अरुंधती धुरु का भाषण एवं लोक राजनीति मंच का घोषणा पत्र

अरुंधती धुरु का भाषण एवं लोक राजनीति मंच का घोषणा पत्र

अरुंधती धुरु के भाषण और एस.आर.दारापुरी एवं लोक राजनीति मंच के घोषणा पत्र को सुनना मेरे कानों के लिए शुद्ध संगीत के समान था, और मैं इन दोनों की खुले रूप से प्रशंसा एवं उन पर विचार विमर्श करने का लोभ संवरण नहीं कर पायी।


अरुंधती जी ने अपने भाषण में कहा कि, ‘राजनीति वास्तव में संसाधनों का उचित वितरण ही तो है। यह वितरण किस प्रकार किया जाना है, यह राजनीति ही तय करती है।’


राजनैतिक प्रक्रिया के उद्धेश्य पर इससे अधिक उचित कोई और वक्तव्य हो ही नही सकता। और हम सभी को इस मूल तथ्य को समझाना अति आवश्यक है।


संसाधनों का वितरण अभी तक उन अयोग्य और स्वार्थी व्यक्तियों का विशेषाधिकार रहा है जो राजनीतिज्ञ कहलाने में घमंड का अनुभव करते हैं, जबकि उन्हें लोभी कहना अधिक उचित होगा। आवश्यकता है इस स्थिति को अविलम्ब बदलने की, तथा जनता की इस प्रक्रिया में स्वयं सीधे ही शामिल होने की, अथवा अपने उन प्रतिनिधियों के माध्यम से जो जनता के धन का अधिकाँश भाग अपनी निजी स्वार्थ पूर्ति के लिए हड़पने की फिराक में न हों। .

अरुंधती जी ने जो इंदिरा गांधी और आलू की कीमत का उदाहरण दिया है, वह बहुत ही सटीक है, यद्यपि बाह्य रूप से ये दोनों असम्बद्ध प्रतीत होते हैं। इस उदाहरण के द्बारा हमें, हमारे दैनिक जीवन में राजनीति की पंहुच एवं प्रसार के बारे में समझने में सहायता मिलती है।


राजनीति एक बेहतर भविष्य की कुंजी है, और इसके लिए यह आवश्यक है कि योग्य व्यक्ति सामने आयें, और इस अभी तक निकृष्ट समझे जाने वाले क्षेत्र में कार्य करें। साथ ही साथ उनका एक आदर्श राजनैतिक विकल्प को (बिना राजनीति का अराजनीतिकरण करे हुए) बनाने पर ज़ोर देना , सत्य को उसके सही रूप में उजागर करना है। उनका यह कहना भी सर्वथा उचित है कि, ‘यदि हम, अपने एक आदर्श राजनैतिक विकल्प बनाने का पाने एकाकी प्रयासों में, मुख्या धारा राजनैतिक दलों को नज़र अंदाज़ करते हैं, तो यह हमारी अपरिपक्व समझ को दर्शाता है।’


हाँ, लोक राजनीति मंच सहित, हम सभी को स्थितियों को उनके वर्त्तमान रूप में ही गृहण करना होगा। यथार्थ से आँखें फेर लेने से विषमताएं गायब नहीं हो जातीं । यह सच है कि हम बहुत सारे बड़े और प्रभावकारी राजनीतिक दलों से घिरे हैं, जिनके अनेकों प्रतिबद्द अनुयायी हैं। इस तथ्य को हम अपने साधारण वक्तव्य से झुठला नहीं सकते। इसके विपरीत, हमें स्थितियों को उनके वर्त्तमान रूप में समझना होगा, और फिर उनकी विसंगतियों को सुधारने के लिए कमर कस कर काम करना होगा। यही एक मात्र तरीका हो सकता है राजनीति का शुद्धिकरण करके उसे बेहतर बनाने का।


उनका चुनावों के दौरान शत प्रतिशत मतदान पर ज़ोर देना भी उन कारणों की वजह से प्रशंसनीय है जो उन्होंने बताएं हैं। उनके अनुसार यह आवश्यक है कि जिन व्यक्तियों की ‘अपनी कोई निजी पहचान नहीं है’ उनके लिए चुनावी प्रक्रिया में भाग लेकर अपनी वास्तविक पसंद बताना आवश्यक है। इससे निष्पक्ष चुनाव होने की संभावना बढेगी, क्योंकि मुख्य धारा के राज नेता तो ऐसे लोगों को चुनावी प्रक्रिया से दूर रखने के लिए एड़ी चोटी का पसीना बहा रहे हैं।


