1945 में आघात दुश्मन ने किया था। मानव इतिहास में अभी तक के सबसे अधिक दिल दहलाने वाले हमले में हिरोशिमा व नागासाकी में तीन लाख के ऊपर लोग मारे गये तथा कई लोग विकिरण जन्य बीमारियों का शिकार होकर बाद मे मरे। अभी-अभी जापान में जो दुर्घटना हुई है वह आत्मघाती है। नाभकीय दुर्घटनाओं की दृष्टि से दुनिया के इस सबसे दुर्भाग्यपूर्ण देश की त्रास्दी और भी विडम्बनापूर्ण इसलिए है कि जापान ने यह संकल्प ले रखा था कि वह कभी नाभकीय शस्त्र नही बनाएगा। जापानियों का तर्क था कि वे नही चाहेगें कि दुनिया की कोई और आबादी उस त्रास्दी को झेले जिसका सामना उन्हें हिरोशिमा व नागासाकी में करना पड़ा था। इस नेक संकल्प के बावजूद जापान ने नाभकीय ऊर्जा से बिजली पैदा करने का बड़ा कार्यक्रम बनाया। जापान की 30 प्रतिशत बिजली नाभकीय ऊर्जा से आती है तथा 2017 तक उनकी इसे बढ़ा कर 40 प्रतिशत तक ले जाने की योजना थी। उन्होने कभी सपने में भी नही सोचा होगा कि उनके नाभकीय बिजली संयंत्र कभी उनके लिए हिरोशिमा व नागासाकी की खौफनाक याद दिला देंगे।
फुकुशिमा की त्रास्दी का अन्त दिखाई नही पड़ता। आपातकालीन कर्मी लागातार दुर्घटना से उत्पन्न दैत्य से जूझ रहे हैं लेकिन हरेक दिन नए विकिरण के रिसाव का पता चल रहा है। एक हास्यास्पद घटनाक्रम में टोक्यो इलेक्ट्रिक पॉवर कम्पनी ने पहले घोषणा कर दी कि रिएक्टर संख्या 2 के पास पानी में विकिरण का स्तर सुरक्षित माने जाने वाले स्तर से एक करोड़ गुना अधिक पाया गया। इससे कर्मचारियों में हड़कम्प मच गया। फिर कम्पनी ने एलान किया कि विकिरण को मापने में गलती हुई और असल में विकिरण का स्तर एक लाख गुणा ही अधिक है। क्या इससे किसी को सांत्वना मिल सकती है? सुरक्षित स्तर से एक लाख गुणा अधिक विकिरण स्तर भी तो मनुष्य के लिए घातक ही होगा। अभी तक हुए विकिरण रिसाव से ही आस पास का पानी, मिट्टी, भोजन आदि प्रभावित हो चुके हैं। और यह जगह रहने योग्य नही रह गई है। इस इलाके को लोग छोड़-छोड़ कर जाने लगे हैं।
उन कर्मचारियों की दाद देनी पड़ेगी। जो उस खतरे को जानते हुए भी जिसमें उनकी सरकार उन्हें झोंक रही है। नाभकीय संयंत्र पर काबू पाने के लिए दिन-रात लगे हुए हैं। कम्पनी के प्रमुख मासाताका शिमुजू को अस्पताल में भरती कराना पड़ा। हिरोशिमा और नागासाकी में तो जापानी लोगों के सामने कोई चारा ही नहीं था। फुकुशिमा में भूकम्प व सुनामी तो अप्रत्याशित थे लेकिन वैज्ञानिकों को तो मालूम था ही कि नाभकीय संयंत्र में दुर्घटना कितनी खतरनाक हो सकती है। जापानी सरकार ने इतने बड़े पैमाने पर नाभकीय ऊर्जा का कार्यक्रम अपनाकर अपनी जनता को खतरे में डाला यह गलती तो उसे स्वीकार करनी चाहिए।
