श्री लंका में हो रहे नरसंघार की हम निंदा करते हैं
भारत को लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए अंतर्राष्ट्रीय आवाज़ बनना चाहिए
श्री लंका में हो रहे नरसंघार की हम निंदा करते हैं जो नि:संदेह एक भीषण मानवीय विपदा है. श्री लंका सरकार को भारत द्वारा सैन्य और आर्थिक सहायता देने की भी हम निंदा करते हैं क्योंकि उससे श्री लंका में स्थिति और अधिक गंभीर हो गयी है जिसके कारणवश असंख्य लोगों को हिंसा और युद्घ-जैसी स्थिति के भयंकर कु-प्रभाव झेलने पड़ते हैं.
श्री लंका के सैन्य हमलों ने शहरी तमिलियों की आबादी को बड़े पयमाने पर जान-माल की छति पहुंचाई है. जब तक हिंसा और नरसंघार को रोकने के लिए श्री लंका सरकार पर भारत दबाव नहीं बनाता है, आम लोगों की मृत्यु दर बढ़ता ही रहेगा और भारत का 'शांति गुरु' होने का दावा भी विश्व के समक्ष खोखला हो जायेगा.
हम लोगों ने बड़ी निराशा के साथ यह देखा कि कैसे श्री लंका सरकार ने तमिल अल्प-संख्यकों का लगातार बर्बरतापूर्वक शोषण किया और भारत सरकार ने इन प्रयासों का समर्थन किया. इस बात के कुछ प्रमाण हैं कि एक तरफ़ भारत इस समस्या का 'राजनैतिक समाधान' खोजने की बात कर रहा है और दूसरी ओर भारत अपनी 'रिसर्च एंड अनालिसिस विंग' और अन्य गुप्त एजेन्सी द्वारा श्री लंका को सैन्य हथियार और सैन्य प्रशिक्षण भी दे रहा है. बरसों पहले श्री लंका में इंडियन पीस कीपिंग फोर्स (आई.पी.के.ऍफ़) के सैन्य दस्ते को भेजने से स्थिति अधिक उलझ गयी है जो भारत के 'शांति के मसीहा' होने के दावे पर सवाल खड़ा करती है.
जुलाई २००७ में श्री लंका की सेना के अध्यक्ष लेफ्टिनेंट जनरल सरथ फोनसेका ने पत्रकारों से कहा था कि ८०० श्री लंका सैनिकों को नि:शुल्क प्रशिक्षण भारत हर साल देता है. उनका कहना था कि भारत का यह सैन्य सहयोग 'बहुत बड़ा' है. कुछ रपटों के अनुसार श्री लंका के राष्ट्रपति महिंदा राजपक्ष को भारत का यह सहयोग आर्थिक गणित पर आधारित है कि जब तमिल छेत्रों को श्री लंका सरकार सैन्य हमलों से बरबाद कर देगी, तब भारतीय कंपनियों को 'तमिल लोगों की सहायता करने की आड़ में' इस छेत्र के पुनर्स्थापना के लिए काम दिया जाएगा.
यदि यह रपट सही है, तो भारत का यह आर्थिक और राजनैतिक लाभ निर्दोष लोगों के लहू से सना हुआ है. मानवाधिकार 'वाच' संस्था और अन्य श्री लंका के मानवाधिकार समूहों के अनुसार श्री लंका सरकार के सैन्य हमलों के कारण जनवरी २००९ से लगभग १००० तमिलियों की मृत्यु हो चुकी है. इन सैन्य हमलों में श्री लंका ने अपने ही देश के स्कूल, अस्पताल और अन्य असैनिक इमारतें को भी निशाने पर लिया है.
श्री लंका सरकार को लगता है कि वो अपनी विजय के बहुत ही करीब है और इसीलिए उसने युद्घ-विराम की अपील को अस्वीकार कर दिया है. श्री लंका के राष्ट्रपति महिंदा राजपक्ष ने संयुक्त राष्ट्र के विशेष राजदूत 'विजय नम्बि आर' से १७ अप्रैल २००९ को कहा कि वो 'समाप्ति तक युद्घ' को विराम नहीं देंगे.
जो लोग इस छेत्र से पलायन कर रहे हैं, उनको श्री लंका सरकार जबरन कैंप में कैद कर रही है. सरकार का कहना है कि इन लोगों में आतंकवादी दस्ते के लोग भी हो सकते हैं इसीलिए वो इन २५०,००० शरणार्थियों को ३ साल तक इस कैंप में नज़रबंद रखेगी. इन कैम्पों के भीतर ही स्कूल, अस्पताल और बैंक आदि के निर्माण के लिए श्री लंका ने संयुक्त राष्ट्र से और अन्य दाता एजेन्सी से अनुदान की भी मांग की है. कुछ लोगों के अनुसार जब इस छेत्र के निवासी इन कैम्पों में कम-से-कम तीन साल तक के लिए नज़रबंद होंगे, तब हो सकता है कि श्री लंका सरकार इन्ही छेत्रों को सिन्हालीस आबादी से पुनर्स्थापित कर दे.
भारतीय के 'एक्सटार्नल अफेयर्स' मंत्रालय ने श्री लंका सरकार से हाल ही में अनुरोध किया है कि शरणार्थियों को अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुसार ही इस छेत्र से निकाला जाए और कैम्पों में रखा जाए, और इस प्रक्रिया में अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं की भागेदारी आवश्यक है. यह भारत के लिए नि:संदेह सही दिशा की ओर कदम है परन्तु पर्याप्त नहीं है.
हमारी मांग है कि:
- स्थायी और बिना-शर्त युद्घ-विराम घोषित किया जाए जिससे कि शांति वार्ता आगे बढ़ाई जा सके
- शरणार्थियों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए (जैसे कि पानी, दवाएं, भोजन इतियादि) और उनके मानवाधिकारों की संग्रक्षा करने के लिए विश्वसनीय टीम बने जिसमें अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कार्यकर्ता, स्वास्थ्य कार्यकर्ता और सामाजिक कार्यकर्ता भी शामिल हों. बच्चों, महिलाओं और युवाओं का विशेष रूप से ख्याल रखना आवश्यक है.
- गाँव में बिछी बारूदी सुरंगों को सुरक्षित तरीके से समाप्त किया जाए, और उनको पुनर्स्थापित किया जाए जिससे कि स्थानीय लोग वापस अपने घर जा सकें
- एक राजनैतिक प्रक्रिया आरंभ हो जिसमें सभी वर्गों की बराबरी की भागीदारी हो और धर्म, राष्ट्र, लिंग, भाषा, या अन्य किसी भी ऐसे कारण से किसी की भी भागीदारी शोषित न हो
- अस्तित्व से सम्बंधित मुद्दों पर तमिल लोगों के स्वयं निर्णय लेने के अधिकार को संग्रक्षित करना चाहिए
- शरणार्थियों के कैंप से 'गायब' होने पर रोक लगनी चाहिए और अन्य प्रकार की हिंसा पर भी विराम लगना चाहिए. प्रेस/ मीडिया के लिए पूर्ण स्वतंत्रता से रपट करने के अधिकार को सुनिश्चित करना चाहिए. श्री लंका के निवासियों को लोगों के जीवन और रोज़गार से जुड़े अधिकारों पर कार्य हेतु संस्थाओं को कार्य करने की अनुमति मिलनी चाहिए.
- शरणार्थियों को तीन साल तक जबरन कैंप में नज़रबंद रखने के निर्णय को भारत को चुनौती देनी चाहिए
हमारा मानना है कि इन सरहदों ने लोगों को लड़ाने और हिंसा के भीषण कुपरिणाम झिलवाने के अलावा कोई भूमिका नहीं अदा की है. हमारी अपील है कि दक्षिण एशिया के राष्ट्रों को एक वीसा-मुक्त, परमाणु मुक्त और शांति प्रिय छेत्र का निर्माण करने के लिए पहल लेनी चाहिए.
एस.एम् नसीम, भूतपूर्व पुलिस महानिदेशक
डॉ रमेश दीक्षित, लखनऊ यूनिवर्सिटी
एस.आर दारापुरी, उपाध्यक्ष, पीपुल'स यूनियन फॉर सिविल लिबरटीस
मुहम्मद शोएब, वरिष्ठ अधिवक्ता, हाई कोर्ट
डॉ साबरा हबीब, लखनऊ यूनिवर्सिटी
ज़ाहिर अहमद सिद्दीकी, फाउंडेशन फॉर सोशल केयर
मोहम्मद खालिद, जमात-ए-इस्लामी हिंद
डॉ संदीप पाण्डेय, संयोजक, जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय [National Alliance of People's Movements (NAPM)]
अपने उत्तर प्रदेश में चमत्कारों की वर्षा
[नोट: यह लेख मौलिक रूप से अंजली सिंह द्वारा अंग्रेज़ी में लिखा गया है, जिसको यहाँ पर क्लिक करने से पढ़ा जा सकता है। यह अनुवाद शोभा शुक्ला जी ने किया है जिसके हम आभारी हैं]
केवल एक माह के सक्षम ने किसी के मन में जरा भी संशय नहीं छोड़ा है कि वो एक चमत्कारी बालक है. सक्षम का जन्म लखनऊ की एक आवासीय कालोनी,खुर्रमनगर के पास, सड़क के किनारे हुआ था। जन्मते ही वो अपनी, मानसिक रूप से अव्यवस्थित, माँ से बिछुड़ गया था। उन दोनों को एक बार फिर से मिलाने के लिए जिस प्रकार के अथक प्रयास करने पड़े, वो किसी चमत्कार से कम नही हैं।
माँ और बेटे की अग्नि परीक्षा उस दिन से आरम्भ हुई जिस दिन सरस्वती (उसका यह नाम यूं.पी.स्टेट लीगल सर्विसेस अथोरिटी के कर्मचारियों नें रखा था) को कुछ लोग लखनऊ ले आए - उसे बेचने के लिए।
परन्तु उसने अपने को इस शहर की सड़कों पर पाया - कैसे, यह कोई नहीं जानता और यहाँ पर उसे जिस संत्रास से गुजरना पड़ा, उसने न केवल उसको मानसिक रूप से प्रभावित कर दिया, वरन उसे गर्भवती भी बना दिया। नौ महीनों तक उसका शोषण होता रहा और वो सड़कों पर, अपने अजन्मे बच्चे के साथ इधर उधर घूमती रही और फिर ४ मार्च,२००९ को उसने अपने बच्चे को सड़क के किनारे ही जन्म दिया।
खून से लिथड़े हुए उस बच्चे पर एक राहगीर की नज़र पड़ी उसने वहाँ पर इकट्ठे कुत्तों को भगाया जो शिशु पर हमला करने की ताक में जमा थे, और बच्चे को बाल गृह पहुंचा दिया क्योंकि उसकी माँ का कोई पता नहीं था, इसलिए उस बालक को अनाथ मान कर उसे गोद लेने हेतु प्रस्तुत कर दिया गया। सक्षम नामक इस शिशु की अपनी नियति से लुकाछिपी शुरू हो गयी। बालक का भाग्य उसे हर तरफ़ ले गया, पर अपनी माँ के पास नहीं।
श्री सुधीर सक्सेना ( जो यू.पी.स्टेट लीगल सर्विसेस अथॉरिटी के सदस्य सचिव हैं, और जिनका सरस्वती और सक्षम को बचाने और पुनर्वासित करने में बहुत बड़ा योगदान है) का कहना है कि, ''मैं सोचता था कि ऐसी घटनाएं केवल फिल्मों में ही घटती हैं। परन्तु इसे स्वयं अपनी आँखों के सामने होते देखना, वास्तव में आश्चर्यजनक है। यह दु:ख की बात है कि माँ और बच्चे को इतनी यातनायें झेलनी पड़ी। परन्तु जिस प्रकार सभी लोगों ने एकजुट होकर उन दोनों को मिलाने में मदद करी, उससे मुझे लगता है कि बाल अधिकारों को लेकर, इस शहर से बहुत उम्मीदें की जा सकती हैं।''
उपर्युक्त कथन से जी.श्रीदेवी (जो यू.पी.स्टेट लीगल सर्विसेस अथॉरिटी की सचिव हैं) भी सहमत हैं। स्वयं भी आंध्र प्रदेश की होने के कारण वे लोगों को, सरस्वती द्वारा बोले जानी वाली तेलुगु भाषा, समझा पाने में सफल हुईं। उनका कहना था कि, '' सभी लोग सरस्वती को पागल एवं मानसिक रूप से विक्षिप्त करार देने पर तुले हुए थे। मैं तो यह जानती थी कि उसकी यह दशा उसके साथ हुए दुर्व्यवहार के कारण हुई थी। उसने भी यही बात मुझे बतायी, जब मैंने उससे तेलुगु में पूछा कि वो लखनऊ कैसे आयी। परन्तु सरकारी आश्रय गृहों एवं निजी बाल गृहों को यह बात समझाने में बहुत प्रयत्न करने पड़े, कि वह खतरनाक या पागल नहीं है। अधिकतर ऐसे गृहों ने सरस्वती को अपनाने में असमर्थता दिखायी। किसी प्रकार एक सप्ताह के बाद हम लोग बड़ी मुश्किल से एक सरकारी आश्रय गृह को इस बात के लिए राजी कर पाये कि उसको तब तक वहाँ रहने दिया जाए,जब तक कि वो अपने पुत्र के साथ मिलकर अपने मूल निवास स्थान, आंध्र प्रदेश नहीं चली जाती। ''
पर यह इतना आसान नहीं था। उस सरकारी आश्रय गृह ने सरस्वती को दो दिनों तक रखने के बाद अपनी असमर्थता दिखाई, यह कह कर कि वो उस गृह में रहने वाली अन्य महिलाओं के लिए खतरा थी। प्रत्यक्ष दर्शियों के आश्वासनों के बावजूद, कि वो किसी को नुकसान पहुँचाने की स्थिति में नहीं थी, गृह की अधीक्षक ने उसे वहाँ रहने की अनुमति नहीं दी। कोई और उपाय न होने के कारण, सरस्वती को लखनऊ मेडिकल यूनिवर्सिटी के मनोरोग वार्ड में भरती करा कर उसका इलाज कराया गया।
यू.पी.लीगल सर्विसेस के एक और अधिकारी श्री एस.एन.तिवारी के अनुसार, ''वो किसी को नुकसान नहीं पहुँचा सकती थी। जिस वक्त हम सब उसे एक चाय की दुकान से लेकर आए (जहाँ वह अक्सर बैठा करती थी ), उस वक्त वह बहुत ही कमज़ोर और बुरी दशा में थी। पर कोई भी इस बात पर विश्वास करने को तैयार नहीं था। हमने जिस भी आश्रय घर का दरवाजा खटखटाया , उन सबने यही कहा कि वो तो पगली है। यह बहुत ही दु:ख भरी स्थिति थी। वह लगातार अपने खोये हुए बच्चे के बारे में पूछ रही थी, जो उससे छीन लिया गया था। जब तक कि उसके लिए कोई बसेरा नही ढूँढा गया ,तब तक उसे अपने बच्चे से मिलवाना सरल नही था. ''
परन्तु एक महीने के बाद असंभव भी सम्भव हो गया। यह सब माँ की अपने बेटे से मिलने की इच्छा और बेटे के भाग्य की वजह से हुआ। २३ अप्रैल,२००९ को सरस्वती ने पहली बार अपने लाडले को अपनी गोद में लिया (यू.पी.एस.एल.अ। के ऑफिस में )
अब अपने मूल निवास स्थान आन्ध्र प्रदेश पहुँचने पर उसे आंध्र प्रदेश लीगल सर्विसेस अथॉरिटी को सौंप दिया जायेगा, और वो लोग उसे अपने बच्चे के साथ किसी घर में रखेंगे तथा उसके परिवार को ढूंढ कर उससे मिलवाने का प्रयास करेंगे।
परन्तु सरस्वती और सक्षम, कदाचित नवाबों की नगरी लखनऊ की इस यात्रा को कभी नहीं भूलेंगे। क्योंकि इसी यात्रा ने तो उनके जीवन को सदा के लिए बदल दिया है । यहाँ तक कि अब उन दोनों में एक दूसरे के लिए जीवित रहने की इच्छा शक्ति जाग्रत हो गयी है।
लेखक: अंजली सिंह (मौलिक रूप से अंग्रेज़ी में लिखा गया है, जिसको यहाँ पर क्लिक करने से पढ़ा जा सकता है)
अनुवाद: शोभा शुक्ला
स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को तम्बाकू नियंत्रण में शामिल किया जाना चाहिए
स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को, विशेषकर कि नौजवान और नवयुवती डॉक्टर और नर्सों को, तम्बाकू नियंत्रण कार्यक्रमों को सशक्त करने के लिए प्रेरित करना चाहिए. छत्रपति शाहूजी महाराज चिकित्सा विश्वविद्यालय की तम्बाकू नशा उन्मूलन क्लीनिक द्वारा आयोजित 'सुरक्षित शनिवार' संगोष्ठी में यही केंद्रीय विचार था.
