१९७९ में जमशेदपुर के दंगों की याद
काशिफ-उल-हुदा
[यह मौलिक रूप से अंग्रेजी में लिखा गया है, जिसको पढ़ने के लिए यहाँ पर क्लिक कीजिये. यह इसका हिन्दी अनुवाद है, यदि त्रुटियां हों, तो माफ़ कीजियेगा]
१९७९ में इसी महीने (अप्रैल), जमशेदपुर में हिन्दू-मुस्लिम दंगे हो गए थे जिसमें १०८ लोगों की जानें गयीं थीं. ११४ जानें भी जा सकती थीं परन्तु मेरा परिवार किसी तरह बच गया, शायद इसलिए जिससे हम आज ३० साल बाद उस दिल दहला देने वाली घटना को बयाँ कर सकें.
यह दुर्भाग्यपूर्ण हादसा तब हुआ था जब में ५ साल का था. परन्तु इस हादसे की याद मेरे मस्तिष्क में साफ़ उभरी हुई है और मेरी प्रारंभिक जीवन की स्मृतियों में से एक प्रमुख याद है. ३० साल बाद भी इस हादसे की भयावाही यादें आज भी ताजा हो उठती हैं.
११ अप्रैल १९७९ को उस दिन हवा में कुछ भयानक संकेत थे. पता नहीं कैसे, परन्तु मेरी माँ को यह संकेत समझ में आ गए और वोह रामनवमी के दिन, अपने भाई और दो छोटी बहनों के साथ पास के मुसलमान इलाके, गोलमुरी, में चली गयीं. मेरे पिताजी आदर्शवादी थे और उन्हें पूरा भरोसा था कि कुछ नहीं होगा. यदि कुछ हो भी गया तो पिताजी ने एक हिन्दू और मुस्लमान लोगों का संयुक्त रक्षा दल बनाया हुआ था जो हिन्दू और मुस्लमान गुटों के आक्रमण से बचायेगा.
मैं और मेरा भाई, जो मुझसे २ साल बड़ा है, पिताजी के साथ रुक गए और मेरी माताजी और बहनें सुबह को गोलमुरी चली गयीं. जैसे-जैसे दिन बीत रहा था, वैसे-वैसे लोगों की भीड़ बाहर बढ़ने लगी. मेरा भाई कुछ परेशान होने लगा और दोपहर के खाने के समय तक हमने अपने पिताजी को मना लिया कि वोह हम दोनों भाइयों को माँ के पास गोलमुरी छोड़ आयें. जब हम लोग गोलमुरी में अपने रिश्तेदार कमाल जी के यहाँ भोजन कर रहे थे, लोगों के चिल्लाने की आवाजें आयीं कि दंगा आरम्भ हो गया है.
यह देखने के लिए की क्या हो रहा है, हम लोग जल्दी से बाहर गए और देखा कि कुछ ही दूरी पर धुआं उठ रहा था. इसके बाद की मेरी स्मृति, टुकड़ों में ही है. मुझे याद है कि हम जिस घर में रह रहे थे, वहाँ पर सिर्फ़ महिलाएं और बच्चे थे. मुझे यह याद है कि मैं खाना नहीं खाना चाहता था क्योंकि वोह पूरी तरह से पका हुआ नहीं होता था. यह मेरा शरणार्थी की तरह बहुत की कम उम्र का अनुभव रहा है. रात में मुझे याद है कि में ऊपर छत पर जाता था, जहाँ से देख कर के लगता था जैसे पूरा शहर ही जल रहा हो. मुझे यह भी याद है कि कोई मुझे चेतावनी दे रहा था कि ऊपर छत पर नहीं जाना चाहिए क्योंकि आसानी से गोली का निशाना बनाया जा सकता है. मुझे यह भी याद है कि मैं अपने पिताजी से बहुत ही कम मिल पाता था और बहुत सहमा हुआ रहता था.
कई सालों बाद पता लगा कि जमशेदपुर के टिनप्लेट छेत्र में हमारा घर ही अनेकों स्थानीय मुसलमानों को शरण दिए हुआ था क्योंकि संयुक्त परिवारों में रहने वाले हिन्दू लोग धीरे-धीरे इस छेत्र को छोड़ कर जा रहे थे.
उस दिन, मेरे पिताजी, सामग्री देने के लिए गोलमुरी आए हुए थे परन्तु जब वोह वापस जाने को हुए तब तक करफ्यू लग गया था. चूँकि वोह वापस नहीं पहुंचे थे, टिनप्लेट में रह रहे मुसलमानों ने देखा कि वोह हर ओर से घिर रहे हैं और इसीलिए टिनप्लेट फैक्ट्री में वोह लोग मदद मांगने गए. परन्तु वहाँ पर उन सब को उन्ही के सहकर्मियों ने बर्बरतापूर्वक मार डाला. मेरे पिताजी सिर्फ़ इसलिए बच गए क्योंकि करफ्यू लग जाने की वजह से वोह गोलमुरी से टिनप्लेट वापस नहीं जा सके.