जापान में हुई दुर्घटना ने दुनिया भर के लोगों का नाभकीय ऊर्जा में विश्वास इस तरह डिगा दिया है जैसा पहले कभी नही हुआ। जो देश नाभकीय ऊर्जा के कार्यक्रम शुरू करने जा रहे थे अथवा उसका विस्तार करने की सोच रहे थे वे अब पुनर्विचार के लिए मजबूर हुए हैं। ये लोगों का संकल्प है कि अमरीका व यूरोप में पिछले 25-30 वर्षों से एक भी नाभकीय संयंत्र नही लगने दिया गया है। नाभकीय संयंत्र बिजली पैदा करने के सबसे खर्चीले व खतरनाक विकल्प साबित हो रहे हैं। ज्यादातर विकसित देश जिनके यहां नाभकीय ऊर्जा कार्यक्रम चल रहे हैं वे धीरे-धीरे अपने नाभकीय संयंत्र बन्द करने वाले हैं।
नाभकीय ऊर्जा कार्यक्रम को त्यागने की एक वजह यह भी है कि इन संयंत्रों से निकलने वाले रेडियोधर्मी कचरे को सुरक्षित तरीके से दफनाने का कोई तरीका वैज्ञानिक नही खोज पाए हैं। इस्तेमाल के बाद बाहर निकलने वाला ईंधन वहीं ठण्डा किया जाता है। इसकी मात्रा धीरे-धीरे बढ़ती जा रही है। यूरेनियम परमाणु के विघटन में निकलने वाले तमाम रेडियोधर्मी तत्वों के साथ क्या किया जाए यह किसी को नही मालूम। ये लगातार स्थानीय मिट्टी, पानी व वातावरण को जहरीला बनाते जा रहे हैं।
विकिरण से सबसे बड़ा खतरा होता है कैंसर या ल्युकेमिया का और आने वाली पीढ़ी में विकलांग बच्चे पैदा होने का। यदि जापान में दुर्घटना के बाद फुकुशिमा नाभकीय संयंत्र को काबू में लाने के लिए लगे 50 कर्मियों को तुरंत कुछ नही होता है तो ऐसी आशंका है कि कुछ महीनों या सालों बाद वे विकिरण जन्य रोग का शिकार होंगे ही। जो लोग मारे गए उनके मृत शरीर को दफनाने को लेकर भी संकट खड़ा हो गया है क्योंकि उनका शरीर काफी विकिरण ग्रस्त है जो दूसरों के लिए खतरा हो सकता है। ये नागरिक अपनी किसी गलती से नही मारे जाऐंगें बल्कि जापान के नीति निर्माता इस त्रासदी के लिए जिम्मेदार ठहराए जाने चाहिए। यदि फुकुशिमा में कम्पनी छह में से चार रिएक्टर बंद करती है, जैसे कि उसने घोषणा की है, तो भी इस बात की कोई गारंटी नही है कि विकिरण का खतरा कुछ कम होगा।
किसी भी सरकार को यह अधिकार नही है कि वह अपने नागरिकों की जान खतरे में डाले। बिजली पैदा करने के ऐसे विकल्प ढूंढ़े जाने चाहिए जो हानिकारक नही हैं। बल्कि आम लोगों को ऊर्जा नीति बनाने में शमिल किया जाना चाहिए। कोई भी फैसला पूरी सही जानकारी पर ही आधारित होना चाहिए।
भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के बुलंदशहर जिले के नरोरा नाभकीय बिजली संयंत्र का उदाहरण लें। यह गंगा नदी के तट पर बनाया गया है। यहां 1993 में भीषण आग लग चुकी है। यह मात्र सौभाग्य ही कहा जा सकता है कि यह आग नियंत्रण के बाहर नही गई। वरना यदि भोपाल के यूनियन कार्बाइड के संयंत्र में हुई जैसी दुर्घटना यहां हो जाती तो गंगा के तट पर उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल व बंग्लादेश के कुछ हिस्सों में रहने वाले लोग जरूर प्रभावित होते। हवा की दिशा यदि दिल्ली की ओर होती, जो यहां से मात्र 50-60 किलोमीटर दूर स्थित है, तो देश की राजधानी में भी विकिरण पहुंच जाता।
