[English] [फोटो] अभी यह बात हो ही रही थी कि गरीबी रेखा 28.3 प्रतिशत से बढ़ा कर तेंदुलकर समिति की सिफारिशों के अनुसार 41.8 पर तय हो जबकि सरकार द्वारा ही नियुक्त सक्सेना समिति ने 49 प्रतिशत की संस्तुति की है और योजना आयोग के अजुन सेनगुप्ता ने 77 प्रतिशत असंगठित मजदूर को 20 रुपए से कम पर गुजारा करने की बात उजागर की, योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने यह कहकर सबको चौंका दिया कि शहर में 20 रु. प्रतिदिन व गांव में 15 रु. प्रतिदिन की प्रति व्यक्ति आय को गरीबी रेखा मान लेना चाहिए। क्या मोंटेक सिंह खुद 20 रु. प्रति दिन की आय पर जी कर दिखा सकते हैं?
सरकार द्वारा गरीबी रेखा पर एक सीमा तय कर देने से बहुत से गरीब इस श्रेणी को मिलने वाली सुविधाओं से वंचित रह जाते हैं। गांव-गांव की कहानी है कि पात्र गरीब गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालों की सूची से बाहर हैं तथा तमाम अपात्र लोग इसमें शामिल हैं। यदि मनरेगा की तरह यह छूट मिले कि कोई भी जरूरतमंद अपना कार्ड बनवा सकता है तभी यह समस्या हल हो पाएगी। इसको दूसरे तरीके से सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लोक व्यापीकरण की मांग के रूप में भी उठाया जा रहा है।
अब सरकार ने नया शिगूफा छोड़ा है। वह कह रही है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली में अनाज के बदले नकद देगी। उ. प्र. में हरदोई व लखीमपुर खीरी को प्रयोग के लिए चुना गया है। हाल ही में हरदोई में कराए गए एक सर्वेक्षण से पता चलता है कि गरीब व्यक्ति अनाज ही चाहता है। फिर सार्वजनिक वितरण प्रणाली की वजह से अनाज की न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद से किसान को सम्मानजनक नहीं तो एक न्यूनतम मूल्य तो मिल ही जाता है। कृषि पर सरकार ने ध्यान नहीं दिया है यह तो स्पष्ट है। 1950 व ‘60 में कृषि विकास दर हुआ करती थी 3.2 प्रतिशत जो अब 1.3 प्रतिशत है। कृषि का सकल घरेलू उत्पाद में हिस्सा हुआ करता था 60 प्रतिशत जो अब घटकर मात्र 13 प्रतिशत रह गया है।
हाल ही में भू अधिग्रहण के इतने मामले सामने आए हैं जहां किसानों की जमीनें जबरदस्ती निजी व्यवसायिक हितों की पूर्ति के लिए ली जा रही हैं। महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधनों, जैसे जल, जंगल, जमीन व खनिज, जिस पर गरीब लोगों का जीवन व जीविका निर्भर है के लूट की खुली छूट पैसे वालों को मिली हुई है और हमारे लोकतंत्र में सरकार ताकतवर लोगों के साथ मिल कर गरीब का दमन करती नजर आती है।
सरकार ने जो आर्थिक नीतियां अपनाई हुई हैं उससे गरीब व अमीर का फर्क बढ़ता जा रहा है। नई आर्थिक नीतियों के लागू हाने के बाद से जबकि सेवा क्षेत्र में तनख्वाहें 15 गुना से भी ज्यादा बढ़ गई हैं तो दैनिक मजदूर की मजदूरी दोगुनी ही हुई है। सेवा क्षेत्र, जिसका प्रतिशत कुल आबादी का 3-5 होगा, के लोगों के वेतन बढ़ते ही बाजार में जरूरी उपभोक्ता वस्तुओं के दाम बढ़ जाते हैं और इसकी गाज गिरती है 70-80 प्रतिशत दैनिक मजदूरी करने वाले पर। यही कारण है कि आजादी के समय से प्रति व्यक्ति अनाज व दाल की खपत में भारी गिरावट आई है। यानी हमारी विकास दर भले ही अच्छी दिखाई देती हो किन्तु खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से हमारी अधोगति हुई है।
अरुंधती धुरू, 9415022772, रोमा, जयशंकर पाण्डेय, केशव चंद, नंदलाल, अनिल मिश्र, शंकर सिंह, रामबाबू, राजेश मौर्य, जे.पी. सिंह, एस. आर. दारापुरी, संदीप पाण्डेय