शनिवार को अक्सर लोगों की जीवनशैली ऐसी हो जाती है कि वोह अक्सर खतरा उठाते हैं और स्वास्थ्य के प्रति लापरवाह हो जाते हैं. इसीलिए शल्य-चिकित्सा विभाग के सर्जनों ने यह पहल ली है कि लोगों को जागरूक किया जाए जिससे कि शनिवार और हर दिन सबके लिए सुरक्षित हो.
वर्त्तमान स्वास्थ्य सेवाओं में तम्बाकू नशा उन्मूलन को शामिल करना चाहिए, कहना है प्रोफ़ेसर डॉ रमा कान्त का, जो छत्रपति शाहूजी महाराज चिकित्सा विश्वविद्यालय के सर्जरी विभाग के अध्यक्ष हैं और विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा पुरुस्कृत भी (२००५). उनका मानना है कि बिना किसी भी अतिरिक्त बजट के मौजूदा स्वास्थ्य व्यवस्था में ही तम्बाकू नियंत्रण सेवाएँ प्रभावकारी ढंग से प्रदान करी जा सकती हैं यदि उनका प्रबंधन बेहतर हो जाए एवं भरपूर उपयोग किया जाए.
शोध के अनुसार तम्बाकू जनित कुप्रभावों एवं तम्बाकू नशा उन्मूलन से सम्बंधित जानकारी यदि स्वास्थ्य कार्यकर्ता लोगों को अपनी संछिप्त सलाह में प्रदान करें तो नशा उन्मूलन में काफ़ी मदद होगी. यह तरीका उत्तर प्रदेश के कुछ भाग में अपनाया जा चुका है और बढ़िया नतीजे सामने आए थे, कहना है प्रोफ़ेसर डॉ रमा कान्त का. प्रभावकारी तम्बाकू नियंत्रण के लिए उनका कहना है कि यह बहुत आवश्यक है कि ग्रामीण छेत्रों के प्राईमरी एवं सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र, शहरों में स्थापित जिला अस्पतालों से तालमेल बना कर रखें.
स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को आवश्यक जानकारी का होना अतिआवश्यक है. पर्याप्त प्रशिक्षण से, डॉक्टर, नर्स एवं अन्य स्वास्थ्य व्यवस्था में लगे लोग तम्बाकू नियंत्रण को प्रभावकारी बना सकते हैं. 'समय नहीं है' यह अक्सर सुनने में आता है परन्तु यदि चिकित्सक सिर्फ़ यह पूछ ले कि 'क्या आप तम्बाकू लेते हैं?' तो इसी से तम्बाकू नशा उन्मूलन के प्रति सराहनीय नतीजा निकलता है, कहना है डॉ विनोद जैन का जो सर्जरी विभाग में सहायक प्रोफ़ेसर हैं और लखनऊ में इंडियन मेडिकल असोसिएशन के उपाध्यक्ष भी. एक शोध के अनुसार जब चिकित्सकों ने अपने रोगियों को, रोग से सम्बंधित सलाह के साथ-साथ तम्बाकू जनित सलाह भी दी, तो रोगी अधिक संतुष्ट थे. रोगियों को यह स्वाभाविक तरीके से लगेगा कि डॉक्टर उनका ख्याल करता है. यदि चिकित्सक सिर्फ़ १ मिनट रोगी पर अतिरिक्त व्यय करे तो ११ प्रतिशत रोगी तम्बाकू सेवन शुरू ही नहीं करेंगे और यदि ३ मिनट रोगी पर अधिक दे तो १७.५ प्रतिशत रोगी तम्बाकू सेवन से विमुख ही रहेंगे.
"तम्बाकू से प्रति वर्ष ५४ लाख लोग मरते हैं. मृत्यु के आठ में से 6 सबसे बड़े कारणों के लिए तम्बाकू सेवन खतरा बढ़ा देता है" कहना है अलेहैन्द्रा एलिसन बर्नी का, जो वेलेस्ली कॉलेज से भारत में शोध के लिए आई हुई हैं. अनुमान है कि तम्बाकू जनित मृत्यु दर २०३० तक अस्सी लाख हो जाएगा और ८० प्रतिशत मृत्यु विकासशील देशों में ही हो रही होंगी. यदि तम्बाकू नियंत्रण प्रभावकारी ढंग से नहीं किया गया तो इस शताब्दी के अंत तक १ अरब लोग तम्बाकू जनित कारणों से ही मृत्यु को प्राप्त होंगे, कहना है अलेहैन्द्रा का.
स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को विश्व तम्बाकू निषेध दिवस २००९ के बारे में भी जानकारी दी गई, जो ३१ मई २००९ को है. इस साल विश्व तम्बाकू निषेध दिवस २००९ का केंद्रीय विचार है - तम्बाकू पर फोटो वाली चेतावनियाँ. तम्बाकू उत्पादनों पर फोटो वाली चेतावनी लगाना सबसे प्रभावकारी तम्बाकू नियंत्रण तरीकों में से एक है. विश्व स्वास्थ्य संगठन उन फोटो वाली चेतावनियों को खासकर पारित करता है जिसमें शब्द एवं प्रभावकारी फोटो दोनों हों क्योंकि लोगों को तम्बाकू नशा उन्मूलन के लिए यह प्रेरित करती हैं. तम्बाकू उत्पादनों पर ऐसी फोटो वाली चेतावनी एक दर्ज़न से भी अधिक देशों में लगती हैं.
छत्रपति शाहूजी महाराज चिकित्सा विश्वविद्यालय के स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं ने अब अभियान तेज़ किया है जिससे कि सरकार तम्बाकू उत्पादनों पर फोटो वाली चेतावनी को लागू कर सके. भारत सरकार ने तम्बाकू उत्पादनों पर फोटो वाली चेतावनी लागू करने के लिए ३० मई २००९ तारिख तय कर रखी है, जिसमें यह फोटो तम्बाकू उत्पादनों के पाकेट का ५० प्रतिशत हिस्सा लेंगी.
चेर्नोबिल का दर्द
तेईस साल पहले, २६ अप्रैल की सुबह (ठीक 0१.२४ बजे) दुनिया का सबसे बड़ा परमाणु हादसा घटित हुआ। युक्रेन स्थित चेर्नोबिल पावर प्लांट का एक रिएक्टर फट गया। दो धमाकों ने रिएक्टर की छत को उड़ा दिया, और उसके अन्दर के रेडियो धर्मी पदार्थ बाहर को बह निकले। बाहर की हवा ने टूटे रिएक्टर के अन्दर पहुँच कार्बन मोनोक्ससाइड को ज्वलित कर दिया। इसके फलस्वरूप आग लग गयी जो नौ दिन तक धधकती रही। क्योंकि रिएक्टर के चारों ओर कांक्रीट की दीवार नहीं बनी थी, इसलिए रेडियो धर्मी मलबा वायुमंडल में फैल गया।
इस दुर्घटना में जो रेडियो धर्मी किरणें निकलीं वे हिरोशिमा और नागासाकी पर गिराए गए ऎटम बम से १०० गुना अधिक थीं। अधिकतर मलबा, चेर्नोबिल के आस पास के इलाकों में गिरा, जैसे युक्रेन, बेलारूस और रूस। परन्तु रेडियो धर्मी पदार्थों के कण, उत्तरी गोलार्ध के तकरीबन हर देश में पाये गए।
इस हादसे में ३२ व्यक्तियों की मृत्यु हो गयी तथा अगले कुछ महीनों में ३८ अन्य व्यक्ति रेडियो धर्मी बीमारियों के कारण मर गए। ३६ घंटों के अन्दर करीब ५९४३० लोगों को वहाँ से निकाल कर सुरक्षित स्थानों पर पहुँचाया गया।
इस भयानक दुर्घटना के कारण २००,००० व्यक्तियों को विस्थापित होना पड़ा, धरती का एक बड़ा भाग प्रदूषित हुआ और अनेको की रोज़ी रोटी का नुकसान हुआ। सन २००५ की एक रिपोर्ट के अनुसार, करीब ६००,००० लोग तीव्र रेडियो धर्मिता के शिकार बने तथा इनमें से ४००० लोग कैंसर से मृत्यु के शिकार हुए। इस पूरे प्रकरण में २०० अरब डॉलर का संभावित नुकसान हुआ।
इसके अलावा, जीवित व्यक्तियों की मानसिकता पर जो प्रभाव पड़ा, उसको नहीं मापा जा सकता है। हादसे के बाद कई लोग शराबी हो गए, और कई लोगों ने आत्म हत्या कर ली।
चेर्नोबिल दुर्घटना के अलावा अन्य कई परमाणु संयंत्र हादसे हो चुके हैं। सबसे पहली दुर्घटना १२.३.१९५२ को कनाडा स्थित ‘चाक रिवर फसिलिटी’में घटी। एक कर्मचारी ने गलती से दाब नियनत्रक संयत्र के चारों वाल्व खोल दिए। परिणाम स्वरुप, संयंत्र का ढक्कन उड़ गया और बहुत अधिक मात्रा में परमाणु कचरे से दूषित शीतलन जल बाहर फैल गया।
दूसरा हादसा २९.९.१९५७ को रूस के पहाड़ी इलाके में स्थित ‘मायक प्लुटोनियम फसिलिटी’ में हुआ। यह हादसा तो चेर्नोबिल से भी खतरनाक माना जाता है। शीतलन संयंत्र में खराबी आ जाने के कारण, गरम परमाणु कचरा फट पड़ा। २७०,००० व्यक्ति एवं १४,००० वर्ग मील क्षेत्र रेडियो धर्मी विकिरण की चपेट में आ गए। इतने वर्षों के बाद भी, इस क्षेत्र के विकिरण स्तर बहुत अधिक हैं। और वहाँ के प्राकृतिक जल स्त्रोत आज भी नाभिकीय कचरे से दूषित हैं।
इंगलैंड स्थित ‘विंड स्केल न्यूक्लिअर पॉवर प्लांट' के हादसे में विकिरण रिसाव के कारण, २०० वर्ग मील क्षेत्र दूषित हो गया।
७.१२.१९७५ को जर्मनी में ‘लुब्मिन न्यूक्लिअर प्लांट' में खराबी आ गयी। परन्तु शीतलक प्रवाह हो जाने के कारण, एक बड़ी दुर्घटना होते होते बच गयी।
२९.३.१९७९ के दिन अमरीका में पेन्सिल्वेनिया का ‘थ्री माइल आइलैंड’ हादसा भी शीतलन संयंत्र में खराबी आ जाने के कारण हुआ। आस पास के निवासियों को समय रहते वहाँ से निकाल लिया गया। परन्तु फिर भी इस इलाके में कैंसर और थायरोइड के रोगियों की संख्या में वृद्धि हुई है तथा बच्चों की मृत्यु डर में भी इजाफा हुआ है।
'तोकैमुरा हादसा' जापान में, ३०.९.१९९९ को घटित हुआ, जब आडविक ईंधन बनाने हेतु, गलती से नाइट्रिक एसिड में बहुत अधिक मात्रा में युरेनियम मिला दिया गया ---- ५.२ पाउंड के स्थान पर ३५ पाउंड। इसके फलस्वरूप नाभिकीय विखंदन विस्फोट २० घंटों तक अनवरत होता रहा। संयंत्र के ४२ कर्मचारी हानिकारक विकिरण के शिकार हुए, जिनमें २ की मृत्यु हो गयी।
परमाणु ऊर्जा समर्थक चाहे कुछ भी कहें, परन्तु किसी भी आडविक संयंत्र का सौ प्रतिशत सुरक्षित होना असंभव है, चाहे जितने भी कड़े सुरक्षा प्रबंध किए जाएँ। ये मनुष्यों, पशुओं एवं वातावरण को दूषित करते ही हैं। हानिकारक नाभिकीय विकिरणों का कुप्रभाव लंबे समय तक चलता है तथा इसका प्रमात्रण करना कठिन होता है। डाक्टर जॉन गोफमान (जो परमाणु ऊर्जा विरोधी अभियान के जनक माने जाते हैं) के अनुसार, ‘ विकिरण की कोई सुरक्षित मात्रा होती ही नही है। कोई न्यूनतम सुरक्षित सीमा नही है। यदि यह सत्य सबको विदित हो, तो कोई भी अनुग्यापित विकिरण वास्तव में हत्या के परमिट के समान है।’
सन १९९६ में किए गए डाक्टर गोफमान के अनुमान के अनुसार, अमेरिका में कैंसर का एक प्रमुख कारण चिकित्सीय विकिरण है। अमेरिकन सरकार ने उनके इस दावे का खंडन तो किया है, परन्तु ध्यान देने योग्य बात यह है कि, सन १९७९ के हादसे के बाद अमेरिका में कोई भी परमाणु ऊर्जा संयंत्र नहीं लगाया गया है।
जब परमाणु ऊर्जा का तथाकथित शांतिमय प्रयोग इतना विनाश कर सकता है, तो फिर परमाणु शस्त्रों की विध्वंसकारी शक्ति के बारे में सोच कर ही डर लगता है। परमाणु अस्त्र मानवता के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं। इस समय, सम्पूर्ण विश्व में २६,००० परमाणु अस्त्र हैं, जिनमें से ९६% अमेरिका और रूस के नियंत्रण में हैं। उनमें इतनी शक्ति है कि कुछ ही मिनटों में, हिरोशिमा विभीषिका का ७०,००० गुना विनाश करके हमारी सुंदर धारा को पूर्ण रुप से ध्वस्त कर दें। हम भले ही, जान बूझ कर छेड़े गए परमाणु युद्ध की संभावना को नकार दें, परन्तु दुर्घटना वश आरम्भ हुए आडविक हादसे की सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता।
‘स्टोक होल्म इन्टरनेशनल पास रिसर्च इंस्टिट्यूट’ के अनुसार, सन २००७ में वैश्विक सैन्य व्यय $१.३ खरब था। दस साल पहले किए गए एक और सर्वेक्षण के अनुसार अमेरिकी परमाणु अस्त्रों का मूल्य $५.८ खरब से भी अधिक है। ये सब बहुत ही भारी मात्रा के निवेश हैं, तथा इनका प्रयोग मानव उत्थान के कार्यों के लिए होना हीश्रेयस्कर है।
अभी हाल ही में, अमेरिका के राष्ट्रपति, श्री बराक ओबामा ने घोषणा करी है कि वो पृथ्वी से परमाणु अस्त्रों का नामोनिशाँ तक मिटा देना चाहते हैं। इस निर्भीक वक्तव्य के लिए उन्हें वाह वाही भी मिली है। परन्तु यह तो आने वाला वक्त ही बतायेगा कि ये सब कोरी लफ़्फ़ाज़ी है, या वास्तव में वे अपने देश के विनाशकारी अस्त्रों का अंत करने के सफल प्रयास करेंगें।
यूनाइटेड नेशन के सेक्रेटरी जनरल, बन की मून, भी मानते हैं कि परमाणु अस्त्रों से रहित विश्व की रचना ही वैश्विक जनता की सबसे क्षेष्ट सेवा है। वो यह भी स्वीकार करते हैं कि परमाणु अस्त्रों का इतना विरोध होने पर भी, नि:शस्त्रीकरण केवल एक इच्छा मात्र है। केवल विरोध करने से कुछ नहीं होगा। और भी ठोस कदम उठाने होंगें।
धार्मिक गुरु, श्री दलाई लामा वाह्य नि:शस्त्रीकरण के रूप में सभी परमाणु हथियारों पर रोक लगाने का निवेदन करते हैं. उनके अनुसार, इस कार्य को आतंरिक नि:शस्त्रीकरण के द्बारा ही किया जा सकता है। अर्थात हमें मन, वचन और कर्म से हिंसा का त्याग करना होगा। हिंसात्मक व्यवहार से केवल कष्ट मिलता है। दूसरों के प्रति संवेदनशीलता एवं प्रेम से ही खुशी मिलती है। यदि हम सभी एकजुट होकर शांती की आकांक्षा रखें तो युद्ध के खतरे को रोका जा सकता है तथा शस्त्र नियंत्रण भी किया जा सकता है। परमाणु युद्ध के भय से स्थाई शांती नहीं स्थापित की जा सकती है। सैन्य शक्ति के बल पर विश्व एवं मानव सुरक्षा नहीं प्रदान की जा सकती है। हमें यह याद रखना होगा कि नि:शस्त्रीकरण का वास्तविक अर्थ है हिंसा एवं युद्ध का न होना। इसका वास्तविक अर्थ है, एक शांतिप्रिय जीवन, मानव अधिकारों के प्रति आदर भाव और एक बेहतर पर्यावरण सुरक्षा।
शोभा शुक्ला
(लेखक सिटिज़न न्यूज़ सर्विस की संपादिका हैं)
स्वच्छ पर्यावरण से एक-तिहाई मृत्यु दर कम हो सकता है
"विकासशील देशों में असंतुलित पर्यावरण से कम-से-कम एक तिहाई मृत्यु दर कम हो सकता है. सही ढंग से पर्यावरण के संतुलन का ख्याल रखने से इन बीमारियों से बचाव मुमकिन है," कहना है प्रभा चतुर्वेदी का जो एक्स्नोरा लखनऊ संस्था की अध्यक्ष हैं. नवयुग पब्लिक स्कूल, चंदर नगर, आलमबाग में आज पर्यावरण और स्वास्थ्य पर आयोजित परिचर्चा में प्रभा चतुर्वेदी मुख्या वक्ता थीं.
