अगर पाकिस्तान के पास परमाणु बम न होता तो क्या होता?

डाक्टर अब्दुल कादिर, जो अपने आपको पाकिस्तान के परमाणु बम का जनक मानते हैं, पिछले कुछ सालों से पाकिस्तानी सेना की निगरानी में अपने इस्लामाबाद स्थित आलीशान मकान में ज़िन्दगी गुज़ार रहे हैं. उनका अधिकतर समय अखबारों के लिए साप्ताहिक कॉलम लिखने में व्यतीत होता है. अपने हाल ही के एक लेख में उन्होंने कहा है कि, " यदि हमारे पास १९७१ के पहले आणविक क्षमता होती तो हमें एक शर्मनाक हार का सामना करते हुए अपना आधा देश (वर्त्तमान बांगला देश) खोना नहीं पड़ता."
ऐसा लिखते समय वे शायद यह भूल गए कि ३०,००० आणविक हथियार भी सोवियत यूनियन को पतन, विघटन, और हार से नहीं बचा पाए. तो फिर क्या एक बम पाकिस्तान को १९७१ की हार से बचा पाता? क्या वर्त्तमान में भी बचा पायेगा?
चलिए एक बार फिर से १९७१ की यादें ताज़ा करते हैं. हमारे जैसे लोग जो उस दौर में पले बढ़े, वे सभी यह जानते हैं कि पूर्वी एवम् पश्चिमी पाकिस्तान एक ही देश के हिस्से ज़रूर थे, पर वे कभी भी एक राष्ट्र नहीं बन पाए. आज की युवा पीढी इस बात का अंदाजा भी नहीं लगा सकती कि उन दिनों, पश्चिम पाकिस्तान में बंगालियों के प्रति कितना जातीय विरोध व्याप्त था. आज मैं शर्म से सर झुका कर यह बात स्वीकार करता हूँ, कि उस समय मेरे बाल मन में भी पूर्वी पाकिस्तान के छोटे और काले बाशिंदों के प्रति घृणा के ही भाव थे. हम सभी को यह भ्रम था कि कद्दावर, गोरे और बढ़िया उर्दू बोलने वाले ही अच्छे पाकिस्तानी और मुसलमान हो सकते हैं. मेरे कुछ स्कूली दोस्त रेडियो पाकिस्तान से बंगाली   में प्रसारित होने वाले समाचारों की अजीब भाषा का मज़ाक उड़ाते थे. पश्चिम पाकिस्तान के शासन में बंगाली जनता बहुत प्रताड़ित हुई. वह यह मानती थी कि उसकी ऐतिहासिक नियति एक बंगला भाषी राष्ट्र कि नागरिकता हैं, न कि एक उर्दू भाषी पूर्वी पाकिस्तान की-- जैसा कि जिन्ना चाहते थे.
भाषा के अलगाव के अलावा भी परेशानी वाले कई मुद्दे थे. पूर्वी पाकिस्तान के इलाके में पूरे पाकिस्तान की ५४% आबादी रहती थी, और यही भाग विदेशी पूंजी का सबसे बड़ा अर्जक भी था. परन्तु पश्चिम पाकिस्तान के सेना नायक,अफसर एवम् जुल्फिकार अली भुट्टो जैसे राजनीतिज्ञ इस बात से डरते थे कि प्रजातांत्रिक प्रणाली के रहते सारी राष्ट्रीय सम्पदा, एवम् सत्ता पूर्वी पाकिस्तान के हाथों में चली जाएगी. लोकतंत्र और न्याय से वंचित, पूर्वी पाकिस्तान की असहाय जनता अपने क्षेत्र की पूंजी को पश्चिमी पाकिस्तान के उद्योग, स्कूल, और बाँध बनाने के कार्यों पर खर्च होते हुए बेबसी से देखती रही. १९७० में जब 'भोला साइक्लोन ने ५ लाख लोगों की जान ली, तब भी रावलपिंडी में बैठे हुए राष्ट्रपति याहिया खान एवम् साथी सेनानायकों की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ा. ऐसे माहौल में चुनावी नतीजों ने निर्णायक अवसर प्रदान किया. अवामी लीग को पाकिस्तानी संसद में बहुमत प्राप्त हुआ, परन्तु भुट्टो तथा अन्य सेनानायकों ने जनता के निर्णय को नहीं माना. बंगालियों के सब्र का बाँध टूट गया और वे आज़ादी की जंग में कूद पड़े. पश्चिम पाकिस्तान की सेना ने नरसंहार मचा दिया. राजनैतिक कार्यकर्ता, बुद्धिजीवी, एवम् विद्यार्थी चुन चुन कर मारे गए. खून कि नदियाँ बहने लगीं और लाखों लोग सरहद पार भाग निकले. जब  भारत ने हस्तक्षेप करके पूर्व को सहयोग प्रदान किया, तब सेना ने हथियार डाल दिये और एक  नए राष्ट्र बांग्लादेश का जन्म हुआ.
उस समय १९७१ में पाकिस्तान के पास बम न होना एक वरदान से कम नहीं था. पता नहीं डा. खान क्या सोच कर कह रहे हैं कि बम पाकिस्तान को विघटन से बचा सकता था. क्या माननीय डॉक्टर साहब ने ढाका की जनता पर बमबारी करी होती? या फिर कोलकाता और दिल्ली को जला दिया होता, ताकि प्रतिशोध में भारत भी कराची और लाहौर से बदला लेता? या फिर हमने भारत को आणविक हमले की धमकी दे कर उसे युद्ध से बाहर रखने का प्रयत्न किया होता?
बम के बगैर भी हज़ारों की तादाद में निरीह जनता मारी गयी. पाकिस्तान के विघटन को रोकने के लिए और कितने पूर्वी पाकिस्तानियों की कुर्बानी देनी पड़ती ? कुछ लोग यह कह सकते हैं कि विध्वंस के बावजूद भी यदि पाकिस्तान एक राष्ट्र ही बना रहता तो कालांतर में पूर्व पाकिस्तानियों का फायदा ही होता. परन्तु विकास के आंकड़े कुछ और ही कहते हैं. लन्दन स्थित लेगाटुम  इंस्टीट्यूट द्वारा ११० देशों के लिए बनायी गयी २०१० की समृद्धि तालिका  में  बांग्लादेश का स्थान ९६ हैं, जबकि पाकिस्तान १०९ वें स्थान पर है. यह तालिका शासन प्रणाली, शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा, निजी स्वतंत्रता, एवम् सामाजिक पूंजी के आधार पर बनायी गयी है. इस हिसाब से तो पूर्व की जनता को स्वतंत्रता से लाभ ही हुआ है. यूं.एन.ओ. के १८२ राष्ट्रों के मानवीय विकास सूचकांक में पाकिस्तान का स्थान १४१ है, जो  बांग्लादेश के १४६ से कुछ ही ऊपर है. तात्पर्य यह कि यदि बांग्लादेशी पाकिस्तान में ही रहते तो उनका अधिक फायदा न होता.
इसके अलावा, आंकड़े पूरी कहानी नहीं बताते हैं.  बांग्लादेश गरीब अवश्य है, परन्तु अधिक सुखी एवम् आशावादी है. वहां, पाकिस्तान के मुकाबले कहीं बेहतर तरीके से संस्कृति पनप रही है, शिक्षा में सुधार हो रहा है, तथा जनसँख्या नियंत्रण प्रयत्न कारगर हो रहे हैं. वहां न तो आत्मघाती बमबारी हो रही है है, न ही सरकारी संस्थानों एवम् सेना पर दैनिक  प्रहार.

