कांग्रेस के प्रवक्ता मनीष तिवारी ने कहा है कि लोकतंत्र को सबसे बड़ा खतरा उन लोगों की तानाशाही से है जो न तो लोकतान्त्रिक प्रक्रिया से चुने गए हैं और न ही चुनाव जीत सकते है. उनके अनुसार ‘अतार्किक आशाएं एवं रवैया’ अब केंद्र सरकार की बर्दाश्त से बाहर होता जा रहा है. इससे पहले प्रणव मुखर्जी ने कहा था कि लोकतान्त्रिक प्रक्रियाओं को कमजोर करने से और संवैधानिक शक्तियों से अधिक प्राधिकार देने से लोकतंत्र खत्म हो जायेगा.
हालाँकि सरकार, जनता के प्रतिनिधियों के साथ, लोकपाल बिल का मसौदा तैयार कर रही है, पर यह स्पष्ट है कि सरकार इसके प्रति संजीदा नहीं है. कांग्रेस पार्टी, जो सत्ता में है, उसके वरिष्ठ सदस्यों ने लोकपाल बिल मसौदा तैयार करने की समिति में जनता के सदस्यों के प्रति आक्रामक और कठोर रवैया अपनाया हुआ है. सरकार के इस रोष का क्या कारण है?
असल में सभी मुख्यधारा के राजनीतिक दल भ्रष्टाचार से कमाए हुए धन पर चलते हैं. चुनाव जीतने के लिये जिस प्रकार के भ्रष्ट तरीकों का इस्तेमाल होता है, उसके बिना ये राजनीतिक दल कैसे चुनावी राजनीति कर पाएंगे? अपनी पार्टी की भ्रष्ट प्रणाली की सहायता के बगैर मनीष तिवारी खुद ही चुनाव नहीं जीत पाएंगे. आखिर यह तो पता चले कि कांग्रेस पार्टी या किसी भी पार्टी के कितने सदस्यों ने पिछले लोकसभा चुनाव को, खर्च-सीमा रुपया २५ लाख से कम खर्चा करके, जीता है? अपने आशाजनक प्रत्याशियों को चुनाव आयोग की इस खर्च-सीमा से अधिक पैसे देने के लिये कांग्रेस पार्टी जानी जाती है. जब बुनियाद में ही भ्रष्टाचार हो तो यह कैसे हो सकता है कि निर्वाचित सांसद ईमानदारी से कार्य करेंगे?
बढ़ती महंगाई के लिए सरकार ही जिम्मेदार है. योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया के अनुसार शहर में रु. 20 प्रतिदिन व गांव में रु. 15 प्रतिदिन की प्रति व्यक्ति आय को गरीबी रेखा मान लेना चाहिए। इसका मतलब यह हुआ कि गाँव में रु. १६ और शहर में रु. २१ प्रतिदिन कमाने वाले लोग गरीब नहीं हैं. क्या मोंटेक सिंह खुद रु. 21 प्रति दिन की आय पर जी कर दिखा सकते हैं? क्या यह सरकार का ‘अतार्किक आशाएं एवं रवैया’ नहीं है?
अन्ना हजारे के नेतृत्व में भ्रष्टाचार के विरुद्ध अभियान ने आम लोगों से इसीलिए समर्थन पाया है क्योंकि आम लोग ही इस भ्रष्ट प्रणाली के शिकार हैं. इस समय आम लोग ही अपने चुने-हुए-राजनेताओं के बजाय अन्ना हजारे का समर्थन कर रहे हैं. इस सन्दर्भ में फिलहाल तो अन्ना हजारे ही अधिक सच्चे जन-प्रतिनिधि हुए जब कि वे शायद मनीष तिवारी की तरह चुनाव न जीत सकें.
वह समय अब दूर नहीं है जब हमारे तथा-कथित राजनेताओं की जन-सेवा की पृष्ठभूमि पर सवाल उठेंगे. अन्ना हजारे या मनीष तिवारी -जन-सेवा में किसकी बेहतर उपलब्धियां हैं? इस दृष्टिकोण से भी मनीष तिवारी के मुकाबले अन्ना हजारे ही अधिक श्रेष्ठ जन-प्रतिनिधि हैं. नौसिखियों को, बिना जन-सेवा के अनुभव के, मात्र अपनी ऊंची पहुँच या पैसे के बल पर, राजनेता बनने देने के चलन को बंद करना होगा. वर्तमान लोकसभा के आधे सांसद अत्यधिक अमीर हैं, और १६२ सांसदों पर अपराधी होने का आरोप लगा हुआ है, ऐसे में इसको कैसे भारत के नागरिकों का प्रतिनिधि माना जा सकता है, जिनमें से अधिकाँश लोग गरीब हैं और शक्तिशाली लोगों द्वारा किये गए अपराधों का शिकार हैं. एक शक्तिशाली और प्रभावकारी लोकपाल कानून के आ जाने से ऐसे राजनेताओं की कौम के अस्तित्व को ही खतरा है जो अन्ना हजारे के अभियान के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं. यही डर उनके आक्रामक रवैये के रूप में व्यक्त हो रहा है. आक्रामकता एक डरपोक और भ्रष्ट व्यक्ति का हथियार है.
सी.एन.एस.