उन्होंने कहा कि सड़नशील कूड़े को जमीन के नीचे गाड़ देना चाहिए जिससे कि वोह प्राकृतिक तरीके से खाद में परिवर्तित हो सके. जो कूड़ा सड़नशील नहीं है, उसको इकठ्ठा कर के कूड़ा बीनने वालों के हवाले कर देना चाहिए, कहना है प्रभा चतुर्वेदी का.
नवयुग पब्लिक स्कूल की प्रधानाचार्या श्रीमती अनुप्रिया दयाल ने स्कूल में प्रकृति एवं स्वास्थ्य क्लब बनाने की घोषणा की और स्कूल के उपवन को एक पर्यावरण संतुलन के मॉडल के रूप में प्रस्तुत करने की बात रखी।
"पर्यावरण से हमारे स्वास्थ्य पर बहुत असर पड़ता है. १ करोड़ ३० लाख मृत्यु प्रति वर्ष पर्यावरण असंतुलन से जुड़े हुए कारणों की वजह से ही होती हैं" कहना है बाबी रमाकांत का जो विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक के पुरुस्कार प्राप्त सामाजिक कार्यकर्ता हैं.
"प्रति वर्ष लगभग ४० लाख से अधिक ५ साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु से बचाव मुमकिन है यदि पर्यावरण को संतुलित किया जाए, जिसमें स्वच्छ पानी और स्वच्छ हवा शामिल हैं" कहना है वरिष्ठ शिक्षाविद् डॉ गीता दयाल का.
"मुख्य पर्यावरण असंतुलन से होने वाली बीमारियाँ हैं - दस्त, श्वास सम्बन्धी संक्रमण, अनचाही चोट एवं मलेरिया. अच्छे पर्यावरण संतुलन से मलेरिया का मृत्यु दर ४० प्रतिशत कम हो सकता है, श्वास सम्बन्धी बीमारियों के मृत्यु दर में ४१ प्रतिशत गिरावट आ सकती है और दस्त का मृत्यु दर ९४ प्रतिशत कम हो सकता है" कहना है बाबी रमाकांत का. यही तीनों कारण बच्चों में सबसे बड़े मृत्यु के कारण हैं.
"तम्बाकू सेवन से भी लोगों को परहेज़ करना चाहिए क्योंकि तम्बाकू से न केवल व्यसनी पर जान लेवा कुप्रभाव पड़ता है बल्कि पर्यावरण को भी नुक्सान पहुँचता है" कहना है अमरीका के वेलेसले कॉलेज की अलेजन्द्रा एलिसन बरनी का।
"स्वस्थ्य पर्यावरण से कैंसर, हृदय सम्बन्धी बीमारियाँ, दमा या अस्थमा, श्वास सम्बन्धी बीमारियाँ, आदि से बचाव मुमकिन है" बाबी रमाकांत ने कहा.
"पर्यावरण असंतुलन से जनित बीमारियों एवं मृत्यु से बचाव मुमकिन है यदि हम लोग घर में स्वच्छ पीने के पानी को साफ़-सफाई से रखे, तम्बाकू का सेवन न करें, गुटखा से परहेज़ करें, साफ़ सफाई पर ध्यान दें और इंधन का प्रयोग किफायत से ही करें" कहना है प्रभा चतुर्वेदी का.
आतंकवाद के खिलाफ यह हमारी साझा लड़ाई है
आतंकवाद के खिलाफ यह हमारी साझा लड़ाई है
डॉ संदीप पाण्डेय (दैनिक भास्कर में २१ अप्रैल २००९ को प्रकाशित)
हाल ही में हमारा पाकिस्तान दौरा उत्साहवर्धक और डरावना रहा। पाकिस्तान के नागरिक समाज तथा राजनीतिक दलों के लोग तालिबान के बढ़ते खतरे से आतंकित हैं। फिर भी लोकतंत्र को बचाए रखने के प्रयासों में एक उम्मीद की किरण भी है।
लोगों को नहीं मालूम कि मलाकंद व स्वात में तालिबान के साथ हुआ समझौता पाकिस्तान को किस ओर ले जाएगा। लाहौर में श्रीलंकाई क्रिकेट टीम पर हमले से पहले कुलदीप नैयर, जो पाकिस्तान में भी उतने ही लोकप्रिय हैं, के नेतृत्व में एक १३ सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल के साथ मुझे वहां जाने का मौका मिला। हालांकि छह वर्षो में यह मेरी पाकिस्तान की छठी यात्रा थी।
मुझे पहली बार यह एहसास हुआ कि पाकिस्तान के सभी प्रमुख राजनीतिक दल पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी, पाकिस्तान मुस्लिम लीग-एन, पाकिस्तान मुस्लिम लीग-क्यू, अवामी नेशनल पार्टी इत्यादि असल में भारत के साथ मैत्री व शांति चाहते हैं।
पाकिस्तान के लोगों में तालिबान को लेकर बहुत चिंता है। वहां के राजनेताओं को डर है कि कहीं फिर से एक बार सेना चुनी हुई सरकार का तख्तापलट न कर दे। पाकिस्तान की सरकार ने अमेरिका की जरूरतों को पूरा करने के लिए जो दानव खड़ा किया था, वह अब पाकिस्तान को ही निगल रहा है।
अमेरिका पर पाकिस्तान की निर्भरता इस हद तक है कि पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था खोखली हो चुकी है और वहां की सरकार की कोई विश्वसनीयता नहीं रह गई है। पाकिस्तान को नहीं मालूम की इस बंधन से अपने को कैसे मुक्त कराए।
पाकिस्तान की सेना चाहती है कि अमेरिका के साथ पाकिस्तान का नजदीकी रिश्ता बना रहे ताकि चुनी हुई सरकार पर उसका दबदबा कायम रहे। सेना अपने आपको जेहादियों को नियंत्रण में रखने वाली शक्ति के रूप में पेश करती है। जब तक पाकिस्तान में तालिबान व अलकायदा का खतरा बना हुआ है, तब तक सेना अपने आपको चुनी हुई सरकार से ज्यादा महत्वपूर्ण भूमिका में देखना चाहेगी। जब तक चुनी हुई सरकार मजबूत नहीं होती, तब तक सेना की भूमिका कम नहीं होगी। एक बार पुन: जनरल कियानी ने आसिफ अली जरदारी को चुनौती दे डाली है। पाकिस्तान इस दुष्चक्र में फंसा हुआ है।
नवाज शरीफ का कहना है कि जब तक वे प्रधानमंत्री रहे, तब तक उन्होंने कभी बम विस्फोट करने वाले आत्मघाती दस्तों के बारे में नहीं सुना था। परवेज मुशर्रफ के समय इन तत्वों को बढ़ावा मिला। उन्हें तालिबान के साथ हुए समझौते की सफलता पर संदेह है।
उनका मानना है कि जेहादी जितना खतरा पाकिस्तान के लिए हैं, उससे कम भारत के लिए नहीं हैं। बेनजीर भुट्टो के घर में आसिफ अली जरदारी की बहन फरयाल तालपुर, जो सांसद भी हैं, के साथ एक बैठक में उन्होंने बताया कि मुंबई हमले में तो २क्क् लोग मरे, लेकिन पाकिस्तान के अंदर हुए आतंकवादी हमलों में अब तक जेहादियों ने करीब ६क्क्क् लोगों को मार डाला है।
उनका कहना था कि भारत पाकिस्तान के ऊपर आतंकवादी संगठनों के खिलाफ कार्यवाही करने के लिए दबाव बनाता है, लेकिन पाकिस्तान को तो इन तत्वों से निपटने के लिए भारत की मदद चाहिए। खान अब्दुल गफ्फार खान के पोते असफनद्यार वली खान, जो अवामी नेशनल पार्टी के नेता हैं तथा जिनकी उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत में सरकार है, का कहना था कि भारत की सुरक्षा के लिए यह जरूरी है कि पाकिस्तान में एक मजबूत केंद्रीय लोकतांत्रिक सरकार हो।
हाल ही में राष्ट्रपति जरदारी ने अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी नवाज शरीफ, जो बेनजीर भुट्टो की मौत के बाद पाकिस्तान के सबसे लोकप्रिय नेता हैं, के खिलाफ जो कार्यवाहियां की हैं, वह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण हैं। न्यायपालिका को स्वायत्त बनाने की नवाज शरीफ की मांग बहुत बुद्धिमत्तापूर्ण है।
लेकिन आसिफ अली जरदारी को डर इस बात का है कि न्यायपालिका के स्वायत्त होते ही उन्होंने संविधान में संशोधन कर राष्ट्रपति पद के लिए स्नातक होने की जो मान्यता समाप्त कराई है, को चुनौती दी जाएगी। अत: इससे पहले कि कोई उन्हें राष्ट्रपति पद से हटाए उन्होंने न्यायालय की मदद से नवाज शरीफ और शहबाज शरीफ को ही चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहरा दिया है।
इस्लामाबाद के एक टीवी कार्यक्रम, जिसमें हम लोगों को बातचीत के लिए बुलाया गया था, के संचालक ने हमें यह याद दिलाया कि भारत के इतिहास में सभी हमले उत्तर-पश्चिम से हुए हैं। अत: तालिबान का खतरा भारत के लिए भी उतना ही गंभीर है।
भारत को चाहिए कि वह पाकिस्तान की चुनी हुई सरकार के साथ मिलकर इस खतरे का सामना करे। इससे दोनों देशों को फायदा होगा और दोनों को जो सुरक्षा का खतरा महसूस होता है, वह भी धीरे-धीरे समाप्त होगा। पाकिस्तान के लिए भी अमरीका और चीन की तुलना में भारत के साथ रिश्ता ज्यादा सम्मानजनक रहेगा।
-लेखक मैगसेसे पुरस्कार विजेता हैं।
(दैनिक भास्कर में २१ अप्रैल २००९ को प्रकाशित)
पृथ्वी दिवस पर विकास के मॉडल पर पुनर्विचार ज़रूरी
न केवल आधुनिक जीवनशैली, जिसमें प्राकृतिक संसाधनों का अनियंत्रित दोहन हो रहा है, की वजह से पर्यावरण असंतुलित होता है, बल्कि हमारे देश में नीतियाँ भी पर्यावरण के व्यापक संगरक्षण हेतु अनुकूल नहीं हैं.
"प्राकृतिक संसाधनों का उद्योगीकरण न तो लोगों के हित में है और न ही पर्यावरण के. उद्योगों द्वारा प्राकृतिक संसाधनों के अनियंत्रित दोहन से आदिवासी और गरीब लोग सबसे अधिक कुप्रभावित होते हैं, और उनके रोज़गार जो प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित होते हैं, वोह भी छिन जाते हैं. स्थानीय लोगों के प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार को छिनने से न केवल समाज में व्याप्त असमानताएं गहराती हैं, बल्कि पर्यावरण को अप्रतिकार्य नुकसान पहुँचता है" कहना है लखनऊ से लोक सभा प्रत्याशी एस.आर.दारापुरी का जो सेवा निवृत्त पुलिस महानिरीक्षक रहे हैं और लोक राजनीति मंच के प्रदेश समन्वयक भी हैं.
"हम लोगों को अपना जीने का तौर-तरीका बदलना होगा जिससे कि पर्यावरण को अप्रतिकार्य नुकसान न पहुंचे और उद्योगों द्वारा प्राकृतिक संसाधनों का दोहन रुक सके" कहना है गुरुदयाल सिंह शीतल का, जो प्राकृतिक मानव केंद्रित आन्दोलन से जुड़े हुए हैं.
"उदाहरण के तौर पर कोका कोला पेप्सी जैसी कंपनियां भूजल का अनियंत्रित दोहन करती आ रही हैं. भूजल पर स्थानीय लोगों का अधिकार है, न कि पानी के निजीकरण का धंधा करने वाली कंपनियों का" कहना है अरविन्द मूर्ति का जो जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय से जुड़े हुए हैं.
"विडंबना यह है कि यह जताने के लिए कि कोका कोला पर्यावरण के लिए कितनी सजग है, आज पृथ्वी दिवस पर ही वो अमरीका में अपनी शेयर धारकों की बैठक कर रही है. यदि कोका कोला सही मायने में पर्यावरण के प्रति सजग है तो पहले पानी का अनियंत्रित दोहन बंद करे" कहना है अरविन्द मूर्ति का.
"हमारी जीवन शैली ऐसी होनी चाहिए जिससे कि ऐसा कूड़ा न उत्पन्न हो जो प्राकृतिक तरीके से सड़नशील नहीं है" कहना है प्रभा चतुर्वेदी का जो एक्स्नोरा संस्था की अध्यक्ष हैं. "प्राकृतिक तरीके से सड़नशील कूड़े को हम लोगों को जमीन के नीचे दबा देना चाहिए जिससे कि खाद बन सके", कहती हैं प्रभा जी जो पेपर मिल कालोनी में पर्यावरण संगरक्षण का सराहनीय और प्रेरणाजनक कार्य कर रही हैं.