बम ने पाकिस्तान को क्या फायदा पहुँचाया है? यह कहना बिलकुल गलत होगा कि यदि पाकिस्तान के पास बम न होता तो भारत उसको निगल जाता. भारत तो अपनी ही समस्याओं से जूझ रहा है. आर्थिक रूप से उन्नतिशील होने के बावजूद वह अपनी वर्तमान १.२ बिलियन जनसँख्या (जिसमें से लगभग ५०% बहुत गरीब है) को नियंत्रित करने में प्रयत्नशील है. वह किसी भी हालत में और १८० मिलियन लोगों का भरण पोषण करने में समर्थ नहीं है. और, यदि भूल से वह ऐसा करना भी चाहे तो एक असममित युद्ध के द्वारा जीत असंभव ही है. अमेरिका द्वारा ईराक और अफगानिस्तान में, तथा भारत द्वारा कश्मीर में झेली जा रही मुसीबतें इस बात को साफ़ कर देती हैं.
यह सच है कि १९९८ के बाद तीन बार बम ने  ही भारत को पाकिस्तान पर दंडात्मक हमले करने से रोका. १९९९ में पाकिस्तान की कारगिल घुसपैठ के बाद, उसी साल १३ दिसंबर को भारतीय संसद में हमले के बाद, तथा २००८ में लश्करे तैबा द्वारा मुंबई हमले के बाद, भारतीय जनता द्वारा इस प्रकार की क्रोधित मांगें करी गयीं कि भारत को पाकिस्तान स्थित मिलिटेंट ग्रुप्स के कैम्पों पर आक्रमण करना चाहिए. परन्तु यह समस्या केवल इसलिए है क्योंकि बम का इस्तेमाल इन आक्रमणकारी दलों की रक्षा के लिए किया गया है. अपनी इसी आणविक छतरी के कारण पाकिस्तान उन सभी लोगों के लिए एक चुम्बकीय आकर्षण रखता है जो इस्लाम के नाम पर युद्ध करते हैं. यहाँ तक कि वो ओसामा बिन लादेन का भी अंतिम सुरक्षा स्थल बना. पाकिस्तान भी धीरे धीरे वही कष्टपूर्ण पाठ पढ़ रहा है जो सोवियत यूनियन और साउथ अफ्रीका की गोरी सरकार पहले ही सीख चुकी है-- बम किसी भी देश कि जनता को सुरक्षा नहीं प्रदान कर सकता. बल्कि बम के कारण ही आज पाकिस्तान ऐसी मुसीबतज़दा हालत मैं है.

२८ मई को ही पाकिस्तान ने परमाणु बम का विस्फोट किया था. हमें यह दिन उत्सव के रूप में न मना कर इस मुसीबत को ख़त्म करने का प्रण करना चाहिए. बम बनाने एवम् उसकी यश गाथा गाने से कहीं अच्छा होगा अगर हम एक चिरस्थायी और सक्रीय लोकतंत्र का निर्माण करें, हमारी अर्थ व्यवस्था शान्ति न कि युद्ध को बढ़ावा दे, हमारी प्रादेशिक समस्याओं का निवारण हो, एक ऐसे  सहनशील समाज की स्थापना हो जहाँ विधि शासन का आदर तथा सामंतवादी व्यवस्था का अन्त हो.

डा. परवेज़ हूदभौय
(लेखक नाभिकीय भौतिकी के प्रोफ़ेसर हैं एवम् इस्लामाबाद और लाहौर में पढ़ाते हैं)