डॉ. संदीप पाण्डेय
बाबा रामदेव का रामलीला मैदान से जबरन हटाया जाना एक बड़ा मुद्दा बना हुआ है। सभी कह रहे हैं कि गलत हुआ। खासकर जिस तरह पुलिस ने महिलाओं और बच्चों को भी नहीं बक्शा। किन्तु जो हुआ उसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। बाबा ने एक राजनीतिक मुद्दा उठाया है। सरकार ने पहले बातचीत से हल ढूढ़ने की कोशिश ही। बातचीत विफल हो गई तो उसने बल का सहारा लिया। यह कोई पहली बार तो हुआ नहीं। मेधा पाटकर को 2006 में जंतर मंतर से इससे भी बुरी तरीके से रात के अंधेरे में ही उठाया गया था। उस समय भी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के मंत्री बातचीत के लिए अनशन स्थल तक आए थे। मेधा पाटकर और देश के कई सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता ही नहीं आम जन ने भी पुलिस की बर्बरता को कई बार झेला है। आदिवासी इलाकों में तो जनता का इस कदर दमन हुआ है कि आज देश के एक बड़े हिस्से में सरकार के खिलाफ एक हिंसक प्रतिरोध खड़ा हुआ है। लोग जेल जाते हैं, यातनाएं सहते और मानसिक प्रताड़ना झेलते हैं। उस दृष्टि से तो रामदेव को कोई खास नहीं झेलना पड़ा। रामदेव तो पुलिस आते ही मंच से कूद गए। फिर एक लड़की के वस्त्र पहन पुलिस से भाग बचने की कोशिश की। किन्तु पकड़े गए। रामदेव यदि पुलिस का सामना साहस से करते तो उनकी गरिमा कायम रहती।
यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि बाबा के साथ 4 व 5 जून रात में जो हुआ वह निश्चित रूप से शर्मनाक था तथा भारतीय लोकतंत्र पर एक काले धब्बे के रूप में ही याद किया जाएगा। उसकी जितनी भर्त्सना की जाए वह कम है। दिग्विजय सिंह ने अनशन शुरू होने से पहले कहा था कि कांग्रेस को बाबा से कोई डर नहीं है इसीलिए बाबा स्वतंत्र हैं वर्ना सलाखों के पीछे होेते। पर जब सरकार बाबा को मनाने में विफल रही तो कांग्रेस को यह समझ में आ गया कि यदि बाबा का अनशन 4-5 दिन चल गया और अन्ना हजारे को जिस किस्म का जनता का समर्थन मिला था वैसा समर्थन मिल गया तो सरकार के लिए मुश्किल खड़ी हो जाएगी। और सरकार डर गई। किन्तु इस लेख का विषय है हाल में हुए भ्रष्टाचार विरोधी ओदोलनों की समीक्षा।
अप्रैल में अन्ना हजारे का आंदोलन हुआ। अन्ना कहते हैं कि उनके लिए त्याग का मूल्य सबसे महत्वपूर्ण है। यदि अन्ना की कोई एक विशेषता है तो वह है उनकी सादगी। उनका कोई बैंक खाता नहीं है। रालेगण सिद्धी में मंदिर के एक कमरे में रहते हैं जिसमें कोई ताला नहीं लगता। लेकिन उनके आंदोलन का संचालन करने वालों ने 82 लाख रुपए इकट्ठा किए और 32 लाख रुपए खर्च भी कर डाले।