आई.एम्.ऍफ़ की नीतियों में बदलाव की मांग
बाबी रमाकांत
इस महीने (अप्रैल २००९) के शुरू में २० देशों का समूह (जी-२०) के प्रतिनिधियों ने विश्व की अर्थ-व्यवस्था में, अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक निधि (इंटरनेशनल मोनिटोरी फंड या आई.एम्.ऍफ़) जैसी संस्थाओं के जरिये अमरीकी डालर १.१ ट्रिलियन बढ़ाने का फैसला लिया था. स्वास्थ्य पर कार्य कर रहे लोगों का मानना है कि यदि आई.एम्.ऍफ़ की नीतियाँ नहीं बदली गयीं, तो पिछले अनुभव के अनुसार जिन देशों में आई.एम्.ऍफ़ का पैसा जायेगा, वहाँ पर तपेदिक या टीबी बढ़ने जैसे खतरे मंडराते रहेंगे.
जुलाई २००८ की कैम्ब्रिज एवं येल विश्वविद्यालयों की रपट से यह साफ़ ज़ाहिर है कि जिन देशों ने आई.एम्.ऍफ़ से ऋण लिया था, उनमें तपेदिक या टीबी का दर काफी अधिक बढ़ गया था. इन शोधकर्ताओं का कहना है कि आई.एम्.ऍफ़ के ऋण जिन शर्तों पर दिया जाता है उनकी वजह से हजारों लोग बेवजह तपेदिक या टीबी से मरे थे. परन्तु आई.एम्.ऍफ़ ने इस रपट के निष्कर्षों से साफ़ मना कर दिया है.
इन शोधकर्ताओं में से एक डेविड स्तुक्लेर जो कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से हैं, उन्होंने एक मीडिया से यह कहा कि "यदि हम स्थायी आर्थिक विकास चाहते हैं, तो हमें सबसे पहले लोगों के स्वास्थ्य की मूल जरूरतों पर ध्यान देना होगा."
बी.बी.सी की एक रपट में यह कहा गया था कि पिछले सालों में आई.एम्.ऍफ़ ने २१ देशों को, अत्यन्त कड़े आर्थिक लक्ष्यों को पूरा करने की शर्त पर ही, आर्थिक सहायता प्रदान की थी. इन शोधकर्ताओं का मानना है कि इन अत्यन्त कड़ी शर्तों की वजह से ही सरकारें जो पैसा तपेदिक या टीबी नियंत्रण या अन्य स्वास्थ्य कार्यक्रमों में व्यय कर रही थीं या अन्य सम्बंधित विकास कार्यों में खर्च कर रहीं थीं, उसके बजाय इन आई.एम्.ऍफ़ की आर्थिक शर्तों के अनुसार ऋण वापस करने में निवेश करने लगीं, और इसके फलस्वरूप तपेदिक या टीबी का दर बढ़ने लगा.
सबसे चौंकाने वाली बात इस बी.बी.सी रपट में यह है कि यदि इन देशों ने आई.एम्.ऍफ़ ऋण न लिया होता, तो तपेदिक या टीबी का दर १० प्रतिशत कम हो गया होता, यानि कि १००,००० मृत्यु कम हुई होती. जिन देशों ने आई.एम्.ऍफ़ ऋण लिया था उनकी सरकारों ने स्वास्थ्य पर बजट ८ प्रतिशत कम कर दिया था और डॉक्टर प्रति नागरिक की संख्या भी ७ प्रतिशत कम हो गई थी.
'ट्रीटमेंट एक्शन ग्रुप' नामक संस्थान ने दुनिया भर की गैर-सरकारी संगठनों को एकजुट कर के एक अपील तैयार की है कि आई.एम्.ऍफ़ को अपनी नीतियाँ बदलनी होगी जिससे कि स्वास्थ्य एवं शिक्षा पर सरकारी व्यय बढ़ सके.
२ अप्रैल २००९ को लन्दन में हुई जी-२० की बैठक में जो घोषणापत्र जारी हुआ था उसके अनुसार आई.एम्.ऍफ़ को "विश्व बैंक एवं आई.एम्.ऍफ़ की 'स्प्रिंग' बैठक" जो २५-२६ अप्रैल २००९ को वॉशिंगटन डीसी में हो रही है, उसमें 'ठोस प्रस्ताव' के साथ आना है कि वोह कैसे जी-२० द्वारा प्रदान की हुई राशि को विश्व की अर्थ-व्यवस्था में लगायेगा।
इस गैर-सरकारी संगठनों की अपील के अनुसार मुख्य रूप से दो बदलाव की मांग है:
- आई.एम्.ऍफ़ को उन गतिविधियों को धीरे-धीरे ख़त्म कर देना चाहिए जिसमें उसकी खास योग्यता नहीं है जैसे कि गरीबी कम करने एवं विकास के लिए कार्यक्रम आदि. आई.एम्.ऍफ़ के पास न तो ऐसा कोई मत है न ही योग्यता कि वो विकासशील देशों का समय के लंबे अंतराल में विकास कर सके. आई.एम्.ऍफ़ जो पैसा सोना बेच कर लाता है उससे या तो देशों को ऋण मुक्ति मिले, या अन्य उपयुक्त एजेन्सी को मिलना चाहिए कि उसका सही मायने में उपयोग हो. आई.एम्.ऍफ़ का 'नीति सहायक प्रणाली' जो दाताओं को यह बताता है कि कोई विकासशील देश किसी अनुदान के लिए उपयुक्त है कि नहीं, को भी ख़त्म कर देना चाहिए क्योंकि इससे आई.एम्.ऍफ़ का एकराज हो जाता है.
- आई.एम्.ऍफ़ को अपने ऋण से नुकसानदायक शर्तों को हटा देना चाहिए. आई.एम्.ऍफ़ को अपनी पारंपरिक शर्त कि देशों को आर्थिक मंदी के दौर में 'सिकुड़ने' वाली नीतियाँ अपनानी चाहिए, को भी विराम देना चाहिए.
उम्मीद है कि आई.एम्.ऍफ़ अपनी नीतियाँ बदल कर सही मायने में विकास का भागीदार बनेगा.
बाबी रमाकांत
अहिल्याताई रामनेकर के सत्याग्रही जूनून को श्रधांजलि
महाराष्ट्र में महिला अधिकारों के एक मजबूत संघर्ष को बल प्रदान करने वाली अहिल्याताई रामनेकर के निधन पर जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (National Alliance of People's Movements - NAPM) की ओर से हम सब गहरा शोक व्यक्त करते हैं. बहुत कम उम्र में ही सामाजिक न्याय एवं समानता के लिए छिड़े आन्दोलन से अहिल्याताई रामनेकर जुड़ गयीं थीं.
मार्क्स विचारधारा में अडिग विश्वास रखने वाली अहिल्याताई रामनेकर, एक जुझारू कार्यकर्ता थीं जो समाज में शोषित वर्ग के लिए भीषण संघर्ष छेड़े हुए थीं.
अहिल्याताई रामनेकर ने सर्वदा हम सब लोगों के आंदोलनों को मजबूत करने का हर सम्भव प्रयास किया है, खास तौर पर नर्मदा घटी के आन्दोलन में लोगों को जोड़ने में महत्त्वपूर्ण भूमिका ली है. अहिल्याताई रामनेकर ने बस्तियों में रहने वाली महिलाओं को भी संगठित करने का सराह्निये कार्य किया है. उनके लेख, व्याख्यान और मृणाल गोरे की तरह संपूर्ण समर्पण के साथ आन्दोलन में संघर्षरत रहने का योगदान, हम सब आन्दोलनकारियों की विरासत है.
हम उनके योगदान के प्रति नतमस्तक हैं.
जब जन आंदोलनों को नई उदारकारी नीतियाँ और उपनिवेशवाद चुनौती दे रहा है, ऐसे संगीन मोड़ पर अहिल्याताई रामनेकर के निधन से, हम सबने एक सच्चे और समर्पित मार्क्स विचारधारा में विश्वास रखने वाले कर्मठ साथी को खोया है.
अवलोकनकारी अहिल्याताई रामनेकर हम सबके लिए एवं जन आंदोलनों में प्रेरणा का स्त्रोत रहेंगी.
मेधा पाटकर, सुनीति, आनंद मज्गओंकर
संसाधनों का बंटवारा ही राजनीति है: अरुंधती धुरु
[अरुंधती धुरु जी ने जो संबोधन जन सभा में दिया था, उसको सुनने के लिए यहाँ पर क्लिक कीजिये]
नर्मदा बचाओ आन्दोलन की वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता और भोजन के अधिकार पर सुप्रीम कोर्ट के आयुक्त की सलाहाकार अरुंधती धुरु, जो उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में आयोजित एक जन सभा को संबोधित कर रहीं थीं, ने कहा कि: "राजनीति आख़िर में संसाधनों के बंटवारे का खेल है, और कौन यह निर्णय लेता है कि कैसे संसाधनों का बंटवारा हो, ही राजनीति है"।
लखनऊ लोक सभा चुनाव २००९ से पहले एक्सनोरा नामक संस्था की अध्यक्षा श्रीमती प्रभा चतुर्वेदी ने अन्य सामाजिक संगठनों के साथ मिल कर एक जन सभा का आयोजन किया था।
"बिहार में कई साल पहले महिला मुद्दों के ऊपर एक रैली हुई थी जहाँ पर एक छोटे बच्चे से हम लोगों ने जब यह पूछा कि इंदिरा गाँधी कौन है, तो उसने कहा कि 'इतना मालूम है कि वो आलू के भाव ऊपर नीचे करती है', और आलू का महत्व हम सब की ज़िन्दगी से है, राजनीति से है, इस उदाहरण से यह बात समझने की है" यह कहना है अरुंधती धुरु का.
"पॉलिटिकल साइंस [राजनीतिक विज्ञान] में राजनीति की परिभाषा है कि politics is the allocation of resources (संसाधनों का बंटवारा ही राजनीति है)" अरुंधती धुरु ने कहा।
उनके मंच पर आने के पहले लखनऊ लोक सभा चुनाव में उतरे एक युवा उम्मीदवार ने और अन्य लोगों ने कई बार यह कहा था कि एक साफ़ सुथरे राजनैतिक विकल्प की आवश्यकता है। राजनीति में बढ़ते हुए अपराधीकरण और भ्रष्टाचार से त्रस्त सभी वक्ताओं का ऐसा ही मानना था। इसी लिए कुछ वक्ताओं ने यह भी अनेकों बार कहा कि मुख्य राजनैतिक दलों से उनका कुछ लेना देना नहीं है क्योंकि वो सब भ्रष्टाचार और अपराध से लिपे पुते हैं।
अरुंधती धुरु ने इस बात पर चोट करते हुए कहा कि यह सराहनीय बात है कि हम सब लोग एक आदर्श राजनैतिक विकल्प खड़ा करना चाहते हैं परन्तु "पॉलिटिक्स [राजनीति] को इतना भी डी-पॉलिटिकल [गैर-राजनीतिकरण] मत कीजिये"।
अरुन्धती धुरु का कहना है कि "यह जो मुख्य राजनैतिक पार्टियाँ हैं उनको बाजु में रख कर एक नए राजनैतिक विकल्प बनाने का संघर्ष नहीं किया जा सकता है। यदि हम मुख्य राजनैतिक दलों को नज़रंदाज़ कर के एकाकी कार्य करेंगे तो यह हमारी राजनैतिक समझ की कमी होगी, ऐसा मैं मानती हूँ।"
उन्होंने भोजन के अधिकार के कार्यकर्ताओं का उदाहरण दिया कि कैसे लोगों ने सभी मुख्य राजनैतिक दलों के साथ वार्तालाप करके मुख्यत: सभी राजनैतिक दलों के चुनाव घोषणापत्रों में भोजन के अधिकार से जुड़े हुए मुद्दों को शामिल करवाया है।
"सुप्रीम कोर्ट में भोजन के अधिकार के आयुक्त की मैं सलाहकार हूँ. हम लोगों के अथक प्रयासों के कारण ही कांग्रेस, जे.डी.यू, दोनों कम्युनिस्ट पार्टियाँ, भारतीय जनता पार्टी (बी.जे.पी), और अन्य पार्टियों के घोषणापत्रों में भोजन के अधिकार से जुड़े हुए मुद्दें आए हैं (जी.एम् फ़ूड वगैरह), यह लोक मंच का ही नतीजा है जिसको हम लोगों ने अरुणा रॉय, योगेन्द्र यादव, जौन ड्रेज, आदि के साथ मिल कर आयोजित किया था, और जिसमें सभी राजनैतिक दलों के लोग आए थे" अरुंधती धुरु ने कहा.
जन सभा के आरंभ से ही शत प्रतिशत मतदान पर जोर रहा था। इस पर भी अरुंधती धुरु ने वास्तविकता का दर्शन कराया क्योंकि एक ओर तो जैसे-जैसे साफ़-सुथरे चुनाव कराने के लिए जोर बढ़ रहा है (जो सही है) परन्तु उसके साथ ही जो मतदाता पहचान पत्र आदि की नीति आ गई है उससे वो सब लोग इस प्रक्रिया से बेदखल हो रहे हैं जिनके पास अपना कोई भी मान्य पहचान पत्र नहीं है।
"सिर्फ़ शत प्रतिशत मतदान की ही बात नहीं होनी चाहिए. जो अब नियमों का कड़ाई से पालन किया जा रहा है जैसे कि मान्य परिचय या पहचान पत्र का होना ही अस्तित्व की पहचान है और उससे ही अधिकार जोड़े जा रहे हैं, उससे यह खतरा भी बढ़ रहा है कि कहीं हाशिये पर रह रहे लोग इस व्यवस्था से और भी अधिक बेदखल न हो जाएँ. क्योंकि इन लोगों के पास मतदाता पहचान पत्र नहीं है, अन्य मान्य पहचान पत्र नहीं हैं तो क्या वो इन्सान जिन्दा ही नहीं है?" कहना है अरुंधती धुरु का.
जन सभा में आतंकवाद को लेकर भी चर्चा हुई थी और सुरक्षा व्यवस्था को और अधिक कड़ी करने पर जोर बन रहा था। इस पर भी अरुंधती धुरु ने सटीक बात कही कि: "सुरक्षा पुलिस या फौजों से नहीं आती, बल्कि मेरे लिए सुरक्षा एक आतंरिक भावना है जो मेरे साथ समाज में रहने वाले मेरे साथी, मेरे परिवार, मेरे आस-पास में रहने वाले लोग ही देते हैं।"
"यदि हम फौजों और पुलिस से सुरक्षा मांगेंगे तो जिनके लिए हम खड़े है उनको हम कहाँ से सुरक्षा प्रदान करेंगे" पूछना था अरुंधती धुरु का।
उन्होंने जीवन संदेश देते हुए कहा कि "सुरक्षा अपने आप पर विश्वास से, आदमी-इंसानों के साथ संबंधों से और मानवीयता से आती है, सुरक्षा बन्दूक और हथियार से नहीं आती है।"
- बाबी रमाकांत, सिटिज़न न्यूज़ सर्विस (सी.एन.एस)
बदलाव के लिए एस.आर.दारापुरी
लोक राजनीति मंच के लखनऊ संसदीय छेत्र के प्रत्याशी एस.आर.दारापुरी, सामाजिक कार्यकर्ता एवं पूर्व पुलिस महानिरीक्षक का संछिप्त परिचय:
एस.आर.दारापुरी – १९७२ बैच के उत्तर प्रदेश कैडर के आई.पी.एस अधिकारी रहे हैं. इसके पूर्व शिक्षक, राष्ट्रीय बचत संगठन, वित्त मंत्रालय एवं कस्टम विभाग (भारत सरकार) में सेवारत रहे. इस प्रकार उन्हें लगभग ४० वर्षों का प्रशासनिक अनुभव प्राप्त है. सेवा में रहते हुए जनपक्षीय, इमानदार एवं कुशल प्रशासनिक छमता का परिचय दिया. सेवा निवृत्ति के उपरांत एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में मानवाधिकार, दलित, अल्पसंख्यक, पिछडों, महिला, मजदूर, बुनकरों, किसानों, छात्रों, नौजवानों, के अधिकारों के लिए व गरीब एवं वंचित समुदाय के सशक्तिकरण के लिए निरंतर कार्यरत हैं. वर्त्तमान में विभिन्न सामाजिक/ राजनीतिक मंचों/ संगठनों जैसे:
१. उपाध्यक्ष – पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबरटीस (पी.यु.सी.एल), उत्तर प्रदेश
२. उपाध्यक्ष – डॉ आंबेडकर महासभा
३. राज्य समन्वयक – लोक राजनीति मंच, उत्तर प्रदेश
४. सदस्य – संयोजक मंडल, जनसंघर्ष मोर्चा, उत्तर प्रदेश
५. सदस्य – सूचना का अधिकार अभियान समिति, उत्तर प्रदेश
६. संयोजक – दलित मुक्ति मोर्चा
७. संयोजक – वर्ल्ड कांफ्रेंस ऑन रिलिजन एंड पीस, लखनऊ शाखा
८. सदस्य – भोजन का अधिकार समिति, उत्तर प्रदेश
९. राज्य प्रतिनिधि – एशियन सेण्टर फॉर ह्यूमन राइट्स
१०. अध्यक्ष – सोसाइटी फॉर प्रोमोटिंग बुद्धिस्ट नॉलेज
आदि में योगदान दे रहे हैं. हाल ही में आतंकवादी घटनायों में फसाए गए निर्दोष युवाओं के पक्ष में भूमिका निभाई.
