श्री लंका में हो रहे नरसंघार की हम निंदा करते हैं
भारत को लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए अंतर्राष्ट्रीय आवाज़ बनना चाहिए
श्री लंका में हो रहे नरसंघार की हम निंदा करते हैं जो नि:संदेह एक भीषण मानवीय विपदा है. श्री लंका सरकार को भारत द्वारा सैन्य और आर्थिक सहायता देने की भी हम निंदा करते हैं क्योंकि उससे श्री लंका में स्थिति और अधिक गंभीर हो गयी है जिसके कारणवश असंख्य लोगों को हिंसा और युद्घ-जैसी स्थिति के भयंकर कु-प्रभाव झेलने पड़ते हैं.
श्री लंका के सैन्य हमलों ने शहरी तमिलियों की आबादी को बड़े पयमाने पर जान-माल की छति पहुंचाई है. जब तक हिंसा और नरसंघार को रोकने के लिए श्री लंका सरकार पर भारत दबाव नहीं बनाता है, आम लोगों की मृत्यु दर बढ़ता ही रहेगा और भारत का 'शांति गुरु' होने का दावा भी विश्व के समक्ष खोखला हो जायेगा.
हम लोगों ने बड़ी निराशा के साथ यह देखा कि कैसे श्री लंका सरकार ने तमिल अल्प-संख्यकों का लगातार बर्बरतापूर्वक शोषण किया और भारत सरकार ने इन प्रयासों का समर्थन किया. इस बात के कुछ प्रमाण हैं कि एक तरफ़ भारत इस समस्या का 'राजनैतिक समाधान' खोजने की बात कर रहा है और दूसरी ओर भारत अपनी 'रिसर्च एंड अनालिसिस विंग' और अन्य गुप्त एजेन्सी द्वारा श्री लंका को सैन्य हथियार और सैन्य प्रशिक्षण भी दे रहा है. बरसों पहले श्री लंका में इंडियन पीस कीपिंग फोर्स (आई.पी.के.ऍफ़) के सैन्य दस्ते को भेजने से स्थिति अधिक उलझ गयी है जो भारत के 'शांति के मसीहा' होने के दावे पर सवाल खड़ा करती है.
जुलाई २००७ में श्री लंका की सेना के अध्यक्ष लेफ्टिनेंट जनरल सरथ फोनसेका ने पत्रकारों से कहा था कि ८०० श्री लंका सैनिकों को नि:शुल्क प्रशिक्षण भारत हर साल देता है. उनका कहना था कि भारत का यह सैन्य सहयोग 'बहुत बड़ा' है. कुछ रपटों के अनुसार श्री लंका के राष्ट्रपति महिंदा राजपक्ष को भारत का यह सहयोग आर्थिक गणित पर आधारित है कि जब तमिल छेत्रों को श्री लंका सरकार सैन्य हमलों से बरबाद कर देगी, तब भारतीय कंपनियों को 'तमिल लोगों की सहायता करने की आड़ में' इस छेत्र के पुनर्स्थापना के लिए काम दिया जाएगा.
यदि यह रपट सही है, तो भारत का यह आर्थिक और राजनैतिक लाभ निर्दोष लोगों के लहू से सना हुआ है. मानवाधिकार 'वाच' संस्था और अन्य श्री लंका के मानवाधिकार समूहों के अनुसार श्री लंका सरकार के सैन्य हमलों के कारण जनवरी २००९ से लगभग १००० तमिलियों की मृत्यु हो चुकी है. इन सैन्य हमलों में श्री लंका ने अपने ही देश के स्कूल, अस्पताल और अन्य असैनिक इमारतें को भी निशाने पर लिया है.
श्री लंका सरकार को लगता है कि वो अपनी विजय के बहुत ही करीब है और इसीलिए उसने युद्घ-विराम की अपील को अस्वीकार कर दिया है. श्री लंका के राष्ट्रपति महिंदा राजपक्ष ने संयुक्त राष्ट्र के विशेष राजदूत 'विजय नम्बि आर' से १७ अप्रैल २००९ को कहा कि वो 'समाप्ति तक युद्घ' को विराम नहीं देंगे.
