केवल तम्बाकू ही ऐसा पदार्थ है जो जानलेवा होने के बावजूद भी कानूनी रूप से उगाया एवं बेचा जा सकता है।वर्तमान दर के हिसाब से सन २०२० तक, विश्व में सिगरेट पीने से मरने वालों की संख्या १ करोड़ तक पहुँचने कीसंभावना है.हमारे देश में प्रति वर्ष १० लाख व्यक्ति तम्बाकू सेवन के कारण मृत्यु को प्राप्त होते हैं।
तम्बाकू वास्तव में सम्पूर्ण विश्व के लिए एक महामारी के समान है, जिसकी रोकथाम सरकारों एवं जन स्वास्थ्यकार्यकर्ताओं के लिए एक कठिन चुनौती है। परन्तु तम्बाकू उन्मूलन से सम्बंधित नीतियों में काफी विरोधाभासनज़र आता है। तम्बाकू नियंत्रण नीतियाँ ओर तम्बाकू संवर्धन युक्तियाँ एक साथ ही विद्यमान प्रतीत होती हैं। एक ओर जहाँ सभी राष्ट्र तम्बाकू उपभोग को कम कराने के प्रयासों में कार्यरत हैं, वहीं दूसरी ओर तम्बाकू की खेती, तथा उसके पदार्थों के क्रय विक्रय को भी बढ़ावा दिया जा रहा है।
हाल ही में, मैं ‘ तम्बाकू अथवा स्वास्थ्य’ के १४ वें अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन में भाग लेने मुम्बई गयी थी। वहाँ एकवरिष्ठ लेखिका से मिलने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ। उन्होंने बातों बातों में जो कटु सत्य कहा वह अनेक समझदारव्यक्तियों की सम्मिलित राय को ही उजागर करता था । उनके अनुसार तम्बाकू उन्मूलन समस्या का बस एक हीउपाय है – तम्बाकू की खेती ही न की जाय और उसके उत्पादों (जैसे बीडी, सिगरेट आदि) के बनाने पर रोक लगादी जाय. न रहेगा बांस, न बजेगी बाँसुरी।
भारत उन १६४ राष्ट्रों में से एक है जिन्होनें विश्व स्वास्थ्य संगठन द्बारा प्रतिपादित ‘फ्रेमवर्क कन्वेंशन आन टुबैकोकंट्रोल’ (ऍफ़.सी.टी.सी.) संधि पर हस्ताक्षर किए हैं। यह विश्व की प्रथम सामाजिक उत्तरदायित्व एवं जन स्वास्थ्यसम्बन्धी संधि है। अत: वह इसमें निहित प्रावधानों को मानने के लिए बाध्य है। जैसा कि इस संधि में प्रस्तावित है, भारत को तम्बाकू उपभोग ओर तम्बाकू उत्पादन, दोनों ही पर रोक लगाने की दिशा में ठोस कदम उठाने होंगे।तम्बाकू के उत्पादन को कम करना नितांत आवश्यक है, क्योंकि तभी तम्बाकू उन्मूलन हो सकेगा।
हमारी सरकार ने तम्बाकू उन्मूलन की दिशा में जो ठोस कदम उठाये हैं, उन jaayसभी कानूनों का कठोरता सेपालन करना होगा। परन्तु इससे भी अधिक आवश्यक है इन उपायों का समर्थन करने के लिए ऎसी व्यापकनीतियों का निर्धारण करना, जिनका सीधा प्रभाव तम्बाकू की पैदावार ओर समस्त तम्बाकू पदार्थों (जैसे बीडी, सिगरेट, खैनी, गुटका, सुंघनी आदि) के उत्पादन पर पड़े। हमें यह नही भूलना चाहिए कि तम्बाकू सेवन का कोईभी तरीका सुरक्षित नही है। चाहे उसे सूँघा जाए, या चबाया जाय या कि उसका धूम्रपान किया जाय। वह हर रूप में, और हर मात्रा में हानिकारक है।
हमारी दोहरी तम्बाकू उन्मूलन नीति का मुख्य कारण माना जाता है तम्बाकू उगाने वाले किसानों एवं बीड़ी बनानेवाले मजदूरों की इस क्रिया पर आर्थिक निर्भरता, तथा राज्य सरकार को तम्बाकू से मिलने वाला राजस्व। परन्तुयदि इस समस्या पर गहन रूप से विचार किया जाय तो वास्तविकता कुछ और ही है। इन तथा कथित बाधाओं सेपार पाना उतना मुश्किल नही है, जितना हम सोचते हैं।