हमारे मुख्य मुद्दे
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१. समता मूलक आर्थिक नीति बने ताकि गरीब और अमीर के बीच का फर्क ख़त्म हो.
२. प्राकृतिक संसाधनों (जल, जंगल, जमीन, खनिज आदि) पर जनता का अधिकार हो और इसे निजी कंपनियों को न सौंपा जाए.
३. शौपिंग माल बंद हों ताकि छोटे उत्पादक, खुदरा व्यापारी, फेरीवाले और पटरी दूकानदारों को खतरा पैदा न हो.
४. रोज़गार को मौलिक अधिकार बनाया जाए और रुपया ५००० प्रतिमाह बेरोज़गारी भत्ते की व्यवस्था की जाए
५. स्विस बैंक में जमा काला धन व देश के अन्दर मौजूद काले धन को चिन्हित कर जब्त किया जाए तथा इसके अपराधियों को चिन्हित कर दण्डित किया जाए. सभी प्रकार का भ्रष्टाचार रोका जाए.
६. महंगाई पर प्रभावी नियंत्रण हेतु आवश्यक खाद्य वस्तुओं का अधिकतम मूल्य सरकार द्वारा निर्धारित किया जाए.
७. सांसद निधि और विधायक निधि समाप्त की जाए.
८. 'सेज', शहरीकरण और औद्योगीकरण के नाम पर कृषि भूमि का अधिकरण बंद हो
९. कृषि नीति ऐसी हो कि किसान आत्महत्या और मजदूर भुखमरी से छुटकारा पा सकें. कृषि आधारित उद्योगों को बढ़ावा दिया जाए.
१०. साम्प्रदायिकता और आतंकवाद जैसे मुद्दों पर राजनीति बंद हो. सभी प्रकार की हिंसा (नाक्सालवाद, अलगाववाद और आतंकवाद) का सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक हल ढूंढा जाए.
११. सूचना का अधिकार और राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी एक्ट को प्रभावी ढंग से लागू किया जाए.
१२. महिलाओं, दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ हिंसा और उनके उत्पीड़न पर रोक लगे.
१३. कोठारी आयोग की सिफारिशों के अनुसार देश में समान शिक्षा प्रणाली लागू हो. शिक्षा के निजीकरण और व्यवसायीकरण पर रोक लगे.
१४. सभी महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में छात्रसंघ के चुनाव लिंघदोह कमिटी की सिफारिशों के अनुसार कराएँ जाएँ.
१५. वास्तविक गरीबों को बी.पी.एल कार्ड मिलें ताकि वे शहरी गरीब आवास योजना के पात्र बन सकें.
१६. शहर केंद्रित विकास की नीति बदल कर गाँव में रोज़गार के अवसर पैदा किए जाएँ ताकि ग्रामीण छेत्र से पलायन रुक सके.
१७. यातायात की व्यवस्था सार्वजनिक हो ताकि निजी वाहनों के प्रयोग की कम से कम जरुरत पड़ें तथा ग्लोबल वार्मिंग की समस्या को कम करने में हम योगदान दे सकें.
१८. वैकल्पिक उर्जा जैसे सौर उर्जा, बाओ उर्जा और पवन उर्जा को अपनाया जाए ताकि गाँव-गाँव में बिजली उपलब्ध हो सके
१९. स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण रोका जाए तथा सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं को प्रभावी ढंग से लागू किया जाए.
२०. कानून के सामने सभी व्यक्ति बराबर हैं. अतिविशिष्ट व्यक्ति की श्रेणी समाप्त की जाए.
२१. भारत की विदेश नीति ऐसी बने कि पड़ोसी देशों के साथ दोस्ती और शान्ति स्थापित हो. रक्षा बजट कम कर आपसी विश्वास के आधार पर सुरक्षा स्थापित की जाए.
२२. पुलिस को कार्य स्वतंत्रता देने और उत्तरदायी बनाने के लिए पुलिस सुधार तुंरत लागू किए जाएँ
२३. यूरोपियन यूनियन की तरह दक्षिण एशिया संघ बने ताकि लोग पासपोर्ट के बिना सभी देशों में आ जा सकें.
२४. विशेष अवसरों का दायरा सरकारी नौकरी और शिक्षा से ज्यादा बढाया जाए और आरक्षण के साथ अन्य औजार भी जोडें जाएँ.
२५. डॉ बी.आर.आंबेडकर के जातिविहीन एवं वर्गविहीन समाज की स्थापना के सपने को जल्दी से जल्दी साकार किया जाए ताकि देश में सही मायनों में लोकतंत्र की स्थापना हो सके
२६. सभी मुकदमों का फ़ैसला निश्चित समय सीमा में हो.
२७. बच्चों के अधिकारों से सम्बंधित कानून अक्षरश: लागू हों
निवेदक
कुलदीप नैयर, जस्टिस राजिंदर सच्चर, सुरेन्द्र मोहन, मेधा पाटकर, अरुणा रॉय, स्वामी अग्निवेश, बनवारी लाल शर्मा, ब्रह्मदेव शर्मा, शमशेर सिंह बिष्ट, रविकिरण जैन, योगेन्द्र यादव, डॉ रूपरेखा वर्मा, डॉ संदीप पाण्डेय
लखनऊ के लिए हमारे मुद्दे:
- सभी गरीबों को पक्के सस्ते मकान उपलब्ध कराये जाएँ
- झुग्गी झोंपड़ी वासियों के पुनर्वास की व्यवस्था हो जाने पर ही उन्हें हटाया जाए
- पटरी दुकानदारों, गुमटी वालों के लिए सस्ती पक्की बाज़ार बनाई जाए
- सभी बस्तियों में बिजली, पानी, नाली व सड़क की व्यवस्था की जाए
- रिक्शा चालकों के लाईसेन्स बनाने में तथा ऑटो चालकों से अवैध वसूली रोकी जाए
- गोमती नदी की सफाई हेतु अलग से एक एजेन्सी बनाई जाए
- मेट्रो रेल सेवा को दो साल में चालू किया जाए और शहरी सार्वजनिक यातायात की सुविधाएँ सस्ती व बेहतर बनाई जाएँ
- लखनऊ की ऐतिहासिक धरोहर का संप्रदायीकरण एवं विद्रूपण रोका जाए
संपर्क
- एस.आर.दारापुरी, १८/४५५, इंदिरा नगर, लखनऊ - २२६०१६
फ़ोन: ०५२२ २३५४६६१, मोबाइल ९४१५१६४८४५
ईमेल: srdarapuri@yahoo.co.in
- डॉ संदीप पाण्डेय, अ-८९३, इंदिरा नगर, लखनऊ - २२६०१६
फ़ोन: ०५२२ २३४७३६५, ईमेल: ashaashram@yahoo.com
ऑफिस:
नवीन – ८३, हलवासिया मार्केट, हजरतगंज, लखनऊ. फ़ोन: ०५२२ ३०१२३८५
एक अदभुत ‘कचरे वाली’
जी हाँ, अपनी मित्र मंडली में इसी नाम से जानी जाती हैं, डी -२/४, पेपर मिल कालोनी की निवासिनी, श्रीमती प्रभा चतुर्वेदी। सामाजिक कार्यों के प्रति समर्पित प्रभा जी ने, सन१९९३ में, अपने पति श्री रमाकांत चतुर्वेदी एवं कुछ महिला सहयोगियों की सहायता से ‘कूड़ा विरोधी अभियान’ का प्रारंभ किया। इस अभियान के दौरान, वे सड़कों पर से कूड़ा हटाने और गंदे नालों/सीवर की सफाई के लिए, नगर महा पालिका के दफ्तर के चक्कर लगाते लगाते वहाँ के अधिकारियों / कर्मचारियों के बीच एक परिचित चेहरा बन गयीं। वे अक्सर उनके दरवाजों पर दस्तक देतीं तथा उन्हें शहर की सफाई का कार्य ( जो नगर पालिका का कर्तव्य है) करने को मजबूर कर देतीं। हालांकि यह सफलता उन्हें कभी कभी ही हासिल होती थी। अधिकतर तो उनकी गुहार, बहरे सरकारी कानों को सुनाई ही नहीं देती थी। फिर भी वे नगरपालिका अधिकारियों के लिए एक आवश्यक मुसीबत तो बन ही गयी थीं, और वे लोग यह सोचने लग गए थे कि यह औरत तो कुछ सी पागल है। पागल तो वे हो ही गयी थीं ---- अपने आसपास की गन्दगी देख कर और अपने महिला- दल के प्रयासों के प्रति आम जनता की उदासीनता को देख कर। परन्तु चेन्नई के एक समाजसेवी, श्री एम.बी. निर्मल का ध्यान, उनके प्रयत्नों के प्रति अवश्य आकर्षित हुआ। वे प्रभा जी से इतने प्रभावित हुए कि उनके दल को, अपनी चेन्नई स्थित स्वयं सेवी संस्था ‘एक्स्नोरा इंटरनेशनल ’ में आने का निमंत्रण दे दिया। यह संस्था ठोस अपशिष्ट (सॉलिड वेस्ट) प्रबंधन के क्षेत्र में कार्य करती है।
इस प्रकार, सन १९९६ में, प्रभा जी के संरक्षण में, ‘एक्स्नोरा क्लब, लखनऊ’ का जन्म हुआ। इस नाम का अर्थ है कि एक्सीलेंट, नोवेल, राडिकल’ विचार समाज को बदल सकते हैं। प्रभा जी का मानना है कि प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण है अपव्यय – फिर चाहे वो धन का अपव्यय हो, अथवा हमारी प्राकृतिक सम्पदा का, अथवा हमारे विचारों/शब्दों का। अपव्यय से बचने की दिशा में कूड़े का समुचित प्रबंधन, वर्त्तमान समय की मांग है।
जहाँ तक कूड़े का प्रश्न है, इसे कम किया जाना चाहिए, इसका पुनर्प्रयोग करना चाहिए एवं इसका पुनर्चक्रण होना चाहिए। यह कूड़ा कचरा (जो हम ही उत्पन्न करते हैं) हमारी नदियों/ जल स्त्रोतों को प्रदूषित कर रहा है, हमारी वायु को विषैला बना रहा है और हमारे आस पास के परिवेश को दूषित कर रहा है।
हाँ, यह सच है कि हमारी सरकार हमें सामान्य जन सुविधाएं देने में असफल रही है। परन्तु आम नागरिक भी तो हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। केवल अपनी मानसिकता और कार्य शैली में थोड़ा सा परिवर्तन करके, हम जन साधारण भी बहुत कुछ कर सकते हैं। अत: हमें प्रभा जी से प्रेरणा लेते हुए तुंरत ही प्रयत्नशील हो जाना चाहिए।
घर का कूड़ा फेंकने के बजाय हमें उसको पुन:प्रयोग के लायक बनाना चाहिए। बस थोड़ी सी इच्छा शक्ति रखते हुए, हमें घर के कूड़े को दो भागों में बांटना होगा ----- जैविक (अर्थात सड़ने वाला) एवं अजैव ( न सड़ने वाला)।
रसोई घर का कूड़ा, हमारे सर के टूटे हुए बाल, पेड़ पौधों की सूखी पत्ती/फूल, पूजा में इस्तेमाल हुई धूप बत्ती, अगर बत्ती की राख इत्यादि। इन सभी अपशिष्टों को अपनी फुलवारी में मिट्टी के नीचे दबा दें, या किसी पेड़ की जड़ के आसपास की मिटटी में गाड़ दें, या एक लकड़ी के क्रेट में जूट की तह के ऊपर बिखरा कर ढँक दें। कुछ समय बाद, यह कूड़ा बढ़िया नाईट्रोजन उक्त खाद में परिवर्तित हो जायेगा और हमारी भूमि को उपजाऊ बनाने में सहायक होगा।
अजैव अथवा परिवर्तनीय कूड़ा कहलाते हैं पौलीथीन बैग, प्लास्टिक की बोतलें, गुटखा और पान मसाला के खाली पैकेट, लोहा/अलमुनियम का सामान, कांच का टूटा सामान, कप प्लेट इत्यादि। इन सभी को एक झोले में डाल कर सीधे कूड़ा बीनने वाले कबाड़ी बच्चों को दे देना चाहिए। इस प्रकार जहाँ एक और उन्हें गंदे कूड़े में विचरण करके प्लास्टिक बीनने से कुछ हद तक छुटकारा मिलेगा, वहीं सडकों पर पडी हुई गन्दगी में भी कमी आयेगी।
प्रभाजी के अनुसार, दुर्भाग्य की बात तो यह है कि हम अपने गंदे परिवेश के बारे में शिकायत तो करते रहते हैं, पर उसे स्वच्छ रखने का स्वयं कोई प्रयत्न नही करते। इस उत्तम कार्य की पहल, आपकी कालोनी / हाऊसिंग सोसाइटी में रहने वाली गृहणियों/ अवकाश प्राप्त बुजुर्गों के संरक्षण में, बच्चों की सहायता से की जा सकती है।
जब हम अपने पर्यावरण को साफ़ एवं कूड़ा रहित बना पायेंगें, तभी हम राजनैतिक प्रदूषण दूर करने में सफल होंगें। हमें अपने बीच के विषाक्त तत्वों को चुनाव में, वोट न देकर, उखाड़ फेंकना होगा। तथा ऐसे ईमानदार व्यक्तियों का चुनाव करना होगा जो समाज के पिछडे वर्ग की आवश्यकताओं के प्रति संवेदनशील हों।
शोभा शुक्ला संपादक, सिटिज़न न्यूज़ सर्विस (सी.एन.एस)
चुनाव २००९: सी.पी.आई, आल इंडिया फॉरवर्ड ब्लोक, आर.एस.पी ने दारापुरी को समर्थन दिया
कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (सी.पी.आई), आल इंडिया फॉरवर्ड ब्लोक एवं रेवोलुशनरी सोशलिस्ट पार्टी (आर.एस.पी) ने लोक सभा प्रत्याशी एस.आर.दारापुरी को समर्थन दिया है. लखनऊ लोक सभा चुनाव छेत्र से दारापुरी लोक राजनीति मंच की ओर से चुनाव लड़ रहे हैं.