उनका आतंकवाद ( जिस मुद्दे को मुख्यधारा के दल बहुत कम समझते हैं और जिसे वे अपने स्वार्थ के लिए जनता की भावनाओं को भड़काने में इस्तेमाल करते हैं), पर वक्तव्य भी कम सटीक नहीं है। उनके अनुसार, ‘सुरक्षा स्वयं में एवं मानवीय संबंधों में विश्वास होने पर आती है।’


वास्तव में आतंकवाद की समस्या से तभी छुटकारा मिलेगा जब हम आतंकवाद को अपने शत्रुओं पर हावी होने का एक सुअवसर मानना बंद कर देंगें, और इसकी आड़ में ऐसे अमानवीय और सख्त क़ानून एवं सरकारी निर्देश लागू करना बंद कर देंगें जो हमे अपने मूलभूत अधिकारों से वंचित रखते हैं।


श्री एस.आर.दारापुरी जी का घोषणा पत्र भी कम ध्यान देने योग्य नहीं है। इसमें, ऐसे कई मुद्दे शामिल हैं जो जन मानस से जुड़े हैं, पर मुख्य धारा के दलों द्बारा जान बूझ कर नज़र अंदाज़ कर दिए जाते हैं। उदाहरण के लिए, घोषणा पत्र में इस बात पर ज़ोर देना कि प्राकृतिक साधनों (जैसे जल, वन, भूमि, खनिज आदि) पर स्थानीय समुदायों का अधिकार होना चाहिए, न कि निजी संस्थानों का। हमारे चारों ओर ऐसे अनेक उदाहरण बिखरे पड़े हैं जहाँ लोभी निजी पार्टियों ने स्थानीय साधनों का बेदर्दी से शोषण करके उस क्षेत्र को खोखला बना दिया, और अर्जित लाभ का एक नया पैसा भी वहाँ की जनता के हित में खर्च नहीं किया। क्या इससे भी अधिक शर्मनाक कोई और बात हो सकती है? परन्तु फिर भी, प्रत्येक राजनैतिक दल इस बात को लेकर तनिक भी परेशान नहीं दिखायी पड़ता।


घोषणा पत्र में इस बात की भी मांग करी गयी है कि सांसद (एम.पी.) और विधायक (एम.एल.ए.) के लिए कोई लोक निधि देय नहीं होनी चाहिए। यह बात भी प्रत्येक दल को बुरी लग सकती है, क्योंकि इस निधि का सीधा सम्बन्ध कमीशन से होता है। अत: कोई भी राजनैतिक दल इस धन को हाथ से जाने नहीं देना चाहता, क्योंकि इस कमीशन पर वे जो उगाही करते हैं उसी से उनका काम चलता है। इसी प्रकार किसी न किसी बहाने, उपजाऊ भूमी के बड़े क्षेत्र का अधिग्रहण करना भी किसानों के प्रति विश्वासघात है। किसानों की बहुमूल्य ( और प्राय: एकाकी) जायदाद को सस्ते दामों में खरीद लिया जाता है, और बाद में उसके द्बारा ग़लत तरीकों से धन कमाया जाता है।

ग्लोबल वार्मिंग के चलते, जन यातायात साधनों में सुधार लाना एवं वैकल्पिक ऊर्जा साधनों का प्रयोग करना – ये मुद्दे भी अधिकाँश मुख्यधारा दलों द्बारा अनदेखे कर दिए जाते हैं, क्योंकि शायद ये वोट बटोरने लायक लोकप्रिय मुद्दे नहीं हैं।


इस घोषणा पत्र पर एक नज़र डालने से ही यह पता चल जाता है कि यह कोई रद्दी कागज़ का टुकडा नहीं है, वरन बहुत सोच विचार के बाद बनाया गया है।


यह घोषणा पत्र एवं अरुंधती जी का भाषण, दोनों ही इतने अधिक आशाजनक एवं आकर्षक हैं कि इस लोक राजनीति मंच पर अपनी आशाएं केंद्रित करने का दिल करता है। परन्तु इसके लिए मंच (और उसके सदस्यों) को भी नियमित एवं अनवरत रूप से अपने महान उद्देश्यों के प्रति वचनबद्ध होना पड़ेगा। वरना उन्हें भी बरसाती मेंढक होने का कलंक लग सकता है, जो केवल चुनाव के समय उत्पन्न होकर टर्राते हैं, और बाद में गायब हो जाते हैं।


(यह लेख मौलिक रूप से डॉ नूतन ठाकुर द्वारा अंग्रेज़ी में लिखा गया है जिसको यहाँ पर क्लिक करने से पढ़ा जा सकता है। इसका अनुवाद सुश्री शोभा शुक्ला ने किया है जिसके हम कृतज्ञ हैं)