जो लोग इस छेत्र से पलायन कर रहे हैं, उनको श्री लंका सरकार जबरन कैंप में कैद कर रही है. सरकार का कहना है कि इन लोगों में आतंकवादी दस्ते के लोग भी हो सकते हैं इसीलिए वो इन २५०,००० शरणार्थियों को ३ साल तक इस कैंप में नज़रबंद रखेगी. इन कैम्पों के भीतर ही स्कूल, अस्पताल और बैंक आदि के निर्माण के लिए श्री लंका ने संयुक्त राष्ट्र से और अन्य दाता एजेन्सी से अनुदान की भी मांग की है. कुछ लोगों के अनुसार जब इस छेत्र के निवासी इन कैम्पों में कम-से-कम तीन साल तक के लिए नज़रबंद होंगे, तब हो सकता है कि श्री लंका सरकार इन्ही छेत्रों को सिन्हालीस आबादी से पुनर्स्थापित कर दे.
भारतीय के 'एक्सटार्नल अफेयर्स' मंत्रालय ने श्री लंका सरकार से हाल ही में अनुरोध किया है कि शरणार्थियों को अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुसार ही इस छेत्र से निकाला जाए और कैम्पों में रखा जाए, और इस प्रक्रिया में अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं की भागेदारी आवश्यक है. यह भारत के लिए नि:संदेह सही दिशा की ओर कदम है परन्तु पर्याप्त नहीं है.
हमारी मांग है कि:
- स्थायी और बिना-शर्त युद्घ-विराम घोषित किया जाए जिससे कि शांति वार्ता आगे बढ़ाई जा सके
- शरणार्थियों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए (जैसे कि पानी, दवाएं, भोजन इतियादि) और उनके मानवाधिकारों की संग्रक्षा करने के लिए विश्वसनीय टीम बने जिसमें अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कार्यकर्ता, स्वास्थ्य कार्यकर्ता और सामाजिक कार्यकर्ता भी शामिल हों. बच्चों, महिलाओं और युवाओं का विशेष रूप से ख्याल रखना आवश्यक है.
- गाँव में बिछी बारूदी सुरंगों को सुरक्षित तरीके से समाप्त किया जाए, और उनको पुनर्स्थापित किया जाए जिससे कि स्थानीय लोग वापस अपने घर जा सकें
- एक राजनैतिक प्रक्रिया आरंभ हो जिसमें सभी वर्गों की बराबरी की भागीदारी हो और धर्म, राष्ट्र, लिंग, भाषा, या अन्य किसी भी ऐसे कारण से किसी की भी भागीदारी शोषित न हो
- अस्तित्व से सम्बंधित मुद्दों पर तमिल लोगों के स्वयं निर्णय लेने के अधिकार को संग्रक्षित करना चाहिए
- शरणार्थियों के कैंप से 'गायब' होने पर रोक लगनी चाहिए और अन्य प्रकार की हिंसा पर भी विराम लगना चाहिए. प्रेस/ मीडिया के लिए पूर्ण स्वतंत्रता से रपट करने के अधिकार को सुनिश्चित करना चाहिए. श्री लंका के निवासियों को लोगों के जीवन और रोज़गार से जुड़े अधिकारों पर कार्य हेतु संस्थाओं को कार्य करने की अनुमति मिलनी चाहिए.
- शरणार्थियों को तीन साल तक जबरन कैंप में नज़रबंद रखने के निर्णय को भारत को चुनौती देनी चाहिए
हमारा मानना है कि इन सरहदों ने लोगों को लड़ाने और हिंसा के भीषण कुपरिणाम झिलवाने के अलावा कोई भूमिका नहीं अदा की है. हमारी अपील है कि दक्षिण एशिया के राष्ट्रों को एक वीसा-मुक्त, परमाणु मुक्त और शांति प्रिय छेत्र का निर्माण करने के लिए पहल लेनी चाहिए.
एस.एम् नसीम, भूतपूर्व पुलिस महानिदेशक
डॉ रमेश दीक्षित, लखनऊ यूनिवर्सिटी
एस.आर दारापुरी, उपाध्यक्ष, पीपुल'स यूनियन फॉर सिविल लिबरटीस
मुहम्मद शोएब, वरिष्ठ अधिवक्ता, हाई कोर्ट
डॉ साबरा हबीब, लखनऊ यूनिवर्सिटी
ज़ाहिर अहमद सिद्दीकी, फाउंडेशन फॉर सोशल केयर
मोहम्मद खालिद, जमात-ए-इस्लामी हिंद
डॉ संदीप पाण्डेय, संयोजक, जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय [National Alliance of People's Movements (NAPM)]