एस.आर.दारापुरी, सेवा निवृत पुलिस महानिरीक्षक रहे हैं और प्रख्यात सामाजिक कार्यकर्ता हैं. इन्होने लोगों से जुड़े हुए मुद्दों को उठाने में और जन आंदोलनों को सशक्त करने में हर सम्भव भूमिका अदा की है.
बाहुबल और पैसे पर राजनीति करने वालों के समक्ष, लोक राजनीति मंच एक वैकल्पिक राजनीतिक मॉडल खड़ा करना चाहता है. लोक राजनीति मंच का मकसद यह है कि राजनीति में लोगों से जुड़े हुए मुद्दे केन्द्र में होने चाहिए और जन-प्रतिनिधियों को सामाजिक मुद्दों के प्रति संवेदनशील होना चाहिए. यह नि:संदेह एक छोटा प्रयास है जो राजनीति में बढ़ते हुए भ्रष्टाचार और अपराधीकरण को चुनौती देने की मंशा रखता है.
दारापुरी जी का घोषणापत्र भी लोगों की सक्रिय भागीदारी से ही लिखा जा रहा है - जो लोग विभिन्न मुद्दों से प्रभावित हैं या उनपर कार्यरत रहे हैं, वोह ही स्वयं दारापुरी जी का घोषणापत्र लिख रहे हैं. उदाहरण के तौर पर जो लोग महिला अधिकारों पर कार्य कर रहे हैं, वोह महिला अधिकारों से जुड़े हुए मुद्दों पर घोषणापत्र का भाग चर्चा से एवं लोगों की भागीदारी से लिख रहे हैं.
"जो लोग जन प्रतिनिधि बनना चाहते हैं उनका लोगों से जुड़े हुए मुद्दों के प्रति संवेदनशील होना और इमानदार होना अत्यन्त आवश्यक है" कहना है डॉ संदीप पाण्डेय का जो मग्सय्सय पुरुस्कार से सम्मानित सामाजिक कार्यकर्ता हैं और लोक राजनीति मंच के राष्ट्रीय अध्यक्षीय मंडल के सदस्य भी.
डॉ संदीप पाण्डेय उन लोगों में से एक थे जिन्होंने फ़िल्म अभिनेता संजय दत्त के लखनऊ से चुनाव लड़ने के ख़िलाफ़ कोर्ट में याचिका दर्ज की थी. इसी तरह के अन्य प्रयासों से लोक राजनीति मंच राजनीति में अपराधीकरण और भ्रष्टाचार को ललकारने की कोशिश कर रहा है.
लोक राजनीति मंच युवाओं को विशेष तौर पर जोड़ रहा है, जो इस व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार से निराश हो चुके हैं. प्रोजेक्ट विजय नामक युवाओं का समूह जो भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ मुहीम छेड़े हुए है, ने भी दारापुरी जी को समर्थन दिया हुआ है.
लखनऊ में लोक सभा चुनाव ३० अप्रैल २००९ को हैं.
चुनाव पर नज़र यात्रा दिल्ली पहुंची
मुंबई, गाजियाबाद, हिमाचल प्रदेश, रांची, छिंदवाडा, आदि जगहों से होती हुई और लोगों से जुड़े हुए मुद्दों को उठती हुई 'चुनाव पर नज़र यात्रा' १५ अप्रैल २००९ को दिल्ली पहुंची है. इस यात्रा के माध्यम से शहरों में रहने वाले लाखों गरीबों के, अव्यवस्थित छेत्र में कार्यरत लोगों के, बस्तियों में रहने वालों के, जमीन-रहित किसानों के, और अन्य समाज के हाशिए पर जीवित लोगों के जीवन से जुड़े हुए मुद्दें उठ रहे हैं.
दिल्ली में १५ अप्रैल २००९ को लोक मंच का आयोजन हुआ जिसमें धरना स्थल पर हज़ारों लोग एकत्रित हुए और खंज़वाला भूमि बचाओ आन्दोलन, जो १७०० से बसा हुआ गाँव है, के प्रति समर्थन व्यक्त किया. इस गाँव पर भूमि-माफियाओं की नज़र गड़ी हुई है.
इन लोगों ने टेकरी कला, कराला और टेकरी खुर्द गाँव जो ९०० साल पुराने हैं, उनके लोगों के साथ भूमि माफियाओं का खंडन किया और विभिन्न राजनीति दलों के प्रतिनिधियों से यह पूछा कि आगामी लोक सभा चुनाव २००९ में किस तरह से उनके जीवन और रोज़गार से जुड़े हुए मुद्दे उठ रहे हैं. इन लोगों ने राजनीतिक प्रतिनिधियों को उनके खोखले वादों की भी याद दिलाई जो उन्होंने २००४ में दिल्ली विकास प्राधिकरण और डी.एस.आई.डी.सी से सम्बंधित अनियंत्रित और मनमाना भूमि अधिग्रहण के मामले में किए थे.
यह अभियान अनेकों संस्थाओं के सामूहिक योगदान का फल है, जिसमें जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय, जन संघर्ष वाहिनी, राष्ट्रीय किसान मजदूर संगठन, दिल्ली सोलिडरिटी ग्रुप, बंधुआ मुक्ति मोर्चा, राष्ट्रीय कर्मचारी संगठन, राष्ट्रीय घर-में कार्यरत लोगों के संगठन, दिल्ली फोरम, CACIM, युवाओं का संगठन, स्थायी लोकतंत्र का संस्थान, शहरों में कार्यरत महिलाओं का संगठन, जन संघर्ष संयुक्त मोर्चा और अन्य संगठन भी शामिल हैं.
अनेकों लोगों ने इस 'लोक मंच' कार्यक्रम में भाग लिया जिसमें मध्य प्रदेश सरकार के भूतपूर्व प्रमुख सचिव, श्री शरद चंद्र बहार, इंडियन सोशल साइंस अकेडमी के डॉ मेहर इंजीनियर, जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के अर्थनीति विभाग के डॉ अमित बहादुरी, मग्सय्सय पुरुस्कार से सम्मानित और सूचना के अधिकार पर कार्यरत अरविन्द केजरीवाल, नर्मदा बचाओ आन्दोलन और जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय की मेधा पाटकर, दिल्ली यूनिवर्सिटी के आचार्य अजित झा, राजनीतिक अर्थनीति विशेषज्ञ आचार्य अरुण कुमार, वरिष्ठ पत्रकार सुहास बोरकर, जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय से राजेंद्र रवी आदि शामिल थे.
विभिन्न शहरों में इस अभियान से चुनाव आयोग के भूतपूर्व सलाहाकार, के जगन्नाथ राव, असोसिअशन फॉर डेमोक्रेटिक रेफोर्म के त्रिलोचन शास्त्री जो भारतीय प्रबंधन संस्थान के 'डीन' भी हैं, मुंबई हाई कोर्ट के सेवा निवृत न्यायाधीश सुरेश, रांची विश्वविद्यालय के भूतपूर्व कुलपति आचार्य राम दयाल मुंडा, इंसाफ से दयामनी बिरला, किसान संघर्ष समिति से डॉ सुनीलम, जंगल बचाओ अभियान से संजय बासु मल्लिक, आई.ए.एस अधिकारी आभा सिंह और अन्य लोग भी जुड़े.
कांग्रेस पार्टी की श्रीमती कृष्ण तीरथ, भारतीय जनता पार्टी की श्रीमती मीरा कावारिया, और बहुजन समाज पार्टी से श्री राकेश हंस ने लोगों से जुड़े हुए मुद्दों के प्रति अपनी-अपनी पार्टी की भूमिका रखी.
हमारा मानना है कि असली लोकतंत्र तभी मुमकिन है जब विकेंद्रीकरण हो. बस्ती सभा, जिनमें हर शहर से ३००० परिवार जुड़े होते हैं, और ग्राम सभा, ही हर निर्णय-लेने की प्रक्रिया का आधार होने चाहिए.
हम सामाजिक आंदोलनों ने जन भागीदारी बिल प्रस्तावित किया है और हर राजनीतिक दल से हमारा अनुरोध है कि वोह अपनी टिपण्णी इस पर दें.
वर्त्तमान विकास की अवधारणा जिसमें गरीब लोगों का विस्थापन हो रहा है और उनके रोज़गार के अवसर समाप्त हो रहे हैं, हम लोगों के जन आन्दोलन, इन्हीं विस्थापित और बेरोजगार हुए लोगों के लिए संघर्ष करके और उनके लिए निर्माण की नीति को अपना कर ही सशक्त होते आए हैं.
निर्मला बहन, मधुरेश, अनीता कपूर, भूपेंद्र रावत, नान्हू गुप्ता
दलित प्रत्याशी की हत्या की सी.बी.आई जांच हो
दुर्भाग्यवश अम्बेडकर जयंती की पूर्व संध्या पर जौनपुर से इंडियन जस्टिस पार्टी के दलित प्रत्याशी बहादुर लाल सोनकर की संदिग्ध परिस्थितियों में हत्या अत्यंत चिंताजनक कृत्य है.
राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण का लोक राजनीति मंच विरोध करता है. मीडिया रपट के अनुसार, इंडियन जस्टिस पार्टी ने कहा है कि बहादुर लाल को बहुजन समाज पार्टी के प्रत्याशी धनन्जय सिंह और कुछ वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों से जान से मारने की धमकियाँ मिल रही थीं, जो उसको आगामी लोक सभा चुनाव से अपना नामांकन वापस लेने के लिए दबाव बना रहे थे.
लोक राजनीति मंच की मांग है कि इस हादसे की सी.बी.आई जांच हो और जो लोग बहादुर लाल की मृत्यु के लिए जिम्मेदार हैं उनके ख़िलाफ़ उपयुक्त करवाई हो.
बहादुर लाल जौनपुर के एक दलित नेता थे. प्रशासन को बहादुर लाल ने इन जानलेवा धमकियों के बारे में अवगत कराया था और उपयुक्त सुरक्षा की मांग भी की थी परन्तु न तो सुरक्षा दी गई और न ही धमकी देने वालों के प्रति कोई करवाई हुई.
हमारा मानना है कि अपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों को राजनीति में कोई जगह नहीं मिलनी चाहिए. हम सब की मांग है कि इस हादसे की सी.बी.आई जांच हो और जो लोग इसके लिए जिम्मेदार हैं उनके ख़िलाफ़ सख्त करवाई हो.
एस.आर दारापुरी (लखनऊ से लोक राजनीति मंच के प्रत्याशी), डॉ संदीप पाण्डेय (सदस्य, राष्ट्रीय अध्यक्षीय मंडल, लोक राजनीति मंच), राम सागर (मिश्रिक से लोक राजनीति मंच के प्रत्याशी)
तीस साल बाद स्याह यादें -
(अभी सन 84 के दंगों को लेकर काफी हंगामा बरपा था। जिस पार्टी को जो आसान और सुविधाजनक लगा, उसने 84 के दंगा और पीडि़तों का अपने तरीके से इस्तेमाल किया। लेकिन इस मुल्क ने सत्तर और अस्सी के दशक में कुछ और भयानक दंगे देखे हैं, उन्हें कोई याद नहीं रखना चाहता। उसके लिए कोई हो हल्ला भी नहीं मचता। ऐसा ही एक दंगा था, जमशेदपुर का। मैंने भी दंगा पीडि़तों को पहली बार इसी दंगे के जरिए जाना था। समाचार वेबसाइट टूसर्किल्स डॉट नेट के सम्पादक काशिफ उल हुदा उस वक्त पाँच साल के थे और दंगे में बाल-बाल बच गए थे। उस दंगे के तीस साल बाद यह बच्चा अपने बचपन के उन काली स्याह यादों को ताजा कर रहा है। इसलिए नहीं कि आप सियापा करें। इसलिए कि ऐसी यादें कितनी खौफनाक होती हैं और उनका असर ताउम्र होता है। तो क्या हम अपनी आने वाली पीढ़ी को भी ऐसी ही खौफनाक यादें देकर जाना चाहते हैं। यह टिप्पणी मूल रूप में अंग्रेजी में लिखी गई है। इसे हिन्दी में सिटिजन न्यूज सर्विस ने तैयार किया है। मैंने उस हिन्दी अनुवाद में थोड़ा संशोधन, थोड़ा सम्पादन किया है।-नासिरूद्दीन)
1979 के जमशेदपुर के दंगों की यादकाशिफ-उल-हुदा
1979 के इसी अप्रैल महीने में बिहार के जमशेदपुर में हिन्दू-मुस्लिम फसाद हुए थे। इस फसाद में 108 लोगों की जानें गयीं थीं. यह तादाद 114 भी हो सकती थी, लेकिन खुशकिस्मती से मेरा खानदान किसी तरह बच गया. शायद इसलिए हम आज 30 साल बाद उस दिल दहला देने वाली घटना को बयान करने के लिए जिंदा हैं.
मैं पाँच साल का था जब यह दर्दनाक हादसा हुआ। लेकिन इस हादसे की याद मेरे दिलो-दिमाग में गहरे पैठी है। मेरे बचपन की चंद यादों में एक अहम याद है. आज इस हादसे की डरवानी तसवीर मेरी आँख के सामने घूम रही है.
11 अप्रैल 1979 के दिन सुबह से ही फिजा में कुछ अनहोनी की बू आ रही थी. पता नहीं कैसे, लेकिन मेरी अम्मा ने इस खराब हवा को सूँघ लिया। रामनवमी की सुबह वह अपने भाई और मेरी दो छोटी बहनों के साथ पास के मुसलमान बहुल इलाके, गोलमुरी में चली गईं. लेकिन मेरे अब्बा के खयालात काफी अलग थे। उन्हें पूरा यकीन था कि कुछ नहीं होगा. उन्होंने कॉलोनी के हिन्दुओं और मुसलमानों को मिलाकर एक कमेटी बनाई थी। उन्हें भरोसा था कि बलवाई चाहे हिन्दू हों या मुसलमान, कमेटी ढाल का काम करेगी। हिन्दू-मुसलमान सब मिलकर रहेंगे।
अब्बा के साथ मैं और मेरे बड़े भाई रुक गए। अम्मा और बहनें सुबह ही गोलमुरी जा चुकी थीं. लेकिन जैसे-जैसे दिन गुजरने लगा, हमने देखा वैसे-वैसे बाहर लोगों की भीड़ बढ़ रही थी. भैया घबराने लगे, कहीं कुछ हो गया तो। दोपहर के खाने के वक्त तक हमने अब्बा को किसी तरह मना लिया कि वह हम दोनों को अम्मा के पास गोलमुरी छोड़ आएँ.
जब हम लोग गोलमुरी में अपने रिश्तेदार कमाल साहब के घर खाना खा रहे थे, तब ही यकायक लोगों के चिल्लाने की आवाजें आयीं... यानी बलवा शुरू हो गया.
यह देखने के लिए की क्या हो रहा है, हम लोग भाग कर बाहर तरफ आए. देखा कि कुछ ही दूरी पर जबरदस्त धुआँ उठ रहा था. इसके बाद की मेरी यादें, टुकड़ों- टुकड़ों में ही है. मुझे याद है कि हम जिस घर में रह रहे थे, वहाँ पर सिर्फ़ औरतें और बच्चे थे. मुझे यह याद है कि मैं वहाँ खाना नहीं खाना चाहता था क्योंकि वह कच्चा ही रह जाता था. मैं इतनी छोटी सी उम्र में रिफ्यूजी बन गया था. कच्ची उम्र में ही रिफ्यूजी होने का तजुर्बा. मुझे आज भी याद है कि रात के अंधेरे में जब मैं छत पर जाता, तो मुझे चारों ओर आग की लपटें दिखाई देतीं मानो पूरा शहर ही जल रहा हो. मुझे यह भी याद है कि कोई मुझे छत पर जाने के लिए डाँट रहा था. क्योंकि छत पर मैं आसानी से किसी बलवाई की गोली का निशाना बन सकता था. मुझे यह भी याद है कि मैं अपने अब्बा से बहुत दिनों तक कम ही मिल पाया था. मैं बहुत सहमा-सहमा रहता था.
