… और जब उन गायब बेटियों से पूछा जाएगा
(Declining sex ratio among the Muslims-1)
(यह रचना मौलिक रूप से जेंडर-जिहाद पर प्रकाशित हुई थी जिसको पढ़ने के लिए यहाँ पर क्लिक कीजिये)और जब उन गायब बेटियों से पूछा जाएगा
नासिरूद्दीन हैदर खाँ
‘..और (इनका हाल यह है कि) जब इनमें से किसी को लड़की पैदा होने की खुशखबरी दी जाती है तो उसका चेहरा स्याह पड़ जाता है और वह तकलीफ में घुटने लगता है। जो खुशखबरी उसे दी गयी वह उसके लिए ऐसी बुराई की बात हुई कि लोगों से छिपा फिरता है। (सोचता है) अपमान सहन करते हुए उसे जिंदा रहने दे या उसे मिट्टी में दबा दे।’
(कुरान: सूरा अल-नहल आयत ५८-५९)
यह चौदह सौ साल पहले का अरब समाज का चेहरा था, जिसका जि़क्र क़ुरान की इस आयत में आता है। …मगर इन चौदह सौ सालों में कुछ नहीं बदला तो बेटियों के पैदा होने का दु:ख! क़ुरान की दुहाई देने वाले कितने मुसलमान हैं, जो बेटी की पैदाइश को ख़ुशख़बरी मानते हैं और लड्डू बाँटते हैं? आज भी ‘बेटी’ सुनते ही ज्यादातर लोगों का चेहरा स्याह पड़ जाता है। … यह आयत आज के भारतीय समाज पर पूरी तरह सटीक है।
आम तौर पर बार-बार बताया जाता है कि इस्लाम ने औरतों को काफी हुक़ूक़ दिए हैं। सचाई भी है। लेकिन क्या वाक़ई में ‘मर्दिया सोच के अलम्बरदार’ मुसलमान औरतों को वे हक़ दे रहे हैं? और कुछ नहीं तो सिर्फ जि़दगी का हक़! जी हाँ, पैदा होने और जिंदा रहने का हक़। (आगे पढ़ने के लिए नीचे लिंक पर क्लिक करें)
सन् 2001 की जनगणना कई मायनों में अहम है। यह पहली जनगणना है, जिसके आँकड़े विभिन्न मज़हबों की सामाजिक-आर्थिक हालत का भी आँकड़ा पेश करती है। इसने कई मिथक तोड़े, तो कई नए तथ्य उजागर भी किए। एक मिथक था कि मुसलमानों में लिंग चयन और लिंग चयनित गर्भपात नहीं होता!
सन् 2001 की मरदुमशुमारी के मुताबिक मुसलमान देश की कुल आबादी का 13.4 फीसदी हैं। यानी करीब तेरह करोड़ इक्यासी लाख अट्ठासी हजार। इसमें मर्दों की आबादी सात करोड़ तेरह लाख (7,13,74,134) है। क़ायदे से इतनी ही या इससे ज्यादा औरतें होनी चाहिए। लेकिन इस आबादी में मर्दों के मुकाबले पैंतालीस लाख साठ हजार (45,60,028) मुसलमान औरतें कम हैं या कहें गायब हैं। यानी कल्पना करें कि एक सुबह जब हम उठें तो पता चले कि लखनऊ और मथुरा में रहने वाले सभी लोग गायब हो गये हैं। … उस सुबह कोहराम मचेगा या जिंदगी हर रोज़ की तरह इतमिनान से चलेगी? अफसोस, इतनी तादाद में मुसलमान औरतें गायब हैं, लेकिन किसी के कान पर जूँ तक नहीं रेंगती।
तत्कालीन अरब समाज के कई कबीलों में लड़कियों की पैदाइश को अपशगुन माना जाता था और उन्हें मार डालने की रवायत थी और चौदह सौ साल पहले क़ुरान ने और इस्लाम ने इसे बड़ा जुर्म माना। कुरान के सूरा अत-तकवीर की आयत (एक से नौ) है-
जब सूरज बेनूर हो जायेगा/ और जब सितारे धूमिल पड़ जाएँगे/ जब पहाड़ चलाये जाएँगे/../ और जब दरिया भड़काए जाएँगे/../ और जब जिंदा गाड़ी हुई लड़कियों से पूछा जाएगा/ कि वह किस गुनाह पर मार डाली गई।
यानी मुसलमानों से कहा गया कि उस वक्त को याद करो जब उस लड़की से पूछा जाएगा जिसे जिंदा गाड़ दिया गया था कि किस जुर्म में उसे मारा गया। इस तम्बीह का आज के मुसलमान कितना पाबंद हैं, देखें। आज बेटियों को जिंदा गाड़ने की ज़रूरत नहीं है बल्कि रहम (गर्भ) की जाँच कराकर उसे खत्म कर दिया जा रहा है। इस लिहाज़ से क़ुरान की आयत की रोशनी में यह भी गलत है।
