संकट के समय शान्ति की बात
हाल ही में हमारा पाकिस्तान का दौरा उत्साहवर्द्धक तथा डरावना रहा। पाकिस्तान के नागरिक समाज तथा राजनीतिक दलों के लोग तालिबान के बढ़ते खतरे से आतंकित है। फिर भी लोकतंत्र को जीवित व बचाए रखने के प्रयासों में एक उम्मीद की किरण भी है। लोगों को नहीं मालूम कि मालाकंद व स्वात में तालिबान के साथ हुआ समझौता पाकिस्तान को किस ओर ले जाएगा। स्थानीय लोगों के लिए तो इस समझौते से उत्पन्न होने वाली शान्ति बहुत जरूरी थी किन्तु क्या इस समझौते से तालिबान को एक किस्म की वैधता प्राप्त होगी जिसे वह अपने को और मजबूत करने में इस्तेमाल करेगा?
लाहौर में श्रीलंकाई क्रिकेट टीम पर हमले से पहले कुलदीप नैयर, जो पाकिस्तान में भी उतने ही लोकप्रिय है, के नेतृत्व में एक 13 सदस्यीय प्रतिनिधिमण्डल के साथ मुझे वहां जाने का मौका मिला। वहां हमारी सभी प्रमुख राजनीतिक दलों के नेताओं, व्यापारियों, छात्रों, मीडिया व नागरिक समाज के लोगों के साथ मुलाकात हुई। हलांकि यह मेरी छह वर्षों में पाकिस्तान की छठी यात्रा थी मुझे पहली बार यह एहसास हुआ कि पाकिस्तान के सभी प्रमुख राजनीतिक दल - पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी, पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज, पाकिस्तान मुस्लिम लीग-कैद-ए-आजम, आवामी नेशनल पार्टी, इत्यादि, असल में भारत के साथ मैत्री व शान्ति चाहते हैं। पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के ऊपर तो भारत के प्रति नरम होने के आरोप लगते हैं। आसिफ अली जरदारी ने तो मुम्बई हमले के पहले कह दिया था कि हरेक पाकिस्तानी के अंदर एक छोटा सा हिस्सा भारतीय का होता है। उन्होंने यह भी कह दिया थी कि पाकिस्तान भारत के ऊपर पहले परमाणु हथियार का इस्तेमाल नहीं करेगा। नवाज शरीफ तो अटल बिहारी वाजपेयी के साथ मिल कर षांति प्रक्रिया प्रारम्भ करने का श्रेय लेते हैं। परवेज मुशर्रफ ने भले ही कारगिल की गल्ती की हो, उन्होंने डॉ मनमोहन सिंह के साथ मिल कर कश्मीर के समाधान की दिषा में महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं। मुशर्रफ के समय विदेश मंत्री रहे कसूरी साहब ने एक सभा में यह बताया कि कश्मीर की समस्या का हल तो निकल गया था। यदि पाकिस्तान में वकीलों का आंदोलन न शुरू होता, फिर चुनाव न होते और अब भारत के चुनाव न होते तो मनमोहन सिंह की पाकिस्तान की यात्रा में यह समाधान घोषित होना था। इससे यह बात समझ में आती है कि जम्मू व कश्मीर के चुनाव, जिसमें भारतीय मानकों के हिसाब से भी मतदान प्रतिशत बहुत अच्छा रहा, इतनी शांतिपूर्ण तरीके से कैसे निपट गए। यदि कश्मीर की समस्या का हल निकल आता है तो यह आगे के लिए भारत व पाकिस्तान के बीच मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों की राह खोलेगा। यह मेरे लिए हमेशा रहस्य का विषय रहा है कि दो समाज जो भावनात्मक रूप से इतने नजदीक हैं तथा जिनकी संस्कृति आपस में इतनी गुथी हुई है लगातार 60 वर्षों तक कैसे दुश्मनी कायम रख सकते हैं?
पाकिस्तान के लोगों में तालिबान को लेकर बहुत चिंता है। उन्हें नहीं मालूम कि पाकिस्तान में मानवाधिकार सुरक्षित रहेंगे या नहीं। वहां के राजनेताओं को डर है कि कहीं फिर से एक बार सेना चुनी हुई सरकार का तख्ता पलट न कर दे। ऐसा प्रतीत होता है कि उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत व पाकिस्तान की सरकार ने जेहादियों के सामने समर्पण कर दिया है। पाकिस्तान की सरकार ने अमरीका की जरूरतों को पूरा करने के लिए जो दानव खड़ा किया था अब उसका वह क्या करे यह उसको समझ में नहीं आ रहा। यह दानव अब पाकिस्तान को निगल रहा है। एक सम्प्रभु राष्ट्र के लिए यह कितने शर्म की बात है कि अपने आप को उसका मित्र बताने वाला अमरीका उसी के एक हिस्से पर बमबारी कर रहा है। हास्यास्पद बात तो यह है कि इसका विरोध करने के बजाए पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैषी अपनी अमरीका यात्रा के दौरान यह मांग हर रहे थे कि बगैर मनुष्य के चलित ड्रोन हवाई जहाजों को अमरीका से संचालित किए जाने के बजाए उनका नियंत्रण पाकिस्तान को सौंप दिया जाए। अमरीका पर पाकिस्तान की निर्भरता इस हद तक है कि पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था खोखली हो चुकी है तथा वहां की सरकार की कोई विश्वसनीयता नहीं रह गई है। पाकिस्तान को नहीं मालूम की इस बंधन से अपने को कैसे मुक्त