भारत में तम्बाकू की खेती को बहुत समय से राजकीय संरक्षण प्राप्त है। यह खेती ३६८.५ हज़ार एकड़ भूमि पर कीहै, जो सम्पूर्ण देश के बोये हुए क्षेत्र का मात्र ०.३% है। लगभग ३ -५ लाख किसान तम्बाकू की खेती में लगे हैं। यहखेती वर्ष भर में चार महीने ही की जाती है ओर कुछ ही राज्यों तक सीमित है। ९०% तम्बाकू की खेती आंध्र प्रदेश, कर्णाटक, गुजरात, महराष्ट्र ओर उडीसा में होती है। तम्बाकू के फसली क्षेत्र का ३५% भाग राज्य सरकार के टुबैकोबोर्ड के अर्न्तगत आता है, अत: राज्य सरकार सरलता से इस क्षेत्र में हस्तक्षेप कर सकती है।
तम्बाकू शोध केन्द्रों द्बारा करे गए अनेक प्रयोगों एवं अध्ययनों से पता चलता है कि तम्बाकू के स्थान पर अन्यवैकल्पिक फसलों को उगाया जा सकता है, जैसे सोयाबीन, मूंगफली, चना, मक्का,धान, सरसों, सूरजमुखी, कपास, गन्ना इत्यादि। इन फसलों से लगभग उतनी ही आमदनी होगी जितनी कि तम्बाकू की फसल से। इसके अलावा येसभी फसलें, पर्यावरण एवं स्वास्थ्य अनुरूप भी हैं। यह वास्तव में दुःख की बात है कि कुछ राज्यों में ज्वार, मक्का, रागी आदि का स्थान तम्बाकू की खेती ने ले लिया है। ये अनाज ग़रीबों का भोजन माने जाते रहे हैं, ओर अब तोइनकी स्वास्थ्य वर्धकता को देखते हुए, शहरी लोग भी इनका सेवन करने को इच्छुक रहते हैं। परन्तु ये बाज़ार मेंसरलता से उपलब्ध नही हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि तम्बाकू के स्थान पर किसी ओर स्वास्थ्यवर्धक फसल की खेती करने से किसानों कीआर्थिक दशा में सुधार ही होगा। हाँ, सरकार को उनकी सहायता अवश्य करनी पड़ेगी ताकि उन्हें समुचित तकनीकीजानकारी मिल सके, समय से बीज उपलब्ध हो सकें ,तथा वे अपनी फसल को सुचारू रूप से क्रय कर सकें।
इसके अलावा, देश के बाहर के क्षेत्रों से वैध तथा अवैध रूप से तम्बाकू उत्पादों की आपूर्ती को भी रोकना होगा।भारत में विदेशी सिगरेट एवं सिगार का लाभकारी बाज़ार है। अत: तम्बाकू पदार्थों के आयात पर, तथा तम्बाकू क्षेत्रमें प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश पर कड़े प्रतिबन्ध लगाने होंगें।
तम्बाकू उत्पादन के पक्ष में एक और जनवादी तर्क यह दिया जाता है कि करीब ४ लाख मजदूर (जिनमें दो तिहाईऔरतें हैं) बीड़ी बनाने के कार्य में लगे हैं और यही उनकी रोज़ी रोटी का एकमात्र साधन है। पर वास्तविकता तो यहहै कि सबसे अधिक शोषण बीड़ी मजदूरों का ही होता है, तथा उनमें से अधिकाँश ( ५०% से अधिक) को न्यूनतमवेतन तक नहीं मिलता। बीडी उद्योग ज़्यादातर असंगठित क्षेत्र में है. बीडी उद्योग के मालिक प्राय: राजस्व से बचनेके लिए ओर मजदूरों को न्यूनतम वेतन न देने के लिए बेईमानी के तरीके अपनाते हैं। इस उद्योग में बाल मजदूरभी बड़ी संख्या में कार्यरत हैं। नतीजा हम सभी के सामने है।
हाल ही में ‘वोलंटरी हेल्थ असोसिएशन आफ इंडिया (वी.एच ए.आई.) द्बारा मुर्शीदाबाद (पश्चिमी बंगाल) एवं आनंदगुजरात) के बीड़ी मजदूरों पर एक अध्ययन कर के उनकी शोचनीय ओर विपन्न आर्थिक ओर सामाजिक दशा कोउजागर किया गया है। इस अध्ययन के अधिकाँश प्रतिभागियों (७६%) को दिन भर में १२ घंटे काम करने ओर१००० बीडी बनाने के बाद मात्र ३३ रुपये मिलते हैं, जो ४० रुपये के दैनिक न्यूनतम वेतन से बहुत कम है। इसकेअलावा, इन मजदूरों को टी.बी., अस्थमा, फेफडे के रोग व चर्म रोग होने का खतरा बना रहता है। जो महिलायेंअपने शिशुओं को काम पर ले जाती हैं, उन शिशुओं को नन्ही सी उम्र में ही तम्बाकू की धूल ओर धुंआ झेलना पड़ताहै। जो बाल मजदूर इस काम में लगे हैं उनमें श्वास ओर चर्म रोग होना आम बात है। ये बच्चे ( खास करकेलडकियां) अक्सर परिवार की आय बढ़ाने के चक्कर में अपनी पढाई छोड़ कर बीडी बनाने के काम में ही लगे रहतेहैं।