हमें प्रकृति के साथ खिलवाड़ नही करना चाहिए। यूरेनियम की सबसे सुरक्षित जगह जमीन के नीचे है। इस एकमात्र प्राकृतिक रेडियोधर्मी पदार्थ का खनन नही होना चाहिए। हमारी बिजली और ऊर्जा की जरूरतों को पूरा करने के बेहतर विकल्प मौजूद हैं। ध्यान रहे कि सभी ऊर्जा की जरूरतों को पूरा करने के लिए बिजली जरूरी नही होती। आवश्यकता है जनता के बीच बहस चला कर एक विवेकपूर्ण ऊर्जा नीति बनाई जाए।
संदीप पाण्डेय
फुकुशिमा की त्रास्दी का अन्त दिखाई नही पड़ता। आपातकालीन कर्मी लागातार दुर्घटना से उत्पन्न दैत्य से जूझ रहे हैं लेकिन हरेक दिन नए विकिरण के रिसाव का पता चल रहा है। एक हास्यास्पद घटनाक्रम में टोक्यो इलेक्ट्रिक पॉवर कम्पनी ने पहले घोषणा कर दी कि रिएक्टर संख्या 2 के पास पानी में विकिरण का स्तर सुरक्षित माने जाने वाले स्तर से एक करोड़ गुना अधिक पाया गया। इससे कर्मचारियों में हड़कम्प मच गया। फिर कम्पनी ने एलान किया कि विकिरण को मापने में गलती हुई और असल में विकिरण का स्तर एक लाख गुणा ही अधिक है। क्या इससे किसी को सांत्वना मिल सकती है? सुरक्षित स्तर से एक लाख गुणा अधिक विकिरण स्तर भी तो मनुष्य के लिए घातक ही होगा। अभी तक हुए विकिरण रिसाव से ही आस पास का पानी, मिट्टी, भोजन आदि प्रभावित हो चुके हैं। और यह जगह रहने योग्य नही रह गई है। इस इलाके को लोग छोड़-छोड़ कर जाने लगे हैं।
उन कर्मचारियों की दाद देनी पड़ेगी। जो उस खतरे को जानते हुए भी जिसमें उनकी सरकार उन्हें झोंक रही है। नाभकीय संयंत्र पर काबू पाने के लिए दिन-रात लगे हुए हैं। कम्पनी के प्रमुख मासाताका शिमुजू को अस्पताल में भरती कराना पड़ा। हिरोशिमा और नागासाकी में तो जापानी लोगों के सामने कोई चारा ही नहीं था। फुकुशिमा में भूकम्प व सुनामी तो अप्रत्याशित थे लेकिन वैज्ञानिकों को तो मालूम था ही कि नाभकीय संयंत्र में दुर्घटना कितनी खतरनाक हो सकती है। जापानी सरकार ने इतने बड़े पैमाने पर नाभकीय ऊर्जा का कार्यक्रम अपनाकर अपनी जनता को खतरे में डाला यह गलती तो उसे स्वीकार करनी चाहिए।
जापान ने वैकल्पिक पुनर्प्राप्य ऊर्जा संसाधनों पर बड़े पैमाने पर शोध शुरू कर दिया था और आने वाले दिनों में वह अपनी ऊर्जा की जरूरत ऐसे संसाधनों से करने वाला है जो सस्ते होंगे, पर्यावरणीय दृष्टि से साफ सुथरे और सुरक्षित होंगे। लेकिन यह भूकम्प-सुनामी कुछ जल्दी आ गए - शायद जापान को और सारी दुनिया को एक चेतावनी देने के लिए। जापान ने निकट भविष्य में कार्बन उत्सर्जन को काफी कम कर देने का संकल्प लिया हुआ है। अब उसे नाभकीय कार्यक्रम से मुक्ति का भी संकल्प लेना होगा।
जापान में हुई दुर्घटना ने दुनिया भर के लोगों का नाभकीय ऊर्जा में विश्वास इस तरह डिगा दिया है जैसा पहले कभी नही हुआ। जो देश नाभकीय ऊर्जा के कार्यक्रम शुरू करने जा रहे थे अथवा उसका विस्तार करने की सोच रहे थे वे अब पुनर्विचार के लिए मजबूर हुए हैं। ये लोगों का संकल्प है कि अमरीका व यूरोप में पिछले 25-30 वर्षों से एक भी नाभकीय संयंत्र नही लगने दिया गया है। नाभकीय संयंत्र बिजली पैदा करने के सबसे खर्चीले व खतरनाक विकल्प साबित हो रहे हैं। ज्यादातर विकसित देश जिनके यहां नाभकीय ऊर्जा कार्यक्रम चल रहे हैं वे धीरे-धीरे अपने नाभकीय संयंत्र बन्द करने वाले हैं।