कराए। पाकिस्तान की सेना यह चाहती है कि अमरीका के साथ पाकिस्तान का नजदीकी रिश्ता बना रहे ताकि चुनी हुई सरकार पर उसका दबदबा कायम रहे। सेना अपने आप को जेहादियों को नियंत्रण में रखने वाली शक्ति के रूप में पेश करती है। जब तक पाकिस्तान में तालिबान व अल-कायदा का खतरा बना हुआ है तब तक सेना अपने आप को चुनी हुई सरकार से ज्यादा महत्वपूर्ण भूमिका में देखना चाहेगी। यह पाकिस्तान का दुर्भाग्य रहा है के वहां लोकतांत्रिक चुनी हुई सरकारों को जड़े जमाने ही नहीं दी गईं हैं। जब तक चुनी हुई सरकार मजबूत होती नही तब तक सेना की भूमिका कम नहीं होगी। एक बार पुनः जनरल कियानी ने आसिफ अली जरदारी को चुनौती दे डाली है। पाकिस्तान इस दुष्चक्र में फंसा हुआ है।
नवाज शरीफ का कहना है कि जब तक वे प्रधान मंत्री रहे तब तक उन्होंने कभी बम विस्फोट करने वाले आत्मघाती दस्तों के बारे में नहीं सुना था। परवेज मुशर्रफ के समय इन तत्वों को बढ़ावा मिला। उन्हें तालिबान के साथ हुए समझौते की सफलता पर संदेह है। उनका मानना है कि जेहादी जितना खतरा पाकिस्तान के लिए हैं उससे कम भारत के लिए नहीं हैं। बेनजीर भुट्टों के घर में आसिफ अली जरदारी की बहन फरयाल तालपुर, जो एक सांसद भी हैं, के साथ एक बैठक में उन्होंने बताया कि मुम्बई हमले में तो 200 लोग मरे, लेकिन पाकिस्तान के अंदर हुए आतंकवादी हमलों में अब तक जेहादियों ने करीब 6000 लोग मार डाले हैं। उनका कहना था कि भारत पाकिस्तान के ऊपर आतंकवादी संगठनों के खिलाफ कार्यवाही करने के लिए दबाव बनाता है लेकिन पाकिस्तान को तो इन तत्वों से निपटने के लिए भारत की मदद चाहिए। खान अब्दुल गफ्फार खान के पोते असफनद्यार वली खान, जो आवामी नॅशनल पार्टी के नेता हैं तथा जिनकी उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत में सरकार है का कहना था कि भारत की सुरक्षा के लिए यह जरूरी है कि पाकिस्तान में एक मजबूत केन्द्रीय लोकतांत्रिक सरकार हो।
हाल ही में राष्ट्रपति जरदारी ने अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदी नवाज शरीफ, जो बेनजीर भुट्टों की मौत के बाद पाकिस्तान के सबसे लोकप्रिय नेता हैं, के खिलाफ जो कार्यवाहियां की हैं वे अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण हैं। एक लोकतंत्र को फलने-फूलने के लिए जितना मजबूत सत्ता में बैठे दल का होना जरूरी है उतना ही मजबूत विपक्षी दल का होना भी जरूरी है। न्यायपालिका को स्वायत्त बनाने की नवाज शरीफ की मांग बेहद बुद्धिमानीपूर्ण है। किन्तु आसिफ अली जरदारी को डर इस बात का है कि न्यायपालिका के स्वायत्त होते ही कोई न्यायालय जाकर उन्होंने राष्ट्रपति बनने के लिए जो संविधान में संशोधन कर राष्ट्रपति पद के लिए स्नातक होने की मान्यता समाप्त कराई है को चुनौती देगा। अतः इससे पहले कि उन्हें कोई राष्ट्रपति पद से हटाए उन्होंने न्यायलय की मदद से नवाज शरीफ और शहबाज शरीफ को ही चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहरवा दिया है। लेकिन यदि जरदारी अपने निजी स्वार्थ से थोड़ा ऊपर उठ कर सोचें तो पाकिस्तान की दूरगामी जरूरत यह है कि वहां लोकतंत्र की जड़ें मजबूत हों। सेना को फिर से सत्ता के केन्द्र में आने से रोकने के लिए यदि जरदारी को अपने पद की कुरबानी भी देनी पड़े तो ऐसा कर वे लोकतांत्रिक पाकिस्तान के निर्माण में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं।
इस्लामाबाद के एक टी.वी. कार्यक्रम जिसमें हम लोगों को बातचीत के लिए बुलाया गया था के संचालक ने हमें यह याद दिलाया कि भारत के इतिहास में सभी हमले उत्तर-पश्चिम से हुए हैं। अतः तालिबान का खतरा भारत के लिए भी उतना ही गम्भीर है। भारत को चाहिए कि वह पाकिस्तान की चुना हुई सरकार के साथ मिल कर इस खतरे का सामना करे। आखिर जब भारत अफगानिस्तान की आर्थिक एवं अन्य तरीकों से मदद का सकता है तो पाकिस्तान की मदद क्यों नहीं कर सकता? पाकिस्तान के लिए भी अमरीका एवं चीन से मदद लेने की तुलना में भारत से मदद लेना बेहतर होगा। भारत के साथ उसका रिश्ता अमरीका या चीन की तुलना में ज्यादा बराबरी का होगा। किन्तु इसके लिए दोनों भारत एवं पाकिस्तान को एक दूसरे के खिलाफ जो पूर्वाग्रह हैं वे छोड़ने पड़ेंगे।
डॉ संदीप पाण्डेय
(लेखक, मग्सय्सय पुरुस्कार प्राप्त वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता हैं और लोक राजनीति मंच के राष्ट्रीय अध्यक्षीय मंडल के सदस्य भी)