हमारा घर तो लुट गया था पर हम लोग भाग्यशाली थे क्योंकि और लोगों का सब सामान जला कर राख कर दिया गया था. महीनों बाद हम सब एक नए छेत्र में रहने के लिए गए जिसका नाम अग्रिको कालोनी था, जो मुसलमानों की एक अन्य कालोनी भालूबासा के सामने थी. इन घरों में नई पुती हुई सफेदी भी आग और लूट के दाग नहीं छुपा पा रही थी. हमें यह भी नहीं पता था कि इन घरों में किसी की हत्या हुई थी या नहीं, पर लूट के निशाँ साफ़ दिख रहे थे.
समय बीतता गया और अनेकों लोगों से जमशेदपुर दंगे की दिल-दहला देने वाली उनकी आप बीती सुनने को मिली. मुझे एक महिला याद है जिसके शरीर पर जलने के निशाँ थे - यह महिला उस एंबुलेंस से बच गई थी जिसको यह सोच कर जलाया गया था कि एंबुलेंस के साथ-साथ उसके भीतर बैठे सभी लोग भी जल जायेंगे. रोजाना स्कूल जाते हुए हम इस जली हुई एंबुलेंस को देखते थे जो पुलिस स्टेशन के बाहर खड़ी कर दी गई थी.
१०८ मृत लोगों में से ७९ मुस्लमान और २५ हिन्दू थे. कई लोग जख्मी हुए थे और अनेकों ऐसे थे जिनका सब कुछ खो गया था.
जमशेदपुर एक उद्योगों वाला शहर है, जहाँ टाटा की फैक्ट्री हर ओर हैं. इस शहर में अधिकाँश रहने वाले लोग इन फैक्ट्री में ही कार्य करते हैं. अधिकाँश शहर कंपनी की जागीर है और हर धर्म के लोग शांतिपूर्वक कंपनी द्वारा दिए हुए क्वार्टर में रहते हैं.
यह समझ से परे है कि ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण और बर्बर कृत्य इस शहर में हुआ जहाँ हर धर्म के लोग सद्भावना के साथ रहते थे. अधिकाँश रहने वाले लोग बिहार से हैं या अन्य भारतीय प्रदेशों से, और सभी कंपनी में कार्यरत थे और अपने परिवार के पालनपोषण में रमे हुए थे. इस जमशेदपुर दंगों में सिर्फ़ मुस्लमान ही नहीं मरे, बल्कि हिन्दू भी तो मरे थे - आख़िर इन दंगों का लाभ किसको मिला था?
तीस साल पहले जिस आदमी ने पूरे जमशेदपुर को आड़े हाथ लिया हुआ था वोह जमशेदपुर का स्थानीय सभासद दीनानाथ पाण्डेय था. पाण्डेय को इस हादसे के बाद बिहार के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने २ बार सीट से नवाजा. भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशी की तरह वोह १९९० तक चुनाव जीता था. उसकी सीट भारतीय जनता पार्टी के लिए 'सुरक्षित' सीट थी. पिछले दो प्रदेश चुनाव में, भारतीय जनता पार्टी इस सीट से ५० प्रतिशत से भी अधिक वोट से जीती.
भारत में लोक सभा चुनाव होने को हैं. जब हम लोग यह टिपण्णी करते हैं कि राजनीति में गुंडे या अपराधी पृष्ठभूमि के लोग आ गए हैं, हम यह भूल जाते है कि इन लोगों को राजनीति में वोट दे कर लाने के लिए भी हम लोग ही जिम्मेदार हैं. दीनानाथ पाण्डेय जैसे लोगों के लिए, जिनपर सामूहिक हत्या का आरोप है, राजनीति में कोई स्थान नहीं होना चाहिए. जगदीश टाइलेर और सज्जन कुमार को कांग्रेस प्रत्याशी होने पर रोक लगा कर कांग्रेस ने सराहनीय काम किया है, परन्तु यह वही पार्टी है जो आंध्र प्रदेश में उस समय शासन में थी जब हैदराबाद में मुस्लमान युवाओं को गैर कानूनी तरीकों से गिरफ्तार किया जा रहा था और उगलवाने के लिए पुलिस द्वारा अनैतिक ढंग से दंड दिया जा रहा था. यह सरकार तब तक कोई भी सख्त कदम नहीं उठाती है जब तक लोग अपना आक्रोश जाहिर न करें.
यदि पार्टियाँ समयोचित कदम लेने से कतरायेंगी और अपराधी पृष्ठभूमि वाले लोगों को चुनाव में उतारेंगी, तो हम लोग ऐसे नफरत और वैमनस्य भरे हुए मौहौल में वोट नहीं देंगे.
काशिफ-उल-हुदा
(लेखक समाचार वेबसाइट www.twocircles.net के संपादक हैं)
प्रकाशित: रविवार, ढाई आखर, मेरी ख़बर