अन्ना हजारे के आंदोलन में लाखों खर्च हुए तो बाबा रामदेव का अनशन शुरू होने से पहले ही करोड़ों खर्च हो चुके थे। बिना उद्योगपतियों या कम्पनियों की मदद के इतना पैसा आ ही नहीं सकता। ऐसे दौर में जहां इंसान के जीवन का हरेक पहलू बाजार की भेंट चढ़ रहा है जन आंदोलनों का भी कारपोरेटीकरण हो गया। इसीलिए अन्ना हजारे और बाबा रामदेव दोनों के आंदोलनों में सिर्फ मध्यम वर्ग आया। गरीब वर्ग न तो आया न ही उसे जोड़ने की कोशिश की गई। यह वर्ग तो दिन प्रति दिन भ्रष्टाचार से दो चार होता है। उसके पास मोमबत्ती जला कर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की फुर्सत ही नहीं है।
अन्ना के आंदोलन से शुरू हुई विकृति को रामदेव ने पराकाष्ठा पर पहुंचाया। योग सीखने आए लोगों को आंदोलन में झोंक दिया। वर्ना पचास हजार की भीड़ के रहते पुलिस की तो बाबा तक पहुंचने की हिम्मत ही नहीं होनी चाहिए थी। लेकिन न तो बाबा के पास आंदोलन का कोई अनुभव था और न ही उनके समर्थकों के पास। मंच से बाबा ने कसम खिलवाई थी कि बाबा गिरफ्तार होंगे तो शेष लोग अनशन जारी रखेंगे। किन्तु अनशन की बात तो दूर वहां तो पंडाल में कोई ठहर ही नहीं पाया। बाबा तो भाग गए और समर्थकों ने पुलिस का कोई प्रतिरोध ही नहीं किया।
उससे पहले बाबा ने यह अपरिपक्वता दिखाई कि बातचीत में किसी अनुभवी व्यक्ति को नहीं रखा। कम से कम अरविंद केजरीवाल से यह सबक सीख लिया होता। अरविंद ने शांति भूषण, प्रशांत भूषण, स्वामी अग्निवेश, किरण बेदी जैसे लोगों को साथ में रखा जो सरकार के मंत्रियों के साथ बराबरी के स्तर पर बातचीत तो कर पाए। कपिल सिबल व सुबोध कांत सहाय ने बाबा पर दबाव बनाया के वे उनकी मांगों को आंशिक रूप से माने जाने के बदले लिखित रूप में अपने अनशन को वापस लेने का वचन दें। बाबा के शिष्य बालकृष्ण ने लिखित दे दिया। किन्तु बाहर आकर बाबा अपनी बात से पलट गए। उसके बाद जो हुआ वह इतिहास है।
बाबा ने जो मांगें रखी थीं उसमें में कुछ विसंगतियां थीं। उदाहरण के लिए बाबा चाह रहे थे कि भ्रष्टाचारी को फांसी दी जाए। अब दुनिया भर में जघन्यतम अपराध के लिए फांसी की सजा पर रोक लग रही है। कई देशों में फांसी पर प्रतिबंध लग चुका है। फांसी की सजा की बात करना मध्यकालीन युग में जाने जैसी बात है। काश बाबा ने दो-चार कानूनविदों से सलाह मश्विरा कर लिया होता।
बाबा ने आंदोलन को बहुत हल्के में लिया। अभी लोकपाल विधेयक बना भी नहीं था और उन्होंने बीच में ही अपना आंदोलन छेड़ दिया। क्या जल्दी थी? अब लाकपाल विधेयक निर्माण की प्रक्रिया भी प्रभावित हो गई है क्योंकि अन्ना हजारे समूह ने बाबा के साथ हुए अत्याचार के विरोध में विधेयक पर बातचीत की बैठक का पहले तो बहिष्कार किया और जब सरकार ने कहा कि वह बिना नागरिक समाज की मदद के काम जारी रखेगी तो बहिष्कार का निर्णय वापस लिया गया।
सरकार को भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को कुचलने का मौका देकर बाबा रामदेव ने आंदोलन को बहुत नुकसान पहुंचाया है। सरकार के ऊपर जो दबाव बना था उसकी हवा फिलहाल तो निकल गई है।
डॉ संदीप पाण्डेय
लेखक मग्सेसे पुरुस्कार से सम्मानित वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता हैं. ईमेल: ashaashram@yahoo.com