औरतें कहीं हवा में गायब नहीं हो गईं। बल्कि खुद मुसलमान, बेटों की ललक में उन्हें पैदा ही नहीं होने दे रहे। हिन्दुओं, सिखों और जैनियों की तरह मुसलमान भी ‘बिटिया संहार’ में शामिल हैं। उत्तर प्रदेश में बुंदेलखंड की सबसे ज्यादा मुसलमान आबादी वाले शहर बांदा, पूरी दुनिया में तहजीब का झंडा उठाने वाले शहर लखनऊ और इल्म के मरकज़ अलीगढ़ और दारुल उलूम, देवबंद की वजह से बार-बार चर्चा में रहने वाली धरती सहारनपुर में मुसलमान जोड़े अपनी आने वाली औलाद की सेक्स की जाँच करा रहे हैं और लड़की को पैदा नहीं होने दे रहे। (जाहिर है सब ऐसा नहीं करते।) ऐसी ही हालत गुजरात, महाराष्ट्र, बिहार, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली में भी है। कहीं काफी पहले से ही दूसरे मज़ाहिब के लोगों की ही तरह बेटी नहीं पैदा होने दी जा रही थी तो कहीं अब देखा-देखी यह चलन जोर पकड़ रहा है।
मुसलमानों की आबादी के लिहाज से उत्तर प्रदेश काफी अहम है। यहाँ की आबादी में साढ़े अट्ठारह (18.5) फीसदी यानी तीन करोड़ सात लाख चालीस हजार (30,740,158) मुसलमान हैं। यहाँ की मुसलमान आबादी में तेरह लाख 16 हजार बेटियाँ गायब हैं। यानी, मुसलमान लड़कियों को गायब करने में अकेले यूपी का हिस्सा करीब 29 फीसदी है बाकि में देश के पूरे राज्य ! यहाँ के चंद मुस्लिम बहुल जिलों का हाल जान लें। अलीगढ़ की आबादी से करीब 33 हजार लड़कियाँ लापता हैं। अलीगढ़ का लिंग अनुपात, मतलब एक हजार लड़कों पर लड़कियों की तादाद, 883 है। इसी तरह लखनऊ में करीब साढ़े सात लाख (748687) मुसलमान हैं। यहाँ मर्दों के मुकाबले करीब लगभग चौंतीस हजार (34169) मुसलमान औरतें कम हैं। मर्दों के मुकाबले सहारनपुर में सत्तहत्तर हजार तो मुजफरनगर में करीब चौहत्तर हजार, बिजनौर में 58 हजार और कानपुर शहर में करीब चालीस हजार मुसलमान औरतें कम हैं। इनमें हर उम्र की औरत शामिल हैं और वह भी शामिल है जिसे यह जानकर पैदा नहीं होने दिया गया कि वो लड़की है और जिनके साथ लड़की होने के नाते जिंदगी में हर कदम पर भेदभाव किया गया और मौत के मुँह में ढकेल दिया गया। इनमें से कइयों को सिर्फ इसलिए मार दिया गया कि वे अपने साथ मोटा दहेज लेकर नहीं आई थीं।
बेटियों को गायब करने का काम तहज़ीब याफ्ता मुसलमान ख़ानदान, पढ़े-लिखे, धनी, ज़मीन वाले, और शहरों में रहने वाले सबसे बढ़ कर कर रहे हैं। इस काम में मुसलमान डॉक्टर भी खुलकर मदद दे रहे हैं। क्यों, क्योंकि बेटियों को पैदा न होने देने का धँधा काफी मुनाफे वाला है। इस मसले के सामाजिक पहलू पर नजर डाली जाए तो अंदाजा होता है कि समाज में लड़कियों को कमतर समझने का रुझान तो था ही मगर जहेज के बढ़ते रिवाज ने अब इनकी जिंदगियों को ही खतरे में डाल दिया है। पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश आर्थिक रूप से काफी खुशहाल हैं लेकिन वहाँ भी बेटियाँ अनचाही हैं।
सबसे बढ़कर तकनीक की तरक्की ने लड़कियों के खिलाफ पहले से ही मौजूद पितृसत्तात्म विभेद की खाई को और ज्यादा गहरा करने का काम किया है। तकनीक का इस्तेमाल डिजायनर फेमिली बनाने में किया जा रहा है। यानी एक बेटा या दो बेटे या एक बेटा और एक बेटी। बिटिया संहार का नतीजा, हमारे सामने आ रहा है। लड़कियाँ तो लड़कों की चाह में गायब की गईं लेकिन कभी किसी ने सोचा, लड़कों की दुल्हन कहाँ से आयेगी ! यही नहीं ये तो क़ुदरत के निज़ाम को बर्बाद करना है। कुरान की रोशनी में अगर आज के हालात में अगर यह कहा जाए कि और उस वक्त को याद करो जब बेटियों से यह पूछा जाएगा कि किस बिना पर तुम पेट में ही पहचान कर मार डाली गयी। आप ही बताएँ कि उस लड़की का क्या जवाब होगा? कहीं वह यह तो नहीं कहेगी-
ओरे विधाता, बिनती करुँ, परुँ पइयाँ बारम्बार
अगले जन्म मोहे बिटिया न कीजो, चाहे नरक में दीजो डार
(यह काम एचपीआईएफ फेलोशिप के तहत किया गया है।)
(यह रचना मौलिक रूप से जेंडर-जिहाद पर प्रकाशित हुई थी जिसको पढ़ने के लिए यहाँ पर क्लिक कीजिये)