कई साल बाद मुझे पता चला जब हिन्दू-मुसलमानों की संयुक्त कमेटी में शामिल ज्यादातर हिन्दू इलाका छोड़ कर जा रहे थे तो जमशेदपुर के टिनप्लेट इलाके में हमारा घर ही आस पड़ोस के मुसलमानों का शरण गाह बना हुआ था।
उस दिन मेरे अब्बा कुछ जरूरी सामान देने के लिए गोलमुरी आए। जब तक वापस जाते तब तक कर्फ्यू लग गया था. वह वापस नहीं जा सके. इस बीच टिनप्लेट इलाके में रह रहे मुसलमानों ने देखा कि वह हर ओर से घिर रहे हैं. वे टिनप्लेट फैक्ट्री में मदद माँगने पहुँचे. लेकिन यह क्या... वहाँ पर रोज साथ काम करने वाले उनके साथियों ने ही उन्हें बर्बरतापूर्वक मार डाला. मेरे अब्बा सिर्फ़ इसलिए आज हमारे बीच हैं क्योंकि कर्फ्यू लग जाने की वजह से वह गोलमुरी से टिनप्लेट वापस नहीं जा सके थे.
हालाँकि हमारी जान बच गई थी लेकिन हमारे घर का सारा सामान लुट गया था. बाकि लोगों का सब सामान जला कर राख कर दिया गया था. महीनों बाद हम सब एक नए इलाके में रहने के लिए गए. इसका नाम था अग्रिको कॉलोनी. यह कॉलोनी जो मुसलमानों की एक और बस्ती भालूबासा के सामने थी. कमरों में नई नई पुताई हुई थी पर यह पुताई भी उस वहशियाना आग और लूट के दाग नहीं छुपा पा रही थी. हमें यह तो नहीं पता था कि इन घरों में किसी की हत्या हुई थी या नहीं पर तबाह के निशाँ साफ़ दिख रहे थे.
अगले कई सालों तक मुझे कई लोगों से इस दंगे की दिल-दहला देने वाली आप बीती सुनने को मिली. मुझे एक महिला की याद है जिसके शरीर पर जलने के निशाँ थे. यह महिला उस एम्बुलेंस में सवार थी, जिसे दंगाइयों ने आग के हवाले कर दिया था. दंगाई यह सोच कर आगे बढ़ गए थे कि इसमें सवार सभी लोग मारे गए हैं. हर रोज स्कूल जाते वक्त हम पुलिस स्टेशन के बाहर खड़ी इस जली एम्बुलेंस को देखते थे.
मारे गए 108 लोगों में से 79 मुस्लमान और 25 हिन्दू थे. बड़ी तादाद में लोग जख्मी हुए थे और अनेकों ऐसे थे जिनका सब कुछ खत्म गया था.
जमशेदपुर, उद्योगों की नगरी है. यहाँ हर ओर टाटा की फैक्ट्री है. इस शहर में रहने वाले ज्यादातर लोग इन फैक्ट्रियों में ही काम करते हैं. पूरे शहर का जिम्मा कम्पनी पर है. कम्पनी के क्वार्टर में हर मजहब के लोग रहते आए हैं.
यह समझ से परे है कि ऐसा दुर्भाग्यपूर्ण और बर्बर बलवा उस शहर में हुआ जहाँ हर जाति-धर्म- भाषा के लोग मिल्लत के साथ रहते थे. यहाँ रह रहे ज्यादातर लोग या तो अविभाजित बिहार के रहने वाले थे या देश के किसी और कोने से. सभी कंपनी में काम करने वाले मध्यवर्ग के लोग थे और अपने परिवार के लालन पालन में लगे थे. ऐसा भी नहीं है कि जमशेदपुर के दंगों में सिर्फ़ मुसलमान ही मरे थे, बल्कि हिन्दू भी मारे गए थे. तब आख़िर इन दंगों का फायदा किसको मिला था?
तीस साल पहले जिस आदमी ने उस दिन पूरे जमशेदपुर को अपने कब्जे में ले लिया था, वह था स्थानीय विधायक दीनानाथ पाण्डेय. इस दंगे के बाद पाण्डेय दो बार भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर भी बिहार विधानसभा पहुँचा. भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशी के रूप में वह 1990 तक चुनाव जीतता रहा. उसकी सीट भारतीय जनता पार्टी के लिए 'सुरक्षित' सीट बन गई. विधानसभा के पिछले दो चुनाव में, भारतीय जनता पार्टी इस सीट से 50 प्रतिशत से भी अधिक वोट से जीती है.
अब लोकसभा चुनाव हो रहे हैं. जब हम यह टिप्पणी करते हैं कि राजनीति में गुंडे या अपराधी पृष्ठभूमि के लोग आ गए हैं, तो हम यह भूल जाते हैं कि इसके लिए भी हम लोग ही जिम्मेदार हैं. दीनानाथ पाण्डेय जैसे लोग का, जिनपर सामूहिक हत्या का आरोप है, राजनीति में कोई स्थान नहीं होना चाहिए. जगदीश टाइटलर और सज्जन कुमार को चुनाव लड़ने से रोक कर कांग्रेस ने सराहनीय काम किया है। लेकिन यह वही पार्टी है जिसके शासन में आंध्र प्रदेश में आतंकी होने के आरोप में मुसलमान युवाओं को गैर कानूनी तरीकों से गिरफ्तार किया गया। यही नहीं पुलिस ने उनसे जुर्म कबूलवाने के लिए टार्चर किया। महीनों बाद भी जब पुलिस अपना आरोप साबित न कर सकी तो हाल ही में ये बेगुनाह नौजवान रिहा कर दिए गए हैं। सत्ताधारी तब तक कोई भी बेहतर कदम नहीं उठाते हैं, जब तक लोग अपना आक्रोश जाहिर न करें और जन दबाव न बनाएँ. इसलिए नाइंसाफी के खिलाफ लोकतांत्रिक तरीके जन दबाव बनाना जरूरी है।
अगर पार्टियों ने वक्त रहे सख्त कदम नहीं उठाए और अपराधियों को टिकट देना जारी रखा तो हम लोगों को कदम उठाना चाहिए। हम लोगों को ऐसे उम्मीदवारों को वोट नहीं देने का फैसला करना चाहिए जो नफरत फैलाते हैं और अपराधिक पृष्ठभूमि के हैं।
(लेखक समाचार वेबसाइट www.twocircles.net के संपादक हैं)
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मशहूर पत्रकार एमजे अकबर ने अपनी पुस्तक Riot After Riot में जमशेदपुर दंगे के बारे में क्या लिखा है। यह पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें।
आतंकवाद एवं साम्प्रदायिकता की राजनीति
हमारा मानना है कि यदि देश में बाबरी मस्जिद का ध्वंस न होता तथा १९९८ का परमाणु परीक्षण न होता तो आज देश के सामने आतंकवाद इतनी बड़ी समस्या के रूप में मुंह बाए न खड़ी होती. पहली बम विस्फोट की घटनाएँ १९९३ में बाबरी मस्जिद के गिरने के बाद मुंबई में हुईं. परमाणु परीक्षण के बाद भारतीय जनता पार्टी नेतृत्व वाली सरकार की नीतियाँ अमरीका परस्त हो गयीं तथा २००१ में अमरीका के आतंकवाद के ख़िलाफ़ युद्ध में शामिल होने के बाद देश में पहली 'आतंकवादी' कही जाने वाली दुर्घटना संसद पर हमले के रूप में हुई. इसके बाद तो जैसे आतंकवादी घटनाओं की बाढ़ जैसी आ गई और पिछले नवम्बर में तो आतंकवादियों ने मुंबई जैसे हमले का दुस्साहस किया.
देश में सांप्रदायिक राजनीति की वजह से नफरत-हिंसा बढ़ी है तथा देश की संप्रभुता को भी खतरा खड़ा हो गया है. सांप्रदायिक राजनीति ही आतंकवादी घटनाओं के लिए जिम्मेदार है. इसमें जितने दोषी पाकिस्तान समर्थित कट्टरपंथी इस्लामी संगठन हैं उतना ही दोष राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ एवं अन्य हिन्दुत्ववादी संगठनों का है.
अब तो देश के लिए तालिबान का खतरा भी सीधे-सीधे है जो धीरे-धीरे पाकिस्तान को निगल रहा है. किसी देश में कट्टरपंथी तत्वों को छूट देने का परिणाम क्या हो सकता है इसका सबक हमको पाकिस्तान से सीखना चाहिए.
हमारा मानना है कि जब तक पाकिस्तानी निर्वाचित सरकार इतनी मजबूत नहीं होती कि वोह अपनी सेना, खुफिया संस्था एवं आतंकवादी तत्वों पर काबू नहीं पाती तब तक सीमापार से आतंकवाद का खतरा बना रहेगा.
इस देश में हिन्दुत्ववादी संगठनों को राजनीति में भाग लेने से प्रतिबंधित किया जाना चाहिए. जो भी संगठन ऐसी संकीर्ण विचारधारा को मानता हो जो किसी दूसरे समुदाय से नफरत के आधार पर खड़ी हो, उसकी लोकतंत्र में कोई जगह नहीं होनी चाहिए. हम कांग्रेस पार्टी द्वारा जगदीश टाईलर तथा सज्जन कुमार का टिकेट काटने का स्वागत करते हैं और भारतीय जनता पार्टी से भी इसी प्रकार की कार्यवाही की आशा करते हैं.
असगर अली इंजीनियर, एस.आर दारापुरी, डॉ संदीप पाण्डेय
लोक राजनीति मंच
१९७९ में जमशेदपुर के दंगों की याद
काशिफ-उल-हुदा
[यह मौलिक रूप से अंग्रेजी में लिखा गया है, जिसको पढ़ने के लिए यहाँ पर क्लिक कीजिये. यह इसका हिन्दी अनुवाद है, यदि त्रुटियां हों, तो माफ़ कीजियेगा]
१९७९ में इसी महीने (अप्रैल), जमशेदपुर में हिन्दू-मुस्लिम दंगे हो गए थे जिसमें १०८ लोगों की जानें गयीं थीं. ११४ जानें भी जा सकती थीं परन्तु मेरा परिवार किसी तरह बच गया, शायद इसलिए जिससे हम आज ३० साल बाद उस दिल दहला देने वाली घटना को बयाँ कर सकें.
यह दुर्भाग्यपूर्ण हादसा तब हुआ था जब में ५ साल का था. परन्तु इस हादसे की याद मेरे मस्तिष्क में साफ़ उभरी हुई है और मेरी प्रारंभिक जीवन की स्मृतियों में से एक प्रमुख याद है. ३० साल बाद भी इस हादसे की भयावाही यादें आज भी ताजा हो उठती हैं.
११ अप्रैल १९७९ को उस दिन हवा में कुछ भयानक संकेत थे. पता नहीं कैसे, परन्तु मेरी माँ को यह संकेत समझ में आ गए और वोह रामनवमी के दिन, अपने भाई और दो छोटी बहनों के साथ पास के मुसलमान इलाके, गोलमुरी, में चली गयीं. मेरे पिताजी आदर्शवादी थे और उन्हें पूरा भरोसा था कि कुछ नहीं होगा. यदि कुछ हो भी गया तो पिताजी ने एक हिन्दू और मुस्लमान लोगों का संयुक्त रक्षा दल बनाया हुआ था जो हिन्दू और मुस्लमान गुटों के आक्रमण से बचायेगा.
मैं और मेरा भाई, जो मुझसे २ साल बड़ा है, पिताजी के साथ रुक गए और मेरी माताजी और बहनें सुबह को गोलमुरी चली गयीं. जैसे-जैसे दिन बीत रहा था, वैसे-वैसे लोगों की भीड़ बाहर बढ़ने लगी. मेरा भाई कुछ परेशान होने लगा और दोपहर के खाने के समय तक हमने अपने पिताजी को मना लिया कि वोह हम दोनों भाइयों को माँ के पास गोलमुरी छोड़ आयें. जब हम लोग गोलमुरी में अपने रिश्तेदार कमाल जी के यहाँ भोजन कर रहे थे, लोगों के चिल्लाने की आवाजें आयीं कि दंगा आरम्भ हो गया है.
यह देखने के लिए की क्या हो रहा है, हम लोग जल्दी से बाहर गए और देखा कि कुछ ही दूरी पर धुआं उठ रहा था. इसके बाद की मेरी स्मृति, टुकड़ों में ही है. मुझे याद है कि हम जिस घर में रह रहे थे, वहाँ पर सिर्फ़ महिलाएं और बच्चे थे. मुझे यह याद है कि मैं खाना नहीं खाना चाहता था क्योंकि वोह पूरी तरह से पका हुआ नहीं होता था. यह मेरा शरणार्थी की तरह बहुत की कम उम्र का अनुभव रहा है. रात में मुझे याद है कि में ऊपर छत पर जाता था, जहाँ से देख कर के लगता था जैसे पूरा शहर ही जल रहा हो. मुझे यह भी याद है कि कोई मुझे चेतावनी दे रहा था कि ऊपर छत पर नहीं जाना चाहिए क्योंकि आसानी से गोली का निशाना बनाया जा सकता है. मुझे यह भी याद है कि मैं अपने पिताजी से बहुत ही कम मिल पाता था और बहुत सहमा हुआ रहता था.
कई सालों बाद पता लगा कि जमशेदपुर के टिनप्लेट छेत्र में हमारा घर ही अनेकों स्थानीय मुसलमानों को शरण दिए हुआ था क्योंकि संयुक्त परिवारों में रहने वाले हिन्दू लोग धीरे-धीरे इस छेत्र को छोड़ कर जा रहे थे.
उस दिन, मेरे पिताजी, सामग्री देने के लिए गोलमुरी आए हुए थे परन्तु जब वोह वापस जाने को हुए तब तक करफ्यू लग गया था. चूँकि वोह वापस नहीं पहुंचे थे, टिनप्लेट में रह रहे मुसलमानों ने देखा कि वोह हर ओर से घिर रहे हैं और इसीलिए टिनप्लेट फैक्ट्री में वोह लोग मदद मांगने गए. परन्तु वहाँ पर उन सब को उन्ही के सहकर्मियों ने बर्बरतापूर्वक मार डाला. मेरे पिताजी सिर्फ़ इसलिए बच गए क्योंकि करफ्यू लग जाने की वजह से वोह गोलमुरी से टिनप्लेट वापस नहीं जा सके.
हमारा घर तो लुट गया था पर हम लोग भाग्यशाली थे क्योंकि और लोगों का सब सामान जला कर राख कर दिया गया था. महीनों बाद हम सब एक नए छेत्र में रहने के लिए गए जिसका नाम अग्रिको कालोनी था, जो मुसलमानों की एक अन्य कालोनी भालूबासा के सामने थी. इन घरों में नई पुती हुई सफेदी भी आग और लूट के दाग नहीं छुपा पा रही थी. हमें यह भी नहीं पता था कि इन घरों में किसी की हत्या हुई थी या नहीं, पर लूट के निशाँ साफ़ दिख रहे थे.
समय बीतता गया और अनेकों लोगों से जमशेदपुर दंगे की दिल-दहला देने वाली उनकी आप बीती सुनने को मिली. मुझे एक महिला याद है जिसके शरीर पर जलने के निशाँ थे - यह महिला उस एंबुलेंस से बच गई थी जिसको यह सोच कर जलाया गया था कि एंबुलेंस के साथ-साथ उसके भीतर बैठे सभी लोग भी जल जायेंगे. रोजाना स्कूल जाते हुए हम इस जली हुई एंबुलेंस को देखते थे जो पुलिस स्टेशन के बाहर खड़ी कर दी गई थी.