बाबा रामदेव का रामलीला मैदान से जबरन हटाया जाना एक बड़ा मुद्दा बना हुआ है। सभी कह रहे हैं कि गलत हुआ। खासकर जिस तरह पुलिस ने महिलाओं और बच्चों को भी नहीं बक्शा। किन्तु जो हुआ उसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। बाबा ने एक राजनीतिक मुद्दा उठाया है। सरकार ने पहले बातचीत से हल ढूढ़ने की कोशिश ही। बातचीत विफल हो गई तो उसने बल का सहारा लिया। यह कोई पहली बार तो हुआ नहीं। मेधा पाटकर को 2006 में जंतर मंतर से इससे भी बुरी तरीके से रात के अंधेरे में ही उठाया गया था। उस समय भी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के मंत्री बातचीत के लिए अनशन स्थल तक आए थे। मेधा पाटकर और देश के कई सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता ही नहीं आम जन ने भी पुलिस की बर्बरता को कई बार झेला है। आदिवासी इलाकों में तो जनता का इस कदर दमन हुआ है कि आज देश के एक बड़े हिस्से में सरकार के खिलाफ एक हिंसक प्रतिरोध खड़ा हुआ है। लोग जेल जाते हैं, यातनाएं सहते और मानसिक प्रताड़ना झेलते हैं। उस दृष्टि से तो रामदेव को कोई खास नहीं झेलना पड़ा। रामदेव तो पुलिस आते ही मंच से कूद गए। फिर एक लड़की के वस्त्र पहन पुलिस से भाग बचने की कोशिश की। किन्तु पकड़े गए। रामदेव यदि पुलिस का सामना साहस से करते तो उनकी गरिमा कायम रहती।
यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि बाबा के साथ 4 व 5 जून रात में जो हुआ वह निश्चित रूप से शर्मनाक था तथा भारतीय लोकतंत्र पर एक काले धब्बे के रूप में ही याद किया जाएगा। उसकी जितनी भर्त्सना की जाए वह कम है। दिग्विजय सिंह ने अनशन शुरू होने से पहले कहा था कि कांग्रेस को बाबा से कोई डर नहीं है इसीलिए बाबा स्वतंत्र हैं वर्ना सलाखों के पीछे होेते। पर जब सरकार बाबा को मनाने में विफल रही तो कांग्रेस को यह समझ में आ गया कि यदि बाबा का अनशन 4-5 दिन चल गया और अन्ना हजारे को जिस किस्म का जनता का समर्थन मिला था वैसा समर्थन मिल गया तो सरकार के लिए मुश्किल खड़ी हो जाएगी। और सरकार डर गई। किन्तु इस लेख का विषय है हाल में हुए भ्रष्टाचार विरोधी ओदोलनों की समीक्षा।
अप्रैल में अन्ना हजारे का आंदोलन हुआ। अन्ना कहते हैं कि उनके लिए त्याग का मूल्य सबसे महत्वपूर्ण है। यदि अन्ना की कोई एक विशेषता है तो वह है उनकी सादगी। उनका कोई बैंक खाता नहीं है। रालेगण सिद्धी में मंदिर के एक कमरे में रहते हैं जिसमें कोई ताला नहीं लगता। लेकिन उनके आंदोलन का संचालन करने वालों ने 82 लाख रुपए इकट्ठा किए और 32 लाख रुपए खर्च भी कर डाले।
