कहीं फिर से एक बार सेना चुनी हुई सरकार का तख्तापलट न कर दे। पाकिस्तान की सरकार ने अमेरिका की जरूरतों को पूरा करने के लिए जो दानव खड़ा किया था, वह अब पाकिस्तान को ही निगल रहा है।
अमेरिका पर पाकिस्तान की निर्भरता इस हद तक है कि पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था खोखली हो चुकी है और वहां की सरकार की कोई विश्वसनीयता नहीं रह गई है। पाकिस्तान को नहीं मालूम की इस बंधन से अपने को कैसे मुक्त कराए।
पाकिस्तान की सेना चाहती है कि अमेरिका के साथ पाकिस्तान का नजदीकी रिश्ता बना रहे ताकि चुनी हुई सरकार पर उसका दबदबा कायम रहे। सेना अपने आपको जेहादियों को नियंत्रण में रखने वाली शक्ति के रूप में पेश करती है। जब तक पाकिस्तान में तालिबान व अलकायदा का खतरा बना हुआ है, तब तक सेना अपने आपको चुनी हुई सरकार से ज्यादा महत्वपूर्ण भूमिका में देखना चाहेगी। जब तक चुनी हुई सरकार मजबूत नहीं होती, तब तक सेना की भूमिका कम नहीं होगी। एक बार पुन: जनरल कियानी ने आसिफ अली जरदारी को चुनौती दे डाली है। पाकिस्तान इस दुष्चक्र में फंसा हुआ है।
नवाज शरीफ का कहना है कि जब तक वे प्रधानमंत्री रहे, तब तक उन्होंने कभी बम विस्फोट करने वाले आत्मघाती दस्तों के बारे में नहीं सुना था। परवेज मुशर्रफ के समय इन तत्वों को बढ़ावा मिला। उन्हें तालिबान के साथ हुए समझौते की सफलता पर संदेह है।
उनका मानना है कि जेहादी जितना खतरा पाकिस्तान के लिए हैं, उससे कम भारत के लिए नहीं हैं। बेनजीर भुट्टो के घर में आसिफ अली जरदारी की बहन फरयाल तालपुर, जो सांसद भी हैं, के साथ एक बैठक में उन्होंने बताया कि मुंबई हमले में तो २क्क् लोग मरे, लेकिन पाकिस्तान के अंदर हुए आतंकवादी हमलों में अब तक जेहादियों ने करीब ६क्क्क् लोगों को मार डाला है।
उनका कहना था कि भारत पाकिस्तान के ऊपर आतंकवादी संगठनों के खिलाफ कार्यवाही करने के लिए दबाव बनाता है, लेकिन पाकिस्तान को तो इन तत्वों से निपटने के लिए भारत की मदद चाहिए। खान अब्दुल गफ्फार खान के पोते असफनद्यार वली खान, जो अवामी नेशनल पार्टी के नेता हैं तथा जिनकी उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत में सरकार है, का कहना था कि भारत की सुरक्षा के लिए यह जरूरी है कि पाकिस्तान में एक मजबूत केंद्रीय लोकतांत्रिक सरकार हो।
हाल ही में राष्ट्रपति जरदारी ने अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी नवाज शरीफ, जो बेनजीर भुट्टो की मौत के बाद पाकिस्तान के सबसे लोकप्रिय नेता हैं, के खिलाफ जो कार्यवाहियां की हैं, वह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण हैं। न्यायपालिका को स्वायत्त बनाने की नवाज शरीफ की मांग बहुत बुद्धिमत्तापूर्ण है।
लेकिन आसिफ अली जरदारी को डर इस बात का है कि न्यायपालिका के स्वायत्त होते ही उन्होंने संविधान में संशोधन कर राष्ट्रपति पद के लिए स्नातक होने की जो मान्यता समाप्त कराई है, को चुनौती दी जाएगी। अत: इससे पहले कि कोई उन्हें राष्ट्रपति पद से हटाए उन्होंने न्यायालय की मदद से नवाज शरीफ और शहबाज शरीफ को ही चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहरा दिया है।
इस्लामाबाद के एक टीवी कार्यक्रम, जिसमें हम लोगों को बातचीत के लिए बुलाया गया था, के संचालक ने हमें यह याद दिलाया कि भारत के इतिहास में सभी हमले उत्तर-पश्चिम से हुए हैं। अत: तालिबान का खतरा भारत के लिए भी उतना ही गंभीर है।
भारत को चाहिए कि वह पाकिस्तान की चुनी हुई सरकार के साथ मिलकर इस खतरे का सामना करे। इससे दोनों देशों को फायदा होगा और दोनों को जो सुरक्षा का खतरा महसूस होता है, वह भी धीरे-धीरे समाप्त होगा। पाकिस्तान के लिए भी अमरीका और चीन की तुलना में भारत के साथ रिश्ता ज्यादा सम्मानजनक रहेगा।
-लेखक मैगसेसे पुरस्कार विजेता हैं।
(दैनिक भास्कर में २१ अप्रैल २००९ को प्रकाशित)