१०८ मृत लोगों में से ७९ मुस्लमान और २५ हिन्दू थे. कई लोग जख्मी हुए थे और अनेकों ऐसे थे जिनका सब कुछ खो गया था.
जमशेदपुर एक उद्योगों वाला शहर है, जहाँ टाटा की फैक्ट्री हर ओर हैं. इस शहर में अधिकाँश रहने वाले लोग इन फैक्ट्री में ही कार्य करते हैं. अधिकाँश शहर कंपनी की जागीर है और हर धर्म के लोग शांतिपूर्वक कंपनी द्वारा दिए हुए क्वार्टर में रहते हैं.
यह समझ से परे है कि ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण और बर्बर कृत्य इस शहर में हुआ जहाँ हर धर्म के लोग सद्भावना के साथ रहते थे. अधिकाँश रहने वाले लोग बिहार से हैं या अन्य भारतीय प्रदेशों से, और सभी कंपनी में कार्यरत थे और अपने परिवार के पालनपोषण में रमे हुए थे. इस जमशेदपुर दंगों में सिर्फ़ मुस्लमान ही नहीं मरे, बल्कि हिन्दू भी तो मरे थे - आख़िर इन दंगों का लाभ किसको मिला था?
तीस साल पहले जिस आदमी ने पूरे जमशेदपुर को आड़े हाथ लिया हुआ था वोह जमशेदपुर का स्थानीय सभासद दीनानाथ पाण्डेय था. पाण्डेय को इस हादसे के बाद बिहार के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने २ बार सीट से नवाजा. भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशी की तरह वोह १९९० तक चुनाव जीता था. उसकी सीट भारतीय जनता पार्टी के लिए 'सुरक्षित' सीट थी. पिछले दो प्रदेश चुनाव में, भारतीय जनता पार्टी इस सीट से ५० प्रतिशत से भी अधिक वोट से जीती.
भारत में लोक सभा चुनाव होने को हैं. जब हम लोग यह टिपण्णी करते हैं कि राजनीति में गुंडे या अपराधी पृष्ठभूमि के लोग आ गए हैं, हम यह भूल जाते है कि इन लोगों को राजनीति में वोट दे कर लाने के लिए भी हम लोग ही जिम्मेदार हैं. दीनानाथ पाण्डेय जैसे लोगों के लिए, जिनपर सामूहिक हत्या का आरोप है, राजनीति में कोई स्थान नहीं होना चाहिए. जगदीश टाइलेर और सज्जन कुमार को कांग्रेस प्रत्याशी होने पर रोक लगा कर कांग्रेस ने सराहनीय काम किया है, परन्तु यह वही पार्टी है जो आंध्र प्रदेश में उस समय शासन में थी जब हैदराबाद में मुस्लमान युवाओं को गैर कानूनी तरीकों से गिरफ्तार किया जा रहा था और उगलवाने के लिए पुलिस द्वारा अनैतिक ढंग से दंड दिया जा रहा था. यह सरकार तब तक कोई भी सख्त कदम नहीं उठाती है जब तक लोग अपना आक्रोश जाहिर न करें.
यदि पार्टियाँ समयोचित कदम लेने से कतरायेंगी और अपराधी पृष्ठभूमि वाले लोगों को चुनाव में उतारेंगी, तो हम लोग ऐसे नफरत और वैमनस्य भरे हुए मौहौल में वोट नहीं देंगे.
काशिफ-उल-हुदा
(लेखक समाचार वेबसाइट www.twocircles.net के संपादक हैं)
प्रकाशित: रविवार, ढाई आखर, मेरी ख़बर
सार्थक लोकतंत्र का सपना
सार्थक लोकतंत्र का सपना
डॉ संदीप पांडेय
[प्रकाशित रविवार]
फरवरी में एक नागरिक प्रतिनिधिमंडल के साथ मुझे पाकिस्तान जाने का मौका मिला. भारत और पाकिस्तान की राजनीति के बीच में एक बहुत बड़ा फर्क जो साफ नजर आया, वह था राजनेताओं की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि. पाकिस्तान में सभी बड़े नेता सामंती-अभिजात्य वर्ग से हैं, जबकि भारत के संविधान व लोकतंत्र ने पिछड़े, दलित, महिला, अल्पसंख्यक वर्ग के नेताओं को राजनीति में सशक्त हस्तक्षेप का मौका दिया है. भारत में लोकतात्रिक ढंग से चुनी हुई सरकार का स्थान सर्वोच्च है, जबकि पाकिस्तान में सेना व खुफिया एजेंसी सरकार पर हावी हो सकते हैं.
ये महत्वपूर्ण अंतर हैं, जिन्हें भारत में साठ साल के लोकतंत्र की उपलब्धि माना जाएगा. फिर भी आम चुनाव के अवसर पर इस बात का मूल्याकन कर लेना अच्छा रहेगा कि सही मायने में लोकतंत्र स्थापित होने के रास्ते में क्या-क्या बाधाएं हैं, क्योंकि जनता तो अभी पूर्ण रूप से संतुष्ट नहीं है.
भारतीय लोकतंत्र में सबसे बड़ी चुनौती है राजनीतिक दलों के अंदर लोकतांत्रिक संस्कृति का पूरी तरह से अभाव. जो दल खुद लोकतंत्र के मूल्यों का सम्मान नहीं करते, उनसे हम कैसे अपेक्षा कर सकते हैं कि वे लोकतंत्र को मजबूत करने का काम करेंगे?
ज्यादातर दल किसी व्यक्ति, परिवार या समूह द्वारा नियंत्रित हैं. जो दल किसी व्यक्ति विशेष अथवा उसके परिवार द्वारा चलाए जा रहे हैं, वे तो निजी कंपनियों की तरह से ही हैं. इन दलों का अस्तित्व चूंकि एक व्यक्ति या परिवार पर निर्भर है इसलिए उस व्यक्ति या परिवार के हटते ही उनका बिखरना रोका नहीं जा सकता.
भाजपा आरएसएस द्वारा संचालित है, जिसकी शायद संविधान या लोकतंत्र में ही आस्था नहीं है. हिंदुत्ववादी संगठनों ने देश के ऊपर एक प्रतिक्रियावादी राजनीति थोपी है. जहां तक वामपंथी दलों का सवाल है तो वे लोकतात्रिक मूल्यों के प्रति सबसे अधिक संवेदनशील हैं, लेकिन उनकी आंतरिक निर्णय लेने की प्रक्रिया भी काफी हद तक केंद्रीयकृत है. इसका खामियाजा उनको नंदीग्राम व सिंगूर में उठाना पड़ा. केरल में अपने ही मुख्यमंत्री की तर्कसंगत बातों को अभिव्यक्ति की गुंजाइश नहीं दी गई.
भारतीय राजनीतिक दलों के अलोकतांत्रिक तरीके से संचालन की वजह से उनकी कार्यशैली व जनता की भावनाओं के बीच एक बड़ा अंतर मौजूद रहता है. आज जब कोई मतदाता अपना मत देने जाता है तो वह अपनी सोच-समझ से मत नहीं देता. उसके ऊपर या तो जातिगत-मजहबी सोच हावी होती है या फिर वह यह देखता है कि कौन सा उम्मीदवार जीतने की स्थिति में है. कभी-कभी भय, प्रलोभन या आकर्षण भी किसी को मत देने के कारण हो सकते हैं.
आमतौर पर उम्मीदवार की काबिलियत गौण हो जाती है. प्राय: जो सबसे काबिल या ईमानदार प्रत्याशी होगा, वह इतना आदर्शवादी होगा कि वह अपने पक्ष में जनमत जुटा ही नहीं पाएगा. उसके बारे में लोग भी यह कहते पाए जाते हैं कि उम्मीदवार तो बहुत अच्छा है, लेकिन जीत नहीं पाएगा. यह हमारे लोकतंत्र की एक बड़ी विडंबना कही जाएगी.
इधर एक प्रचलन चल पड़ा है प्रसिद्ध व्यक्तियों के आकर्षण या ग्लैमर को राजनीति में भुनाने का. इन व्यक्तियों का सार्वजनिक जीवन या जन-सेवा का कोई अनुभव नहीं रहता, न ही उनकी कोई सामाजिक समझ होती है. इनके राजनीति में आने से काफी नुकसान होता है. कई फिल्मी हस्तियां हैं, जिन्हें विभिन्न राजनीतिक दल चुनाव में खड़ा कर देते हैं, लेकिन ये जीतने के बाद वह भूमिका अदा नहीं करते जिसकी उनसे अपेक्षा की जाती है.
चुनाव लड़ने की यह एक अनिवार्य शर्त होनी चाहिए कि उस व्यक्ति के सार्वजनिक जीवन की पृष्ठभूमि हो और समाज निर्माण में उसका एक सकारात्मक योगदान हो. यदि राजनेताओं की कोई सामाजिक सोच ही नहीं होगी तो वे देश की आम जनता, जिसके वे प्रतिनिधि हैं; के हित में कैसे नीतियां बनाएंगे?
यह मान लिया गया है कि जो ज्यादा पैसा खर्च करेगा वही जीत पाएगा. ज्यादा पैसा तो वही खर्च कर पाएगा, जिसने उसे गलत तरीके से कमाया हो. जिसकी राजनीति भ्रष्टाचार की नींव पर खड़ी होगी, उससे हम ईमानदारी की उम्मीद कैसे कर सकते हैं?
पहले अधिकांश काले धन से राजनीति का पोषण होता था. उद्योगपति-पूंजीपति चंदे के सबसे बड़े स्त्रोत होते थे, किंतु इधर दो दशकों में राजनीति को पोषित करने वाले धन के चरित्र में परिवर्तन आया है. अब राजनीति के पोषण का बड़ा हिस्सा विभिन्न विकास एवं कल्याणकारी योजनाओं के सरकारी धन की चोरी व परियोजनाओं में कमीशन से आ रहा है. अब यह चोरी धड़ल्ले से हो रही है. भ्रष्टाचार से जुड़ा है अपराधीकरण. ईमानदार-सरल व्यक्ति के लिए भ्रष्टाचार करना मुश्किल होता है.
यदि राजनीति का पोषण ही भ्रष्टाचार के पैसे से होना है तो यह काम आपराधिक मानसिकता के लोगों के लिए आसान होता है. आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि राजनीति में अपराधियों को संरक्षण मिल रहा है. अपराधियों ने भी इसका खूब फायदा उठाया है. उनके लिए तो राजनीति में प्रवेश करना अपने अपराधों पर पर्दा डालने का सबसे सरल उपाय है.
राजनीति के चरित्र में मौलिक परिवर्तन आए बिना राजनीति में अपराध को वर्चस्व को भी खत्म करना नामुमकिन है. हमारी राजनीति से विचारधारा का लोप हो रहा है. जब एक नेता या उसके परिवार के प्रति समर्पण ही राजनीति में सफल होने का सबसे बड़ा मंत्र हो तो विचारधारा को समझने की जहमत उठाने की क्या जरूरत है?
जहां सरलता, ईमानदारी, वैचारिक निष्ठा जैसे गुण राजनीति के लिए अनुपयुक्त माने जाने लगें वहां तो दिखावे वाली संस्कृति का ही बोल-बाला होगा। साफ है कि हम आदर्श राजनीति की कल्पना से कोसों दूर हैं. देश की राजनीतिक संस्कृति को बदलने के लिए लंबे समय की तैयारी के साथ कड़ी मेहनत करने की जरूरत है. बिना इसके साफ-सुथरा जन-पक्षीय राजनीतिक विकल्प खड़ा भी नहीं किया जा सकता.
डॉ संदीप पाण्डेय
(लेखक मग्सय्सय पुरुस्कार से सम्मानित सामाजिक कार्यकर्ता हैं, लोक राजनीति मंच के राष्ट्रीय अध्यक्षीय मंडल के सदस्य हैं, जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय के संयोजक हैं, और आशा परिवार का नेतृत्व कर रहे हैं। ईमेल: ashaashram@yahoo.com)
प्रकाशित रविवार
क्या तम्बाकू उत्पादनों पर फोटो वाली चेतावनी एक-बार-फिर स्थगित होगी?
तम्बाकू उत्पादनों पर फोटो वाली चेतावनी पर विचार करने के लिए जो भारत सरकार ने 'मंत्रियों का समूह' बनाया था, उसकी अगली बैठक ८ अप्रैल २००९ को है जिसमें यह भय है कि कहीं फोटो वाली चेतावनी को कमजोर या एक-बार-फिर स्थगित न कर दिया जाए. तम्बाकू उत्पादनों पर फोटो वाली चेतावनी लगाने से भारत सरकार कतरा रही है, पिछले सालों में कम-से-कम आधे दर्जन से अधिक बार तो इसको स्थगित किया ही जा चुका है. पिछली बार नवम्बर २००८ में मंत्रियों के समूह ने इसको ३१ मई २००९ तक के लिए स्थगित किया था. ३१ मई २००९ अब इतने करीब है और उम्मीद है कि यह मंत्रियों का समूह पुन: जन-हितैषी नीतियों को लागु करने से कतरायेगा नहीं.
यह बैठक ऐसे समय में की जा रही है जब लोक सभा चुनाव होने को हैं, और इस मंत्रियों के समूह के सदस्य श्री प्रणब मुख़र्जी की लोक सभा चुनाव छेत्र मुशीराबाद में बीड़ी उद्योग जोर पकड़े हुए है. चुनाव के दौरान आचार संहिता लागु है और कोई भी ऐसा निर्णय लेना जिससे मतदाताओं पर असर पड़े, इस संहिता का उलंघन है.
भारत के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री डॉ अंबुमणि रामदोस ने भी चुनाव के कारणवश इस्तीफा दे दिया था, जिसका मतलब यह है कि इस मंत्रियों के समूह की बैठक में जन स्वास्थ्य का पक्ष लेने वाला संभवत: कोई विशेष न हो. ऐसी बैठक में, जहाँ जन-स्वास्थ्य की नीति पर विचार हो रहा हो, उसमें जन स्वास्थ्य पर समझ रखने वाले प्रतिनिधि क्यो शामिल नहीं है?
"मंत्रियों के समूह ने पिछले अपनी ८ बैठकों में या तो तम्बाकू उत्पादनों पर फोटो वाली चेतावनी को स्थगित कर दिया है या फिर इस नीति को कमजोर बना दिया है" कहना है मोनिका अरोरा का, जो ह्रदय नामक संस्था की निदेशक हैं.
"यदि इस बैठक में तम्बाकू उत्पादनों पर फोटो वाली चेतावनी को कमजोर किया गया या स्थगित किया गया, तो यह चुनाव आयोग की आचार संहिता का उलंघन होगा" कहना है भावना मुखोपाध्याय का, जो 'वीहाई' की वरिष्ठ निदेशक हैं.
राष्ट्रीय स्तर पर सिगरेट एवं अन्य तम्बाकू उत्पादन अधिनियम २००३ एवं विश्व स्तर पर अंतर्राष्ट्रीय तम्बाकू नियंत्रण संधि [विश्व स्वास्थ्य संगठन फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन टोबाको कंट्रोल (WHO FCTC)] जिसको भारत ने पारित किया है, दोनों के अनुसार भारत को सभी प्रकार के तम्बाकू उत्पादनों पर प्रभावकारी फोटो वाली चेतावनी लगानी होगी.
"तम्बाकू उत्पादनों पर फोटो वाली चेतावनी से तम्बाकू व्यसनियों की तम्बाकू-जनित स्वास्थ्य पर पड़ने वाले जान-लेवा कुप्रभावों के बारे में जानकारी बढ़ती है, वोह तम्बाकू सेवन को त्यागने के लिए प्रेरित होते हैं और नए लोग तम्बाकू सेवन आरंभ करने से विमुख होते हैं" कहना है डॉ प्रकाश गुप्ता का जो हेअलिस सेखसरिया जन-स्वास्थ्य संस्थान के निदेशक हैं.