अन्ना हजारे के आंदोलन में लाखों खर्च हुए तो बाबा रामदेव का अनशन शुरू होने से पहले ही करोड़ों खर्च हो चुके थे। बिना उद्योगपतियों या कम्पनियों की मदद के इतना पैसा आ ही नहीं सकता। ऐसे दौर में जहां इंसान के जीवन का हरेक पहलू बाजार की भेंट चढ़ रहा है जन आंदोलनों का भी कारपोरेटीकरण हो गया। इसीलिए अन्ना हजारे और बाबा रामदेव दोनों के आंदोलनों में सिर्फ मध्यम वर्ग आया। गरीब वर्ग न तो आया न ही उसे जोड़ने की कोशिश की गई। यह वर्ग तो दिन प्रति दिन भ्रष्टाचार से दो चार होता है। उसके पास मोमबत्ती जला कर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की फुर्सत ही नहीं है।
अन्ना के आंदोलन से शुरू हुई विकृति को रामदेव ने पराकाष्ठा पर पहुंचाया। योग सीखने आए लोगों को आंदोलन में झोंक दिया। वर्ना पचास हजार की भीड़ के रहते पुलिस की तो बाबा तक पहुंचने की हिम्मत ही नहीं होनी चाहिए थी। लेकिन न तो बाबा के पास आंदोलन का कोई अनुभव था और न ही उनके समर्थकों के पास। मंच से बाबा ने कसम खिलवाई थी कि बाबा गिरफ्तार होंगे तो शेष लोग अनशन जारी रखेंगे। किन्तु अनशन की बात तो दूर वहां तो पंडाल में कोई ठहर ही नहीं पाया। बाबा तो भाग गए और समर्थकों ने पुलिस का कोई प्रतिरोध ही नहीं किया।
उससे पहले बाबा ने यह अपरिपक्वता दिखाई कि बातचीत में किसी अनुभवी व्यक्ति को नहीं रखा। कम से कम अरविंद केजरीवाल से यह सबक सीख लिया होता। अरविंद ने शांति भूषण, प्रशांत भूषण, स्वामी अग्निवेश, किरण बेदी जैसे लोगों को साथ में रखा जो सरकार के मंत्रियों के साथ बराबरी के स्तर पर बातचीत तो कर पाए। कपिल सिबल व सुबोध कांत सहाय ने बाबा पर दबाव बनाया के वे उनकी मांगों को आंशिक रूप से माने जाने के बदले लिखित रूप में अपने अनशन को वापस लेने का वचन दें। बाबा के शिष्य बालकृष्ण ने लिखित दे दिया। किन्तु बाहर आकर बाबा अपनी बात से पलट गए। उसके बाद जो हुआ वह इतिहास है।
बाबा ने जो मांगें रखी थीं उसमें में कुछ विसंगतियां थीं। उदाहरण के लिए बाबा चाह रहे थे कि भ्रष्टाचारी को फांसी दी जाए। अब दुनिया भर में जघन्यतम अपराध के लिए फांसी की सजा पर रोक लग रही है। कई देशों में फांसी पर प्रतिबंध लग चुका है। फांसी की सजा की बात करना मध्यकालीन युग में जाने जैसी बात है। काश बाबा ने दो-चार कानूनविदों से सलाह मश्विरा कर लिया होता।
बाबा ने आंदोलन को बहुत हल्के में लिया। अभी लोकपाल विधेयक बना भी नहीं था और उन्होंने बीच में ही अपना आंदोलन छेड़ दिया। क्या जल्दी थी? अब लाकपाल विधेयक निर्माण की प्रक्रिया भी प्रभावित हो गई है क्योंकि अन्ना हजारे समूह ने बाबा के साथ हुए अत्याचार के विरोध में विधेयक पर बातचीत की बैठक का पहले तो बहिष्कार किया और जब सरकार ने कहा कि वह बिना नागरिक समाज की मदद के काम जारी रखेगी तो बहिष्कार का निर्णय वापस लिया गया।
सरकार को भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को कुचलने का मौका देकर बाबा रामदेव ने आंदोलन को बहुत नुकसान पहुंचाया है। सरकार के ऊपर जो दबाव बना था उसकी हवा फिलहाल तो निकल गई है।
डॉ संदीप पाण्डेय
लेखक मग्सेसे पुरुस्कार से सम्मानित वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता हैं. ईमेल: ashaashram@yahoo.com