इस अध्ययन के ९५% प्रतिवादी अपने वर्तमान पेशे से बिल्कुल खुश नहीं थे तथा जीवकोपार्जन का कोई दूसरासाधन अपनाना चाहते थे। हाँ, इसके लिए उन्हें बाहरी सहायता अवश्य चाहिए। (
रहा सरकार को राजस्व वसूली से होने वाले आर्थिक लाभ का सवाल, तो यहाँ भी तथ्य कल्पना के विपरीत ही हैं।हाल ही में किए गए एक अध्ययन की रिपोर्ट ‘ब्रिटिश मेडिकल जर्नल’द्बारा प्रकाशित ‘टुबैको कंट्रोल’ नामक पत्रिकाके जनवरी २००९ के अंक में छपी है। इस रिपोर्ट में २००४ के‘नॅशनल सैम्पल सर्वे’ के आंकडों का हवाला देते हुएबताया गया है कि, भारत सरकार को जितना धन करों के माध्यम से मिलता है, उससे कहीं अधिक रुपये वोतम्बाकू जनित बीमारियों के उपचार में खर्च कर देती है। सन २००४ में भारत में तम्बाकू उपभोग का सम्पूर्णआर्थिक व्यय $ १.७ खरब था, जो पूरे उत्पाद कर से मिलने वाले राजस्व ( $१.४६ खरब ) से १६% अधिक था। यहव्यय तम्बाकू नियंत्रण उपायों में खर्च करी गयी राशि से भी कई गुना अधिक था।
वैश्विक स्तर पर तम्बाकू उत्पादन १९६० के मुकाबले दुगना होकर सन २००६ में ७० लाख मीट्रिक टन तक पँहुचचुका था। इसका ८५% प्रतिशत भाग निम्न एवं मध्यम संसाधनों वाले देशों में पैदा होता है। अमेरिकन कैंसरसोसायटी द्बारा प्रकाशित ‘टुबैको एटलस’ में भी इस बात को माना गया है कि ‘तम्बाकू की खेती व्यापक पर्यावरणएवं जन स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं को जन्म देती है’। विश्व स्वास्थ्य संगठन भी इस तथ्य को मानता है कि इसखेती में इस्तेमाल होने वाले कीटनाशक / रासायनिक उर्वरक से जल संसाधन दूषित हो जाते हैं तथा तम्बाकू कीपत्ती को तर कराने में लकडी का ईंधन इस्तेमाल किया जाता है, जिसके चलते वनों का विनाश होता है। तम्बाकू केखेत में काम करने वाले मजदूर ( भले ही वे तम्बाकू का सेवन न करते हों) अनेक बीमारियों के शिकार होते हैं।
ऍफ़.सी .टी.सी का आह्वाहन है कि तम्बाकू खेतिहरों को उचित आर्थिक / तकनीकी सहायता प्रदान की जानी चाहिएताकि वे रोज़गार के दूसरे बेहतर साधन ढूंढ सकें। अकुशल बीड़ी मजदूरों के लिए भी, सार्वजनिक- निजी भागीदारीके तहत नए व्यवसाय जुटाने होंगें। अब समय आ गया है कि तम्बाकू उपभोग को कम कराने के साथ साथतम्बाकू उत्पादन पर भी रोक लगायी जाय। तम्बाकू नियंत्रण तब तक प्रभावी नहीं हो सकता जब तक उसकाउत्पादन धीरे धीरे पूर्ण रूप से समाप्त नहीं कर दिया जाता।
हमारे देश में प्रति वर्ष १० लाख व्यक्ति तम्बाकू के कारण मृत्यु का ग्रास बनते हैं। इसलिए एक योजना बद्ध एवंचरणबद्ध तरीके से तम्बाकू के उत्पादन को कम करना, हम सभी के हित में होगा। जो व्यक्ति अभी सिगरेट अथवाखाई जाने वाली तम्बाकू के उद्योग में कार्यरत हैं, उन्हें वैकल्पिक रोज़गार मिलने में अधिक परेशानी नहीं होगी।अधिकतर तम्बाकू पूंजीपति पहले ही भिन्न भिन्न व्यापारों को चला रहे हैं। कम्पनी के सामाजिक उतरदायित्व केचलते उन्हें अपनी ज़हर उगलने वाली इकाईओं को बंद करना ही होगा।
हमारे देश को इस दिशा में पहल करके समस्त विश्व का मार्गदर्शन करना चाहिए। तभी वह अपनी महानता कोवास्तविक रूप से सार्थक कर पायेगा।
शोभा शुक्ला
एडिटर,सिटिज़न न्यूज़ सर्विस