नाभकीय ऊर्जा कार्यक्रम को त्यागने की एक वजह यह भी है कि इन संयंत्रों से निकलने वाले रेडियोधर्मी कचरे को सुरक्षित तरीके से दफनाने का कोई तरीका वैज्ञानिक नही खोज पाए हैं। इस्तेमाल के बाद बाहर निकलने वाला ईंधन वहीं ठण्डा किया जाता है। इसकी मात्रा धीरे-धीरे बढ़ती जा रही है। यूरेनियम परमाणु के विघटन में निकलने वाले तमाम रेडियोधर्मी तत्वों के साथ क्या किया जाए यह किसी को नही मालूम। ये लगातार स्थानीय मिट्टी, पानी व वातावरण को जहरीला बनाते जा रहे हैं।
विकिरण से सबसे बड़ा खतरा होता है कैंसर या ल्युकेमिया का और आने वाली पीढ़ी में विकलांग बच्चे पैदा होने का। यदि जापान में दुर्घटना के बाद फुकुशिमा नाभकीय संयंत्र को काबू में लाने के लिए लगे 50 कर्मियों को तुरंत कुछ नही होता है तो ऐसी आशंका है कि कुछ महीनों या सालों बाद वे विकिरण जन्य रोग का शिकार होंगे ही। जो लोग मारे गए उनके मृत शरीर को दफनाने को लेकर भी संकट खड़ा हो गया है क्योंकि उनका शरीर काफी विकिरण ग्रस्त है जो दूसरों के लिए खतरा हो सकता है। ये नागरिक अपनी किसी गलती से नही मारे जाऐंगें बल्कि जापान के नीति निर्माता इस त्रासदी के लिए जिम्मेदार ठहराए जाने चाहिए। यदि फुकुशिमा में कम्पनी छह में से चार रिएक्टर बंद करती है, जैसे कि उसने घोषणा की है, तो भी इस बात की कोई गारंटी नही है कि विकिरण का खतरा कुछ कम होगा।
किसी भी सरकार को यह अधिकार नही है कि वह अपने नागरिकों की जान खतरे में डाले। बिजली पैदा करने के ऐसे विकल्प ढूंढ़े जाने चाहिए जो हानिकारक नही हैं। बल्कि आम लोगों को ऊर्जा नीति बनाने में शमिल किया जाना चाहिए। कोई भी फैसला पूरी सही जानकारी पर ही आधारित होना चाहिए।
भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के बुलंदशहर जिले के नरोरा नाभकीय बिजली संयंत्र का उदाहरण लें। यह गंगा नदी के तट पर बनाया गया है। यहां 1993 में भीषण आग लग चुकी है। यह मात्र सौभाग्य ही कहा जा सकता है कि यह आग नियंत्रण के बाहर नही गई। वरना यदि भोपाल के यूनियन कार्बाइड के संयंत्र में हुई जैसी दुर्घटना यहां हो जाती तो गंगा के तट पर उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल व बंग्लादेश के कुछ हिस्सों में रहने वाले लोग जरूर प्रभावित होते। हवा की दिशा यदि दिल्ली की ओर होती, जो यहां से मात्र 50-60 किलोमीटर दूर स्थित है, तो देश की राजधानी में भी विकिरण पहुंच जाता।
हमें प्रकृति के साथ खिलवाड़ नही करना चाहिए। यूरेनियम की सबसे सुरक्षित जगह जमीन के नीचे है। इस एकमात्र प्राकृतिक रेडियोधर्मी पदार्थ का खनन नही होना चाहिए। हमारी बिजली और ऊर्जा की जरूरतों को पूरा करने के बेहतर विकल्प मौजूद हैं। ध्यान रहे कि सभी ऊर्जा की जरूरतों को पूरा करने के लिए बिजली जरूरी नही होती। आवश्यकता है जनता के बीच बहस चला कर एक विवेकपूर्ण ऊर्जा नीति बनाई जाए।
संदीप पाण्डेय